'दुनिया यूं ही रहेगी हमारे बगैर भी’
मुशायरों की वो रंगीन फ़िजा बहाल होने में अभी ख़ासा वक्त लगने के आसार. लेकिन देश के शीर्ष शायर इस बीच कोरोना की त्रासदी को अपनी शैली और अंदाज में बयान कर रहे

राजेश रेड्डी
बल्कि ज्यादा शेर कहे:
मेरे लिए लॉकडाउन का यह दौर सृजनात्मक ही रहा. मुझे ज्यादा वक्त अपने साथ बिताने का मौका मिला. बहुत सारे लोग ऐसे वक्त में स्वाभाविक रूप से परिवार, बच्चों और मित्र-दोस्तों से नहीं मिल पा रहे हैं. पर यह एकांतवास सृजनात्मक रूप से मेरे लिए खासा पॉजिटिव रहा.
मेरी नई ग़ज़ल के शेर देखिए:
हम जी रहे हैं जान तुम्हारे बगैर भी,
हर दिन गुजर रहा है गुजारे बगैर भी;
सबके लिए किनारे पे होता नहीं कोई,
कुछ लोग डूबते हैं पुकारे बगैर भी;
आसान होगा मरना समझ लें जो हम ये बात,
दुनिया यूं ही रहेगी हमारे बगैर भी;
जीते बगैर जीतने वालों के दौर में,
कुछ लोग हार जाते हैं हारे बगैर भी.
बात यह है कि माहौल को देखकर कभी-कभी मन थोड़ा विचलित होता है. लेकिन इस वक्त मेरा पूरा ध्यान सृजन पर है. इस वक्त को मैं अपने ढंग से जी रहा हूं, मुझे अच्छा लग रहा है.
बाज़ आ, ऐ आदमी:
इस महामारी का संदेश तो बस यही है कि आदमी इनसान बन जाए. पूरी दुनिया में आदमी ही आदमी भरे पड़े हैं, पर वे इनसान नहीं बन पा रहे. इसका खामियाजा भी भुगत रहे हैं, कहीं महामारी तो कहीं प्राकृतिक विनाश की शक्ल में. पर आदमी बाज़ नहीं आ रहा.
इतनी बारिश हुई कि बाढ़ आ गई, भूकंप आ गया. इनसान विनाश को न्यौता दे रहा है. यह इनसान की पैदा की हुई महामारी है. हम जीते जी मौत का सामना कर रहे हैं. मुझे नहीं लगता, सालों तक दुनिया में ऐसी स्थिति बन पाएगी कि लोग पहले की तरह स्वाभाविक ढंग से जी लें. संदेश
तो यही है कि हम संभल जाएं. बेहतर ज़िंदगी के लिए सोचें.
इक नया मंज़र निकाल:
इस दौरान मैंने कुछ और जो शेर कहे वे कुछ यूं है कि छोड़ दे देखे हुए को, इक नया मंज़र निकाल; जो तिरी आंखों के अंदर है उसे बाहर निकाल. नामुकम्मल है दिखाई दे रहा है जो तुझे, डूबकर मंज़र की गहराई में पसमंज़र निकाल; तेरी ये दुनिया तो हमने देख ली परवरदिगार, अब कोई तख़लीक इस तख़लीक से बेहतर निकाल. एक काली रात का लंबा सफर है जिंदगी, दिल के सन्नाटे में जाकर गुनगुनाकर डर निकाल. जहां तक मुशायरों की बात है तो अब सोशल डिस्टेंड्सिंग का जमाना आ गया है, जिससे बड़े-बड़े आयोजन नकारे जा रहे हैं और नकारे जाएंगे.
जुलूस ही निकाल दिया:
हम हिंदुस्तानी सबक लेने वालों में से लगते नहीं. हर संकट के लिए या तो ऊपरवाला जिम्मेदार होता है या फिर सरकार. सरकार की तो खैर, जो जिम्मेदारी है करेगी. लेकिन हॉस्पिटल का क्या हाल है? गरीब-मजदूरों को देखिए!
एक से दूसरे राज्य तक पैदल ही गए. कहा गया, कोरोना पीडि़तों की मदद कर रहे मेडिकल स्टाफ के सम्मान में बालकनी में खड़े होकर ताली बजाएं, तो लोग सड़क पर आकर जुलूस निकालने लगे, जैसे कोरोना की जंग जीत ली हो हमने. इंदौर में हुआ, जहां गंवार नहीं, पढ़े-लिखे लोग हैं. हालात ऐसे हैं कि हमें और ज्यादा सतर्क रहना पड़ेगा.
—नवीन कुमार