भारत @2025: 48 महीने बाद भारत-चीन के बीच हुई नए युग की शुरुआत; आशंकाएं फिर भी कायम हैं
चीन को लेकर हमारे लिए आगे की सबसे बड़ी चिंता यह होनी चाहिए कि ड्रैगन किस तरह से भारत पर औद्योगिक 'प्रतिबंध' लगा रहा है. उन्हें इस बात की चिंता है कि भारत आने वाले समय में वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग केंद्र के रूप में उनकी जगह बना सकता है

अड़तालीस महीनों से ज्यादा समय तक तनावपूर्ण रहने के बाद पूर्वी लद्दाख के विवादित इलाकों में सैन्य बलों की वापसी पर भारत और चीन के बीच बातचीत का सफल समापन उस प्रक्रिया की शुरुआत है, जो उम्मीद है कि सीमा विवाद को संभालने के लिए नई व्यवस्था को जन्म देगी.
पूर्वी लद्दाख में व्यापक तनाव कम करने के लिए बातचीत करने में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों के अलावा शांति और सौहार्द के लिए एक नए ढांचे, जो समान और आपसी सुरक्षा की गारंटी देता है, पर आपसी सहमति की दिशा में काम करना भी आने वाले साल में प्राथमिकता होगी.
यह काम वास्तविक विश्वास के अभाव में मुश्किल लग सकता है, लेकिन इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए दोनों पक्षों में परिपक्व नेतृत्व मौजूद है. सीमा पर इस तनाव की वजह से वाणिज्य और संपर्क सहित अन्य क्षेत्रों में संबंधों को सामान्य बनाना भी संभव हुआ है. लेकिन गलवान की घटना से जो घाव लगे हैं, उन्हें भरना तब तक मुश्किल हो सकता है.
जब तक भारत यह नहीं देख लेता कि चीन सभी क्षेत्रों में एलएसी की पवित्रता का सम्मान करता है. तब तक, विदेश मंत्री एस. जयशंकर के शब्दों में, पूर्वी लद्दाख संकट भारत को आर्थिक निर्णय लेने में राष्ट्रीय सुरक्षा फिल्टर लागू करने की अधिक संभावना देता है. हालांकि इस विचार को परिभाषित करना और विशिष्ट नीति में लागू करना चुनौती हो सकती है.
कागज पर 80 अरब डॉलर से ज्यादा का व्यापार घाटा राजनैतिक चिंता है, लेकिन निर्भरता को कम करने के मौजूदा विकल्प सीमित हैं. इसके अलावा, भारत के फार्मास्यूटिकल्स और टेक्सटाइल कुछ स्टार निर्यातकों चीनी मशीनरी, कच्चे माल या मध्यस्थ उत्पादों पर निर्भर हैं. ऐसे क्षेत्रों में व्यापार घाटे को खत्म करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने के बराबर हो सकता है.
व्यापार असंतुलन और चीन से एफडीआइ पर प्रतिबंधों से निबटने के लिए उद्योग की चिंताओं को ध्यान में रखने वाली एक सूक्ष्म नीति अर्थव्यवस्था की जरूरत है. चीन के साथ व्यापार करने में आसानी, जिसकी बाजार को उम्मीद है, का मतलब है कि सीधी कनेक्टिविटी की जल्द बहाली और साथ ही यात्रा व्यवस्थाओं का उदारीकरण.
आगे की सबसे बड़ी चिंता यह होनी चाहिए कि चीन किस तरह से औद्योगिक 'प्रतिबंध' लगा रहा है. यह उनकी चिंता से उपजा है कि भारत अगले वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग केंद्र के रूप में उनकी जगह लेना चाहता है. यह चिंता एप्पल के भारत में सफल ट्रांजिशन से और बढ़ गई है. चीन चाहता है कि भारत उसकी आपूर्ति शृंखला का एक अभिन्न अंग बने न कि उसका विकल्प बने. इस रणनीतिक उद्देश्य को हासिल करने के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है. प्रमुख औद्योगिक मशीनरी, जैसे कि बुनियादी ढांचे या अपतटीय तेल निकालने वाले उपकरणों के लिए जरूरी सुरंग खोदने वाली मशीनरी, के निर्यात को एक विदेशी गणमान्य व्यक्ति ने 'असाधारण परिस्थितियों' के रूप में वर्णित किया है.
चीन के सीमा शुल्क अधिकारी इसकी भारत में डिलीवरी में बाधा डाल रहे हैं. फार्मास्युटिकल या सौर ऊर्जा क्षेत्र जैसे अन्य मामले जिनमें सरकार की पीएलआइ योजनाएं मध्यवर्ती उत्पादों के लिए वैकल्पिक आपूर्ति शृंखलाएं बना रही हैं, वे भारतीय नीति को विफल करने के लिए शिकारी (प्रीडेटरी) मूल्य निर्धारण प्रथाओं का सहारा ले रहे हैं. फिर, बाजार में ऐसी अफवाहें हैं कि चीन ने लिथियम-आयन ईंधन सेल के निर्माताओं की ओर से टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण को विशेष रूप से अस्वीकार कर दिया है.
ये सेल इलेक्ट्रिक मोबिलिटी वैल्यू चेन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि भारतीय ईवी उद्योग चीन पर अत्यधिक निर्भर रहे. दुर्लभ पृथ्वी संसाधनों पर बाजार हिस्सेदारी नियंत्रण के साथ-साथ उन्हें निकालने और प्रसंस्करण के संयोजन के माध्यम से भारत को महत्वपूर्ण खनिज निर्यात को प्रतिबंधित करना, और पवन, सौर और ईवी उद्योगों में भारत के स्वदेशीकरण प्रयासों में देरी करने के उद्देश्य से सख्त निर्यात नियंत्रण लगाना निकट भविष्य की ऐसी संभावना है जिस पर बारीकी से नजर रखने की जरूरत है.
इस पेचीदा और अघोषित जोर-जबर के लिए सरकार और उद्योग दोनों की ओर से ठोस कार्रवाई की जरूरत होगी. चीन पर निर्भरता कम करने के लिए वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं के विस्तार और विविधीकरण के लिए व्यापार साझेदारी के बारे में अधिक खुले दिमाग की जरूरत है. सरकार एकल-स्रोत निर्भरता को कम करने और महत्वपूर्ण घटकों और उत्पादों के वैकल्पिक उत्पादकों को तैयार करने के लिए क्वाड जैसे कंसोर्शियम का निर्माण कर रही है या खनिज सुरक्षा भागीदारी जैसे तंत्रों में शामिल हो रही है. लेकिन अभी तक इसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है.
चीनी प्रौद्योगिकी के इनकार से उत्पन्न समान चुनौतियों का सामना कर रहे विकसित देशों के साथ परियोजना-विशिष्ट सहयोग, विशेष रूप से हरित विकास क्षेत्रों में, समय की मांग है. निकेल और कोबाल्ट को निकालने और शोधन में रूस के साथ भारत के संबंधों का भी लाभ उठाया जाना चाहिए, क्योंकि उसके पास दुर्लभ पृथ्वी के विशाल संसाधन हैं.
भारत को अपने स्वयं के उद्योग को प्रौद्योगिकी सहयोग के माध्यम से दुर्लभ पृथ्वी को परिष्कृत करने की क्षमता स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करने की भी जरूरत है, जिस पर वर्तमान में चीन का लगभग एकाधिकार है. भारतीय बाजार में प्रवेश करने में चीन की मजबूत व्यावसायिक रुचि का लाभ प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए उठाया जाना चाहिए.
उन्हें अग्रणी शक्ति बनने के लिए भारत के बढ़ते बाजार की जरूरत है, और स्पष्ट संदेश यह होना चाहिए कि वे भारत के आर्थिक विकास और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण उपकरणों और प्रौद्योगिकी के व्यापार में बाधा डालकर ऐसा नहीं कर सकते. भारत के बाजार तक पहुंचने का रास्ता पारस्परिक लाभ से होकर जाता है.
पास-पड़ोस में प्रतिस्पर्धा तेज होगी. श्रीलंका और बांग्लादेश, बेल्ट-ऐंड-रोड लाभों को सुरक्षित करने के लिए अपनी भू-रणनीतिक स्थिति का लाभ उठाने में मालदीव और नेपाल का अनुसरण करेंगे. सरकार ने समझदारी से पड़ोसियों के साथ पारस्परिक रूप से लाभप्रद क्षमता-निर्माण और संपर्क पर ध्यान केंद्रित किया है. ब्रिक्स और अन्य बहुपक्षीय मंचों में चीन के साथ सीमित सहयोग भी संभव है क्योंकि दोनों ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे आगमन की अनिश्चितताओं से निबटते हैं.
भारत की ओर से अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, आरओके और दक्षिण-पूर्व एशियाई राज्यों के साथ मजबूत संबंध बनाने में अपनाई गई हेजिंग रणनीति, जो इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के बारे में चिंताओं को साझा करती है, ने इसके सुरक्षा हितों की अच्छी तरह से सेवा की है. वाशिंगटन, सियोल और टोक्यो में हाल के राजनैतिक घटनाक्रमों के बावजूद यह आगे बढ़ेगा.
इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि 2025 में एलएसी पर शांति और सौहार्द कायम रहेगा. चीन को अभी भी लगता है कि ग्रे जोन युद्ध भारत पर बिना किसी गंभीर प्रतिक्रिया के बंधन लगाने का एक सस्ता विकल्प है. चीन से निबटने के लिए बातचीत और रोक की नीति को दोहरा दृष्टिकोण बनाए रखना चाहिए.
आपूर्ति शृंखला विविधीकरण को युद्ध स्तर पर आगे बढ़ना चाहिए और उद्योग-संचालित अनुसंधान और विकास को पर्याप्त वित्तीय सहायता दी जानी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारत का हरित एजेंडा चीनी आर्थिक कार्रवाई का बंधक न बने. व्यापार रक्षा उपायों से अर्थव्यवस्था पटरी से नहीं उतरनी चाहिए. और, सरकार को चीन के साथ दीर्घकालिक प्रतिस्पर्धा के लिए नागरिकों को बेहतर ढंग से शिक्षित और तैयार करने की योजना बनाने की जरूरत है.
विजय गोखले पूर्व विदेश सचिव और चीन में राजदूत चुके हैं.