जब बोलता है गुरु ज्ञानी

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में करीब चार दशक तक पढ़ाने वाले एक प्रयोगधर्मी प्रशिक्षक ने तैयार की दिग्गज अभिनेताओं, रंगकर्मियों की बड़ी जमात. अपने दिलचस्प सफर, काम, टेक्नीक और भविष्य की योजनाओं पर बतियाते रॉबिन दास

प्रयोगधर्मी प्रशिक्षक रॉबिन दास
प्रयोगधर्मी प्रशिक्षक रॉबिन दास

यह बात है 1976 की. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में पढ़ रहे रॉबिन कुमार दास से थर्ड ईयर में क्लासमेट और अब मशहूर अभिनेता पंकज कपूर ने उनके भविष्य को लेकर सवाल किया था: ''तू डिजाइन भी कर रहा है, डायरेक्शन भी करता है, ऐटिंग भी करना चाह रहा है. आखिर क्या करेगा तू?'' उन्होंने मजाक में ही जवाब दिया था: ''मेरी गर्लफ्रेंड जहां होगी, उसके साथ जो भी करने का मौका मिलेगा, मैं वही करूंगा.''  और किस्सा-ए-मुख्तसर यह कि ओडिशा के बालेश्वर जिले का यह नौजवान अगले ही साल एनएसडी में सीनिक डिजाइन का एसोसिएट प्रोफेसर बन गया. 37 साल बाद 2014 में जब वे रिटायर हुए तो न सिर्फ एनएसडी में सबसे लंबे समय तक पढ़ाने का रिकॉर्ड बनाया बल्कि यहां से निकले 1,100 में से 500 से ज्यादा कलाकारों को आउट ऑफ द बॉक्स सोचने के काबिल बनाने में उनका निर्णायक रोल रहा. 'रॉबिन दा'. आप बस इतना बोल दें, देश-दुनिया में मौजूद उनका कोई भी छात्र आगे उनसे जुड़ा दिलचस्प किस्सा, पूरे अदब और एहतराम के साथ जोड़ देगा. नवाजुद्दीन सिद्दीकी और स्वानंद किरकिरे की बैचमेट रहीं, गुल्लक सीरीज की शांति गीतांजलि कुलकर्णी की सुनिए, ''शुरू में वे पेड़-पौधों, प्राणियों के बारे में पढ़ा रहे थे. 20 साल की थी. उतना समझी नहीं.

पर जब वे बाकी इतिहास नाटक कराने लगे, तब उसके अर्थ खुले.'' हाल में एनएसडी के सेकंड ईयर के छात्रों को दो हिस्सों में बांटकर दास और बापी बोस (1986 बैच) के निर्देशन में शेक्सपियर का नाटक वेनिस का सौदागर कराया गया. दोनों की प्रस्तुतियों में तुलना लाजिमी थी. पर बोस सिर झुकाते हुए कहते हैं: ''उनसे तुलना! सवाल ही नहीं. मेरे गुरु रहे हैं वे. उस आदमी का अनआर्थोडॉक्स अप्रोच आपको चैलेंज करता है, चौंकाता है. उनसे पढ़कर आप वही नहीं रह सकते जो पहले थे.'' रॉबिन दा ने अब दूसरी पारी के तौर पर सिनेमा और सीरीज में अभिनय शुरू किया है. एक किरदार के वास्ते ही उन्होंने बाल बढ़ा रखे हैं. नई बनती फिल्म सिटी के पास नोएडा के कलाधाम में वे ऐक्टिंग ट्रेनिंग सेंटर भी खोलने जा रहे हैं. अपने लंबे सफर, एनएसडी और नई पहल के बारे में रॉबन दा से बातचीत के अंश:

थिएटर की दुनिया वाले और स्टुडेंट्स सभी आपको रॉबिन दा कहकर बुलाते हैं. यह आपके प्रति उनका...

दरअसल (टीचिंग के दिनों में) मैं शादीशुदा होने के बावजूद छड़ों की तरह स्टुडेंट्स के बीच घुल-मिल जाता था, रात-दिन काम करता था. उनके साथ एक तरह का दोस्ताना होने की वजह से वे सर नहीं, रॉबिन दा कहते थे. सन् 2000 से ऑनवर्ड्स जितने मेरे पढ़ाए हुए हैं, या शायद कुछ ऐसे लोग जो खुद बड़े हो जाते हैं तो फिर मुझे सर से दा तक ले आते  हैं (हंसते हुए), जो अब मुझे पसंद नहीं. जवान था तब ठीक था. ये बंगाली टच मुझे ठीक नहीं लगता. मैं ओडिशा का हूं, हम लोग दादा तो अपने चाचा को ही बोलते हैं. और ये दा शब्द आल्मोस्ट डेरोगेटरी (लगभग अपमानजनक) हो गया है. नई जेनरेशन वाला कोई बोलता है तो मैं डपट देता हूं. जिस कदर जी-जान लगाकर मैंने काम किया है, एनएसडी में मेरा जिस तरह का योगदान है, इस इंस्टीट्यूशन का जो स्टैंडर्ड है, और जो मेरी सीनियॉरिटी है, यह टाइटल शायद उस सबको खंडित कर देता है. इतना फैमिलियर! मेरे ख्याल से मैं ही (इब्राहिम) अल्काजी, (बी.वी.) कारंत जी, बैरी जॉन, फ्रिट्ज बेनेविट्ज और शिवराम कारंत की लीगेसी को कैरी कर रहा था. खुद को मिटा रखा था. मैं शायद इन लोगों के काम का ट्रांसलेटर ही हूं...तो इस दा के पीछे बहुत प्यार है लेकिन हाल के वर्षों में यह खासा अपमानजनक हो गया है.

आपने 37 साल एनएसडी में पढ़ाया. इरफान, आदिल हुसैन, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, स्वानंद किरकिरे, राजपाल यादव और इसी तरह से थिएटर में सक्रिय बीसियों उम्दा कलाकार आपकी ट्रेनिंग लैब से निकले. एनएसडी के दिनों का आपका अनुभव कैसा रहा?

ऐक्टर बनने की चाहत के अलावा हाइस्कूल से ही मुझे ड्राइंग, स्केचिंग की आदत थी. टीचर बनने पर लगा कि डिजाइन, ऐक्टिंग और डायरेक्शन तीनों का मौका मिलेगा. ड्रामा स्कूल पास करने के बाद एक लफंडर स्टाइल मार के घूमता था मैं, फिर तय किया कि मैं यहीं रहूंगा. दूसरे टीचर पढ़ाने के बाद बाहर पैसे कमा रहे थे. मेरे अंदर कुछ आदर्शवादी पागलपन था. मुझे एक थिएटर लैब चाहिए था अपने प्रयोगों के लिए, तो अपना ग्रुप बनाया. सेट और कॉस्ट्यूम डिजाइन पर मेरा ज्यादा जोर था. अस्सी का दौर था, एक तरफ बादल सरकार थर्ड थिएटर का कॉन्सेप्ट लेकर आ रहे थे, एक तरफ अल्काजी और एक तरफ कारंत जी. इन तीनों से छनकर कुछ चौथा ही रिजल्ट आ रहा था और ऑडियंस तुरंत बाउंसबैक भी कर रही थी. पर स्टेजवर्कर्स को बुरा लग रहा था कि स्टेजक्राफ्ट जैसे थर्ड डिग्री स्पेशलाइजेशन से निकला आदमी प्ले डायरेक्ट करेगा! उन्हें पता ही नहीं था कि मैं अंग्रेजी और ओडिया लिट्रेचर में ग्रेजुएशन करके आया था. 1985 तक आते-आते मेरे अंदर एक फॉर्मेट आ गया था कि इंडियन थिएटर का प्रस्तुतीकरण का तरीका यथार्थ की नकल करने का नहीं है. उसकी गहरी खोज भी करता रहा. ग्रोटोवस्की और ब्रेख्त को खूब पढ़ा. उस वक्त राष्ट्रीय परिदृश्य पर उच्च स्तर के नाटक प्रस्तुत कर चुके लोगों को ही स्टुडेंट्स के साथ नाटक डायरेक्ट करने के लिए बुलाया जाता था. आज तो ड्रामा स्कूल का कोई भी टीचर उठके प्ले डायरेक्ट करने लगता है और कुछ भी थ्यौरी वे लोग अपने आप में बकते हैं.

एनएसडी के छात्रों में आपकी ट्रेनिंग स्टाइल के बड़े चर्चे रहे हैं. ओडिशा में एक बार आपने स्टुडेंट्स को पाला गायकों के आयोजन में परफॉर्म करने को कहा तो वे आधे घंटे में ही थक-चुक गए.

टुअर्स को स्टुडेंट्स अमूमन मौजमस्ती में कन्वर्ट कर देते हैं. साइटसीइंग हो रही है. उसको एक सीरियस एकेडमिक नोट देने के लिए मैंने एक शब्द गढ़ा: वर्कशॉप ऑन द व्हील्स. तो 2003 में एक बार ओडिशा ले गया. बस में हम जा रहे थे. (भुवनेश्वर से) कोई 15 किलोमीटर आगे कोई आश्रम टाइप का है, जहां खास तरह के पुराने ढंग के, पेड़ों से निकले हुए वल्कल से बने वस्त्र पहनने वाले संन्यासी रहते हैं. मैं वहां के लैंडस्केप, क्लाइमेट और मंदिरों के वास्तुशिल्प को समझाते हुए चल रहा था. सडेनली देखा कि एक छात्र ईयरफोन लगाके कुछ सुन रहा था. मैं उसका ईयरफोन कान से खींचकर निकाला और कहा कि भाई, तू कितना भी गुस्सा करे, मैं इसको फेंक रहा हूं. मैं उसे बाहर फेंक दिया. बस रुकी, सब उतरे. मैंने सबको वहीं बुला लिया. मैंने कहा, मैं आगे बढ़ूंगा नहीं. आपको यह समझ में आना चाहिए कि क्यों? मैं तुम्हारा टुअर गाइड नहीं हूं, साइटसीइंग कराने नहीं आया हूं यहां. यह क्लास पीरियड है. कुल मिलाकर बात यह थी कि स्टुडेंट्स के साथ हम जो भी वक्त बिता रहे हैं, उसे ज्यादा से ज्यादा उपयोगी कैसे बनाएं. 

उन्हें समझ आ गया.

इसी तरह से मैंने ब्लाइंड गेम करवाया. मैंने कहा, तुम्हारे बाकी परसेप्शंस थोड़ा खुलने चाहिए. आपके हाथों को शेप्स समझ में आनीं चाहिए क्योंकि डिजाइन स्टुडेंट्स हैं कि जिस चीज को हम आंख से देख रहे हैं, उसे हम हाथ से फील करेंगे, बॉडी से फील करेंगे, हाउ अ ग्लोब फील्स, हाउ अ पिरामिड फील्स, हाउस अ ट्रैपेजियम फील्स, हाउ अ स्क्वायर फील्स. टैक्टाइल रियलिटी को आप रियलाइज करना शुरू करें. तो फिर देखा कि कुछ लोग वहां चीटिंग कर रहे थे. बीच-बीच में जान-बूझकर आंखें खोल रहे थे. एक-दूसरे को चुटकी काटना. मैंने बात वहीं रोक दी और कहा, 'मुझे कुछ कहना है.' सब मुझे देखने लगे. मैंने बैरी जॉन से यह सीखा था. तो मैंने तीन मिनट का मौन रखवाया तब उन्हें लगा कि मैं सचमुच सीरियस हूं. मैंने कहा, 'ये जो पेड़ दिख रहा है सामने. इसमें तीन शाखाएं हैं. तुम लोग ब्लाइंड होके जाओगे, सिंसियरली. चढ़ो.

एक-दूसरे को पैर लगना नहीं चाहिए, गिरना नहीं है. बस पांच मिनट अच्छी तरह से देख लो पेड़ को. उसके बाद आंखें बंद करके चढ़ो.' तब उन्हें उसको सिंसियरली ऑब्जर्व किया और धीरे-धीरे चढ़ना शुरू किया. मैं एक-एक को देख रहा हूं और बता रहा हूं: 'तुम्हारे पैर से कम-से-कम एक फुट नीचे दूसरा बंदा है, ध्यान से. तुम सही जगह पर हो. अब आसपास क्या-क्या है, उसे स्पर्श से अच्छी तरह महसूस करो. फिर सीटी बजाकर पांच मिनट में धीरे-धीरे उतरने को कहा. घंटे भर के इस अभ्यास में वे ऐसे ट्यून हुए कि बिना आंख खोले और बिना गिरे-पड़े सारे 11 के 11 एक जगह आ खड़े हुए. आर्ट एक्सरसाइज की यही खूबी है. जब छात्र का उससे लिंक बन जाता है फिर टीचर की, रॉबिन दास की कोई जरूरत नहीं बचती. तब जर्नी अहम बन जाती है. अब इनमें से कितने इस जर्नी को याद रखेंगे और भीतर उसका कितना बचेगा, मुझे नहीं पता. लेकिन कम-से-कम उन्हें इतना तो ध्यान में रहेगा कि ऐसे एक अनुभव से वे प्रभावित हुए थे. इसका श्रेय असल में थर्ड थिएटर को जाता है. उसी से हमने ऐसे तमाम तरह के खेल और थिएटर एक्सरसाइजेज सीखीं. कई थिएटर गेक्वस को मैंने विजुअल टीचिंग गेम्स में तब्दील किया.

जैसे साहित्य में किस्सागोई के दौरान कहते हैं, एक समय की बात है. सिनेमा-थिएटर में वह एक जगह की भी बात हो जाता है. पर आपने इसे थोड़ा और आगे बढ़ाकर एक दरवाजे, खिड़की, कबर्ड जैसे खास एलिमेंट्स तक की बात बना दिया. इस प्रयोग के बारे में थोड़ा बताएं. 

इन चीजों को ऐक्टर से कनेक्ट कराने का मतलब होता है कि वे ऐक्शन-रिएक्शन को ठीक से कर सकें. इमेजिनरी सिचुएशन में जाने पर स्पर्श की अनुभूति उजागर हो. मैं अभी यहीं अगर गांव की बात सोचने लगूं तो चारपाई पर बैठने पर पुट्ठों को होने वाली छुअन भी महसूस हो. अभी मेरे बड़े भाई के देहांत पर साल की लकड़ी और इनसानी मांस की जो गंध है वह मेरी ट्रैजिक मेमोरी का एक हिस्सा बन गई. इसी तरह से मौके की वस्तुओं/ प्रॉप्स से ऐक्टर के एहसास को जोड़ा जाता है और वे भाव उनके भीतर खुल पड़ेंगे.

(अभिनेता) इरफान ने एक बार बताया था कि एनएसडी में पढ़ते वक्त ये ब्लाइंड गेम वाला फंडा मुझे समझ नहीं आता था लेकिन बाद में एहसास हुआ कि इससे हम अपने कोएक्टर्स पर भी भरोसा करना सीखते हैं कि गिरेंगे तो वो बचाएगा...

सिर्फ उतना ही नहीं, हमारे भीतर के कई सारे परसेप्शंस, बिना आंख खोले, खुलने लगते हैं. टच सेंसिबिलिटी इतनी ज्यादा बढ़ जाती है, हियरिंग बढ़ जाती है. आपका अंदाज लगाने का तरीका भी बहुत शार्प हो जाता है. आप जब आंख खोले हुए थे तो पेड़ इतनी दूरी पर था. अब उसका अंदाजा आपको (मन और शरीर क) बिना देखे होने लगता है. यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे कि हम खाने में नमक डालते हैं अंदाज से. पता नहीं आजकल के लोग कैसे करते होंगे, मैं अभी भी नमक अंदाजे से डालता हूं. तो ये जो अल्टर्नेटिव परसेप्शंस हैं, उनको उजागर करना ज्यादा इंपॉर्टेंट होता था. आर्ट ट्रेनिंग में यह बहुत जरूरी है. सिर्फ इंटेलेक्चुअल ट्रेनिंग से नहीं होगा.

आपने अभी एनएसडी सेकेंड ईयर के साथ जो मर्चेंट ऑफ वेनिस किया, उसमें अपने इन प्रयोगों से जुड़े कुछ वाकए साझा करना चाहेंगे? 

प्रॉब्लम की बात क्या थी कि ये बैच कोरोना के दिनों का बैच था. और इनके फर्स्ट ईयर में कुछ पढ़ाई-वढ़ाई हुई नहीं है. सेकेंड ईयर में इन्होंने मेरे से पहले हड़बड़ी में दो प्रोडक्शन कर लिए थे. लेकिन उसमें ऐक्टिंग ट्रेनिंग पर कितना काम हुआ है, ये मैं इनको देखकर अंदाजा लगा सकता हूं. (इस प्ले में) सारे बेसिकली (जैसे) रामलीला में लगे हुए थे. लेकिन क्लाउन बनी (अंजलि नेगी, जिन्होंने लैंसलॉट का भी किरदार किया) लड़की बहुत ही टैलेंटेड है. पर वह टेक्नीक के बारे में परवाह नहीं करती. मैं कहूंगा कि वह अकेली लड़की थी जो डांट सुनती रही, क्रिटिसिज्म सुनती रही, हतोत्साहित न होकर, दोबारा-दोबारा. रोज उसको दो बार डांट पड़ती और तीन वार वो नया काम करके दिखाती थी. मैंने उसे थोड़ी छूट दी थ कि कोई फिक्स जेस्चर्स नहीं चाहिए मुझे, तुम जो करना चाह रही हो करो. उसने धीरे से अपनी तरफ से फिक्स करना शुरू कर दिया, हिप को, बॉडी को इधर-उधर करना. नाटक में जो भी देखा आपने, उसे 10-12 पहले से वो धीरे-धीरे सेट करती रही.

इसे मैं बेहतरीन स्टुडेंट की मिसाल के तौर पर देखता हूं जो कि उस (किरदार के मनोवैज्ञानिक) इतिहास को ले रही थी. इसी तरह से मुख्य किरदार बेसैनियो करने वाला छात्र (दीपक राव). पहले वो एब्सोल्यूटली ब्लैंक था. वो कह रहा है कि सर, अंदर कुछ हो ही नहीं रहा है. पुरानी घटना से मैंने स्टोरी बनाई, फिर कुछ एक्सरसाइजेज से और लीड किया उसको. और फिर 7-8 दिन बाद एकाएक मैंने उसकी आंखों और शरीर में कुछ होते हुए देखा. इसी तरह से शाइलाक (पुनीत कुमार नंदा) धीरे-धीरे ग्रो कर रहा था लेकिन आखिरी सात दिनों में वो एकाएक विलेन बन गया. शाइलाक को मैं विलेन के रूप में नहीं प्रस्तुत करना चाहता था. उसके सामने ऐसी मजबूरी और तकलीफ पैदा की गई है कि एक लीगल क्लू पकड़के किसी की जान लेने की हद तक वह चला गया था. उसे एक ह्यूमेन ढंग से देखना चाहिए न कि अचानक एक रावण की प्रतिमूर्ति के रूप में.

रॉबिन दा, आपने थिएटर में आर्गेनिक इंटीग्रेशन पर बहुत काम किया है, जो कि थिएटर में ट्रेनिंग का एक बेहद अहम पहलू है. थोड़ा इस पर रोशनी डालिए.

हमारे नाट्य शास्त्र में भी अभिनय सिर्फ ऐक्टर के काम को नहीं कहते. अभिनव गुप्त कहते हैं कि सारी संरचना को मिलाने के बाद ही अभिनय बनता है. मॉडर्न थिएटर मेकिंग में ऑर्गेनिक इंटीग्रेशन की बात सबसे पहले दो डिजाइनरों ने एडॉल्फ आपिया और गॉर्डन क्रेग ने कहनी शुरू की. उनका कहना था कि सारे तत्व आपस में परिपूरक के रूप में जुड़ने चाहिए. मॉडर्न थिएटर का पिता कहा जाता है इन दोनों को. इनके बाद फिर पोस्टमॉडर्न शुरू हो गया. लेकिन मॉडर्निटी के बेसिक्स को तो पोस्टमॉडर्न भी अवॉयड नहीं कर सकता ना. और मैं इन उभरते हुए नए डायरेक्टर्स में यही (समस्या) देख रहा हूं. अभी ड्रामा स्कूल में जो कुछ-कुछ प्ले डायरेक्ट कर रहे हैं, उनमें अभिलाष पिल्लै ही एक मैच्योर डायरेक्टर हैं. वर्ना बाकी के ज्यादातर नाटकों में आप मिक्सर की तरह (सारी चीजें अलग-अलग) देख सकते हैं. नमक डाल दो, पानी डाल दो, कैरोसिन डाल दो, ये तीनों एक-दूसरे के साथ कुछ नहीं करेंगे.

तो बतौर डायरेक्टर और बतौर डिजाइनर भी मेरे लिए ऑर्गेनिक इंटीग्रेशन बहुत जरूरी एलिमेंट है. मैं जब किसी प्ले को डिजाइन करता हूं तो नॉर्मली इस बात पर जोर देता हूं कि उसका कॉस्ट्यूम भी डिजाइन करूंगा. (बी.वी. कारंत जी के साथ मैकबेथ का हिंदीकरण जब बरनम वन के नाम से हुआ तो उसका कॉस्ट्यूम, सेट और स्पेशन प्रॉप्स मैंने ही डिजाइन किए. मैंने कहा कि तभी तीनों एक दूसरे के परिपूरक होंगे. वर्ना एवरीबडी विल बी रिपीटिंग द सेम थिंग. बरनम वन में में कॉस्ट्यूम को मैंने लोकेशन डिपिक्शन में यूज किया. सेट में मैंने चारों तरफ सिर्फ काला किया था. चार एंट्री रखी थीं. कॉस्ट्यूम राजमहल और जंगल से जुड़ जाती थी. मैकबेथ और बैंको जब जंगल में हैं तब उनकी कॉस्ट्यूम्स में रंगों का विस्तार अलग तरह का है. जब वो अपने दुर्ग में आते हैं तो ऊपर का उत्तरीय चेंज हो जाता है. थोड़ी देर में धोती चेंज हो जाती है. कलर्स चेंज होते हैं. यहां तक कि यक्षगान मंर भी आप देखेंगे कि कोई सेट नहीं है. चारों तरफ ऑडियंस बैठी हुई है. तो कॉस्ट्यूम्स अपने आप में पूरे एंबियांस को क्रिएट करता है. तो ये आपने बहुत इंपॉर्टेंट प्वाइंट पकड़ा है. ज्यादातर डायरेक्टर्स इसको मिस कर रहे हैं. कॉस्ट्यूम, सेट, लाइटिंग, म्यूजिक और ऐक्टर, ये सारे एक-दूसरे के परिपूरक का रोल अदा करें.

अब तो आप नए सिरे से सिनेमा में सक्रिय हो गए हैं. 

मैं उस बारे में सीरियस नहीं हूं. बॉम्बे में नहीं, यहीं रहता हूं. 2018-19 में ऐक्टिंग से 20-25 लाख रु. कमा लिए थे. लॉकडाउन में मेरा मार्केट डाउन हो गया था पर अब फिर जोर पकड़ रहा है (हंसते हैं). महारानी-2 में एकल मुंडा का अच्छा रोल मिल गया था. अभी नटवरलाल जैसा एक रोल मिला है. उसने बहादुरशाह जफर का गोल्डेन टॉयलेट चोरी करके अपने घर में लगा रखा है और एक शेर में ऐसा कुछ कहता है कि अब तो तशरीफ भी सुनहरी होगी. एक बनने जा रही जनता बैंड वेबसीरीज में मेरा मेजर रोल है. 

ऐक्टिंग ट्रेनिंग सेंटर की भी बात थी.

हां, नोएडा के कलाधाम में अपना एक स्टुडियो बन रहा था पर लॉकडाउन में कमाई खत्म होने से धीमा पड़ गया है, अभी सालेक लगेगा. एक डिजाइन ट्रेनिंग और ऐक्टिंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट भी खोलना चाहूंगा. वहां परफॉर्मेंस तो नहीं पर रिहर्सल हो सकती है. मैं मिनिएचर ड्रामा नहीं कर सकता. ड्रामा स्कूल में मैंने अपने ऊपर ग्रैंड प्रोडक्शन का भार ले लिया था. अल्काजी, बैरी और कारंत के बाद मैं ही हूं जो इस भारी बोझ को उठा सकता हूं. कमर टूट जाती है मेरी.

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