कनॉट प्लेस के इतिहास को कैसे सामने ला रही 'जॉइनिंग द डॉट्स' प्रदर्शनी?

सात दिसंबर तक धूमीमल गैलरी में चलने वाली प्रदर्शनी ‘जॉइनिंग द डॉट्स' उस कनॉट प्लेस के इतिहास का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है जो दशकों से तमाम कला रूपों में सांस्कृतिक और राजनैतिक बदलावों का घटनास्थल रहा है

के.पी. रेजी और गिल्ड आर्ट के काम
के.पी. रेजी और गिल्ड आर्ट के काम

जब दिल्ली के हृदयस्थल में स्थित भारत की सबसे पुरानी समकालीन कला दीर्घा धूमीमल अपनी परिधि में स्थित कनॉट प्लेस के शानदार इतिहास के प्रति अपनी आदरांजलि व्यक्त का फैसला करती है, तब साथ ही उसके अपने इतिहास पर फिर से नजर न डालना बेअदबी होगी.

1936 में स्थापित इस कला दीर्घा की 88 साल पुरानी विरासत दिल्ली के पहले और सबसे पुराने व्यावसायिक केंद्रों में से एक के तानेबाने में गहराई से गुंथी है. इसके प्रति कला इतिहासकार और क्यूरेटर अन्नपूर्णा गरिमेला के मन में गहरा और स्थायी प्रेम है, जिसे उन्होंने अपने बेंगलूरू स्थित रिसर्च और डिजाइन संस्थान जैकफ्रूट के जरिए फिलहाल चल रही प्रदर्शनी ‘जॉइनिंग द डॉट्स: द पास्ट हैज अ होम इन द फ्यूचर में मूर्त रूप दिया है.

सात दिसंबर तक चली यह प्रदर्शनी उस कनॉट प्लेस के इतिहास का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है जो दशकों से तमाम कला रूपों में गहरे रूमानियत के साथ दर्ज सांस्कृतिक और राजनैतिक बदलावों का घटनास्थल रहा है. गरिमेला इस शो को दिल्ली के नाम अपना प्रेम पत्र कहती हैं. वे यहां लौट-लौटकर आती हैं और पूछती हैं कि "क्या आप कनॉट प्लेस से भरपूर प्यार नहीं करते?"

जॉइनिंग द डॉट्स प्रदर्शनी के चित्र

गरिमेला कहती हैं, "कनॉट प्लेस वह जगह है जहां तमाम ग्रेजुएट छात्र किताबें खरीदने या कुछ खाने-पीने के लिए आते थे. यहीं से मैंने दिल्ली के इतिहास के बारे में जानना शुरू किया—चाहे वह गुरुचरण सिंह के मिट्टी के बर्तन बनाने की कला हो या ललित कला अकादमी, जहां लोग विचारों के आदान-प्रदान के लिए इकट्ठा होते हैं."

वे यह भी कहती हैं, "कनॉट प्लेस में चहलकदमी करते हुए मैंने रिखी राम ऐंड संस के बारे जाना, जो वही जगह है जहां से द बीटल्स अपने वाद्ययंत्र खरीदते थे. पंडित रविशंकर और कृष्ण मोहन भट्ट भी वहीं से खरीदते थे. कृष्ण मोहन मेरे दोस्त और सितारवादक हैं. वे शो में एक दिन अपना हुनर पेश करने आएंगे."

तीन हिस्सों में विन्यस्त यह प्रदर्शनी बहुत बारीकी से कनॉट प्लेस का इतिहास दिखाती है. आजादी के बाद देश की वैश्विक पहचान गढ़ने के लिए भारत की एक नई सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था की परिकल्पना की गई, जो कला और अभिकल्पन की ऐसी खोज की तरफ ले गई जिससे पता लगाया जा सके कि वास्तव में 'भारतीय' क्या हो सकता है.

1947 से लेकर 1984 का दौर रेखा, आकृति, गति और समुदाय के तत्वों में बांटा गया है ताकि भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले दृश्य, स्थानिक और संबंधपरक पहलुओं को दिखाया जा सके.

अनवर चित्राकर की कृतियां

'रेखा' कलाकारों के रेखाचित्रों का अन्वेषण करती है; 'आकृति' वस्तुओं, कलाकृतियों और उनकी भौतिकता पर विचार करती है; 'गति' नवजात लोकतंत्र से उभरती ध्वनियों और दृश्यों के जरिए उसकी गतियों को रेखांकित करती है, जबकि 'समुदाय' कनॉट प्लेस में रचनात्मक लोगों के बीच विकसित जुनून और रिश्तों का गुणगान करता है.

1984 से आपातकाल और उदारीकरण के बाद के मौजूदा दौर तक विकसित हो रही विचारधाराओं के इशारे पर कला और डिजाइन के बदलते तौर-तरीकों को दर्ज करके कलात्मक धड़कनों को पकड़ा गया है.

गरिमेला बताती हैं, "ऐसा लगा कि इस गैलरी को, जिसके पास अपने समय के विभिन्न युगों की इतनी सारी कलाकृतियां हैं, खुद अपनी और इस इलाके की कहानी बयान करने का तरीका खोजने की जरूरत है, जहां कलाकार वक्त बिताया करते थे, और राम बाबू जैन (गैलरी के संस्थापक) उनकी कला में पैसा लगाते और उन्हें प्रैक्टिस के लिए जगह देते थे." इस प्रयास को जीवंत बनाने के लिए कई दूसरी दीर्घाएं और कलाकार भी आ जुटे.

अनवर चित्राकर की कृतियां

प्रदर्शनी में कई अन्य की कृतियां शामिल हैं, मसलन फोटो स्टुडियो महत्ता ऐंड कंपनी और अल्काजी फाउंडेशन ऑफ आर्ट्स सरीखी दिल्ली स्थित संस्थाओं की. इसके अलावा दिवंगत रिचर्ड बार्थोलोक्वयू और उनके बेटे पाब्लो की, कलाकार-डिजाइनर रितेन मजूमदार, प्रतिष्ठित एस.एल. पाराशर, रीमा कुमार और के.पी. रेजी जैसे समकालीन कलाकार और डिजाइनर और द गिल्ड आर्ट गैलरी, चाल.चाल.एजेंसी, अनवर चित्रकार, चटर्जी ऐंड लाल की.

— अर्शिया

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