बिहार चुनाव : नीतीश, तेजस्वी और पीके की उन रणनीतियों का लेखा-जोखा जिनसे तय होगी हार-जीत

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 बेहद ऊंचे दांव वाला महा मुकाबला होने जा रहा है, जिसका राष्ट्रीय राजनैतिक असर भी बड़ा होगा

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बिहार चुनाव के नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति पर भी असर पड़ना तय है (इलस्ट्रेशन : सिद्धांत जुमडे)

वक्त माकूल था. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होने से पहले अपने राजकाज का आईना दिखाने का आखिरी दौर था. चुनाव आयोग की बिहार के लिए चुनाव तारीखों की घोषणा से बमुश्किल छह घंटे पहले 6 अक्तूबर की सुबह 10 बजे नीतीश ने 21 लाख महिलाओं के खातों में 10-10 हजार रुपए डाल दिए.

इस तरह महिला रोजगार योजना के लाभार्थियों की कुल संख्या 1.21 करोड़ हो गई. एक घंटे बाद उन्होंने पटना मेट्रो के पहले चरण का उद्घाटन किया और उसमें सवारी भी की, जिससे बिहार की राजधानी मेट्रो कनेक्टिविटी वाले शहरों के नक्शे पर आ गई. संदेश दो-टूक था: वे बिहार का अतीत ही नहीं, भविष्य भी हैं.

22 अगस्त को गयाजी में प्रधानमंत्री मोदी, मुख्यमंत्री नीतीश और उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी

एक दिन पहले, एक वक्त नीतीश के उपमुख्यमंत्री रहे तथा अब उनके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी तेजस्वी यादव पटना में दलितों पर डोरा डालने में मशगूल थे. उन्होंने महिलाओं के मुआवजे को बढ़ाकर हर महीने 2,500 रुपए करने और आरक्षण का दायरा बढ़ाने का वादा किया. फिर 7 अक्टूबर को उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर नीतीश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हाथ जोड़कर अभिवादन करने की एक क्लिप पोस्ट की, और पूछा, ''क्या इस अजीब हावभाव में मुख्यमंत्री मानसिक रूप से स्वस्थ लगते हैं?’’ उनका इशारा नीतीश की सेहत को लेकर उड़ रही अफवाहों की ओर था.

इन दृश्यों में बिहार की मौजूदा राजनीति की कुल कहानी छोटे में कैद लगती है. इसके मूल में लेन-देन है, बोली प्रतीक जैसी है और करो या मरो जैसे हालात हैं. जनता दल-यूनाइटेड (जद-यू) के दिग्गज नीतीश के लिए यह चुनाव उनके दो दशकों के नेतृत्व पर जनमत संग्रह जैसा भी होगा. और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के वारिस तेजस्वी के लिए यह लड़ाई नेतृत्व पर मुहर या शायद वैधता हासिल करने की है. यह दोहरी चुनौती उन सबके लिए है, जो उनके साथ हैं. 

राज्य में विधानसभा चुनाव लंबे समय से राजद-कांग्रेस-वामपंथी धर्मनिरपेक्ष महागठबंधन और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के भगवा खेमे के बीच चिर-परिचित दोतरफा मुकाबला होते रहे हैं, जहां जद (यू) कभी इधर, कभी उधर और छोटे सहयोगी दोनों गठबंधनों में आते-जाते रहते हैं. लेकिन 2025 का चुनाव तितरफा मुकाबले की संभावना को जन्म दे रहा है. तीसरा कोण चुनाव रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर बना रहे हैं, जिनकी जन सुराज पार्टी बिहार के चुनावी व्याकरण को नए सिरे से लिखने की कोशिश कर रही है.

इस बार दांव दूसरी वजहों से भी ऊंचे हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव से पैदा हुए राजनैतिक माहौल में भाजपा के लिए महाराष्ट्र के बाद बिहार अगली बड़ी लड़ाई है, क्योंकि वह एक के बाद एक इलाके पर झंडा गाड़ने की कोशिश में है, ताकि लोकसभा चुनाव में अपने दम पर साधारण बहुमत खोने की नाकामी में सुधार किया जा सके. उस नाकामी से सरकार बनाने के लिए नीतीश के जद (यू) और आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू जैसे सहयोगियों की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा था.

बिहार में एनडीए को 40 लोकसभा सीटों में 30 पर जीत मिली थी. उसे कुल 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 176 क्षेत्रों में बढ़त मिली थी. अगर राज्य चुनाव में उससे 50 क्षेत्रों में कम बढ़त भी मिलती है तो भी भाजपा को उम्मीद के मुताबिक छलांग मिल सकती है. विधानसभा में बहुमत के लिए जरूरी संख्या 122 है. अब जरा भाजपा की राष्ट्रीय रणनीति के लिहाज से सोचिए. लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मिले झटके के बाद बिहार की जीत सिर्फ उत्तरी हिंदी पट्टी में ही जरूरी ताकत नहीं साबित होगी. पार्टी उसे पूरब का द्वार खुलने जैसा भी देखती है, क्योंकि 2026 में पश्चिम बंगाल का चुनाव है.

बिहार दो चरणों में 6 और 11 नवंबर को होने वाले मतदान और 14 नवंबर को नतीजे के लिए तैयार है, तो इस महायुद्ध में मुख्य खिलाड़ियों की मौजूदा जमीन पर एक नजर डालते हैं.

एनडीए : निरंतरता के साथ बदलाव

एनडीए की अगुआ पार्टी भाजपा ने बिहार में कभी अपने दम पर राज नहीं किया. अब तक वह यहां सहयोगी दलों और खासकर जद (यू) के सहारे सत्ता की सीढ़ियां चढ़ी. नीतीश 20 साल से सत्ता में हैं और इस बीच एक से दूसरे गठबंधन में आते-जाते रहे और फिलहाल सेहत के मसलों से जूझ रहे हैं. ऐसे में वे एनडीए के लिए पूंजी और परेशानी दोनों हैं.

फिर भी भाजपा उन्हें दो वजहों से सिर से उतार फेंकना गवारा नहीं कर सकती. बड़े फलक पर जद (यू) की मदद से ही वह केंद्र की सत्ता में है. और बिहार में नीतीश के पास 36 फीसद अति पिछड़े वर्ग (ईबीसी) का अच्छा-खासा वोट है और महिलाओं में उनकी अच्छी साख है. नतीजा यह कि नीतीश जिसके भी पाले में होते हैं, उस गठबंधन की जीत का अमूमन भरोसा होता है.

इसलिए एनडीए नीतीश की प्रतीकात्मक अगुआई में चुनाव लड़ रहा है और उनके सुशासन के मुकाबले लालू के 'जंगल राज’ के पुराने जुमले को नए सिरे से पेश कर रहा है. लेकिन भाजपा इससे नावाकिफ नहीं है कि आज नीतीश बोझ बन गए हैं. इसी वजह से उसने उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने से परहेज किया है. इस लिहाज से देखें तो नीतीश वाहन से ज्यादा नहीं हैं, आप चाहें तो काठ का घोड़ा भी कह सकते हैं.

10 अगस्त को हाजीपुर में भूमि पूजन समारोह में लोजपा (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान

सो, किसी एक के बदले गठबंधन पर जोर है. एनडीए का इरादा 'डबल इंजन सरकार’ और असरदार मोदी फैक्टर के तहत 'प्रगति’ का वादा करने करने का है. बाकी कसर आरएसएस-भाजपा की संगठनात्मक ताकत पूरी कर देगी, जिसमें अनुशासित बूथ समितियां, सोशल नेटवर्कों के जरिए छोटे से छोटे स्तर को साधने का लक्ष्य, वित्तीय बाहुबल और सोचे-समझे ढंग से जातियों तक पहुंचना शामिल है.

फिर चिराग पासवान भी हैं. वे कोई छोटे खिलाड़ी नहीं हैं. लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) के मुखिया मामूली लेकिन बेहद अहम 5 फीसद वोट के साथ एनडीए के पाले में लौट आए हैं. उनके आ जाने से गठबंधन और खासकर जद (यू) की संभावनाएं मजबूत होनी चाहिए.

ऐसा इसलिए क्योंकि 2020 के बिहार के चुनाव में लोजपा को 10.26 फीसद वोट मुख्य रूप से जद (यू) के मतदाताओं की कीमत पर मिला था. तब वह 135 सीटों पर अकेली लड़ी थी. चिराग ने जब 2024 का लोकसभा चुनाव एनडीए के अंग के तौर पर लड़ा, असर एकदम साफ दिखाई दिया, और वह यह कि जद (यू) 74 विधानसभा क्षेत्रों में सबसे आगे था, जो 2020 के उसके 43 के आंकड़े से खासा ज्यादा था.

नेतृत्व का कष्ट

एनडीए के नीतीश ही हर हाल में झंडाबरदार बने हुए हैं, जिन्होंने अपने उम्रदराज वोटरों की वफादारी कायम रखी है. मगर पीढ़ीगत मंथन साफ दिखाई देता है. बिहार में 18-29 वर्ष की उम्र के 1.7 करोड़ युवा मतदाताओं के लिए 74 वर्षीय नीतीश युवा आकांक्षाओं का चेहरा शायद नहीं रह गए हों. साफ दिखाई देती उनकी कमजोर सेहत को लेकर चिंताओं ने भी अनिश्चितता की लकीर खींच दी है. इसलिए यह चुनाव नीतीश पर जनादेश होगा. जीत मिली तो वे खेल में रहेंगे; हार से उत्तराधिकार का तमाशा शुरू हो जाएगा.

भाजपा का राज्य नेतृत्व, यानी दोनों उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और विजय कुमान सिन्हा, और नए राज्य अध्यक्ष दिलीप जायसवाल, सांगठनिक ढांचा मुहैया करते हैं, लेकिन बस उतना ही. उनकी अपील समूचे बिहार में नहीं है, वैसे ही जैसे जद (यू) के दूसरी पांत के नेता संजय कुमार झा और राजीव रंजन सिंह. चिराग ने मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा भले दिखलाई हो, लेकिन एक व्यावहारिक अड़चन उनके सामने खड़ी है.

मौजूदा विधानसभा में उनका एक भी विधायक न होने की वजह से उनकी संभावनाएं तुरंत राज्यारोहण के बजाए चुनाव बाद के समीकरणों पर निर्भर करेंगी. 2020 में स्वतंत्र रूप से उनकी पार्टी 135 सीटों पर चुनाव लड़ पाई थी. एनडीए के अंग के तौर पर उन्हें सीटों का काफी कम हिस्सा मिलने की संभावना है और उसके नतीजतन उनका सियासी प्रभाव भी काफी कम होगा.

एनडीए का चुनावी नाच

कल्याण योजनाएं और निरंतरता सत्तारूढ़ गठबंधन के चुनाव अभियान के दो प्रमुख स्तंभ हैं. राजद के 1990-2005 के जमाने का प्रेत, जिसे मखौल उड़ाते हुए 'जंगल राज’ कहा जाता है, अब भी बिहार की राजनीति से उतरा नहीं है, उन इश्तहारों और मीम में उसकी याद दिलाई जाती है जो डर और याददाश्त पर खेलते हैं.

रणनीति साफ है, और वह यह कि मतदाताओं को उस अफरातफरी की याद दिलाई जाए जिसे बदलने का दावा जद (यू)-भाजपा करते हैं, और राजद के मातहत यादवों के दबदबे की वापसी से डरी जातियों में बेचैनी जगाई जाए. यही बात नीतीश भी दोहरा रहे थे, जब उन्होंने कहा, ''2005 से पहले बिहार डर और अराजकता के शिकंजे में था. सूरज ढलते ही लोग घरों में दुबक जाते थे. मगर अब वक्त बदल गया है. आज हर चेहरे पर मुस्कान है.’’ 

जहां तक सरकार विरोधी प्रेत की बात है, एनडीए ठोस प्रलोभनों की झड़ी से उसका मुकाबला करने की कोशिश कर रहा है. महिला रोजगार योजना के तहत अतिरिक्त 10,000 रुपए खाते में डालने के अलावा करीब 1.89 करोड़ परिवारों को 125 मेगावॉट मुफ्त बिजली का फायदा मिलने का दावा है और सामाजिक सुरक्षा पेंशन भी 400 रुपए से बढ़ाकर 1,100 रुपए प्रति माह कर दी गई है.

आखिरी क्षण में जीविका, आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं के मानदेय भी बढ़ा दिए गए हैं, और 18-25 वर्ष की उम्र के बेरोजगार युवाओं को दो साल तक 1,000 रुपए के महीने के भत्ते की घोषणा भी की गई है. इसके अलावा एनडीए गठबंधन नीतीश के उस महिला जत्थे पर भी भरोसा करेगा जिसे उन्होंने पिछले दो दशकों में शराबबंदी के अलावा जनकल्याण योजनाओं और आरक्षण के जरिए बड़ी मेहनत से पाला-पोसा है. सचाई यह भी है कि 2010 से महिला मतदाता पुरुष मतदाताओं के मुकाबले ज्यादा तादाद में वोट देने आने लगी हैं. 2020 के चुनाव में पुरुषों के 54.5 फीसद मतदान के मुकाबले महिलाओं का मतदान 59.7 फीसद था. यह भी उनके पक्ष में अनुकूल कारक होगा.

17 अगस्त को सासाराम में 'वोटर अधिकार यात्रा’ के दौरान राहुल गांधी और तेजस्वी यादव

लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के विश्लेषण के मुताबिक, 2020 में युवा वोट (18-29 वर्ष आयु वर्ग) दो गठबंधनों के बीच बंट गया था, जिसमें से 37 फीसद महागठबंधन को और 36 फीसद एनडीए को मिला था. उनके वोटों पर कब्जे की लड़ाई इस चुनाव में जारी रहने की संभावना है, क्योंकि 14 लाख मतदाता पहली बार वोट डालेंगे. बेरोजगारी और पलायन मुख्य मुद्दे बने हुए हैं.

एनडीए सरकार ने बिहार के युवाओं के लिए न सिर्फ 62,000 करोड़ रुपए की योजनाओं का ऐलान किया है, बल्कि प्रधानमंत्री जननायक कर्पूरी ठाकुर कौशल विश्वविद्यालय का उद‍्घाटन भी करने वाले हैं, जहां उद्योग-उन्मुख पाठ्यक्रमों की पढ़ाई और व्यावसायिक प्रशिक्षण हासिल किया जा सकेगा.

महागठबंधन: तेजस्वी की व्यापक अपील

राजद अध्यक्ष की गद्दी पर नए-नए बैठाए गए तेजस्वी ने 2020 में लगभग असंभव को संभव कर दिखाया था. तब उन्होंने थके-हारे विपक्ष के दायरे को दस लाख सरकारी नौकरियों के साहसिक वादे से बड़े आंदोलन में बदल दिया था. इस बार, 35 वर्षीय तेजस्वी को उससे भी आगे की बुलंदी छूनी है और अपनी पार्टी तथा महागठबंधन दोनों को अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाना है. चुनौती वही है- राजद के समर्थन आधार को मुस्लिम-यादव वोट बैंक से आगे ले जाना, जो उन्हें 30 फीसद वोटों की बढ़त तो दे देता है, लेकिन विधानसभा में साधारण बहुमत के लिए पर्याप्त सीटें नहीं दिला पाता.

इसलिए, तेजस्वी न सिर्फ दलित और महादलितों को लुभा रहे हैं, बल्कि नीतीश के ईबीसी (अति पिछड़ा) वोटों में भी सेंध लगा रहे हैं. सितंबर में, महागठबंधन ने अति पिछड़ा न्याय संकल्प की घोषणा की, जिसमें ईबीसी अत्याचार निवारण कानून, स्थानीय निकायों में ईबीसी आरक्षण को 20 फीसद से बढ़ाकर 30 फीसद करने और भूमिहीन ईबीसी, एससी, एसटी और ओबीसी परिवारों को आवासीय भूमि देने का प्रस्ताव है. विपक्षी महागठबंधन बेरोजगारी और रोजगार तथा शिक्षा के लिए राज्य से पलायन के मुद्दे पर युवाओं के मोहभंग का फायदा उठाने और महिलाओं को वित्तीय प्रोत्साहन देकर लुभाने की भी कोशिश कर रहा है. ये दोनों ही मुद्दे लोगों को सबसे ज्यादा छू रहे हैं.

उधर, महागठबंधन की सहयोगी कांग्रेस बिहार की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के विरोध में मतदाता अधिकार यात्रा और राहुल गांधी की वोट चोरी मुहिम से उत्साहित है. एक समय कांग्रेस कमजोर कड़ी मानी जाती थी. वह 2020 में अपने पाले की कुल 70 में सिर्फ 19 सीटें ही जीत पाई थी. इस बार कांग्रेस कम लेकिन रणनीतिक रूप से चुनिंदा सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार दिख रही है, ताकि अपने आंकड़े और प्रदर्शन को बेहतर कर सके.

अब उसके नए प्रदेश अध्यक्ष राजेश कुमार हैं, जो संख्या के लिहाज से महत्वपूर्ण रविदास (एससी) समुदाय से हैं. यह समुदाय बिहार के मतदाताओं का लगभग पांचवां हिस्सा है. महागठबंधन के वामपंथी सहयोगियों में भाकपा और माकपा प्रतिबद्ध काडर वोट जोड़ते हैं और भाकपा (माले) दक्षिण और मध्य बिहार में मजबूती के साथ लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही है.

मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) एक और सहयोगी है जिसकी मजबूत पकड़ है. लेकिन इन सभी का दायरा कुछ ही क्षेत्रों तक सिमटा हुआ है. फिलहाल सीटों को लेकर उनके बीच बातचीत जारी है. तेजस्वी पर विपक्षी एकता की उम्मीदों और बोझ दोनों को उठाने की जिम्मेदारी है. नौजवान तबका उनमें अपना अक्स देखता है- गुस्सैल लेकिन विनम्र, महत्वाकांक्षी लेकिन समझदार छवि वाला नेता. लेकिन बिहार में करिश्मा काफी नहीं होता है; उसे संख्याबल में बदलना होगा. 

सत्ता विरोधी रुझान पर फोकस

महागठबंधन का अभियान सत्ता विरोधी लहर और नीतीश के लंबे कार्यकाल से उपजी निराशा के इर्द-गिर्द घूम रहा है. तेजस्वी 'नई सोच’ का चेहरा हैं, जबकि राजद में जातिगत पुनर्संतुलन हुआ है और गैर यादव महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं. विपक्ष के नैरेटिव में 'न्याय और सम्मान’ की भावनात्मक अपील को मौजूदा व्यावहारिक वादों के साथ जोड़ा गया है- मसलन, रोजगार की गारंटी, आरक्षण का विस्तार, महिलाओं के लिए वित्तीय मदद और आवास सब्सिडी वगैरह. इनके जरिए एक संतुलित नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश है.

पर्दे के पीछे तेजस्वी की टीम ने सोशल मीडिया की सक्रियता और डेटा एनालिटिक्स का इस्तेमाल करके राजद की प्रचार मशीनरी को पेशेवर बना दिया है. 5 अक्टूबर को दलितों के बीच उनकी रैली प्रतीकात्मक कदम था. उसमें सबको साथ लेकर चलने की अपील थी और अपने समर्थन आधार को व्यापक बनाने की कोशिश भी थी. फिर भी, यह तय नहीं है कि क्या ये कदम राजद के प्रति अतीत की गहरी धारणाएं तोड़ पाएंगे, जो उनके एम-वाइ समर्थकों की दबंगई का खौफ पैदा करते हैं.

महागठबंधन के बड़े मुद्दे बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा और भ्रष्टाचार हैं. विपक्ष भाजपा के प्रभुत्व को केंद्रीकरण के रूप में भी पेश करता है. उसकी दलील है कि 'डबल इंजन’ की आड़ में बिहार की स्वायत्तता पर चोट की जा रही है. जहां तक 'जंगल राज’ के आरोपों की बात है, तो युवा नेता ने ऐलान किया है, ''तेजस्वी की परछाई भी अगर गलत काम करे, तो उसकी भी जांच होगी.’’ उन्होंने यह भी कहा, ''14 नवंबर को मतगणना के दिन हम बिहार के पतन के अंत की शुरुआत देखेंगे. बिहार के लोगों का कर्तव्य है कि वे जाति-धर्म, मंदिर-मस्जिद और अन्य तुच्छ मुद्दों को एक तरफ रखकर राज्य से रोजगार के लिए पलायन को रोकने और अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा और रोजगार के लिए मतदान करें.’’

जन सुराज : बड़े तोहफे की तलाश में

राजनैतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर या पीके अब अपनी पार्टी के लिए तोहफे की तलाश में हैं. उन्होंने कभी दूसरों की जीत में मदद की थी. मसलन, 2014 में मोदी, 2015 में नीतीश-लालू, 2021 में ममता बनर्जी. उनकी पार्टी जन सुराज बमुश्किल साल भर पुरानी है, लेकिन उसमें एक स्टार्टअप जैसा जोश है. बदलावकारी पीके का अभियान साहसिक है और राजनैतिक नजरिए से सही-गलत के प्रति बेपरवाह है. उसमें जाति के बदले योग्यता, अंधविश्वास के बदले आंकड़ों पर जोर देने का वादा है.

शराबबंदी हटाना, हर प्रखंड में नेतरहाट शैली का सुपरअचीवर स्कूल बनाना, और गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में जाने में सक्षम बनाना, रोजगार की खातिर पलायन को रोकने के लिए ठोस कदम उठाना...ये सभी वादे पीके अपनी हर रैली में जिक्र करते हैं, और सरकार तथा बिहार की छवि को नए सिरे से गढ़ने पर जोर देते हैं. उनकी चुनावी रणनीति में आनुपातिक सामाजिक प्रतिनिधित्व और हर सीट पर समुदाय की आबादी के अनुरूप उम्मीदवारों का चयन भी शामिल है. 

जन सुराज पार्टी का लक्ष्य उन 25 फीसद मतदाताओं में पैठ बनाना है, जिनके वोट किसी को नहीं मिला है. मसलन, जिन योग्य मतदाताओं ने 2020 में या तो वोट नहीं दिया था या दोनों प्रमुख गठबंधनों में किसी के पक्ष में नहीं थे. अगर इन गैर-गठबंधन मतदाताओं में एक-चौथाई भी जन सुराज को वोट देने को राजी हो जाते हैं, तो उन सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं, जहां मुकाबला बहुकोणीय हो.

2 जुलाई को भोजपुर में समर्थकों संबोधित करते जन सुराज के मुखिया प्रशांत किशोर

इसके साथ ही पीके जन सुराज को डिलिवरी की शासन-व्यवस्था के विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं. वे भाजपा के कुछ अगड़ी जातियों के वोटों को भी अपनी ओर खींचने की उम्मीद कर रहे हैं. पीके का दूसरा दांव कई मौजूदा मंत्रियों सहित एनडीए के नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना है, जिससे बिहार में साफ-सुथरी सरकार चलाने के एनडीए के दावे को दागदार किया जा सके. उन्होंने महागठबंधन को भी नहीं बख्शा है, योग्यता पर जोर न देने की निंदा की है और तेजस्वी को वंशवाद का प्रतीक बताया है.

पीके की इन कोशिशों के बावजूद अर्थशास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर तथा स्वतंत्र टिप्पणीकार डॉ. एन.के. चौधरी का अनुमान है कि चुनाव में दो बड़े गठबंधनों के बीच सीधा मुकाबला होगा. चौधरी बताते हैं, ''प्रशांत किशोर के पास मजबूत और प्रतिबद्ध वोट आधार नहीं है जो दोनों के पास है. रोजगार और शिक्षा पर उनके वादे जरूर आकर्षक हैं और कुछ हताश मतदाता उनकी ओर आकर्षित हुए हैं. लेकिन, जैसा कि मैं देखता हूं, मुख्य लड़ाई भाजपा और राजद के बीच होगी, जिसमें नीतीश और कांग्रेस सहायक भूमिका निभाएंगे. प्रशांत किशोर कई उम्मीदवारों की हार का कारण बन सकते हैं.’’ बिहार में चुनावी जंग काफी रोमांचक होने की संभावना है. राज्य में 2020 में लगभग एक-चौथाई सीटों का फैसला 5,000 से कम वोटों के अंतर से हुआ था, इसलिए हर अटकल, हर वादा और हर रुपया फर्क ला सकता है. चुनाव का मोर्चा खुला है. फिलहाल पलड़ा किसी ओर झुक सकता है.

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