बॉलीवुड में 6 दशकों तक राज करने वाले ही-मैन धर्मेंद्र की कहानी

धर्मेंद्र के सिर्फ अच्छे चेहरे-मोहरे ने ही नहीं बल्कि छह दशकों तक बतौर कलाकार हर किरदार में ढल जाने की उनकी खूबी ने भी उनको बॉलीवुड लेजेंड अभिनेता के तौर पर स्थापित किया है

धर्मेंद्र (फाइल फोटो)
धर्मेंद्र (फाइल फोटो)

मुझे कैमरा पसंद है और कैमरा मुझे पसंद करता है.’’ यह लाइन धर्मेंद्र अक्सर दोहराते थे लेकिन उनके कहने का तरीका हमेशा ऐसा होता कि कतई नहीं लगता कि वे खुद को बड़ा दिखाने की कोशिश कर रहे हों. 

जाहिर तौर पर, कैमरा उन्हें पसंद करता था. अपने देसी मगर माचो लुक्स की वजह से उन्हें दुनिया के सबसे हैंडसम इंसानों में शुमार किया गया. लेकिन उनकी परिभाषा सिर्फ इतनी ही नहीं थी. वे हर किरदार के अनुरूप ढल सकते थे. शायद उन्हें मेथड ऐक्टर नहीं कहा जा सकता.

लेकिन किरदार चाहे कोमल हृदय के व्यक्ति का हो, गुस्सैल का, या शरारती मसखरे का, वे सब इतने स्वाभाविक तरीके से निभाते कि आलोचकों के लिए उंगली उठाना संभव नहीं हो पाता. रही बात दर्शकों की तो उन्हें तो अपने पसंदीदा अभिनेता में कोई कमी नजर ही नहीं आती थी. 65 वर्षों तक 300 फिल्मों में उन्हें देखते-देखते वे जरा भी नहीं ऊबे थे.

चाहे वह बंदिनी (1963) में एक युवा डॉक्टर का किरदार हो, जो उनकी शुरुआती खास भूमिकाओं में से एक था, या शोले (1975) का गबरू जवान, जिसके पानी की टंकी के ऊपर चढ़कर नशे में लड़खड़ाते हुए बोले गए डायलॉग आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े हैं, धर्मेंद्र सचमुच सबकी आंखों का तारा थे.

बंदिनी में धर्मेंद्र

उनके प्रति दीवानगी स्त्री और पुरुष के भेद के परे थी. जहां उनकी आंखों और 'पल पल दिल के पास’ या 'आज मौसम बड़ा बेईमान है’ जैसे क्लासिक गानों पर इमोशनल लिप-सिंकिंग पर महिलाएं उन पर जान छिड़कती थीं, वहीं मर्दों को उनका रफ ऐंड टफ अंदाज बेहद भाता था. वे मुख्यधारा के पहले ऐसे एक्टर थे जिन्होंने पहली बार शर्टलेस सीन किया (फूल और पत्थर) और किसी ने आपत्ति नहीं जताई.

लेकिन जिस बात पर अक्सर गौर नहीं किया गया वह है कि एक डायरेक्टर के लिए वे कच्ची मिट्टी के घड़े की तरह लचीले थे. पंजाब के लुधियाना जिले के साहनेवाल गांव के मुंडे के अलावा कौन बिमल रॉय जैसे महान फिल्मकार को प्रभावित या ऋषिकेश मुखर्जी को प्रेरित कर सकता था!

बिमल रॉय ने जहां हमें बंदिनी में धर्मेंद्र  के व्यक्तित्व का संवेदनशील, सौम्य पहलू दिखाया तो ऋषिकेश ने उनके हल्के-फुल्के रोमांटिक अंदाज (अनुपमा) और बेहतरीन कॉमिक टैलेंट (चुपके चुपके) को सामने रखा. धर्मेंद्र की शरारत, समझदारी और उत्साह से भरी परफॉर्मेंस ने इस फिल्म को बार-बार देखने लायक क्लासिक बना दिया. वे गंभीर किरदार को भी इतने ही स्वाभाविक तरीके से निभा सकते थे. सत्यकाम (1969) का नेकदिल सत्यप्रिय खुद उनका पसंदीदा किरदार रहा.

एक टीस जो रह गई
धर्मेंद्र को कभी बेस्ट ऐक्टर का अवॉर्ड नहीं मिला. आखिरकार, जब उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला भी तो लाइफटाइम अचीवमेंट सम्मान था. इस मौके पर बिना किसी लाग-लपेट के उन्होंने अपने मन की बात रखी. उन्होंने बताया कि कैसे हर साल नामित होने पर वह नया सूट ऑर्डर करते और मैचिंग टाई तलाशते, क्योंकि उन्हें उम्मीद होती थी कि इस बार तो उन्हें अवॉर्ड जरूर मिलेगा.

यह ऐसा भाषण था जिसने दिखाया कि बनावटीपन उनके डीएनए में ही नहीं है. हालांकि उनकी साफगोई राजनीति में आड़े आती रही जब वे बीकानेर से भाजपा के सांसद (2004-09) रहे. शर्मिला टैगोर ने धर्मेंद्र  के बारे में कहा था, ''वे किसी स्टार की तरह व्यवहार नहीं करते थे. जो दिल में होता था, कह देते थे.’’

एक 'अच्छे खिलाड़ी’ रहे धर्मेंद्र  एडवेंचर के शौकीन भी थे. अपने लुक्स पर पूरा भरोसा करके उन्होंने खुशी-खुशी ऐसे कई किरदार भी किए जो भले ही उतने खूबसूरत न दिखते हों. उन्होंने 'सरे बाजार करेंगे प्यार’ गाने (कातिलों के कातिल) में गहरी लाल लिपस्टिक लगाई और गाउन पहना और रज़िया सुल्तान में हेमा मालिनी (जो बाद में उनकी दूसरी पत्नी बनीं) के अबीसीनियाई गुलाम/प्रेमी का किरदार निभाने के लिए चेहरा काला कर लिया.

धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन के साथ शोले

और हां, मनमोहन देसाई की फैंटेसी ऐक्शन फिल्म धरम वीर  में उनकी स्कर्ट कौन भूल सकता है, जिसे पहन उन्होंने अपनी टांगें पूरे आत्मविश्वास से दिखाईं. आज भी सबसे बेहतरीन वॉर ड्रामा में से एक हकीकत (1964) से लेकर शोले और लोहा और हुकूमत (दोनों 1987) जैसी ’80 के दशक की ऐक्शन फिल्मों तक, वे कभी दूसरे स्टार्स के साथ स्क्रीन साझा करने से कभी नहीं डरे. न ही कभी-कभार कैमियो करने से कोई परहेज किया, जैसे गुड्डी में उन्होंने एक ऐसे सेलिब्रिटी ऐक्टर का किरदार निभाया जिस पर फिल्म की नायिका जान छिड़कती है.

किसान-हेडमास्टर केवल कृष्ण देओल के बेटे धर्मेंद्र ऐक्टर बनने का अपना सपना पाले फिल्मफेयर-यूनाइटेड प्रड्यूसर्स टैलेंट हंट का एक विज्ञापन देखकर फिल्म नगरी में आए थे, जिसमें गुरु दत्त और बिमल रॉय जज थे. वे दूसरे नंबर पर रहे और एक बड़े ब्रेक का इंतजार किया. 1960 में जब उन्होंने डेब्यू किया, तब तक उनकी शादी प्रकाश कौर से हो चुकी थी और उनके चार बच्चों (सनी, विजेता, अजीता और बॉबी) में पहले का जन्म हो चुका था. हेमा मालिनी से उनकी दो बेटियां एशा और अहाना हैं.

धरम वीरः शबाना आजमी के साथ रॉकी और रानी की प्रेम कहानी

बरकरार रहा जादू अस्सी के दशक के मध्य तक धर्मेंद्र अधेड़ उम्र के हो चुके थे लेकिन मर्दाना छवि में बी-मूवी सर्किट में हर किसी को मात देते थे. बढ़ती उम्र में भी उन्होंने ऐक्शन हीरो के तौर पर अपनी भरोसेमंद जगह कभी पूरी तरह नहीं गंवाई. तब भी, जब वे अपने बेटों सनी और बॉबी को प्रोडक्शन बैनर विजेता के तहत लॉन्च कर चुके थे और बेताब , बरसात और घायल’ सभी हिट रही थीं. 2000 के दशक में जॉनी गद्दार और लाइफ इन ए मेट्रो (दोनों 2007) में उनके किरदारों ने दिखा दिया कि उनका जादू पहले की तरह अब भी कायम है.

इंडिया टुडे टीवी ने जब पूछा कि पुरानी पीढ़ी के ऐक्टर्स को क्या खास बनाता है, तो मेरा गांव मेरा देश में धर्मेंद्र  की को-स्टार रहीं आशा पारेख ने बताया कि कैसे उनके मर्दाना अंदाज ने उन्हें 'ही-मैन’ का तमगा दिलाया. उन्होंने 'मैं जट यमला पगला दीवाना’ और 'गरम धरम’ जैसे गानों में अजीबो-गरीब डांस मूव्ज के बावजूद इस छवि को बनाए रखा.

ओम प्रकाश के साथ चुपके चुपके

जैसा प्रोड्यूसर दिनेश विजान कहते हैं, अपने चाहने वालों के लिए धर्मेंद्र  सिर्फ एक स्टार नहीं बल्कि एक 'इमोशन’ थे. विजान ने जल्द ही रिलीज होने वाली धर्मेंद्र  की आखिरी फिल्म इक्कीस को प्रड्यूस किया है. वे कहते हैं, ''आप भावनात्मक रूप से इसकी गहराई तभी समझ सकते हैं जब आपको उनके साथ काम करने का मौका मिला हो. वे आपके अंदर जो ग्रेस, गर्मजोशी भरते हैं या एक किस्म की आग जगा देते हैं, वह आप कहीं और से नहीं सीख सकते.’’ धर्मेंद्र के भीतर अभिनय की आग ने बॉलीवुड में जो चरित्र गढ़ा, उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं हो सकती.

इस पंजाबी मुंडे ने बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी पर गहरी छाप छोड़ी. रॉय ने हमें बंदिनी में धर्मेंद्र का संवेदनशील पक्ष दिखाया, तो मुखर्जी ने चुपके चुपके  में उनके कॉमिक टैलेंट को उभारा.

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