ज़ाकिर हुसैन : थम गई धड़कन की थाप
ज़ाकिर हुसैन आवाजाही के हरेक तजुर्बे की लय उठाते और अपनी तालों में शामिल कर लेते. उनके लय चक्र में केवल खुशी, खिलखिलाहट और थपथपाहटें झलकतीं...ऐसा था ज़ाकिर की उंगलियों का जादू

आलेख और फोटो: रघु राय
नश्वरता ने संगीत के ऊंचे किले पर धावा बोल दिया. दादरे की छठी और कहरवे की आठवीं ताल तक उंगलियां पहुंचतीं और वहीं से फिर पहले की ओर लौट पड़तीं: उसी सन्नाटे में जहां से उन्होंने प्रस्थान लिया था. अब उस सम से फिर आना नहीं होगा. उनके जीवन में लयात्मक क्रम में आए सारे बड़े स्तंभ—हर कोटि के पद्म सम्मान और चार ग्रैमी, जिनमें से तीन इसी साल मिले थे—स्तब्ध और लाचार खड़े रह गए.
प्रसिद्धि की सारी ध्वनियां भी धीरे-धीरे मंद पड़ती जाएंगी. पंडित कुमार गंधर्व ने जनवरी 1992 में अपनी मृत्यु से पहले कबीर की वाणी में हमें याद दिलाया था—जम के दूत बड़े मजबूत, जम से पड़ा झमेला...सैन फ्रांसिस्को का बादलों भरा धूसर आसमान बेबस ताकता रहा और तबले का महान उस्ताद प्रस्थान कर गया. कोई उसकी तरह नहीं था, और फिर कभी होगा भी नहीं. दो हफ्ते आईसीयू में बिताने के बाद भारतीय समयानुसार 16 दिसंबर को सुबह तड़के ज़ाकिर हुसैन की धड़कन ठहर गई.
ज़ाकिर खूबसूरत, घुंघराले बालों वाला, दिलकश और रूमानी खोजी था, जो अपने पिता उस्ताद अल्लारक्खा की दी और साझा की गई तालों से बहुत आगे गया. बंबई में दोनों को जुगलबंदी में सुनने के बाद मैंने ज़ाकिर से पूछा, ''ईमानदारी से मुझे बता, कौन बेहतर वादक है, तुम या तुम्हारे डैड?'' लंबी खामोशी छा गई, उसके चेहरे पर शरारती मुस्कान थी—उसने गहरी सांस ली—मेरी आंखों में देखा और कहा, ''बेशक मैं.''
हम दोनों जोर से हंसे. मैंने कहा, ''मैं भी यही सोचता हूं.'' ऐसा था उसकी उंगलियों का जादू जब वे तबले के किनारों पर कसकर बंधे तपे-तपाए चमड़े पर थिरकना शुरू करती थीं.
इंडिया टुडे के साथ ग्रेट मास्टर्स ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूजिक पर अपनी किताब लिखते समय हमें अपने किरदारों की खोज करने और उन्हें उनके कंफर्ट जोन से बाहर निकालने की बेधड़क आजादी थी. और ज़ाकिर पीछे हटने वालों में से नहीं था. उसके लय चक्रों से केवल खुशी, खिलखिलाहट और थपथपाहटें झलकती थीं. रेल, तांगे, कार, हवाई जहाज या बाइक से सफर करते वक्त वह आवागमन के हर अनुभव की लय और ताल उठा लेता और उन्हें अपनी तालों में जोड़ लेता था. इसी खुलेपन की वजह से उसके सप्तक में सात जाने स्वरों से कहीं ज्यादा स्वर थे, ज्यादा खिलखिलाहट और ज्यादा आनंद था.
क्या उसी वाचालता, संसार से धागे से जुड़े जीवन के उसी रसभरे आनंद ने मष्तिस्क के दूसरे हिस्सों तक पहुंच रोक दी? नहीं, वह तो एक जादू था. वह अपनी जादुई उंगलियों से झरते विस्तारित और लंबे स्वरों की एक और लय से आपके दिल की धड़कन छीन लेता था. हम दूसरे व्योम, दूसरे ग्रह से जुड़े विस्मित और भावविभोर खड़े रहते, अज्ञात और अनसुना अपने आप बजने लगता.
जैसा कि विदूषी किशोरी अमोणकर कहा करती थीं, ''अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में भारतीय शास्त्रीय संगीत मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि आध्यात्मिक तृप्ति के लिए है.'' मेरा हमेशा से मानना रहा है कि महानतम लेखन या फिल्म या संगीत रचना वह है जो आपके भीतर मौन को पुनर्स्थापित करती है.
इंडिया टुडे की शृंखला के लिए हमने जिन 12 महान उस्तादों को चुना, उन्हें दो कसौटियों पर कसने के बाद चुना. पहली, प्रत्येक संगीतकार निश्चित घराने से आया हो, उस घराने की गायकी या वादन की निश्चित शैली रही हो, और फिर भी वह संगीतकार अपना निजी भाव और शैली रचने में कामयाब रहा हो. और दूसरे, इनमें से हर उस्ताद अपने ध्यानशील अन्वेषण के माध्यम से हमें निकटस्थ क्षितिज से परे ले जा सके, जहां स्वर दिव्य से मिलते हों.
यहां ज़ाकिर हुसैन नाम का दरवेशों-सा एक तबला वादक था, जो गहरी थापों में गया, उन्हें और गहरे ले गया, धीरे-धीरे मौन में विलीन हो गया. यह आपको कहने पर मजबूर करता, ''हे भगवान, उनकी लयों का सिलसिला तो एक ट्रेन की मानिंद लपका चला जा रहा है. पर ठहरिए, जरा कान दीजिए! वे धीमे-धीमे मौन में खोती जा रही हैं और आपके अंतर्मन की गहराइयों से फिर उठकर अनहद की ओर बढ़ रही हैं.''
इसी साल लंबे समय के बाद राकेश चौरसिया के साथ ज़ाकिर की जादुई प्रस्तुति सुनते हुए मैं न केवल मंत्रमुग्ध था बल्कि दूसरी दुनिया, दूसरे अनुभव में पहुंच गया, जो केवल ध्यान की अवस्था में ही होता है...यह बहुत असामान्य था. लिहाजा मैंने उसका फोन नंबर तलाशा, और हरि भाई (पंडित हरिप्रसाद चौरसिया) को फोन करके ज़ाकिर का नंबर लिया.
मैं उससे उसके अविश्वसनीय अन्वेषणों के बारे में, जो पहले कभी किसी ने नहीं किए थे, निजी तौर पर बात करना चाहता था. जिस महिला ने फोन उठाया, उन्होंने ज़ाकिर से मेरी बात नहीं करवाई. हो सकता है उस वक्त वह इतना स्वस्थ न रहा हो कि फोन पर आ पाता.
महिला ने मुझे ईमेल भेजने को कहा, जो मुझे लगा कि कुछ ज्यादा ही औपचारिक होगा. मैं वह अद्भुत एहसास साझा करना चाहता था, जो इतना अनूठा था कि मैंने कभी नहीं सोचा था कि कोई तबले और उसकी थापों से इतना आह्लादित हो सकता है. मगर अब तो वे चले गए. अफसोस! और मेरा अनुभव चिंतन-मनन करने के लिए मेरे पास रह गया, अनसाझा, मेरे भीतर खोखलेपन का अजीब-सा एहसास पैदा करता हुआ. उसके साथ अधूरी बातचीत का खालीपन...