फिल्मों और सीरीज के जरिए अतीत के किस्से बताने पर क्यों जोर दे रहे हैं निखिल आडवाणी?

फिल्म निर्माता इतिहास के भूले-बिसरे किस्सों और नायकों को सामने लाने के लिए भारत के औपनिवेशिक अतीत को खोज-खंगाल रहे हैं. मकसद यही कि भविष्य की पीढ़ियां भी उन्हें जान सकें.

cinema historicals
फ्रीडम ऐट मिडनाइट

कई साल से निखिल आडवाणी ऐसी ही फिल्मों-सीरीज का निर्देशन करते आ रहे हैं जिसमें बस धोती-कुर्ता पहने लोग आजादी के लिए रैलियां निकालते नजर आते हैं. कोई उन्हें देश के औपनिवेशिक काल का मुख्य चित्रपटकार कहे तो उन्हें बिल्कुल गुरेज नहीं.

इसकी शुरुआत सोनीलिव पर फ्रीडम ऐट मिडनाइट (2024-) से हुई, जिसका दूसरा सीजन इस साल के अंत में आएगा और अमेजन प्राइम की सीरीज रिवोल्यूशनरीज के साथ उनका यह दौर जारी रहने वाला है, जिसकी वे अभी शूटिंग कर रहे हैं.

मुंबई के मड आइलैंड में एक विशाल सेट पर रिवोल्यूशनरीज की नाइट शिफ्ट के लिए तैयार होते हुए आडवाणी कहते हैं, ''इतिहास मुझे खींचता है, खासकर इस दौर में.

हम इतिहास को मिटा नहीं सकते. हमें लोगों को इसे समझने देना चाहिए और इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए.’’ बकौल आडवाणी, फ्रीडम ऐट मिडनाइट ने दिखाया है कि कैसे महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे देश के महानतम नेता आजादी की खातिर जुटे. रिवोल्यूशनरीज युवाओं के एक समूह पर केंद्रित है, जिसका मिशन ज्यादा सीधा-साफ है, ''हम उन्हें [अंग्रेजों] जाने को नहीं कहेंगे, बल्कि उठाकर बाहर फेंक देंगे.’’

देश के औपनिवेशिक अतीत को खंगालने वाले आडवाणी अकेले फिल्मकार नहीं हैं. दूसरे निर्देशक भी उस दौर की अहम घटनाओं और शख्सियतों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. हाल में राम माधवानी ने द वेकिंग ऑफ अ नेशन (सोनीलिव पर भी) का निर्देशन किया. यह कोर्टरूम ड्रामा है जो जलियांवाला बाग हत्याकांड से पहले की घटनाओं के ब्यौरे बताता है और उसके बाद सचाई और न्याय की खोज में जुटे एक शख्स की कहानी है.

अक्षय कुमार की केसरी 2 भी उसी घटना पर केंद्रित है, लेकिन वह वकील सी. शंकरन नायर के नजरिए के साथ सामने आती है. नायर ऐसे 'भूले-बिसरे नायक’ हैं जिन्होंने 'अंग्रेजी हुकूमत से टकराने का जज्बा’ दिखाया. अक्षय ने फिल्म में नायर की भूमिका निभाई है. फिल्म सुर्खियों में है क्योंकि भाजपा नेता कांग्रेस पर नायर के योगदान को नजरअंदाज करने का आरोप लगाते हैं, जबकि वे कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे. इस साल के अंत में हंसल मेहता की गांधी आएगी, जिसमें प्रतीक गांधी मुख्य भूमिका में हैं.

अटकल है कि एक प्रमुख स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने शो के अधिकार हासिल कर लिए हैं. कहानियों का यह सैलाब बताता है कि फिल्म निर्माता इतिहास के सबसे संघर्षशील दौर को नए नजरिए से फिर से दिखाने को उत्सुक हैं. वे दर्शकों को उन घटनाओं से वाकिफ करा रहे हैं जिनकी गहरी जानकारी जरूरी है और गुमनाम नायकों को चर्चा में ला रहे हैं.

'द वेकिंग ऑफ अ नेशन' ड्रामा के एक हिस्से की तस्वीर

रॉकेट बॉयज, फ्रीडम ऐट मिडनाइट और द वेकिंग ऑफ अ नेशन को दिखाने वाले प्लेटफॉर्म सोनीलिव के कंटेंट हेड सौगत मुखर्जी के मुताबिक, इन महत्वाकांक्षी शो का लक्ष्य 'देश की बड़ी कहानियां बताना’ और मौजूदा दौर के खालीपन को भरना है. उनके शब्दों में, ''मुझे नहीं लगता कि हमने अपने इतिहास को शिद्दत से देखा-परखा और उसका जश्न मनाया है. हमारे पास लगभग भूली-बिसरी कहानियों का खजाना है. निर्माताओं, लेखकों, स्टूडियो और प्लेटफॉर्म के लिए उन्हें खोजना महत्वपूर्ण है. लेकिन उन्हें ऐसे अंदाज में बताया जाना चाहिए जो मौजूं और मनोरंजक हो और इतना गूढ़ न हो जाए कि लोग इतिहास देखना बंद कर दें.’’

ऐतिहासिक फिल्में बनाना या देखना किसी भी तरह से आसान नहीं है. आडवाणी से पूछिए, जो रिवोल्यूशनरीज में सैकड़ों एक्स्ट्रा का निर्देशन कर रहे हैं और फ्रीडम ऐट मिडनाइट-सीजन टू के संपादन की निगरानी कर रहे हैं. इन शो को बनाने में रिसर्च बहुत जरूरी है और बजट भी बहुत ज्यादा है क्योंकि लोकेशन, सेट और कॉस्ट्यूम प्रामाणिक होने चाहिए.

चुनौती यह सोचना है कि ये शख्सियतें किस अंदाज में बात करें, उनकी चाल-ढाल कैसी हो. राष्ट्रीय प्रतीकों की कहानियों के साथ आप केवल इतनी ही रचनात्मक छूट ले सकते हैं कि जनता की भावनाओं को ठेस न पहुंचे. फिर भी आडवाणी ने रिवोल्यूशनरीज को फ्रीडम ऐट मिडनाइट से अलग हटकर बनाने का एक तरीका ढूंढ निकाला.

वे कहते हैं, ''मैं इसे 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' और 'इनग्लोरियस बास्टर्ड्स' की तरह बना रहा हूं,’’ क्योंकि इसमें वे ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह करने वाले करतार सिंह सराभा और रासबिहारी बोस जैसे युवाओं की कहानी कह रहे हैं. ''इसका उद्देश्य इतिहास के साथ थोड़ी चुहल करने का है.’’ और साथ ही युवा पीढ़ी को उन लोगों से भी वाकिफ कराना है जो उन्हें अपनी स्कूली किताबों या लोकप्रिय सिनेमा में नहीं मिलते. मसलन, भगत सिंह, मंगल पांडे, उधम सिंह या झांसी की रानी वगैरह.

पर कुछ दूसरों के लिए अतीत को खंगालना सिर्फ भूले-बिसरे नायकों की ओर ध्यान खींचना या अंग्रेजी राज के अत्याचारों को याद करने से कहीं ज्यादा है. माधवानी कहते हैं कि द वेकिंग ऑफ अ नेशन यह समझने का एक तरीका भी था कि नस्लवाद और पूर्वाग्रह किस तरह से ब्रिटिश उपनिवेशवाद की बुनियाद थे. माधवानी पूछते हैं, ''यह विचार ही कि आप असल में खुद पर शासन के योग्य नहीं...हमने इस पर कैसे विश्वास किया और इसे होने दिया?’’

अगर मौका मिले तो माधवानी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक और निर्णायक क्षण 1857 के विद्रोह पर नजर डालकर 'द वेकिंग ऑफ अ नेशन' सीरीज को जारी रखेंगे. उन्हें खासकर पील आयोग में दिलचस्पी है, जिसे विद्रोह के कारणों की जांच के लिए नियुक्त किया गया था.

कम चर्चित नायकों पर रोशनी डालना भी करण सिंह त्यागी के सी. शंकरन नायर पर आधारित निर्देशन की पहली फिल्म के पीछे की प्रेरणा थी. कानून और राजनीति के छात्र त्यागी को नायर के पड़पोते रघु पालत और उनकी पत्नी पुष्पा की किताब द केस दैट शूक द एम्पायर ने बहुत प्रभावित किया. त्यागी ने प्रेस को दिए एक बयान में कहा, ''शंकरन नायर को ब्रिटिश साम्राज्य ने नाइट की उपाधि दी थी और उन्होंने [जलियांवाला बाग कत्लेआम के बाद] काउंसिल से इस्तीफा दे दिया था.

उसके बाद सबसे नाटकीय ढंग से अंग्रेजों से भिड़ना वीरता की कहानी है.’’ त्यागी कहते हैं कि इस फिल्म को बनाने के लिए एक डॉक्यूमेंट्री देखना भी प्रेरणा देने वाला था, जिसमें जनरल डायर की पड़पोती ने उनका बचाव किया था और वहां मौजूद लोगों को 'लुटेरे’ करार दिया था. त्यागी ने कहा, ''उसकी बातचीत से मुझमें गुस्सा भर गया. केसरी 2 खास है क्योंकि आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कत्लेआम के बाद अंग्रेजों ने खासी सक्रियता दिखाई थी और जनरल डायर को नायक के रूप में पेश करने की हरसंभव कोशिश की.’’
औपनिवेशिक काल पर आधारित फीचर फिल्में पहले भी बनी हैं.

लेकिन वे या तो बायोपिक रही हैं या लगान या आरआरआर जैसी मनोरंजक फिल्में. गांधी देश के सबसे प्रशंसित स्वतंत्रता सेनानी बने हुए हैं, लेकिन अभी भी रिचर्ड एटनबरो की गांधी, जो एक ब्रिटिश प्रोडक्शन और मुख्य रूप से अंग्रेजी भाषा की फीचर फिल्म है, संदर्भ बिंदु बनी हुई है. क्या हंसल मेहता और अप्लॉज एंटरटेनमेंट की गांधी इसमें बदलाव लाएगी और आखिरकार भारतीय दर्शकों को अपने सबसे महान नेता का जश्न मनाने वाली एक स्थानीय कहानी देगी?

पिछले साल शो की शूटिंग के दौरान प्रतीक गांधी ने इंडिया टुडे से कहा था, ''दुनिया को गांधी की जरूरत आज पहले से ज्यादा है. हमने उन्हें हल्के में लिया है और एक पीढ़ी है जो उन्हें बहुत अजीब और अलग तरीके से समझ रही है. उनकी आलोचना करना बहुत आसान है. अच्छी बात यह है कि गांधी ने लोगों को खुद को आंकने दिया. उनमें अपनी कमियों और गलतियों को उजागर करने की हिम्मत थी. हमारा नजरिया बहुत स्पष्ट है, हम उन्हें महात्मा के रूप में आंके बिना सिर्फ उनकी कहानी बता रहे हैं.’’

आडवाणी जब क्रांतिकारियों के नाम से 'जुनूनी साहस’ की ओर जाते हैं, जो गदर का हिस्सा रहे युवाओं पर आधारित है, तो वे साफ करते हैं कि यह विशेषज्ञ कहलाने की कोई सोची-समझी कोशिश नहीं थी. वे स्वीकार करते हैं कि इसमें बहुत वक्त लगता है और बड़ी जिम्मेदारी भी है, लेकिन वे इसे किसी और तरीके से नहीं करना चाहेंगे. वे कहते हैं, ''मुझे राष्ट्र-निर्माण और अंध देशभक्ति से परहेज करने वाली कहानियां बताना पसंद है.’’ यह सार्थक कोशिश है.

Read more!