स्मृतिः भैरवी से भैरव तक

पंडित जी कहते, जब बैटरी ‘रीचार्ज’ करनी होती है, बनारस चला जाता हूं. दिल्ली में भी वे बनारस ढूंढते रहते थे.

पंडित राजन मिश्र
पंडित राजन मिश्र

पंडित राजन मिश्र  (1951-2021)

हेमंत शर्मा

बनारसी ख्याल गायकी का शिखर बिखर गया. नाद के अनन्य उपासक पंडित राजन मिश्र अनहद नाद की खोज में चले गए. उनके जाने से ख्याल गायकी का वह शिखर शून्य हो गया जिससे फिलवक्त बनारस घराने की ऊंचाई नापी जाती थी. वे बनारस घराने के वैश्विक प्रतिनिधि थे. उनके असमय अवसान से दुनिया में ख्याल गायकी का परचम लहराने वाली उनकी संगीत यात्रा ‘भैरव से भैरवी’ तक ठहर गई. पंडित जी मानते थे कि संगीत जीवन की आत्मा है, भक्ति है, शक्ति है. इसी पर सवार होकर अनंत की दौड़ लगाई जा सकती है. इसी संगीत को साध वे अनंत में लीन हो गए.

यह संयोग ही है कि नाद और अनहद नाद, दोनों का ‘ब्रह्मकेंद्र’ बनारस का कबीर चौरा ही है. नाद साधना यहां के संगीत कलाकारों ने की और अनहद को यहीं कबीर ने सुना. दोनों की परंपरा चार सौ साल पुरानी है. कबीर ने जिस मूल गादी पर बैठ ‘बीजक’ की रचना की उसी के ठीक सामने बैठ राजन-साजन मिश्र के पूर्वज संगीत के जरिए ईश्वरत्व की खोज कर रहे थे.

आज भी राजन जी का पैतृक घर कबीर मठ के सामने ही है. मेरा मानना है, बनारस का कबीर चौरा महज एक मुहल्ला नहीं, वह भक्ति और संगीत का नाभिकीय केंद्र है. कबीर चौरा  भक्ति के साथ रस भी बरसाता है. करीब तीन बरस पहले गिरिजा देवी यानी अप्पाजी के जाने के बाद ठुमरी और अब पंडित जी के जाने से ख्याल गायकी बेजान हो गई है. कबीर चौरा सूना हो गया.

यह परंपरा आज की नहीं, करीब साढ़े चार सौ साल पहले पंडित दिलाराम मिश्र से शुरू होकर बड़े राम दास, महादेव मिश्र, हनुमान प्रसाद मिश्र और राजन-साजन जी तक पहुंचती है. कबीर चौरा में ही पंडित कंठे महाराज से लेकर किशन महाराज और गोदई महाराज तक तबले की समृद्ध परंपरा विराजती थी. गिरिजा देवी की ठुमरी हो या सितारा देवी और गोपीकृष्ण के नृत्य की ताल. बड़े राम दास या फिर पंडित रामसहाय या राजन-साजन मिश्र का गायन.

या फिर हनुमान प्रसाद मिश्र और पं. गोपाल मिश्र की सारंगी. क्या मुहल्ला था! कलाओं की इस भूमि में विद्याधरी, सिद्धेश्वरी और हुस्नाबाई बड़ी मैना, छोटी मैना, चंपा बाई, जवाहर बाई...सब यहीं के नगीने थे. मोइजुद्दीन खान जैसा बेजोड़ गायक. छप्पन छुरी खाने वाली जानकी बाई भी यहीं की थीं. कुछ ही दूरी पर बिस्मिल्ला खां का सराय हड़हा. सबकी जड़ें इसी मुहल्ले में. एक-एक कर सब चले गए. आज कबीर चौरा उदास है.

बनारस के कबीर चौरा से निकल कर राजन-साजन मिश्र की इस जोड़ी ने दुनिया में ख्याल गायकी का परचम लहराया. राजन जी अपने अचूक स्वराघात से गायकी में विस्मय पैदा करते थे. अपनी रससिद्धता से सम्मोहन का संसार रचते थे. उन्होंने इस धारणा को तोड़ा कि पक्की (ख्याल) गायकी लोकप्रिय नहीं हो सकती. वे चारों पट की गायकी यानी ठुमरी, ख्याल, ध्रुपद, धमार, टप्पा, भजन, कजरी, चैती में पारंगत तो थे ही पर उन्होंने बड़े रामदास की ख्याल गायकी को ही अपनी सरल शब्द योजना, तान और सरगम से लोक तक पहुंचाया.

वे ध्रुपद और ठुमरी से बचते थे पर ध्रुपद की गंभीरता और ठुमरी की नजाकत दोनों उनकी क्चयाल गायकी में थी. गहरे समुद्र जैसा गंभीर आलाप और झरने जैसी चंचल तानें. उन्होंने रागों को इतना मांजा था कि वे शृंगार के राग में भी वीर रस की बंदिशें गा लेते थे. बनारस घराने पर ठुमरी का ठप्पा था. इसे तोडऩे को पंडित द्वय ने केवल क्चयाल साधा. और ऐसा साधा कि आज बरबस यह सवाल उठता है कि बनारस घराने में फिर ऐसा गायक होगा क्या?
राजन जी के जाने से जोड़ी टूट गई.

साजन जी का स्वर अधूरा हो गया. दोनों भाइयों को संगीत की शिक्षा और रससिद्धता उनके दादा पंडित बड़े रामदास और पिता पंडित हनुमान मिश्र ने दी थी. पिता सारंगीवादक थे. बचपन में खाने और गाने का हिसाब-किताब रखा जाता था. चाचा पं. गोपाल मिश्र इन्हें दिल्ली ले आए. पिछले पचास बरस में घरानेदार बंदिशों और ख्याल गायन में यह जोड़ी सबसे लोकप्रिय बनी.

राजन जी से मेरा रिश्ता महज श्रोता और गायक का नहीं था. वे मेरे बड़े भाई के साथ पढ़े थे और पिताजी के विद्यार्थी थे, इसलिए उनसे पारिवारिक नाता था. हम एक ही मुहल्ले में रहते थे. हमारे और उनके घर के बीच सिर्फ एक सड़क का फासला था. पान खाने के लिए उन्हें इस पार आना पड़ता और संगीत सुनने हमें उस पार जाना पड़ता. अमूमन सितारा कलाकार इतने आत्मकेंद्रित देखे जाते हैं कि अपने प्रभामंडल से आत्ममुग्ध हो वे अपनी ही जमीन छोड़ जाते हैं.

पर पंडितजी अपनी जमीन से हमेशा जुड़े रहे. बनारस जब भी आते उसी चाय की दुकान पर बैठते. मुहल्ले के पान वाले से हालचाल और बाल काटने वाले नाई से बतकही. सबसे हहाकर मिलना. वही मस्ती, वही आत्मीयता सितारा बनने के बाद भी कायम रही. पंडित जी कहते, जब बैटरी ‘रीचार्ज’ करनी होती है, बनारस चला जाता हूं. दिल्ली में भी वे बनारस ढूंढते रहते थे. राजधानी में बनारसियों को इकट्ठा करने की कोशिश करने वाला केंद्र अब शायद नहीं होगा.

दरअसल, बनारसीपन का संबंध जन्म से नहीं बल्कि डूब जाने से है. यही डूबकर गाना राजन जी की शैली थी. जो बनारस में डूब गया, वो बनारसी हो गया. बनारसीपन जन्म से नहीं होता पर जन्म-जन्म साथ रहता है. आप बनारस की तरह जिंदा रहेंगे राजन जी. आप कहते थे स्वर हमारी सृष्टि में बिखरा पड़ा है. उसी को जोडऩे का सेतु संगीत है. जब स्वर खो जाते हैं, शून्य हो जाते हैं तो संगीत का सागर रह जाता है. जब तक यह सागर रहेगा राजन जी के स्वर जीवित रहेंगे.

—हेमंत शर्मा वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं

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