साइकेट्रिस्ट से एक्टर बने मोहन अगाशे 'दो गुब्बारे' में क्या कर रहे हैं?

पुणे शहर का जश्न मनाने वाली सीरीज दो गुब्बारे की केंद्रीय भूमिका में हैं दिग्गज अभिनेता मोहन अगाशे

'दो गुब्बारे' के एक दृश्य में मोहन अगाशे, साथ में सिद्धार्थ शॉ
'दो गुब्बारे' के एक दृश्य में मोहन अगाशे, साथ में सिद्धार्थ शॉ

मोहन अगाशे की ताजातरीन वेब सीरीज दो गुब्बारे (जियो सिनेमा पर दिखाई जा रही) जाने-पहचाने इलाके पुणे की तहें खोलती है, जो इत्तेफाकन उनका घर भी है. ताउम्र पुणेरी रहे अगाशे ने 1980-90 के दशकों में बॉम्बे की हिंदी फिल्मों में करियर बनाते हुए भी इसी शहर में रहना पसंद किया. वरुण नार्वेकर निर्देशित इस शो में पुणे को रोजी-रोटी कमाने की कोशिश कर रहे एक परदेसी (सिद्धार्थ शॉ) की नजर से दिखाया गया है. वह जिन लोगों से टकराता है, उनमें अजोबा (अगाशे) भी हैं जो लाइफ कोच बन जाते हैं. अगाशे कहते हैं कि रोजमर्रा का ड्रामा दिखाने वाली यह सीरीज शहर की नब्ज पकड़ती है. यह उन ब्योरों के साथ सामने आती है जहां घर के प्रवेशद्वार पर लगे साइन बोर्ड पर लिखा होता है, ''अगर आप बंद नहीं कर सकते तो न खोलें’’. और कैसे यह शहर धीरे-धीरे आपको अपने आगोश में ले लेता है. अगाशे के शब्दों में, पांचवें एपिसोड तक मुख्य पात्र का नजरिया ''मैं कहां आ गया हूं? से निकलकर मैं इस जगह को कैसे छोड़ सकता हूं" पर आ जाता है.

अगाशे खुद कभी पुणे छोड़कर नहीं गए क्योंकि वे मनोचिकित्सक के तौर पर अपना करियर छोड़ना नहीं चाहते थे, जहां उन्होंने महाराष्ट्र मानसिक स्वास्थ्य संस्थान की स्थापना में सहयोगी भूमिका अदा की. आगे चलकर पुणे के अस्पताल का मनोचिकित्सा वार्ड, वार्ड नंबर 26, अगाशे के लिए अभिनय का प्रशिक्षण स्थल बन गया और भावनात्मक स्तर पर उन्हें समृद्ध करने के काम आया. वे कहते हैं, ''यह मेरे जिंदा रहने का साधन था. ज्यादा मेहनताना न मिलने के बावजूद मैंने कई फिल्में कीं.’’

शिक्षा और मनोरंजन के वास्ते मनोचिकित्सा और अभिनय में तालमेल बिठा लेना अगाशे के जिंदा रहने का मकसद बन गया. वे कहते हैं, ''यह मेलमिलाप अपने आप हुआ क्योंकि मैंने पाया कि मस्तिष्क के बारे में पढ़ाने के लिए सिनेमा और थिएटर के कुछ-कुछ हिस्से खासे मददगार थे. इसीलिए मैंने इसे जारी रखने का फैसला किया.’’ इनमें सत्यजित रे, श्याम बेनेगल और सुमित्रा भावे तथा सुनील सुखथणकर के साथ काम के मौके शामिल थे. भावे व सुखथणकर की निर्देशकीय जोड़ी की कुछ कृतियों में अगाशे को ''किताबी जानकारी और अनुभव से निकली समझ के बीच की खाई पाटने’’ का जरिया मिला. उनकी फिल्मों अस्तु (2015) और कासव (2016) में अभिनय करने के अलावा वे उनके निर्माता भी थे. अगाशे कहते हैं, ''उन दोनों ने हमें सिखाया कि रोगग्रस्त व्यक्ति का इलाज कैसे करें और उनके परिवार को कैसे संभालें. जैसे आप पढ़ने के लिए अच्छी किताब चुनते हैं, वैसे ही अच्छा सिनेमा भी चुनना होता है."

बहुत-सा अच्छा सिनेमा युवा फिल्मकारों की बदौलत आ रहा है. बीते दशक में अगाशे भारतीय डिजिटल पार्टी (मराठी चैनल) के हैरी पॉटर स्पूफ में दिखाई दिए और कई लघु फिल्में कीं. वे कहते हैं, ''मुझे इतने अच्छे रोल कभी ऑफर नहीं किए गए जितने पिछले दशक में मिले थे. नई पीढ़ी फिल्म बनाने की तकनीक में कहीं निष्णात है.’’

जीवन के गुदगुदाने वाले पहलुओं को लेकर बनने वाला काम ही इन दिनों दिग्गज अदाकार को आगे बढ़ाता है. उनका अगला काम आउटहाउस हिंदी फीचर फिल्म है, जो निधन से पहले भावे की आखिरी पटकथा भी थी. उस फिल्म के भी निर्माता अगाशे बताते हैं कि यह 73 बरस की औरत और 75 बरस के आदमी के बीच दोस्ती की कहानी है, जिनके किरदार शर्मिला टेगौर और उन्होंने अदा किए हैं. इसमें एक बच्चा और एक पिल्ला भी है. वे कहते हैं, ''इसमें न हिंसा है, न विलेन, न सस्पेंस. यह सीधी-सादी, दोटूक कहानी है.’’ इन प्रोजेक्ट में निवेश पर अच्छा रिटर्न भले न मिले, पर ये अदाकार अपने सिनेमा को इसी तरह पसंद करते हैं. अगाशे कहते हैं, ''मेरी जिंदगी सीधी-सादी है. मुझे कभी संघर्ष नहीं करना पड़ा. यही वजह है कि मैं अपनी आत्मकथा नहीं लिख रहा हूं."
 

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