सैयद हैदर रज़ा: बिंदुओं की बंदिश के पार
भारतीय आधुनिकतावादियों की पहली पीढ़ी के रज़ा ने भारतीय रंग और रेखाओं के साथ आधुनिक ज्यामितीय आकारों और प्राकृतिक रंगों के अद्भुत समन्वय को अभिव्यक्ति दी.

भारतीय आधुनिकतावादियों की पहली पीढ़ी का जादू भारतीय कला पर पिछले छह दशकों से छाया रहा है. उनकी उम्र भी लंबी रही और लंबे समय तक उनका असर भी बरकरार रहा. 24 जुलाई को नई दिल्ली में 94 वर्षीय सैयद हैदर रज़ा की मौत के साथ पेंटिंग के एक और सितारे ने अलविदा कह दिया. रज़ा ने मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आट्र्स से बीए करने के बाद एम.एफ. हुसैन, तैय्यब मेहता, एच.ए. गाडे, एस. बक्रे और के.एच. आरा के साथ 1947 में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना की थी. आजादी के बाद, सदी के मध्य तक एक दलित, एक गोवन ईसाई और दो मुसलमानों समेत पांच लोगों के इस समूह ने नए उभरते राष्ट्र में आधुनिकता के बेहतरीन मूल्यों को अपने चित्रों के जरिए पेश किया. अपने लंबे करियर में इन आधुनिकतावादी चित्रकारों को कभी कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा, तो कभी लोगों ने तारीफों के पुल बांध दिए.
रज़ा ने ही पेंटिग में पहले आधुनिकता के रंग सजाए थे. मध्य प्रदेश के मंडला जिले में 1922 में जन्मे रज़ा एक रेंजर के बेटे थे और प्रकृति की गोद में उन्हीं बहुरंगी तत्वों के बीच पले-बढ़े, जो बाद में उनकी कूची से निकले. पेंटिंग की दिशा में बढ़ते उनके कदमों को मालूम था कि उन्हें कलाकारों की कम से कम दो पीढिय़ों का प्रकाश स्तंभ बनना है. बंटवारे के दौरान उनका परिवार पाकिस्तान चला गया, लेकिन वे यहीं रुक गए. इसी समय कश्मीर की वादियों के उनके चित्रों ने पेरिस की कला बिरादरी के साथ उनके जुड़ाव की बुनियाद रखी. प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की आधुनिक कला की बारीकियों को समझने की अकुलाहट के साथ रज़ा 1950 में पेरिस पहुंचे. कृष्ण खन्ना पहली प्रदर्शनी के बारे में बताते हैं जिसमें रज़ा, अकबर पद्मसी और एफ.एन. सूजा ने पेरिस की गैलरी क्रूज में अपने चित्र लगाए थे, ''सूजा और पद्मसी के चित्र अर्ध-आधुनिक शैली में थे, पर रज़ा ने मुगल काल का चित्र पेश किया था जिसमें वॉटर कलर में गहने उकेरे गए थे और शेल से रंगा गया था. रज़ा बेहद कामयाब थे. उनके चित्रों को बड़े संग्रहकर्ताओं ने खरीदा.''
पेरिस में अपने शुरुआती दौर में रज़ा ने अलग तरह की चित्रकारी कीरू काले सूरज तले सन्नाटे के साए में तन्हा शहर, हॉट डी. कैग्ने (1951), जलते पेड़-पौधों के बीच ढहते घर जैसी पेंटिंग के साथ उनकी कूची की अद्भुत प्रतिभा का जादू छाने लगा था. 1956 में उन्हें प्रतिष्ठित प्रि डी ला क्रिटिक से सम्मानित किया गया. यह पल भारत की छोटी लेकिन कला के बेहद महत्वपूर्ण दौर का संकेत था. '50 के दशक में पेरिस में बसने के बाद रज़ा एक भारतीय कलाकार की अंतरराष्ट्रीय कामयाबी के प्रतीक बन चुके थे, जो हुसैन, राम कुमार, कृष्ण खन्ना और युवा कलाकारों की नई पौध को सुझाव और मेहमाननवाजी दोनों पेश करते रहे.
'60 के दशक के आखिरी दौर और '70 के दशक की शुरुआत में रज़ा की चित्र शैली में विविध संस्कृतियों और शैलियों का मनोहर संयोग दिखाई देता है. उनकी जन्मभूमि मंडला फ्रांस के गॉरबायोइन में उनके मकान के साथ एक नए रूप में ढल जाती है और कैनवस पर भारतीय तंत्र प्रतीकों और अंतरराष्ट्रीय ज्यामितीय आकारों का एक बहुरंगी मेल पेश होता है.
इस मेल के पीछे की कहानी कुछ ऐसी है. मंडला में उनके शिक्षक ने पढ़ाई में मन को एकाग्र करने के लिए उन्हें दीवार पर एक बिंदी पर ध्यान केंद्रित करना सिखाया था. वर्षों बाद, उस बिंदी ने ब्रह्मांड के काले सूर्य और बिंदु के रूप में विस्तार कर लिया. उनके अमूर्त चित्र में पेश रूसी चित्रकार निकोलस डी स्टेल से प्रेरित लचीली रेखाओं ने गोल घेरे, वर्ग और उलटे त्रिकोण आकारों की उनकी खास चित्र शैली की राह तैयार की, जिसमें उनके दोनों ही प्रेरणास्रोतों की झलक है, जिन्हें वे श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे. यह एक शाश्वत भाषा है जिसमें बिंदु एक प्लास्टिक स्वरूप है जो बीज से ब्रह्मांड तक पैमाने और प्रतीक के व्यापक काव्य को व्यक्त करता है. रज़ा के करीबी और सहयोगी, प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में से एक कृष्ण खन्ना कहते हैं, ''उनकी अभिव्यक्ति बेदाग थी. वे वास्तव में इस देश के सच्चे बेटे थे.''
'90 के दशक में रज़ा ने अपनी जन्मभूमि से उठाए प्रतीकों को रंगों में सजाया. बुनियादी सिद्धांतों के रूप में गोल घेरे? सूरज, वर्ग और त्रिकोण के साथ उनके कदम भारतीय चित्रकारी की उनकी पसंदीदा शैली मंडल, कुंडलिनी या नाद और चमकदार रंगों की पृष्ठभूमि में कविता और वाक्यों के इस्तेमाल की ओर बढ़ी. उन्होंने एक्रिलिक रंगों का इस्तेमाल किया, जो जल्दी सूखते हैं और बड़ी संख्या में चित्र बनाए. रज़ा को वर्ष 1997 में कालिदास सम्मान और 2013 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया.
पेरिस में 60 साल रहने के बाद रज़ा अपनी पत्नी जैनी की मौत के बाद भारत लौट आए. 80 साल का यह बुजुर्ग कलाकार अपने चित्रों में अंतहीन बढ़ते गोलाकार घेरों की तरह अपने वजूद से परे पहुंच जाता था. पिछले दशक में रज़ा फाउंडेशन में पहुंचने वाला शख्स उन्हें अपने कैनवस के सामने बैठा पाता. सूरज की बाहरी रेखाएं कांप रही होतीं, फिर भी एक दृढ़ता बरकरार रहती. इन्हीं वर्षों में रज़ा ने रज़ा फाउंडेशन (2001) की नींव रखी. मशहूर कवि अशोक वाजपेयी इस संस्थान को चला रहे हैं, जो सार्वजनिक क्षेत्र में विचारकों, कलाकारों और लेखकों को सहयोग करने वाली अकेली पहल है. मध्य प्रदेश के युवा कलाकार रज़ा की अमूर्त शैली की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं.