अपनी ही फिल्म की रिलीज पर नेटफ्लिक्स ने क्यों रोक लगा दी?

फिल्म 'तीस' के नहीं रिलीज होने को सीधे-सीधे प्राइम वीडियो की सीरीज तांडव (2021) को लेकर पैदा उस विवाद से जोड़ा जा सकता है जिसमें असहमति और धार्मिक बिंबों के चित्रण पर दक्षिणपंथियों ने नाराजगी जताई थी

बनर्जी पिछले दो दशक से विशिष्ट शैली की फिल्में बनाते आ रहे
दिवाकर बनर्जी पिछले दो दशक से विशिष्ट शैली की फिल्में बनाते आ रहे

इसमें एक ऐसी फिल्म बन सकने की सारी जरूरी खूबियां थीं जो चारों ओर जलवा बिखेर दे: सम्मानित और प्रतिष्ठित निर्देशक तथा बेहद दमदार अदाकार. और तो और पिछले साल धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (डीआईएफएफ) में अपने पहले भारतीय प्रदर्शन के बाद इसने दर्शकों की खूब तालियां भी बटोरीं.

दिवाकर बनर्जी की तीस ने देश भर के सिनेप्रेमियों को आकर्षित किया. तो भी इस पूरे हर्षोल्लास पर दिल टूटने का बोझ तारी था. जिस प्लेटफॉर्म ने 2019 में तीस बनाने का काम उन्हें सौंपा और जिसे उन्होंने 2022 में बनाकर दे दिया, उसी नेटफ्लिक्स ने 2023 में उसकी रिलीज पर रोक लगा दी, और ऐसी फिल्म पर ताले जड़ दिए जो वाकई देखी जानी चाहिए थी.

मुख्य भूमिकाओं में नसीरुद्दीन शाह, मनीषा कोइराला, हुमा कुरैशी, शशांक अरोड़ा, जोया हुसैन और दिव्या दत्ता की अदाकारी से सजी 55 वर्षीय फिल्मकार की इस फिल्म में एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार की तीन पी‌ढ़ियों की कहानी है जो तीन हिस्सों में बंटी है. तीस तीन अलग-अलग कालखंडों—1989 के श्रीनगर की राजनैतिक अशांति, 2030 की सांप्रदायिक हिंसा और 2043 की सेंसरशिप—में खुलती है, जहां इसके मुख्यपात्र असंगत और मनहूसियत भरे दौर में अपनी पहचान, आवाज, और व्यवस्थागत काट-छांट से जूझ रहे हैं.

फिल्म की व्यावसायिक रिलीज अधर में लटकी है, ऐसे में बनर्जी ने डीआईएफएफ में इसके प्रीमियर के बाद कई महीने देश भर में इसके निजी किस्म के आयोजनों में मुफ्त स्क्रीनिंग की मेजबानी करते हुए बिताए. ऐसा उन्होंने अपनी मर्जी से नहीं किया. इंडिया टुडे से वे कहते हैं, ''ये प्रदर्शन व्यावसायिक और समीक्षकीय दिलचस्पी जगाने का एक तरीका हैं, इस उम्मीद में कि तीस किसी न किसी तरह से देखी जाकर जिंदा रहे."

वर्ना तो हार्ड ड्राइव में पड़े-पड़े और बिना चले फिल्म विलुप्त होने के बराबर है. वे कहते हैं, ''ऐसी स्थिति में दर्शकों का फिल्म से गहराई से जुड़ना सुखद और दुखद दोनों है. आपको अच्छा लगता है कि यह किसी के दिल को छूती है, लेकिन अफसोस भी होता है कि यह और लोगों के दिलों को नहीं छू सकती." इसे देखते हुए अब तीस को टीस कहने में भी उन्हें गुरेज नहीं.

नसीरुद्दीन शाह फिल्म तीस के एक दृश्य में

तीस की पेचीदा थीम बढ़ती सांप्रदायिकता, पी‌ढ़ियों के फासले की पीड़ा और लगातार नजर रखने वाली सरकार के मातहत समलैंगिकों को हाशिए पर धकेल दिए जाने के इर्द-गिर्द घूमती है. फिल्म के सह-लेखक, निर्देशक और निर्माता बनर्जी ने इनका ताना-बाना बुनने के लिए अपनी निजी जिंदगी और राजनैतिक परिवेश दोनों से ब्यौरे लिए.

इनमें उनका बचपन और पास-पड़ोस, हम लोग और बुनियाद सरीखे भारतीय टेलीविजन धारावाहिक, आशापूर्णा देवी की उपन्यास त्रयी प्रोथोम प्रोतिश्रुति और रॉबर्ट हैरिस का काल्पनिक ऐतिहासिक उपन्यास फादरलैंड शामिल हैं. उनका कहना है कि इन सबने  'अवचेतन की गहराई तक' उन्हें प्रभावित किया. मगर फिल्म बनाने की जरूरत उस वक्त महसूस हुई जब फिल्मकार ने युवा और खासकर मुस्लिम जोड़ों को मुंबई में किराए का घर लेने के लिए जद्दोजहद करते पाया; गौरी लंकेश की हत्या भी फिल्म की प्रेरणा बनी.

बनर्जी करीब दो दशक से फिल्में बना रहे हैं, जिसमें उन्हें ऐसी कृतियों का गौरव हासिल है जो बहुत अलग और खास तो हैं ही, साथ ही उनकी नकल बनाना नामुमकिन भी है. उन्होंने खोसला का घोंसला (2006) से शुरुआत की, जो मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं पर तीखा तंज थी. फिर लव सेक्स और धोखा (2010) बनाई, जो फाउंड-फुटेज शैली की एंथोलॉजी थी.

उसके बाद नेटफ्लिक्स की ओर से तैयार कराई गई एंथोलॉजी बॉम्बे टॉकीज (2013) और लस्ट स्टोरीज (2018) के एक-एक हिस्से का निर्देशन किया. तीस की व्यापक महत्वाकांक्षा कई तरह से फिल्मकार के तौर पर बनर्जी के विकास का शिखर होनी थी. मगर तीस के दफनाए जाने के साथ वे ही अपनी फिल्म का शोकगीत बन गए: एक ऐसा कलाकार जिसे व्यवस्था ने गूंगा कर दिया.

इस बीच फिल्मकार ने अपने को व्यस्त रखते हुए एक शॉर्ट फिल्म का निर्देशन किया और लव सेक्स और धोखा का दमदार सीक्वल रिलीज किया. मगर बनर्जी गुस्से और हताशा की लहरों से भी जूझते रहे. फिल्म को दफना दिए जाने के जज्बाती सदमे के बीच राह बनाते हुए फिल्मकार के तौर पर आगे बढ़ते रहना 'धीमी और क्रमिक' प्रक्रिया थी, जिसका श्रेय वे थेरेपी और खोजने-खंगालने की अपनी प्रवृ‌त्ति को देते हैं. बनर्जी कहते हैं, ''आप अपने सहकर्मियों का अच्छे-से चुनाव कर लें तो आधी लड़ाई वैसे ही जीत जाते हैं."

तीस के गायब होने को सीधे-सीधे प्राइम वीडियो की सीरीज तांडव (2021) को लेकर पैदा उस विवाद से जोड़ा जा सकता है जिसमें असहमति और धार्मिक बिंबों के चित्रण पर दक्षिणपंथियों ने नाराजगी जताई थी.

काट-छांट के बावजूद कानूनी मुकदमे कर दिए गए और डर तारी हो गया. इसने स्ट्रीम करने वाले प्लेटफॉर्मों को साफ चेतावनी दी. नतीजा: इस तरह की प्रतिक्रियाओं को न्योता दे सकने वाले प्रोजेक्ट्स को सहारा देने को लेकर वे बेहद चौकन्ने और सतर्क होते गए. ऐसे नाजुक माहौल में तीस सरीखी फिल्में बलि का आसान बकरा बनीं, जिन्हें अंधाधुंध सेंसरशिप का सुविधाजनक शिकार बनाया जा सकता था.

बनर्जी का कहना है कि फिल्म बनाना महंगी कला है जो 'मध्यस्थता से हासिल निवेश’ की मांग करती है, लेकिन जो विशाल दर्शकवर्ग तक पहुंचने की अपनी काबिलियत की वजह से आसान निशाना बन जाती है.

सच बयान करने, सवाल उठाने और नैरेटिव को ललकारने पर केंद्रित कला का दमन करना ध्यान भटकाने के तौर-तरीकों में दर्शकों को उलझा देने का अचूक तरीका है. वे कहते हैं, ''अगर फिल्मों के जरिए क्रूरता, स्त्रीद्वेष और खोखला तमाशा लगातार दिखाया जाए तो चलती-फिरती छवियां देखकर पली-बढ़ी पीढ़ी को आसानी से काबू किया जा सकता है."

अपनी मौजूदगी भर से ही तीस इस रूढ़िबद्धता को ठेंगा दिखाती है. इसे सेंसर करना यह साफ कर देना है कि आज के भारत में कौन-सी कहानियां नापसंद और अवांछित हैं. और इसके गायब होने से फिल्म के अनिवार्य कथ्य की निपट जरूरत कई गुना बढ़ गई है.

- पौलोमी दास.

Read more!