पन्नों पर जीवन संगीत
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया (82 वर्ष) पर तीन जीवनियां लिखी गईं. तीसरी ब्रेथ ऑफ गोल्ड ने उनके संगीत और व्यक्तित्व के साथ न्याय किया है पर वे इसे श्रेष्ठ नहीं मानते.

श्रीवत्स नेवटिया
यह आपकी तीसरी जीवनी है. पहले की दो जीवनियों से यह किस प्रकार अलग है?
हर जीवनीकार एक अलग भाषा और अलग नजरिया लेकर आता है—कोई मेरे संगीत के बारे में ज्यादा जानना चाहता है, किसी की दिलचस्पी मेरी निजी जिंदगी के किस्सों में होती है और किसी की मेरे परिवार में. यह अच्छी बात है कि इन किताबों में अलग-अलग नजरिए हैं. पर इन्हें मैं अपनी संतानों की तरह देखता हूं, मैं पक्षपात नहीं कर सकता.
शास्त्रीय संगीत में हुनर के लिए आप गुरु अन्नपूर्णा देवी को श्रेय देते आए हैं. पर आपको लगता है, उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसकी वे हकदार थीं?
उनकी सख्त हिदायत थी कि उनकी निजी जिंदगी के बारे में मैं कभी कुछ न पूछूं, उनके बीमार होने पर कभी दवा न लाऊं—''याद रखना, तुम सिर्फ सीखने के लिए आते हो''. वे बाहर से बेहद सख्त पर भीतर से नितांत कोमल थीं. भारत ने हमेशा उन्हें प्यार किया. और उन पर बनी हाल की डॉक्युमेंट्रीज में मुझे इसके प्रमाण भी मिलते हैं.
आपने दो गुरुकुल स्थापित किए हैं. क्या आपको लगता है कि आज के समय और काल में प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा अस्तित्व कायम रख सकेगी?
मैं तो कहूंगा कि चीजें बेहतर हुई हैं. पहले शास्त्रीय संगीत के छात्र गुरुओं से खौफ खाते थे. आज हम एक परिवार की तरह रहते हैं. साथ खाते, खेलते हैं. मैं उनका शिक्षक नहीं मित्र हूं.
हिंदी सिनेमा में हिंदुस्तानी क्लासिकल का असर घट रहा है. क्या कहेंगे?
आजकल लोग चिल्लाने को लोकप्रियता मान लेते हैं. हिंदुस्तानी क्लासिकल का असर तो है पर पाश्चात्य साजों को शामिल करने का लालच भी है. हमारे परिवेश में यह कई बार वास्तविक नहीं लगता. यह वैसे ही है जैसे गांव की गोरी नाइटी पहनके घर से बाहर जा रही हो. संगीतकार आजकल फिल्म की कहानी से ज्यादा तवज्जो पैसे को देते हैं.
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