"एक बार फिर से फिक्शन की ओर लौटा जाए"

लेखक अमिताभ घोष अपने नए गद्य संग्रह 'वाइल्ड फिक्शन' में लेकर आए पिछले 25 साल में लिखे चुनिंदा निबंध. इस बारे में उन्होंने इंडिया टुडे हिंदी से बातचीत में क्या-क्या बताया

अमिताभ घोष, लेखक
अमिताभ घोष, लेखक

आपने नॉन-फिक्शन रचनाओं के संग्रह के लिए 'वाइल्ड फिक्शन' नाम क्यों चुना?

इनमें कई निबंध इस पर हैं कि कुछ कहानियां कैसे हमारे आसपास के परिवेश के बारे में हमारी समझ को गढ़ती हैं और उसके साथ हमारा संवाद रचती हैं. मैंने यूरोप में ज्ञानोदय के बाद 'प्रकृति' को लेकर उभरे दृष्टिकोण पर एकदम अलग राय सामने रखी. इसे इंसानी दुनिया से पूरी तरह अलग मानते हुए मैंने इसकी तुलना उन लोगों के बिल्कुल अलग नजरिए से की है जो जंगलों, नदियों और महासागरों के निकट रहते हैं.

क्या कोई व्यापक विषय इन निबंधों को आपस में जोड़ता है?

उनमें से अधिकांश में एक विषय समान रूप से चलता जाता है, और वह है पिछले 300 वर्षों की यात्रा में वक्त के साथ आते बदलावों का गवाह बनना. यह 18वीं शताब्दी में शुरू हुए एक युग के बीतने का इतिहास लिखने जैसा है.

बतौर लेखक इस वक्त आपकी सबसे बड़ी चिंता क्या है?

एक बार जब आप यह बात समझ जाते हैं कि पृथ्वी एक अभूतपूर्व और बहुआयामी संकट की चपेट में है, तो आप इसे अनदेखा नहीं कर सकते. जलवायु परिवर्तन इस संकट का एक बड़ा कारण है. इसके अलावा जैव विविधता खत्म होने, नए रोगाणुओं के जन्म लेने, भू-राजनीतिक उथल-पुथल से भी यह संकट व्यापक तौर पर बढ़ रहा है. अब मैं जो कुछ भी लिखता हूं, वह इसे लेकर जागरूकता पर केंद्रित होता है.

क्या कुछ ऐसे निबंध भी हैं जो आपको विशेष तौर पर पसंद हों?

इनमें तीन ऐसे बंगाली दस्तावेजों पर आधारित हैं, जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मेसोपोटामिया अभियान में शामिल चिकित्साकर्मियों ने लिखे थे. उन्हें लिखना बहुत फायदेमंद रहा, कुछ हद तक इसलिए क्योंकि उनके स्रोत मेरे पहले इस्तेमाल किए स्रोतों से बहुत अलग थे. और कुछ इसलिए भी क्योंकि मैंने उन्हें मूलत: ब्लॉग पोस्ट के तौर पर लिखा था.

आप इस समय और क्या कर रहे हैं?

मैं एक उपन्यास पर काम कर रहा हूं. मैंने पिछले कुछ वर्षों में बहुत सारे नॉन-फिक्शन लेख लिखे हैं, इसलिए अच्छा है कि एक बार फिर से फिक्शन की ओर लौटा जाए.

—अमित दीक्षित.

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