स्मृतिः कभी न होगा उनका अंत
बेबाक बयानी, निश्छल मन, स्वाभिमान और उदारता उनके व्यक्तित्व के अभिन्न गुण थे. ख्याति और लोकप्रियता के शीर्ष पर भी उन्हें दंभ कभी छू न पाया.

मन्नू भंडारी 1931-2021
ममता कालिया
बड़ा मनहूस रहा 15 नवंबर, 2021 का दिन. साहित्य-जगत का एक जगमग सितारा टूटकर गिरा. हमारी प्रिय रचनाकार मन्नू भंडारी का निधन हो गया. तकलीफ में तो कई वर्षों से थीं जब उन्हें न्यूरोल्जिया (नस का दर्द) शुरू हुआ. फिर भी वे हिम्मत कर लिखती रहीं. आंखों की समस्या और भी भीषण साबित हुई. समस्त उपचार के बावजूद काला मोतियाबिंद आंखों में पसरता गया.
तरह-तरह की शारीरिक, भावात्मक और स्नायविक व्याधियों में एक पूर्णकालिक नौकरी निभाई, बीसियों पुस्तकें लिखकर हिंदी कथा साहित्य को समृद्ध किया, कई दर्जन कहानियों में स्मरणीय पात्र और परिस्थितियां दिखाईं, नाटक लिखे, अपने उपन्यास महाभोज की पटकथा लिखी, टीवी के लिए रजनी जैसा यादगार धारावाहिक लिखा और यही सच है कहानी पर आधारित यादगार सर्वश्रेष्ठ फिल्म रजनीगंधा लिखी.
उनकी बहुआयामी प्रतिभा हरफनमौला कमलेश्वर से कतई कम न थी पर वे रचनाओं की सौदागर न थीं. बासु चटर्जी सम्मानपूर्वक उनसे फिल्म और दूरदर्शन के लिए लिखने का अनुरोध करते और वे मनोयोग से यह काम कर देतीं. कह सकते हैं जब तक लेखक साथी राजेंद्र यादव का प्रेम और उत्साह उनके साथ रहा, उनकी रचनाशक्ति जाग्रत और जीवंत रही.
अपने शीर्ष रचनात्मक वर्षों में उन्होंने कमतर और कमजोर लेखिकाओं को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व पर हावी होते देखा. कम दवा से कोई नहीं मरता, कम प्रेम से जरूर मर जाता है. उन्होंने स्त्री-विमर्श का बाजारवादी शोर देखा.
इसीलिए सन् 2003 में उत्तर प्रदेश स्त्री-विमर्श विशेषांक में उन्होंने विशेष रूप से लेख लिखा 'स्त्री-विमर्श का यथार्थ’, जिसमें बिना तिक्तता के उन्होंने अपने विचार रखे: ''आज स्त्री-विमर्श से कहीं ज्यादा पुरुष-विमर्श की जरूरत है. पिछले 35-40 वर्षों में स्त्री ने अपने को जड़ संस्कारों से मुक्त किया है, पुरुष आज भी जिसमें बंधा बैठा है’’
''नहीं, मुझे ऐसी कोई शिकायत नहीं रही कि स्त्री होने के नाते लेखन के क्षेत्र में मेरे साथ कोई भेदभाव किया गया हो या कि मुझे खामियाजा भुगतना पड़ा हो. साथ ही यह भी कह दूं कि स्त्री होने का कोई फायदा भी मैंने कभी नहीं उठाया.’’
ये हैं एक संतुलित, जागरूक, प्रबुद्ध स्त्री के विचार जिसने अपने रचनात्मक दृष्टिकोण से साहसिक रचनाएं दीं. उन्होंने दलित-विमर्श और दलित-समाज के राजनीतिक दुरुपयोग की बात तब लिखी जब दलित-विमर्श का झंडा बुलंद नहीं हुआ था. उन्होंने विभाजित परिवार का बच्चे के मनोविज्ञान पर प्रहार जैसा अग्रगामी विषय तब उठाया जब इस पर भारतीय कलम नहीं चली थी.
मन्नूजी की पहली या दूसरी कहानी इलाहाबाद से कहानी पत्रिका में छपी थी. हम सभी रचनाकारों की तरह मन्नूजी ने भी अपनी रचना की हस्तलिखित प्रति संपादक के नाम बुकपोस्ट की थी. इस बीच पत्रिका के संपादक श्यामू सन्यासी की बजाय भैरवप्रसाद गुप्त हो गए थे. उन्हें कहानी पसंद आई और उन्होंने स्वीकृति-पत्र भेज दिया.
यह तो बाद में पता चला कि उनकी कहानी भैरवजी जैसे घनघोर मार्क्सवादी के हाथों से गुजरी है. आज चंद लोग जो उन पर प्रतिक्रियावादी होने का आरोप लगाते हैं, नहीं जानते कि भैरवजी की अदालत में किसी को लिहाज या डिस्काउंट पर नहीं छापा जाता था. मन्नू भंडारी ने पहले से उस सिर उठाती, सवाल पूछती स्त्री के बारे में लिखा जो पढ़-लिख कर नौकरी के क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है.
आपका बंटी की नायिका शकुन कॉलेज की प्राचार्य है. एक इंच मुस्कान, त्रिशंकु, आंखों देखा झूठ, तीन निगाहों की एक तस्वीर, ऊंचाई, सजा, अकेली, न जाने कितनी रचनाएं हैं जो हमारी स्मृतियों का अक्षय कोष बनी हुई हैं. बेबाक बयानी, निश्छल मन, स्वाभिमान और उदारता उनके व्यक्तित्व के अभिन्न गुण थे. ख्याति और लोकप्रियता के शीर्ष पर भी उन्हें दंभ कभी छू न पाया.
मन्नू भंडारी अपनी समकालीन रचनाकारों की कॉन्ट्रास्ट थीं. कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा और मन्नू भंडारी में सबसे सहज कलम मन्नूजी की थी. सजगता के साथ सहजता कायम रखना एक बड़े लेखक की पहचान है. मन्नू भंडारी स्व और पर के बीच सम्यक संतुलन बैठाते हुए आपका बंटी जैसा जटिल उपन्यास लिख गईं कि स्वयं मोहन राकेश को उनसे कोई शिकायत न हुई.
आपका बंटी मोहन राकेश के जीवन से प्रेरित रचना है. एक कहानी यह भी में मन्नूजी ने अपने विद्यार्थी जीवन की सक्रियताएं तो दर्ज कीं ही, उन घटनाओं को भी कुरेदा जो पति-पत्नी संबंधों में कील-से कसकते रहे. लेखक के अंदर उमड़ते उत्साह, उमंग, असमंजस, प्रबोध, प्रबुद्धता, द्वंद्व और दुविधा, आशा और हताशा, इन सभी भावों का इस पुस्तक में बेहद सजीव और संयत आकलन हुआ है. 16 नवंबर को भारी मन से हम सब मन्नूजी को विदा देकर लौटे हैं. वे फिर-फिर मिलेंगी हमें, किताबों में, यादों में.