कुमार गंधर्व की सदी पर

उत्सव में एम. व्यंकटेश कुमार और उल्हास कशालकर जैसे बेहतरीन गायक तो हैं ही, नई पीढ़ी से सितारिये निलाद्रि कुमार और तबला वादक सत्यजीत तलवलकर भी सम्मिलित हैं.

सुरों का गंधर्व : कुमार गंधर्व अपनी  एक प्रस्तुति के दौरान  (फाइल फोटो)
सुरों का गंधर्व : कुमार गंधर्व अपनी  एक प्रस्तुति के दौरान  (फाइल फोटो)

राजेश गनोदवाले

उसी धारवाड़ से जहां की उपज पंडित कुमार गंधर्व थे, आज के दिग्गज गवैये एम. व्यंकटेश कुमार भी आते हैं. वे कुमार गंधर्व के बारे में कहते हैं, ''उनके लिए गंधर्व नाम सार्थक है. स्वर गंधर्व थे वे. सौ वर्षों में ऐसा एक कलाकार पैदा होता है. उन्होंने संगीत को आध्यात्मिक सुंदरता से जोड़ा था.’’ व्यंकटेश ने यह बात यूं ही नहीं कही.

पद्मविभूषण कुमार गंधर्व को कायदे से सदी का गवैया ही कहना होगा. सार्वजनिक जीवन से संबद्ध कलाकार हमेशा जन स्वीकृति के कारण लोकप्रिय होते आए हैं, वही उनकी असल पूंजी है. बगैर गुणग्राही श्रोताओं के सामने सितारा कलाकार भी जमीन पर सिमट जाता है. कुमार जी के मामले में दो विरले उदाहरण दिखाई पड़ते हैं.

अपने श्रोताओं से उन्हें खासा लगाव था. वे उनके मुताबिक महफिल जम न पाने पर अपनी ही इच्छा से दोबारा गाने को तैयार हो जाते थे (रायपुर का ऐसा वाकया काफी चर्चित है). उधर, गुणी सुनने वाले भी उनके पास दौड़े चले आते थे. ऐसे में जब उन्हें याद करने की घड़ी आए तो जन्मशती का महत्व समझना कठिन नहीं. 

कुमार गंधर्व मात्र खयाल गायक नहीं, बहुत कुछ थे. यानी अपनी गायिकी से खुद ही जिरह करता हुआ एक विचारवान मानस. खयाल के स्थापित घरानों के समकक्ष अपना नवरूप लेकर छा जाने वाला व्यक्तित्व. उनके होने के सौ साल का अवसर अब शुरू हो गया है. ऐसे में देश की संगीत पट्टी, खासकर खयाल गवैयों के गलियारों में जन्म शताब्दी की गूंज बनी रहेगी.

संभव है, अन्य संस्थाएं या समूह भी श्रद्धावश कुछ न कुछ करना चाहें लेकिन मुख्य आयोजन देवास के कुमार गंधर्व प्रतिष्ठान का ही रहेगा. उसी दिशा में पहला हस्तक्षेप करने कुमार जी की पुत्री कलापिनी कोमकली ने 3 अप्रैल को ही मुंबई रवानगी डाल दी जहां 8 तारीख से ''पंडित कुमार गंधर्व जन्मशती समारोह’’ का औपचारिक शुभारंभ होना है. इस खास घड़ी पर परिवार जितना गद्गद है उतना ही सजग भी.

यकीनन जब दिग्गज गवैये की पुत्री स्वयं गायक हों तो पिता की रचनात्मक विरासत पर एकाधिकार सहज बात है. वे साफ कहती हैं कि गली-कूचों में होने वाले आयोजनों को जन्मशती से न जोड़ा जाए. जबकि कुमार जी के सुपौत्र भुवनेश कोमकली इस मायने में जरा उदार दिखाई देते हैं.

उस दिग्गज शख्सियत के सौ वर्ष की वेला पर दोनों लगभग दो वर्षों से 'कैसे हो, क्या हो’ की उधेड़बुन को अब जाकर नतीजे तक ला पाए हैं. योजनाएं सुंदर हैं और एकाधिक. कलापिनी बताती हैं, ''मुंबई से सिलसिला आरंभ होगा. दिल्ली, धारवाड़, चंडीगढ़, नागपुर, बनारस आदि इस तरह करीब साल भर हर महीने एक समारोह होगा. गाना बजाना, बातचीत और प्रदर्शनी को जोड़कर उत्सव को बहुरंगी  बनाया जाएगा.’’

कार्यक्रमों की इस शृंखला का आरंभ ''कालजयी’’ शीर्षक से मुंबई के टाटा थियेटर में नेशनल सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आटर्स (एनसीपीए) के साथ मिलकर होगा जिसमें दो दिनों तक नौ कलाकार सुने जाएंगे. पहली सांझ घराने की तीसरी पीढ़ी अर्थात सुपौत्र भुवनेश के गायन से होगी जो खुद निष्णात गवैये हैं.

पिता मुकुल शिवपुत्र और दादा की ईजाद की हुई शैली को वे अपने श्रम से सींच रहे हैं. एक खास प्रसंग का आरंभ उनके जरिए होने का रोमांच उनके कहे में साफ झिलमिलाता है. वे कहते हैं,''पिछले सौ सालों में इतना क्रांतिकारी गवैया सामने नहीं आया. साठ के दशक में उन्होंने आधुनिक मनस्थिति अपना ली थी. उनके लिए आमतौर पर होने वाली कॉन्सर्ट से वह तारीख अलग होगी.’’

भुवनेश के कहे को समझना कठिन नहीं. कुमार जी आजीवन जितनी चुनौतियों से घिरे, उनके किसी समकालीन के साथ ऐसा नहीं रहा. 'घरानों की जकड़बंदियों से बाहर निकलो’ वाला उनका चिंतन आज भारतीय शास्त्रीय संगीत का मूलाधार-सा है. समारोह में कुमार जी की गायिकी के सर्वांग को आत्मसात कर अथवा उनके किसी भी रचनात्मक अवदान से अपनी संगीत यात्रा को खूबसूरत बनाने वाले कलाकार भी संवाद में बात रखेंगे. वरिष्ठ शिष्य सत्यशील देशपांडे और गायिका श्रुति साडोलिकर से 'इस गायन पद्धति’ को लेकर क्या सोचते हैं, समझने को मिलेगा. नृत्यांगना शमा भाटे, कुमार जी की रौशनी से अपना नृत्य चिंतन व्यक्त करेंगी.

उत्सव में एम. व्यंकटेश कुमार और उल्हास कशालकर जैसे बेहतरीन गायक तो हैं ही, नई पीढ़ी से सितारिये निलाद्रि कुमार और तबला वादक सत्यजीत तलवलकर भी सम्मिलित हैं. तैयार और समझबूझ के साथ संगत करने वालों की जमात में सत्यजीत अगुआ हैं. वे याद करते हैं, ''बचपन में ही घर में कुमार जी का कैसेट लगा दिया जाता था. वह संस्कार कानों में कहीं जाकर ठहर गया.’’ 

जन्मशती की सुगंध तो और भी राज्यों-शहरों में फैलेगी लेकिन ग्लैमर की नगरी मुंबई में ''कलात्मक वैचारिकता’’ का आरंभ करने वाले गायक को नई पीढ़ी भी अपने करीब आते देखेगी, जो इसका एक अहम उद्देश्य है.

आमतौर पर जन्मशती सरीखे आयोजन एकरसता के कारण निर्जीव होकर रह जाते हैं. इस बात का खास खयाल रखते हुए प्रतिष्ठान ने युवाओं को कुमार जी के संघर्षमय दिनों, जब वे तपेदिक से जूझ रहे थे, की झलकियां दिखाना भी तय किया है. कुमार जी तपेदिक से पीड़ित होने के बाद लगभग साढ़े छह वर्ष तक अपनी विधा से दूर रहे थे. गाना पूरी तरह बंद और जीवन पलंग पर सिमट गया था.

लेकिन अपने ही हौसले से वे फिर उठ खड़े हुए. जब दोबारा स्वस्थ होकर बाहर निकले तो उनका गायन पुनर्नवा हो चुका था. दुनिया चकित थी. राग वही थे लेकिन उसे देखने की दृष्टि बदल गई थी. वे जो गा रहे थे, उनसे पहले किसी ने वैसा गाना नहीं सुनाया था.

गौर कीजिए कि कुमार जी से पहले अकेला ऐसा कोई गवैया नहीं हुआ जिसके गायन की समूची इमारत चिंतन पर टिकी हुई हो. घराने उनके लिए बेमानी थे. पुत्री द्वारा संपदित किताब कालजयी कुमार में खुद कुमार जी का संगीत पर कथन उनके खुले मन को दर्शाता है: ''जो संगीत के गले में अपना नाम खुदा पत्थर लटकाते चलते हैं, अंत में फिर संगीत कम, पत्थर ही पत्थर ज्यादा दिखाई देते हैं. कला में किसी एक दुकान का ग्राहक बन जाने से काम नहीं चलता.’’

कुछ ऐसी दूसरी बातें और कुमार जी के जीवन से जुड़े कई पहलुओं को समाहित करने वाली उनकी एक जीवनी का भी 8 अप्रैल को लोकार्पण होगा. वा घट सभी से न्यारा नाम से इसे ध्रुव शुक्ल ने लिखा है. इसके अलावा उनके ऊपर एक वृत्तचित्र भी बन रहा है. इसे नई पीढ़ी के डॉक्युमेंटरी मेकर अमित दत्ता बना रहे हैं.

कुमार जी के बारे में तमाम बातें अधूरी रह जाएंगी अगर इस दौरान उनके घर का जिक्र न हो. मध्य प्रदेश का एक औद्योगिक शहर है देवास. कुमार गंधर्व इसकी एक मझौली-सी पहाड़ी पर बने घर में रहते और रचते थे. इस असाधारण व्यक्तित्व का वह कक्ष उनकी दैहिक अनुपस्थिति के  बावजूद जीवंत लगता है. हर दिन यहां प्रवेश द्वार पर, भीतर जाने से पहले कलाकार या रसिक समाज के लोग श्रद्धा से शीष नवाते देखे जाते हैं.

इस स्थान की दिनचर्या अब लगभग साल भर बदली हुई दिखाई देगी. जन्मशती के चलते यहां साल भर हलचल और बढ़ी-चढ़ी दिखेगी. भोपाल के टॉप ग्रेड वायलिन वादक पंडित प्रवीण शेवलीकर 1995 में देवास में उनकी स्मृति में वायलिन बजाने के अलावा 2007 में घर में संपन्न समारोह में भी वादन कर चुके हैं. वे इसे कभी न भूलने वाली याद कहते हैं, ''यह बात पूरी तरह सही है कि उनके कक्ष में आध्यात्मिक अनुभूति होती है. उस घर का आभामंडल ही आपको एकाग्र कर देता है. मैं उन्हें संगीत का ऋषि व्यक्तित्व ही कहूंगा.’’ 

पारंपरिक संगीत से परे जाकर उसमें से नया तत्व खोज निकालना आसान काम नहीं था. और न उस काल में किसी अन्य कलाकार में ऐसी ताकत थी. कुमार जी निर्विवाद रूप से कालजयी स्वर बनकर आए थे. बने रहेंगे.

कुमार गंधर्व तपेदिक की वजह से साढ़े छह वर्ष तक अपनी विधा से दूर रहे, लेकिन जब वापस लौटे तो उनका संगीत पुनर्नवा हो चुका था  

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