किताबेंः दलित स्त्री आत्मकथा के मायने
उच्च शिक्षा संस्थानों में स्थायी नियुक्तियों पर स्थायी विराम लग रहा है तब क्या सुमित्रा जैसी युवतियां ‘अपनी प्रतिभा और श्रम’ के बल पर वांछित मुकाम तक पहुंच सकेंगी?

बजरंग बिहारी तिवारी
हिंदी में पहली दलित स्त्री आत्मकथा कौशल्या बैसंत्री लिखित दोहरा अभिशाप 1999 में छपी थी. इस खतरे को भांप यथास्थितिवादियों और अस्मितावादी पुरुषवादियों ने ऐसा प्रतिकूल माहौल बनाया कि अगले 11 वर्षों तक कोई दलित स्त्री आत्मकथा नहीं छपी. सुशीला टाकभौरे ने 2011 में इस ठहराव को शिकंजे का दर्द आत्मकथा लिखकर तोड़ा.
उसके बाद तो इस विधा में गति आई और एक-एककर तीन दलित स्त्री आत्मकथाएं प्रकाशित हुईं. इस वर्ष (2021 में) दो और आत्मकथाएं प्रकाशित हुईं: सुमित्रा महरोल की आत्मकथा टूटे पंखों से परवाज तक और कौशल पवार की बवंडरों के बीच. महरोल की आत्मकथा कई कारणों से महत्वपूर्ण है.
जैसा शीर्षक से स्पष्ट है, आत्मकथा में लेखिका का दृढ़ व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है. दलित स्त्री विमर्श को ऐसे मजबूत व्यक्तित्वों की बहुत जरूरत है. एक पुरुषवादी समाज में महिला होना, एक जातिवादी समाज में दलित होना और एक निष्ठुर समाज में विकलांग होना ये हाशियाकरण के तीन मुख्य आधार हैं जिनसे लेखिका जूझती हुई आगे बढ़ी है.
पहली 'निर्योग्यता’ दूसरी को और दूसरी तीसरी को मजबूती देती हुई उसका आगे बढऩा दुश्वार करती रही है. विषाद के छोटे-बड़े अंतरालों के बावजूद सुमित्रा ने निरंतर संघर्ष किया, कभी हार नहीं मानी और कभी इनसे उपजी तिक्तता या उदासी को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया.
सुमित्रा साल भर की भी नहीं हुई थीं जब उनके पांव पोलियोग्रस्त हुए. पिता बिजली विभाग में क्लर्क थे और मां घर संभालती थीं. दो बड़े और एक छोटे भाइयों के बीच स्नेह और उपेक्षा के विषम अनुपात में सुमित्रा पली-बढ़ीं. कई ऐसी चोटें हैं, टीसें हैं जो बचपन में सुमित्रा को मिलीं और याद रह गईं. छोटे भाई को माता-पिता फिल्म दिखाने ले गए और लंगड़ाते-घिसटते पीछे लगी बिलखती बच्ची को सड़क पर छोड़ दिया.
कुछ इसी तरह के अनुभव स्कूल में भी हुए और कॉलेज में भी. परिस्थितियों से तालमेल बिठाती, ग्लानि और गुस्से को भरसक जज्ब करती सुमित्रा एम.ए. करने विश्वविद्यालय पहुंचीं. विकलांगता के कड़वे अनुभव जातिजनित भेदभाव पर भारी रहे.
टूटे पंखों से परवाज तक की भाषा सादगीपूर्ण और अकृत्रिम है. पढ़ते हुए कहीं ऐसा नहीं लगता कि कुछ छुपाया जा रहा है. प्राय: आत्मकथाओं में ‘आत्म’ या स्व का गोपन होता है. आत्म को छोड़कर शेष जगत दीप्त हुआ करता है. बहुत हुआ तो उस स्व पर नीमरोशनी डाल दी जाती है. सुमित्रा ने ऐसा नहीं किया है. उनकी आत्मकथा को इसीलिए पारदर्शी और अकुंठ कहा जाना चाहिए. व्यक्तित्व की पारदर्शिता भाषा में उतर आयी है. हां, व्याकरणिक दिक्कतें एकाध जगहों पर देखी जा सकती हैं.
दलित स्त्रीवाद को मजबूत व्यक्तित्वों की आवश्यकता है तो उसे साफ और गहरी राजनीतिक समझ की भी जरूरत है. कहना चाहिए कि शक्ति और सत्ता की समझ के बगैर आक्रोश और सदिच्छाएं भटक सकती हैं. टूटे पंखों से परवाज तक में राजनीतिक संदर्भ लगभग नहीं हैं.
यह अनुमान करना कठिन है कि विभिन्न राजनीतिक दलों, विचारधाराओं और शासन प्रणालियों पर लेखिका क्या सोचती हैं. उनका कोई 'पॉलिटिकल स्टैंड’ है या नहीं. इस 'विजन’ का भान न हो तो लगेगा कि लेखिका की (स्कूल-कॉलेज-युनिवर्सिटी में) पढ़ाई, बैंक में नौकरी और फिर प्रोफेसर पद पर नियुक्ति मात्र उनकी अपनी मेहनत और मेधा का परिणाम है.
तसव्वुर कीजिए कि अगर बैंकों का राष्ट्रीयकरण न किया गया होता तो क्या उसमें वंचित जातियों की इस पैमाने पर नियुक्तियां हो पातीं? सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए विकलांगों हेतु विशेष भर्ती अभियान चलते? अब जबकि संवैधानिक मूल्यों के उलट धारा बह चली है, बैंकों का विलय करके उनका निजीकरण किया जा रहा है.
उच्च शिक्षा संस्थानों में स्थायी नियुक्तियों पर स्थायी विराम लग रहा है तब क्या सुमित्रा जैसी युवतियां ‘अपनी प्रतिभा और श्रम’ के बल पर वांछित मुकाम तक पहुंच सकेंगी? अब क्या न्यायपूर्ण सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया ठहर नहीं जाएगी?
लेखिका के अनचाहे उनकी आत्मकथा हमें इस विकट प्रश्न के सम्मुख ला खड़ा करती है और मानवाधिकार के सवाल पर अपना 'स्टैंड’ तय करने को प्रेरित करती है.
एक पुरुषवादी समाज में महिला होना, एक जातिवादी समाज में दलित होना और एक निष्ठुर समाज में विकलांग होना ये हाशियाकरण के तीन मुख्य आधार हैं जिनसे जूझती हुई लेखिका आगे बढ़ी है
टूटे पंखों से परवाज तक
लेखिका: सुमित्रा महरोल
प्रकाशक: द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली
कीमत: 290 रुपए