झारखंड: 'जोनोम जोनोम' फिल्म ने कैसे संताली सिनेमा के लिए नया रास्ता बनाया?
मल्टीप्लेक्स व्यवस्था में अपनी जुबान के सिनेमा को जगह न मिलने पर संताली फिल्मकारों ने नई युक्ति तलाशी. पेन ड्राइव और प्रोजेक्टर लेकर उन्होंने गांवों-मेलों का रुख किया, जहां उन्हें इंतजार करते मिले लाखों दर्शक

भाषाई बहस के बीच इन दिनों झारखंड में संताली सिनेमा अपने लिए अलग राह बना रहा है. फिल्म बनाने वाले पेन ड्राइव, प्रोजेक्टर और परदा लेकर गांव-गांव जाकर दर्शकों को सिनेमा दिखा रहे हैं. एक दिन में एक फिल्म, एक टीम और चार जगह स्क्रीनिंग.
दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी आदिवासी आबादी वाला यह समुदाय अपनी भाषा में सिनेमा ढूंढ रहा है. सिनेमा हॉल न मिलने से मजबूर होकर इन फिल्मकारों ने यह रास्ता अपनाया है.
गौरतलब है कि देश में संतालों की करीब 75 लाख की आबादी में से सबसे ज्यादा 27 लाख झारखंड में ही हैं. उसके अलावा पश्चिम बंगाल (25 लाख), ओडिशा (नौ लाख) और बिहार (चार लाख) में हैं. लेकिन स्क्रीनिंग का ताजा दौर 12 से 21 जुलाई तक असम में चला, जहां इनकी आबादी करीब दो लाख है.
वहां के कोकराझार जिले की तिलाबनी मोलकेपुर संताल कॉलोनी, केरापुर संताल कॉलोनी और पदमापुखुरी में जोनोम जोनोम फिल्म दिखाई गई. इससे पहले मई में संताली फिल्म होक रेयाह लढ़ाई और सकम आलोम ओरेजा की स्क्रीनिंग जमशेदपुर के जोनड्रागोड़ा गांव में हुई थी. बरसात और खेती की वजह से जून-जुलाई में यह रफ्तार धीमी हो जाती है. फिर सितंबर-अक्तूबर से अगले मार्च तक सिलसिला चलता रहता है.
युवा संताली फिल्मकार सेराल मुर्मू इस आंदोलन के चेहरों में से एक हैं. पूर्वी सिंहभूम जिले के पाथरगोड़ा गांव की इस प्रतिभा ने देश में सिनेमा के शीर्ष प्रशिक्षण संस्थान, पुणे केएफटीआइआइ से पढ़ाई की. मुर्मू इस नए रुझान को स्पष्ट करते हैं, ''यहां कोई डिस्ट्रिब्यूटर नहीं है. संताली भाषी इलाकों में सिंगल थिएटर हैं नहीं और मल्टीप्लेक्स के टिकट लोग अफोर्ड कर नहीं सकते.
ऐसी स्थिति में ही संताली जैसे क्षेत्रीय सिनेमा के बनने और आगे बढ़ने का यह मॉडल विकसित हुआ है.’’ राज्य में बहुत-से फिल्ममेकर और इससे जुड़े लोग इसी मॉडल से अपना जीवन चला रहे हैं. कहीं साप्ताहिक मेले में तो कहीं ग्रामीणों के अनुरोध पर टीम पहुंचती है और वहीं 10 से 100 रुपए तक का टिकट रखकर फिल्म दिखाई जाती है. एक स्क्रीनिंग में यही कोई 200 दर्शक मिल जाते हैं.
एक दिन में चार जगहों पर स्क्रीनिंग हो जाती है. ऐसे में रोज 8,000-10,000 रुपए कमाई हो जाती है. संताली फिल्में अधिकतम 10-12 लाख रुपए में बनाई जाती हैं पर दो साल से ज्यादा समय तक दिखाए जाने पर वे कमाई कर लेती हैं. निर्देशक प्रेम मार्डी की संताली फिल्म हाय रे अरिचली ने पिछले पांच साल में इसी तरीके से 70 लाख रु. से ज्यादा कमाए.
संताली फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री और 1993 से सक्रिय गंगारानी थापा अब तक 40 से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुकी हैं. तलाक की समस्या पर बनी अपनी फिल्म सकम आलोम ओरेजा को लेकर वे खुद गांव-गांव जा रही हैं. उन्हीं के शब्दों में, ''स्कूटी पर टेंट, प्रोजेक्टर और परदा लेकर जाती हूं. टेंट लगाकर फिल्म दिखाने पर 100 रुपए का टिकट होता है.
कम्युनिटी हॉल या मैदान में शो होने पर 50 से 80 रुपए. हर शो में औसतन 250 दर्शक मिल जाते हैं.’’ अब तक 41 संताली फिल्में बना चुके अभिनेता-निर्देशक दशरथ हांसदा कहते हैं, ''हमारे लिए यह एक अवसर की तरह है. गांव हमारे लिए मार्केट है. पर दिक्कत यह है कि हमें आज भी 10-12 लाख रु. में फिल्म पूरी करनी पड़ती है. सरकार थोड़ी आर्थिक मदद कर दे, दूसरा नियम बना दे कि राज्य के सभी सिनेमा हॉल कम से कम एक दिन स्थानीय भाषा की फिल्मों के लिए दें.’’
ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में भी हर साल 5-7 फिल्में बन रही हैं. चार महीने पहले यूट्यूब पर रिलीज भेगार आजार (दूसरी तरह की बीमारी) संताली फिल्म को 22 लाख से ज्यादा तो जनम आयोवा रिन (मां का कर्ज) को 8 लाख से ज्यादा व्यूज मिले हैं.
बीते छह साल से राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद एक संताल आदिवासी हैं. हाल के दिनों में क्षेत्रीय भाषाओं के सिने कलाकारों ने कला-संस्कृति मंत्री सुदिव्य कुमार सोनू से मिलकर सिनेमाघरों में स्पेस की मांग की है. पिछली रघुबर दास सरकार के समय राज्य में फिल्म पॉलिसी तो बनी पर अनुदान हिंदी फिल्मों को मिला.
ओडिशा में बारिपदा नेशनल 'इंडिजीनस शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल’ शुरू करने वाले दीपक बेसरा का कहना है कि बजट इतना कम होता है कि हम केवल फिल्म बना पाते हैं. सेंसर में भेजने और प्रचार के लिए पैसे नहीं होते. पर लोग जुझारू हैं.यानी पेन ड्राइव और प्रोजेक्टर के सहारे शो आगे बढ़ेगा.
''संताली भाषी इलाकों में सिंगल थिएटर हैं नहीं और मल्टीप्लेक्स महंगे हैं. ऐसे में ही गांवों-मेलों में सिनेमा का यह मॉडल बना.’’