रतन टाटा को दस साल की उम्र की लगाने पड़े थे कोर्ट के चक्कर! उनकी नई जीवनी में ऐसे और कौन से किस्से हैं?

थॉमस मैथ्यू की नई प्रकाशित जीवनी टाटा के साथ-साथ उनके विश्वसनीय साथियों से सैकड़ों घंटे की बातचीत पर आधारित है. पेश हैं यहां उसी के संपादित अंश

रतन टाटा
रतन टाटा

पुस्तक अंश

दो महीने पहले 86 वर्ष की उम्र में दिवंगत हुए रतन टाटा. भारत की सबसे पुरानी विशाल कंपनी के चेहरे रतन को हम में से ज्यादातर लोगों ने जब भी याद किया, वे एक सुविख्यात सार्वजनिक शख्सियत और दूसरी ओर एक रहस्यमय पहेली के रूप में नजर आए. टाटा परिवार से इतर किसी को कमान सौंपने वाले पहले अध्यक्ष के रूप में वे एक बने-बनाए सांचे को तोड़ते दिखे. और ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं किया. पर वे कॉर्पोरेट परंपरा के फौलादी संरक्षक भी थे. थॉमस मैथ्यू की नई प्रकाशित जीवनी टाटा के साथ-साथ उनके विश्वसनीय साथियों से सैकड़ों घंटे की बातचीत पर आधारित है. पेश हैं यहां उसी के संपादित अंश.

बचपन का सबक रतन के माता-पिता ने प्रेम विवाह किया था. आजादी से पहले के जमाने में सामाजिक रूप से रूढ़िवादी भारत और उतने ही दकियानूस पारसी समुदाय के लिए यह दुर्लभ बात थी. लेकिन उनका यह प्रणय-बंधन विवाह के उतार-चढ़ावों के आगे ज्यादा टिक नहीं पाया और 1944 में वे अलग हो गए और सूनू अपने माता-पिता के घर चली गईं. सूनू ने तलाक के लिए अर्जी दाखिल की. बच्चों के लिए यह त्रासद समय था.

रतन 10 साल के हो रहे थे और जिमी 7 साल के जब उन्हें परिवार अदालत के कई चक्कर लगाने पड़े. रतन याद करते हैं, यह 'खराब’ और 'हताशा’ भरा अनुभव था. सूनू ने उसके बाद सर जमशेदजी जेजीभाई से विवाह कर लिया. रतन कहते हैं कि उस समय अलगाव या तलाक आज की तरह 'रोजाना’ नहीं होते थे. उनके माता-पिता की अनबन को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया और उनके अलगाव के बारे में, सच-झूठ दोनों, तरह की बातें तेजी से फैल गईं. स्कूलों में यह चर्चा का विषय बन गया. स्कूल में रतन और जिमी के सहपाठियों ने उनकी जमकर ऐसी-तैसी की और अपमानित किया.

बचपन से चेयरमैन बनने तक रतन टाटा भाई जिमी के साथ

पहला प्रेम दिलचस्प यह है कि इस अवधि में रतन को अपना पहला सच्चा प्यार भी मिला. वे थीं फ्रेडरिक एमॉन्स की 19 वर्षीया बेटी कैरोलाइन एमॉन्स. उनके पिता ने ही उनको रतन से मिलवाया. उन्होंने कहा कि वे पहली नजर में ही रतन के प्रति आकर्षित हो गईं. उनके माता-पिता भी उनको बहुत पसंद करते थे.

कैरोलाइन कहती हैं, उनके पिता रतन से 'प्रेम’ करते थे. उनकी मां ने सोचा '(कैरोलाइन के संग) इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता. वे कहती हैं कि उनको भी लगा कि वे कमाल की पर्सनालिटी (और) बेहद विनम्र हैं’. लेकिन उनके संबंध बहुत कम समय के लिए रहे.

1962 के बाद से लेडी टाटा, जो 85 वर्ष की थीं, की सेहत खराब रहने लगी. जब उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, उन्होंने आखिरकार रतन को लिखा, उन्हें बताया कि उनकी हालत बिगड़ रही है. उन्होंने महसूस किया कि अगर वे भारत लौटे तो उन्हें बहुत खुशी होगी. हालांकि वे यह कभी नहीं चाहती थीं कि रतन ऐसा करें.

आखिरकार, जुलाई ’62 में अपनी बीमार दादी की बहुत ज्यादा चिंता करने वाले रतन ने भारत लौटने का फैसला किया. कैरोलाइन को भी इसके बाद भारत आना था. लेकिन 20 अक्तूबर, 1962 को भारत और चीन के बीच लड़ाई छिड़ गई. हालांकि एक महीने के भीतर ही उपमहाद्वीप में युद्ध विराम घोषित हो गया लेकिन एक अमेरिकी को स्थिति चिंताजनक लगी. इसके तुरंत बाद दोनों अलग हो गए.

टाटा जमशेदपुर के टेल्को प्लांट के पहले दौरे पर

 
टाटा ग्रुप से जुड़ना अमेरिका से लौटकर रतन ने आइबीएम के साथ काम करना शुरू कर दिया था. वे चर्चगेट के नजदीक वल्कन इंश्योरेंस बिल्डिंग में आईबीएम के दफ्तर में बैठते. लेकिन जेआरडी ने उन्हें मना लिया कि उनकी असली जगह टाटा ग्रुप में ही है. रतन कहते हैं: 'मैंने बैठकर अपना सीवी टाइप किया क्योंकि आईबीएम के पास अच्छे इलेक्ट्रिक टाइपराइटर थे जो उस वक्त किसी और के पास नहीं थे. फिर मैंने अपना सीवी जेआरडी के हाथों में दे दिया; और इस तरह मैं टाटा से जुड़ा.’

जेआरडी चाहते थे कि रतन ग्रुप की दो सबसे अच्छी संचालित, सबसे अच्छी प्रबंधित और सबसे बड़ी कंपनियों—टाटा इंजीनियरिंग ऐंड लोकोमोटिव कंपनी (टीईएलसीओ या टेल्को) और टाटा आयरन ऐंड स्टील कंपनी (टीआइएससीओ या टेस्को)—के शॉप फ्लोर पर शुरुआत करें, जो दोनों पूर्वी भारत के जमशेदपुर में हैं. यह पक्का करने का तरीका था कि रतन बुनियादी चीजों से शुरुआत करें.

अप्रत्याशित छलांग हैरत की बात तो यह कि टाटा ग्रुप को करीब से देखने वालों में वस्तुत: कोई भी सही आकलन नहीं कर सका कि टीआइएल के चेयरमैन के रूप में कौन जेआरडी की जगह लेगा. 21 अक्तूबर, 1981 को जब फैसले की घोषणा हुई, कई लोग आश्चर्यचकित रह गए.

कम ही लोगों को उम्मीद थी कि मृदुभाषी और अंतर्मुखी रतन को जेआरडी का उत्तराधिकारी नियुक्त किया जाएगा. एक अग्रणी पत्रिका ने इसे 'अप्रत्याशित चयन’ करार दिया और यह भी लिखा कि जेआरडी ने, 'जो उद्योग के रूढ़िवादी कप्तान के रूप में जाने-माने’ थे, जो छलांग लगाने से पहले बहुत ही सावधानी से देखते और विचार करते थे...'अप्रत्याशित दिशा में छलांग लगा दी’...

एक अग्रणी बिजनेस डेली ने लिखा कि 'ननी पालकीवाला, रूसी मोदी और मीनू मोदी (सीईओ, टाटा संस) सरीखे टाटा के डायरेक्टर रतन के चयन से बहुत ज्यादा निराश थे.’ खुद रतन ने अपनी स्वभावगत विनम्रता के साथ कहा: 'मुझे भी उतना ही सुखद आश्चर्य हुआ—यह इस तरह था मानो यह मेरा नहीं किसी और का नाम था.’

टेटली का अधिग्रहण

टाटा ग्रुप के 125वें साल से ठीक दो साल पहले 1991 में चेयरमैन के रूप में कमान संभालने के बाद रतन ने ग्रुप को मुख्य रूप से भारतीय संस्था से अच्छी-खासी विदेशी मौजूदगी वाले विशाल संस्थान में बदलने की अपनी प्रतिबद्धता को नया कलेवर दिया. उन्होंने इसे अपना अडिग लक्ष्य घोषित किया और ग्रुप के वरिष्ठ अगुआओं से इस विजन को पूरी करने की लगातार मांग करते रहे. यह बात वे टाटा कंपनी के सीईओ की बैठकों के दौरान बार-बार समझाते.

मसलन, 2000 में एजीएमएम में उन्हें संबोधित करते हुए उन्होंने कहा: 'दुनिया ही बाजार है’; 'दुनिया ही प्रतिस्पर्धा है’; 'हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपने सिर नहीं छिपा सकते’, हमें 'बदलते वक्त का अगुआ’ होना होगा. इसी मंच पर 2002 में भी उन्होंने इस संदेश पर बल दिया. इस लक्ष्य को पहली बड़ी व्यावहारिक अभिव्यक्ति टाटा टी के हाथों ब्रिटिश चाय ब्रांड टेटली के अधिग्रहण में मिली.

तगड़े लक्ष्य पर निशाना: जगुआर और लैंड रोवर

जब रतन ने अपने दोस्त लॉर्ड कुमार भट्टाचार्य से सुना कि फोर्ड अपने लग्जरी ब्रांड जगुआर और लैंड रोवर के लिए मुनासिब खरीदार की तलाश में है, तो वे उत्साह से भर गए. स्वघोषित तौर पर कारों के शौकीन रतन के लिए इस प्रलोभन को रोक पाना असंभव था.

टाटा रूसी मोदी के साथ

कृष्ण कुमार से सलाह ली गई और उन्होंने इस कदम का समर्थन किया. इतना बड़ा ब्रांड खरीदने की संभावना को टटोलने की रतन की इच्छा भांपकर भट्टाचार्य ने 2007 में उनके लिए यूके की गोपनीय यात्रा का इंतजाम किया. टाटा मोटर्स के पूर्व एमडी रविकांत का कहना है कि यात्रा के दौरान रतन ने जो देखा उससे वे प्रभावित थे...

दस्तखत बर्मिंघम में हुए, जहां कांत, गांधी और रामकृष्णन ने टाटा मोटर्स की नुमाइंदगी की.

ताज पर आतंकी हमला

इस बीच रतन भी ताज जाने के लिए तैयार हो गए. ठीक तभी कृष्ण कुमार का फोन आया और उन्हें हमले की गंभीरता के बारे में बताया गया. रतन रात करीब 10.15 बजे ताज पहुंचे. जब वे पहुंचे तो पूरी तरह अफरा-तफरी मची थी और स्वचालित बंदूकें और ग्रेनेड लहराते आतंकी ताबड़तोड़ हमले कर रहे थे. उन्होंने भी होटल के भीतर जाने की कोशिश की, लेकिन तब तक पुलिस पहुंच चुकी थी और उसने उन्हें रोक दिया. अगर उन्हें कुछ हो जाता, या उन्हें बंधक बना लिया जाता, तो यह आतंकियों के लिए सबसे बड़ी जीत होती...

उस रात को याद करते हुए कृष्ण कुमार ने एक इंटरव्यू में कहा: 'यह उनके लिए बहुत दुखद पल था...ग्रुप में सीनियर लीडरशिप के स्तर पर हम सभी के लिए ताज को लेकर एक जुनून था...तो 26/11 को जब उस पर बर्बर हमला हुआ, तो मैं समझता हूं मेरी तरह उनका भी दिल टूट गया...तीन दिन खड़े रहकर उन्होंने वहां जो पीड़ा महसूस की... इस वस्तुत: मंदिर को लपटों में, बेमतलब हिंसा में, स्वाहा होते देखना वीभत्स दृश्य था...हमारे दिल टूट गए, हमारी आंखों में आंसू थे.’

नैनो...कार ने बोर्ड की एक 'बोरिंग’ (ऊबाऊ) मीटिंग के दौरान आकार लिया. रतन जब लंबी बैठकों में ऊब जाते, तो आम तौर पर स्केच बनाने, ड्रॉइंग खींचने और अनमनी-सी लकीरें उकेरने में खुद को व्यस्त कर लेते, जिससे उनके कई कारोबारी आइडिया निकले.

जैसा कि 2008 में उन्होंने जेआरडी क्यूवी अवार्ड फंक्शन में कहा, उन्होंने 'बहुत सारा वक्त यह सोचते हुए बिताया कि स्कूटर को ज्यादा सुरक्षित कैसे बनाएं, उसके चारों तरफ ढांचा बनाएं, उसके इर्द-गिर्द छत लगाएं’. उन्होंने यह भी कहा कि यह 'शायद उनका सबसे रचनात्मक डूडल’ था क्योंकि इसी से नैनो का विचार सूझा. उन्होंने सोचा कि क्या केवल स्कूटर खरीद सकने वाले परिवार के लिए एक कार डिजाइन की जा सकती है...

ऐसी एक कार की मुमकिन कीमत कितनी होगी, (द फाइनेंशियल टाइम्स के जॉन) ग्रिफिथ ने पूछा. रतन ने जवाब दिया कि यह करीब 1 लाख रुपए होगी. यह एकाएक कह दिया गया आंकड़ा भर था; कार की कीमत उस वक्त तय नहीं हुई थी. मगर यह टिक गया और आगे चलकर उस नवाचार का अभिशाप बन गया, जिसने उस पर 'सस्ती कार’ का तमगा चस्पां कर दिया. अगले दिन '1 लाख रुपए की कार’ की रतन की परियोजना अखबार की सुर्खियों में थी. नोएल टाटा याद करते हैं, 'प्रेस ने इसे हाइजैक करके दुनिया की सबसे सस्ती कार में तब्दील कर दिया.’

भरोसे की कमी

टाटा ट्रस्ट और टाटा संस के बीच भरोसे की कमी से रतन और मिस्त्री के बीच भी रिश्तों में निस्संदेह तनाव आ गया. इसके चलते नए चेयरमैन एकतरफा फैसले लेने लगे और कुछ अहम मुद्दों पर तो टाटा संस के बोर्ड को भी अंधेरा में रखा...टाटा स्टील के घाटा देने वाले यूके सेगमेंट के मामले में अपनाई जाने वाली रणनीति सरीखे कुछ निश्चित अहम मुद्दों को मिस्त्री ने जिस तरह संभाला, वह खास तौर पर विवाद का विषय हो गया.

टाटा डोकोमो का मुद्दा, टाटा पावर की इंडोनेशियाई खदानें, नैनो का भविष्य, और भारत तथा विदेश में खरीदे गए कुछ भारतीय होटलों की परिसंपत्तियों, जिन्हें घाटा उठाकर बेच दिया गया, इन सबको संभालने के तरीके को लेकर भी धारणा में मतभेद पैदा हो गए. मिस्त्री के हाथों बनाई गई जनरल एग्जीक्यूटिव काउंसिल (जीईसी) के संघटन और कार्यप्रणाली से खाई और चौड़ी हो गई.

महाराजा की वापसी चंद्रशेखरन कहते हैं कि जब एयर इंडिया के प्रस्ताव पर रतन के साथ चर्चा हुई, तो उन्होंने कोई विशेष उत्साह नहीं दिखाया, न ही यह कहा कि 'हमें किसी भी हाल में यह करना चाहिए.’ हालांकि, वे हर तरह से सहयोग को तैयार थे और चाहते थे कि यह हो, लेकिन वे इसे किसी पर थोपना नहीं चाहते थे. रतन ने चंद्रशेखरन से पूछा, 'क्या आप इसे आर्थिक रूप से सफल कंपनी की तरह चला सकते हैं?’

मेंटॉर और गाइड जेआरडी और रतन टाटा अस्सी के दशक में

चंद्रशेखरन बताते हैं कि रतन ने कहा, 'एयर इंडिया जेआरडी के लिए बहुत मायने रखता था. उन्होंने इसे दुनिया की बेहतरीन एयरलाइनों में से एक बनाया. इसे टाटा में वापस लाना बड़ा भावनात्मक पल था.’

वे पूरी तरह से आश्वस्त थे कि सही लोगों को चुनकर टाटा समूह एयर इंडिया को फिर से खड़ा कर सकता है. एयर इंडिया अब दुनिया के विमानन क्षेत्र में सबसे आगे होगा. चंद्रशेखरन बताते हैं, 'रतन बहुत खुश थे. यह उनके लिए बहुत मायने रखता था कि हम इसे वापस ला सके.’ उनके अनुसार, एयर इंडिया टाटा समूह का एक स्थायी प्रतीक है.

वे कहते हैं, "अगर आप आंख बंद करें और टाटा समूह के बारे में सोचें, तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि आपके दिमाग में एयर इंडिया के जहाज के सामने खड़े जेआरडी की तस्वीर न आए. मेरे लिए यह एक बहुत खास पल था. यह सच में न्याय था."

रतन टाटा अ लाइफ हार्परकॉलिंस इंडिया
कीमतः G1,499 
पन्ने: 712 थॉमस मैथ्य

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