बातचीतः भारत में दूसरी लहर लंबी खिंचने को लेकर मैं चिंतित हूं

जेनेवा स्थित विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की मुख्य वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामीनाथन ने इंडिया टुडे के ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा से कोविड की दूसरी लहर से निबटने और दूसरे देशों से सबक सीखने के बारे में बात की. बातचीत के प्रमुख अंश:

डॉ. सौम्या स्वामीनाथन
डॉ. सौम्या स्वामीनाथन

जेनेवा स्थित विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की मुख्य वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामीनाथन ने इंडिया टुडे के ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा से कोविड की दूसरी लहर से निबटने और दूसरे देशों से सबक सीखने के बारे में बात की. बातचीत के प्रमुख अंश:

● आपकी राय में भारत में दूसरी लहर अपने चरम पर कब तक पहुंचेगी और कब नीचे की तरफ जाना शुरू करके उस स्तर पर पहुंचेगी जब उसे काबू में किया जा सकेगा?

इस बारे में मैं कोई निश्चित तारीख या गिनती नहीं बता सकती हूं क्योंकि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कोशिश किस तरह की जा रही है. अगर दो हफ्ते के लिए राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लागू कर दिया जाए तो शायद इस लहर को रोक कर कुछ हद नीचे की तरफ ले जाने में मदद मिल सकती है. इस समय तो यह ऊपर की तरफ ही बढ़ती जा रही है. पिछले साल के उलट, यह वायरस कुछ ही राज्यों तक सीमित नहीं है, यह सभी जगह पहुंच चुका है. कठोर कदम न उठाए गए तो यह लंबे समय तक ऊपर बढ़ती रह सकती है.

दूसरे देशों ने दूसरी लहर का सामना कैसे किया और हम उनके अनुभवों से क्या सबक ले सकते हैं?

मिसाल के तौर पर ब्रिटेन में लहर बिल्कुल साफ देखी जा सकती थी—यह ऊपर की तरफ लगातार बढ़ती जा रही थी, लेकिन जब लॉकडाउन लगा दिया गया तो यह नीचे आ गई. हालांकि उन्होंने जनवरी में सख्त कदम उठाए थे और लॉकडाउन को तब तक लागू किए रखा जब तक कि अधिकांश जनसंख्या का टीकाकरण नहीं कर दिया गया.

अब ब्रिटेन में जब लॉकडाउन में ढील दे दी गई है तो संभावना यही है कि वहां दूसरी कोई बड़ी लहर नहीं आने वाली. अमेरिका एक बड़ा देश है, वहां पहली लहर वास्तव में कभी नीचे नहीं गई थी. यह कहीं मध्य में ही ठहर गई थी. तभी वहां दूसरी लहर भी आ गई. इसकी वजह से कोविड के मामले चरम पर पहुंच गए और यह हर रोज 50,000 मामलों तक जाकर कहीं रुक गया है, जिसे कतई कम नहीं कहा जा सकता.

लेकिन इसके साथ ही अमेरिका में बड़ी संख्या में लोगों का टीकाकरण किया जा रहा है, इसलिए अस्पतालों में भर्ती होने वालों और मृतकों की संख्या की दर घट रही है. हो सकता है धीरे-धीरे मामले कम हो जाएं. ब्राजील में पैटर्न बिल्कुल अलग है. यह चरम पर पहुंच जाता है, फिर थोड़ा सा कम हो जाता है, लेकिन तभी दूसरी जगहों पर फिर से बढ़ जाता है.

तो क्या भारत भी ब्राजील की राह पर जा रहा है?
मैं इस बात को लेकर चिंतित हूं, ब्राजील की तरह ही यहां भी यह बीमारी लंबे समय से बनी हुई है. दिल्ली और महाराष्ट्र की हालत में भले ही सुधार हुआ है, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और दक्षिणी राज्यों में मामले अभी चरम पर जा सकते हैं जहां अब लॉकडाउन लागू किया जा रहा है. इस तरह आप ऐसी स्थिति में पहुंच सकते हैं जहां मामले एक बार नीचे जाएंगे और फिर दोबारा ऊपर जाएंगे लेकिन कभी नियंत्रण में नहीं होंगे.

इसलिए हमें राष्ट्रीय स्तर पर तालमेल बनाकर कोई रणनीति बनानी होगी जैसा कि पहली लहर के समय किया गया था. हमारी स्पष्ट नीति होनी चाहिए कि कब लॉकडाउन लगाया जाए और कब, किस ढंग से उसे हटाया जाए. इसके अलावा लोगों तक यह जानकारी पहुंचनी चाहिए ताकि लोग समझ सकें कि यह क्यों जरूरी है.

हम शुरू में ही दूसरी लहर का पता लगाने में विफल क्यों हुए?

इसका पता लगाने का एक तरीका लोगों की आवाजाही या गतिशीलता है. मोबाइल फोन की वजह से अब वैश्विक स्तर पर इसे पकड़ पाना संभव है. भारत में यह गतिशीलता नवंबर तक बहुत कम थी पर उसके बाद यह अनियंत्रित ढंग से कोविड से पहले वाली स्थिति में लौट आई. एक दूसरा कारण यह भी था कि सांस संबंधी संक्रमण और इंफ्लूएंजा के मामलों में इजाफे पर निगरानी रखने में हम सफल नहीं रहे.

इसके अलावा मास्क पहनना और बचाव के दूसरे तरीकों की पूरी तरह से अनदेखी कर दी गई. सामाजिक मेलजोल सामान्य दिनों की तरह शुरू हो गया. फरवरी और मार्च के शुरू में हमें इसका संकेत मिल जाना चाहिए था. आप रातोरात एक से 20 पर तो पहुंच नहीं जाते. आप तब प्रयास शुरू करते हैं जब देखते हैं कि मामले तेजी से बढऩे लगे हैं.

कोविड-19 के नए रूपों का पता लगाने के बारे में क्या कहेंगी?

इसकी लहर के बारे में कोई सूचना नहीं होती है. लेकिन इसके नए रूपों पर नजर रखना बहुत जरूरी है क्योंकि ये एक-दूसरे से अलग तरीके से आचरण करते हैं. इसलिए आपको केवल डेटा की सीक्वेंसिंग ही नहीं करनी है बल्कि क्लीनिकल और महामारी संबंधी डेटा भी जुटाना होगा ताकि पता लगाया जा सके कि कोविड का नया प्रतिरूप क्या अलग तरह से आचरण कर रहा है?

ब्रिटेन ने अपने यहां मिलने वाले नए प्रतिरूप (वैरिएंट) के मामले में शानदार तरीके से मैपिंग की और उसका वर्गीकरण किया. जल्दी यह प्रतिरूप दुनिया भर में हावी हो गया. भारत का प्रतिरूप विश्व भर में चिंता का विषय बन गया है. सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि ऐसे प्रतिरूप भी सामने आ सकते हैं जो शरीर में टीकों के जरिए बनाए गए या संक्रमण के कारण बन चुके ऐंटीबॉडी को भी बेअसर कर सकते हैं.

नए वैरिएंट, जिनमें भारतीय वैरिएंट भी शामिल हैं, वुहान वायरस के खिलाफ बनाए गए टीकों की क्षमता पर कितना असर डाल सकते हैं.

बात यह है कि भले ही एक, दो या उससे अधिक जगहों पर अलग-अलग वैरिएंट हों, टीके से आपके अंदर एक मजबूत प्रतिरोधकता पैदा हो जाती है जो सभी प्रतिरूपों के खिलाफ काम कर सकती है. शरीर की टी सेल प्रतिरोधकता वास्तव में बहुत ताकतवर होती है. यह लंबे समय तक काम करती है जैसा कि हाल के अनुसंधानों में इस तरह के कोरोना वायरसों के अध्ययन में पाया गया है. इसलिए शायद बहुत-सी वैक्सीन, जिनमें कोविशील्ड और कोवैक्सीन भी शामिल हैं, ऐसी जगहों पर भी काम कर रही हैं जहां अलग-अलग तरह के वैरिएंट फैले हुए हैं.

18 साल की उम्र से ऊपर के सभी लोगों का टीकाकरण करने की भारत सरकार की नई नीति के बारे में आपकी क्या राय है?

डब्ल्यूएचओ ने प्राथमिकता के मामले में बहुत स्पष्ट रूपरेखा बनाई थी जिसे भारत ने अपनाया भी था—इसमें सबसे पहले उन लोगों को प्राथमिकता दी गई थी जिन्हें सबसे ज्यादा खतरा था, जैसे कि स्वास्थ्यकर्मी, सीधे संपर्क में रहकर में काम करने वाले कर्मी और वृद्ध लोग जो बीमारी की गिरफ्त में जल्दी आ सकते थे. इसके बाद धीरे-धीरे कम उम्र वालों को प्राथमिकता की सूची में शामिल किया गया था.

अब यह 18 साल से ऊपर की उम्र वालों के लिए भी खोल दिया गया है. लेकिन भारत को इस बात के लिए सावधान रहना होगा कि ज्यादा खतरे वाले समूहों को अब भी प्राथमिकता मिलनी चाहिए. भारत को यह भी सुनिश्चित करने की जरूरत है कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में समान रूप से टीकों का वितरण किया जाए. साथ ही गरीब और अमीर में किसी तरह का भेद न किया जाए. भारत में जब तक टीकों का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में बढ़ नहीं जाता तब तक सबसे ज्यादा जरूरतमंद समूहों को टीका उपलब्ध कराना जरूरी है.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और कुछ यूरोपीय देशों ने वैक्सीन के मामले में पेटेंट खत्म किए जाने की बात की है ताकि दुनिया भर में इनका उत्पादन बढ़ाया जा सके. क्या इससे फायदा होगा?

मैं समझती हूं कि दूसरी दवाइयों के विपरीत वैक्सीन का उत्पादन केवल पेटेंट हटाने से नहीं बढ़ाया जा सकता. यह केवल पहला कदम साबित हो सकता है. इसके लिए तकनीक का हस्तांतरण भी करना होगा, खासकर अगर आप नई तकनीक की बात करें, जैसे कि एमआरएनए वैक्सीन, जिनका उत्पादन आसान नहीं. इसलिए पेटेंट हटाना प्रतीकात्मक रूप से उम्दा कदम हो सकता है पर इसके साथ दूसरे कदम भी उठाने होंगे.

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