स्मृतिः अहद-ए-यूसुफी का अंत

यूसुफी को अगर आप अकेले में पढ़ रहे हों तो कई जगहों पर हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाएंगे.

मुश्ताक़ अहमद यूसुफी (1923-2018)
मुश्ताक़ अहमद यूसुफी (1923-2018)

कहा जाता है कि हम उर्दू मज़ाह के "अहद-ए-यूसुफी'' में जी रहे हैं. हालांकि खुद मुश्ताक अहमद यूसुफी इससे सहमत नहीं थे. उन्होंने अदबी महफिलों में शाइस्तगी से कहा कि दौर उन सबका है जो जिंदा हैं.

अ‌‌विभाजित भारत में 4 सितंबर 1923 को टोंक के एक पढ़े-लिखे परिवार में जन्मे यूसुफी ने आगरा और अलीगढ़ में तालीम हासिल की. देश के विभाजन के बाद वे कराची, पाकिस्तान चले गए.

बाद में उन्होंने कराची पर व्यंग्य कियाः "हमने तो सोचा था कि कराची छोटा-सा जहन्नुम है, जहन्नुम बड़ा सा कराची निकला.'' इंतजार हुसैन समेत कई दूसरे लोगों की तरह वे अपने साथ जन्मभूमि से जुड़ी यादें भी ले गए, जो उनकी कहानियों में अक्सर झलकती हैं.

उन्होंने वहां कई बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के प्रमुख के रूप में काम किया और बैंकिंग के क्षेत्र में शानदार सेवा के लिए कायद-ए-आजम मेमोरियल मेडल से नवाजे गए.

लेकिन उन्हें पाकिस्तान की हुकूमत ने अपने दो सबसे बड़े अवॉर्ड-1999 में सितारा-ए-इम्तियाज और 2002 में हिलाल-ए-इम्तियाज—से उर्दू साहित्य की उत्कृष्ट सेवा के लिए दी. और यूसुफी इसके हकदार थे क्योंकि इब्ने इंशा, जो हास्य और व्यंग्यकार थे, ने यूसुफी के बारे में कहा था कि अगर हम अपने जमाने के साहित्यिक हास्य-व्यंग्य को कोई नाम देंगे तो मेरे जेहन में सिर्फ यूसुफी का नाम आता है.

वे पाकिस्तान की विभिन्न पत्रिकाओं में व्यंग्य लिखते थे और 1961 में पहला संग्रह चिराग तले प्रकाशित होने के साथ ही अहद-ए-यूसुफी शुरू हो गया. उसके बाद से उनकी चार किताबें आईः खाकम-ब-दहम (मेरे मुंह में खाक), जरगुजश्त (धन यात्रा), आब-ए-गुम (खोया पानी) और शाम-ए-शेर-यारां.

यूसुफी को अगर आप अकेले में पढ़ रहे हों तो कई जगहों पर हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाएंगे. वे अपने अल्फाज को बहुत सोच-समझकर चुनते, ख्यालों को उनमें करीने से ढालते और बेहद सहज अंदाज में अपनी बात पेश करते थे. कभी-कभी कुछ शब्दों के लिए शब्दकोश देखना पड़ता है और उसके बाद आप कहकहे लगाने लगते हैं.

इनसानी स्वभाव के पारखी यूसुफी ने समाज, मुल्क, सियासत, अर्थव्यवस्था, जीवनशैली, रुढ़िवादी मान्यताओं, लगभग हर विषय पर लिखा है. मुसलमानों में तालीम के बारे में अक्सर कुछ लोगों को यही मुगालता होता है कि सर सैयद के बाद सिर्फ उन्हें ही मुसलमानों की तालीम की परवाह है.

इसी तरह, बंटवारे के बाद पाकिस्तान गए कई लोग वहां ऐसे व्यवहार करते थे जैसे भारत में वे बहुत बड़ी रियासत छोड़कर गए हैं, जबकि अपने पुराने वतन में वे लकड़ी बेचा करते थे.

आजीवन शाकाहारी रहे इस बुजुर्ग की राय देखिएः "बॉय कहलाने की लालच में कई बार हमारा भी जी चाहा कि पूर्व यूनिवर्सिटी की ओल्ड बॉयज एसोसिएशन के मेंबर बन जाएं.

मगर जालिमों ने उसके साथ "ओल्ड'' का ऐसा मनहूस दुम छल्ला और "साबिक'' की खूसट पेंच लगा दी है कि "बॉय'' की कूद की सारा मजा किरकिरा हो जाता है! लड़कपन में हमउम्रों पर रौब डालने की गर्ज से हम अपनी उम्र तीन-चार बरस बढ़ाकर बताते थे.

कुछ अरसे बाद ऐसी सूरत पैदा हुई, बल्कि यूं कहना चाहिए कि सूरत ही ऐसी हो गई कि तीन-चार बरस घटाकर बताने लगे. फिर यह दिन भी देखने पड़े कि जब तक पच्चीस-तीस साल की डंडी न मारी जाए जी खुश नहीं होता.

लेकिन मुसीबत यह है कि बुढ़ापे में आदमी न सिर्फ बड़ा काम नहीं कर सकता, बल्कि एत्माद के साथ झूठ भी नहीं बोल सकता! अब तो उसे खुद अपना पुराना सच भी सफेद झूठ मालूम होता है!''

इसी तरह की बातों से निकले यूसुफी के जुमले काफी लोकप्रिय हैं, जिनमें हर लफ्ज बहुत सोच-समझकर लिखा गया है. मसलनः गाना, गिनती, गिला गुजारी और गाली अपनी मादरी जबान में ही मजा देती है...लफ्जों की जंग में फतह किसी भी फरीक (पक्ष) की हो, शहीद हमेशा सच्चाई होती है...जो मुल्क जितना गुर्बतजदा होगा, उतना आलू और मजहब का चलन ज्यादा होगा...मोहब्बत अंधी होती है, चुनांचे औरत के लिए खूबसूरत होना जरूरी नहीं, बस मर्द के लिए नाबीना होना काफी होता है...बुढ़ापे की शादी और बैंक की चौकीदारी में जरा फर्क नहीं, सोते में भी एक आंख खुली रखनी पड़ती है.

यूसुफी शब्दों के जादूगर थे. हिंदी, ब्रज, राजस्थानी और अवधी के शब्दों का भी सहज इस्तेमाल करते थे. शाम-ए-शेर-ए-यारां के आखिर में अपनी पत्नी की मौत के बाद अपने अकेलेपन के बारे में उन्होंने लिखा है, जिसे पढ़कर कोई भी दुखी हो जाएगा.

घर लंबा-चौड़ा है पर बुढ़ापे में ज्यादा चल नहीं सकते, जिस कुर्सी पर दिन गुजारते थे उसे "जोगिया मृग छाला'' कहा है. रात में उसी चादर को ओढ़कर सोते थे, जिसे उनकी पत्नी ने तैयार किया था.

उनकी मौत के बाद सबने कहा कि चादर भी फकीर-फुकरा को दे दिला दो, "सो मैंने सबसे उतावले, बावले सवाली, धजाधारी बैरागी'' को यह सौंप दी. बुढ़ापे में अकेलेपन का दंश देखिएः कहीं ओढ़ चदरिया सजनी गई/कोई कफनी पहने राह तकत है.

उर्दू की दुनिया को गुदगुदाने वाले यूसुफी 20 जून को सजनी की राह चल पड़े. उनकी रचनाएं हमेशा रहेंगी लेकिन उर्दू अदब में एक युग का अंत हो गया.

***

Read more!