इज्राएल-ईरान युद्ध : संघर्ष विराम कितना मजबूत?
बंकर बस्टर बम बरसाने की अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की रणनीति पश्चिम एशिया में एटमी तनाव कम न कर सकेगी. आखिर क्यों?

अंतरराष्ट्रीय टकरावों के मामले में डोनाल्ड ट्रंप टोपी से कबूतर उड़ाने में खासी उस्तादी दिखाने लगे हैं. 12 दिनों तक चली इज्राएल-ईरान जंग पश्चिम एशिया और उनके अपने राष्ट्रपति पद पर भी ज्वाला भड़काने लगी तो ट्रंप ने 24 जून को दोनों देशों को धौंस-पट्टी के जरिए असंभव-सी लगने वाली जंगबंदी पर राजी होने को मजबूर किया.
इससे अमेरिकी राष्ट्रपति का 10 मई को भारत और पाकिस्तान के बीच चार दिनों की लड़ाई रुकवाने का दावा भी याद आ जाता है, जब लड़ाई तेज होने वाली थी. हालांकि, भारत सरकार ट्रंप के दावे से इनकार करती रही है और कहती रही है कि पाकिस्तान ने हथियार डाल दिए थे.
इसलिए ट्रंप चाहे राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के 24 घंटे के भीतर रूस-यूक्रेन युद्ध खत्म कराने और इज्राएल-हमास संघर्ष को फटाफट बंद कराने का अपना चुनावी वादा पूरा न कर पाएं हों, लेकिन उन्होंने यह दाग मिटा दिया है कि वे सिर्फ दिखावा करते हैं.
इज्राएल और ईरान के बीच जंगबंदी कराने से पहले ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट पर तंज में लिखा था, ''नहीं, मैं चाहे जो भी करूं, रूस/यूक्रेन और इज्राएल/ईरान लड़ाई के चाहे जो भी नतीजे हों, मुझे नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिलेगा, लेकिन लोग जानते हैं और मेरे लिए यही मायने रखता है.'' उनका इशारा पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की ओर था, जिन्होंने एटमी हथियारों की अहमियत घटाने के चुनावी वादे के आधार पर अपने पहले कार्यकाल के सिर्फ आठ महीने बाद 2009 का नोबेल शांति पुरस्कार पा लिया था.
इज्राएल-ईरान जंगबंदी के फौरन बाद रिपब्लिकन पार्टी के बडी कार्टर ने नॉर्वे की नोबेल समिति को चिट्ठी रवाना की कि ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार दिया जाए. फिर भी कई जानकारों को लगता है कि ट्रंप की वाहवाही जल्दबाजी होगी क्योंकि जंगबंदी अभी भी अनिश्चित है.
संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व स्थायी प्रतिनिधि तथा पश्चिम एशिया के जानकार सैयद अकबरुद्दीन कहते हैं, ''यह टहराव है, अमन की शुरुआत नहीं. यह दूर तलक लंबी राह में पहला कदम है क्योंकि जंग की वजह ईरान के एटमी कार्यक्रम समेत किसी भी बुनियादी मसले पर ठोस कुछ नहीं हुआ है.''
बेहद नाजुक-सी शांति
आखिर खून-खराबे के मौजूदा दौर की शुरुआत किस वजह से हुई और यह जंगबंदी इतनी नाजुक क्यों है? 12 जून को इज्राएल ने ईरान पर अब तक का सबसे घातक हमला किया, तो प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने उसे जायज ठहराने के लिए दावा किया कि तेहरान एटमी हथियार से कुछ ही महीने दूर है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय एटमी ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के प्रमुख राफेल ग्रॉसी ने इस दावे को खारिज कर दिया.
वैसे, एजेंसी ने ईरान के 2021 में यूरेनियम ईंधन भंडार के एक हिस्से को 60 फीसद तक संवर्धन करने के फैसले पर चिंता जताई थी, जिससे वह एटमी हथियार-ग्रेड शुद्धता के करीब पहुंच गया. मगर इज्राएल इस वक्त ईरान पर हमला करने का साहस इसलिए जुटा पाया क्योंकि, जैसा कि पूर्व भारतीय राजदूत तथा फिलहाल जिंदल स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स में डिप्लोमेटिक प्रैक्टिस के प्रोफेसर मोहन कुमार कहते हैं, ''पिछले दो साल में अमेरिका की मदद से इज्राएल ने इलाके में ईरान की शह वाले गुटों को कमजोर करने में कामयाबी पा ली.'' इसमें 7 अक्तूबर 2023 को इज्राएल में बड़ा हमला करने वाला हमास; पड़ोसी लेबनान में हिज्बुल्ला; यमन में हूती के अलावा सीरिया में बशार अल-असद का तख्तापलट शामिल है.
इज्राएल ने 13 जून के बाद से 200 मिसाइल और हवाई हमलों की झड़ी लगा दी. इससे ईरान के फौजी और एटमी इन्फ्रास्ट्रक्चर को काफी नुक्सान पहुंचा, और 950 से ज्यादा लोग मारे गए. जवाबी कार्रवाई में ईरान ने इज्राएल के खिलाफ 500 से ज्यादा बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं और एक हजार से ज्यादा ड्रोन हमले किए. तेल अवीव उनमें से बहुतों को नाकाम कर पाया लेकिन कई मिसाइलें उसके प्रसिद्ध आयरन डोम को भेदने में कामयाब रहीं. लिहाजा, भारत के पांचवें सबसे छोटे राज्य मिजोरम से थोड़े ही बड़े तथा एक करोड़ की घनी आबादी वाले इज्राएल में आम इन्फ्रास्ट्रक्चर को भारी नुक्सान पहुंचा और कथित तौर पर 28 से ज्यादा लोगों की मौत हुई.
शुरुआत में ट्रंप इज्राएल-ईरान लड़ाई में कूदने को तैयार नहीं लग रहे थे क्योंकि उनके कई बड़े मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) समर्थक बाहरी जंगों में जाने के खिलाफ थे. ट्रंप ने अमेरिकी फौज को ''हमेशा जंग'' में न उलझाने के वादे पर ही चुनाव जीता था.
बंकर फोड़ने का फंडा
फिर भी, ट्रंप ने ईरान के खिलाफ बड़े हमले करने का जोखिम मोल लेकर सबको चौंका दिया, ताकि ईरान की एटमी ताकत हमेशा के लिए खत्म हो जाए. इस तरह 22 जून को ट्रंप ने 'ऑपरेशन मिडनाइट हैमर' को मंजूरी दे दी. अमेरिकी वायु सेना के सात बी2 स्टेल्थ बमवर्षक विमानों ने अमेरिकी ठिकानों से उड़ान भरी, लौटने तक कुल 37 घंटे के सफर में हवा में ईंधन भरा. उन्होंने ईरान के तीन प्रमुख एटमी ठिकानों पर 14 जीबीयू-57ए मैसिव ऑर्डनेंस पेनेट्रेटर या एमओपी से सटीक हमले किए. उन्हें बंकर बस्टर या बंकर फोड़ू बम कहा जाता है.
ये विस्फोट से पहले 60 मीटर की गहराई तक अंदर घुसते हैं. उनसे ईरान के नतंज के अलावा फोर्दो में एटमी संवर्धन ठिकाने को निशाना बनाया गया, जो जमीन के नीचे काफी गहराई में है. वहीं, तीसरे ठिकाने इस्फहान पर युद्धपोतों से 30 घातक टॉमहॉक क्रूज मिसाइलें दागी गईं. दोनों देशों के बीच 1988 के टकराव के बाद अमेरिका का ईरान के खिलाफ यह पहला बड़ा फौजी हमला था. 1988 में अमेरिकी नौसेना ने दो ईरानी तेल प्लेटफॉर्मों को उड़ा दिया था और एक बड़े युद्धपोत को नष्ट कर दिया था.
ट्रंप ने ईरान के एटमी ठिकानों पर अमेरिकी हमलों को ''शानदार फौजी कामयाबी'' बताया और दावा किया कि ''अहम एटमी संवर्धन ठिकानों को पूरी तरह बर्बाद कर दिया गया है.'' ईरान की एटमी संवर्धन क्षमता को नष्ट करने के अमेरिकी मकसद के पूरा होने के बाद ट्रंप ने लड़ाई जारी रखने का कोई मतलब नहीं समझा और फौरन इज्राएल तथा ईरान दोनों को हमले रोकने के लिए राजी होने पर मजबूर किया.
इज्राएल ने भी दावा किया कि उसने ईरान की एटमी महत्वाकांक्षाओं को नेस्तोनाबूद कर दिया है और उसकी बैलिस्टिक मिसाइलों को बर्बाद कर दिया है. नेतन्याहू ने ट्रंप को अमेरिकी फौजी मदद के लिए शुक्रिया तो अदा किया, मगर इस पर भी जोर दिया, ''दशकों से, मैंने आपसे वादा किया था कि ईरान के पास एटमी हथियार नहीं होंगे और, असल में, हमारे फौजियों की फटाफट कार्रवाइयों से ईरान की एटमी परियोजना पूरी तरह बर्बाद हो गई है.''
उधर, ईरान ने दावा किया कि उसने कतर में अल उदीद अमेरिकी हवाई अड्डे को निशाना बनाकर जवाबी कार्रवाई की, ठीक उतनी ही मिसाइलें दागीं, जितनी अमेरिका ने उसके एटमी ठिकानों पर दागी थीं. हालांकि यह माना जा रहा है कि तेहरान ने अमेरिकी फौज को पहले ही चेतावनी दे दी थी, ताकि वह नुक्सान से बच सके. ईरान ने कहा कि उसने अमेरिकी और इज्राएली फौजी दुस्साहस का मुंहतोड़ जवाब दिया है और हमलों के बावजूद, उसकी एटमी क्षमता में खास फर्क नहीं पड़ा है. एक्स पर एक पोस्ट में ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला अली खामेनेई ने लिखा, ''जो लोग ईरानियों और उनके इतिहास को जानते हैं, उनको पता है कि ईरानी कौम ऐसी नहीं है जो हथियार डाल दे.''
हथौड़ा उतना वजनी न था
ट्रंप ने भले ऑपरेशन मिडनाइट हैमर को पूरी तरह कामयाब बताया, मगर न्यूयॉर्क टाइम्स और सीएनएन समेत मुख्यधारा के अमेरिकी मीडिया ने लीक हुए अमेरिकी खुफिया आकलन के हवाले से बताया कि ईरान के तीन एटमी ठिकानों पर अमेरिकी हमलों से उसके एटमी कार्यक्रम के अहम हिस्से बर्बाद नहीं हुए, बल्कि उसे वर्षों के बजाए कुछ महीने पीछे धकेल दिया है. यह भी कहा गया कि अमेरिकी हमलों से पहले ईरान के समृद्ध यूरेनियम के भंडार को ठिकानों से हटा दिया गया था. फोर्दो, नतंज और इस्फहान में नुक्सान खासकर जमीन के ऊपरी ढांचों तक ही सीमित है, जिसमें बिजली का ढांचा और बम बनाने के लिए यूरेनियम को धातु में बदलने वाले कुछ संयंत्र शुमार हैं.
भारतीय सेना के पूर्व प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवाणे की राय में, इस आकलन का मतलब है कि बंकर बमों ने वैसा विध्वंस नहीं किया जिसकी ट्रंप को उम्मीद थी. नरवाणे का मानना है कि अपनी सबसे बड़ी सैन्य क्षमता के कमतर पड़ने से ट्रंप ने जंगबंदी के लिए दबाव डाला, ताकि ईरान पर हमले के लिए दूसरी रणनीतियों पर काम किया जा सके.
नरवाणे कहते हैं, ''तब जंगबंदी अस्थायी होगी. ऐसा लगता है कि ईरान, इज्राएल और अमेरिका इस पर राजी हुए क्योंकि वे लड़ाई के नतीजों, अपनी ताकत और कमजोरियों का आकलन करने, अपने सैन्य बलों और संसाधनों को फिर से संगठित करने और फिर शायद एक-दूसरे की गर्दन पर चढ़ बैठने के लिए वक्त चाहते थे.''
यही नहीं, अमेरिका और इज्राएल के लिए दूसरे बेहद असुविधाजनक सबक हैं, खासकर यह तथ्य कि उनके संयुक्त हमले ईरान के अत्यधिक समृद्ध यूरेनियम भंडार के करीब 400 किलोग्राम को नष्ट करने में नाकाम रहे. भारत के एटमी ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोदकर कहते हैं कि अगर यह रिपोर्ट सही है कि ईरान ने हमले से पहले अपने समृद्ध यूरेनियम के भंडार को हटा दिया था, तो तेहरान के पास कच्चे एटमी उपकरणों को इकट्ठा करने की क्षमता है जो काफी ताकतवर हो सकते हैं. वे कहते हैं, ''ईरान के पास अपने सेंट्रीफ्यूज को जल्दी से फिर से बनाने की क्षमता है. इसलिए, अमेरिका और इज्राएल ने जो कुछ भी किया है, वह बस रुकावट भर है. यह चूहे-बिल्ली का खेल है जो वर्षों से खेला जा रहा है और यह कोई स्थायी हल नहीं है, बस एक पैबंद भर है.''
दूसरे विशेषज्ञों का कहना है कि ईरान की एटमी क्षमताओं के मामले में हमें मुख्य रूप से उसके हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर की क्षमता को देखना चाहिए. अमेरिका और इज्राएल के हमलों से सेंट्रीफ्यूज हॉल जैसे हार्डवेयर प्रतिष्ठानों को कुछ हद तक नुक्सान पहुंचा होगा. लेकिन ईरान ने 40 से ज्यादा वर्षों से भारी मात्रा में निवेश और संसाधनों के साथ अपनी एटमी क्षमता विकसित की है, इसलिए इन हमलों या कुछ एटमी वैज्ञानिकों की हत्या से उसकी प्रतिभाएं कम नहीं होंगी, जैसा कि इज्राएल और अमेरिका ने उम्मीद की थी.
नया एटमी खतरा
अकबरुद्दीन का कहना है कि असल खतरा इसके बजाए यह है कि ईरान के एटमी ठिकानों को निशाना बनाकर अमेरिका ने उसके एटमी कार्यक्रमों की देखरेख का हक गंवा दिया हो, क्योंकि तेहरान अब आईएईए की निगरानी से इनकार कर देगा और अपनी योजनाओं के बारे में अपारदर्शी रुख अपना लेगा. 1968 की एटमी अप्रसार (एनपीटी) संधि के तहत शांतिपूर्ण साधनों के लिए एटमी रिएक्टर विकसित करने और एटमी हथियारों से परहेज करने के बदले यह वादा किया गया कि आपके खुले और पारदर्शी ढंग से सुरक्षित एटमी ठिकानों पर हमला करने का अधिकार किसी भी दूसरे देश को नहीं होगा.
इज्राएल एटमी हथियार संपन्न देश है लेकिन उसने एनपीटी पर दस्तखत नहीं किए हैं. उसने इस संधि के प्रावधानों को उस वक्त गंभीर चोट पहुंचाई जब जून 1981 में उसकी वायु सेना ने फ्रांस की तरफ से इराक को दिए गए ओसिरक रिसर्च रिएक्टर पर बमबारी कर दी. फिर 2007 में इज्राएल ने सीरिया के अल किबर में निर्माणाधीन संदिग्ध एटमी अनुसंधान ठिकाने पर बम बरसाने के लिए अपनी वायु सेना के विमानों का इस्तेमाल किया, यह दावा करते हुए कि उत्तर कोरिया उसे टेक्नोलॉजी की आपूर्ति कर रहा था.
इसी कार्रवाई ने सीरिया को इसके बजाए खतरनाक रासायनिक हथियार बनाने का सहारा लेने के लिए मजबूर कर दिया था. जहां तक ईरान के एटमी कार्यक्रम की बात है, 2025 से पहले अमेरिका के समर्थन से इज्राएल ने तेहरान की एटमी तलाश को कमजोर करने के लिए गुप्त तरीकों का इस्तेमाल किया, जिनमें 2007 में उसके नतंज एटमी ठिकाने के उपकरणों में कथित तौर पर स्टक्सनेट नाम का कंप्यूटर वर्म या कीड़ा डालना भी शामिल था, जिसकी वजह से सेंट्रीफ्यूज या अपकेंद्रण यंत्रों ने अपने आप को नष्ट कर लिया.
हालांकि इस बार ईरान के एटमी ढांचे पर बमबारी करने के लिए एनपीटी अगुआ अमेरिका के इज्राएल के साथ आ जाने से आईएईए के सुरक्षाकवचों के तहत एटमी ठिकानों पर हमला नहीं करने का वह समझौता टूट गया लगता है. एनपीटी के भीतर निहित अड़ियल खामियां उभरकर सामने आ गईं. इसलिए ईरान सरीखे देश उत्तर कोरिया का मॉडल अपनाने की ओर बढ़ सकते हैं—एनपीटी में शामिल हो जाओ, फिर दुष्टता पर उतर आओ और एटम बम बना लो.
अकबरुद्दीन की राय में, ''मुद्दा यह है कि अमेरिका बंकर बस्टरों का इस्तेमाल करना चाहता था या कूटनीतिक समाधान खोजना चाहता था. उसने पहला विकल्प चुना और अब फैसला इस बात का होना है कि क्या यह आपको वही लाभांश देगा जो कूटनीति ने बराक ओबामा के मातहत दिया था.''
राष्ट्रपति ओबामा के दूसरे कार्यकाल में अमेरिका ने दूसरे पी-5 देशों—रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी के साथ मिलकर जुलाई 2015 में ईरान के साथ समझौता किया था जिसे जॉइंट कंप्रीहेंसिव प्लान ऑफ ऐक्शन (जेसीपीओए) कहा जाता है. इसके तहत ईरान अरबों डॉलर की प्रतिबंध राहत के बदले अपने काफी कुछ एटमी कार्यक्रम को खत्म करने और एटमी ठिकानों को ज्यादा गहन अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण के लिए खोलने को राजी हो गया था.
इरादा यह था कि ईरान के एटमी कार्यक्रम को इस हद तक घटा दिया जाए कि अगर ईरान एटमी हथियार बनाने का फैसला करता भी है तो उसे कम से कम एक साल लगे, जिससे विश्व के महाशक्ति देश इस बीच कठोर उपायों का अंबार लगा सकें.
इस समझौते के तहत ईरान ने ऐसे अत्यंत समृद्ध यूरेनियम या प्लूटोनियम का उत्पादन नहीं करने पर सहमति जताई थी जिनका इस्तेमाल एटमी हथियारों के लिए किया जा सकता है, और आईएईए को बेरोकटोक पहुंच मुहैया की थी. उसने अत्यधिक समृद्ध यूरेनियम का भंडार भी 97 फीसद तक घटा लिया था और 10,000 किलो से सीधे 300 किलो पर ले आया था. अलबत्ता ट्रंप इस समझौते के घोर विरोधी थे. उनका मानना था कि प्रतिबंध हटाने से उसकी अर्थव्यवस्था में उछाल आएगी और तब उसे एटमी हथियार बनाने की गुप्त मंशा से रोकने के लिए कोई उपाय भी नहीं होगा. 2017 में ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद मई 2018 में उन्होंने इस समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया और ईरान के साथ कारोबार करने वाली संस्थाओं पर भारी पाबंदियां लगा दीं.
जिसकी लाठी उसकी भैंस
चिंता की बात यह है कि रूस और चीन सरीखे बड़े देशों की लफ्फाज बयानबाजी को छोड़कर इज्राएल और अमेरिका के बेशर्म हमलों की आलोचना दबी-दबी थी. यह 1981 के एकदम विपरीत था जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इराक के ओसिरक रिसर्च रिएक्टर पर हमला करने के लिए इज्राएल की भर्त्सना में प्रस्ताव पारित किया था. इज्राएल ने कहा कि यह रोकथाम की गरज से एक बार का हमला था. मगर 45 साल बाद इज्राएल या अमेरिका की बमुश्किल ही कोई भर्त्सना की गई.
अमेरिका ने ईरान पर अपने हमलों को जायज ठहराया, जब अमेरिकी रक्षा सचिव पीट हेगसेथ ने कहा कि यह ''ईरान के एटमी हथियार कार्यक्रम से हमारे राष्ट्रीय हितों के लिए उत्पन्न खतरों को बेअसर करने और अमेरिकी सैनिकों तथा हमारे सहयोगी देश इज्राएल की सामूहिक आत्मरक्षा के लिए'' जरूरी था.
जनरल नरवाणे सामूहिक आत्मरक्षा के इस नजरिए को चिंताजनक मानते हैं और बताते हैं, ''मौजूदा टकराव का एकमात्र ठोस नतीजा यह है कि एकतरफावाद कायम हो गया है और जिसकी लाठी उसकी भैंस यानी ताकत ही अधिकार है. इज्राएल और अमेरिका सरीखे देश युद्ध या शत्रुता की औपचारिक घोषणा के बिना ही अपनी इच्छा थोप रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे रूस ने 2022 में यूक्रेन पर आक्रमण करते वक्त किया. अब दुनिया में कोई देश सुरक्षित नहीं है. बड़ा संदेश यह है कि आप बात नहीं मानते तो बम बरसाए जा सकते हैं. और आपके पास एटमी हथियार नहीं हैं तो आप उनके रहमो-करम पर हैं. अंतरराष्ट्रीय मामलों में यह खतरनाक मोड़ है.''
चीन काफी खुश मालूम दिया कि ट्रंप पश्चिम एशिया और यूक्रेन-रूस टकराव में उलझ गए हैं, जबकि वह ताइवान पर एकतरफा कब्जा करने के लिए अपनी ताकत बढ़ा रहा है. रूस के अपने निहित स्वार्थ थे कि ट्रंप यूक्रेन से अपनी नजरें हटा लें और दूसरे टकरावों पर ध्यान दें. यूरोप में जर्मनी के चांसलर फ्रेडरिक मर्ज ने ईरान पर इज्राएल के हमलों का अनुमोदन किया और उसकी तारीफ की कि वह दूसरे देशों के भले के लिए ''बुरा काम'' कर रहा है. फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने ''अधिकतम संयम बरतने, तनाव घटाने और बातचीत की मेज पर लौटने'' का आग्रह किया.
अरब-ईरान पारंपरिक दुश्मनी के मद्देनजर, सऊदी अरब समेत ज्यादातर अरब ताकतें ईरान की एटमी क्षमता घटने में फायदा देख रही थीं. इसलिए उन्होंने ईरान पर हमलों की निंदा तो की लेकिन रुढ़िवादी शाही हुकूमतें मोटे तौर पर अमेरिका की कृतज्ञ और आभारी हैं और उनके पास ईरान पर बम बरसाने के लिए अपने हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करने देने के अलावा कोई चारा न था. कुछ विशेषज्ञों ने अमेरिका-इज्राएल की संयुक्त कार्रवाई को पश्चिम एशिया की भू-राजनीति में आमूलचूल बदलाव के तौर पर देखा. कुमार कहते हैं, ''इससे इज्राएल अल्पकालिक तौर पर हर दूसरी शक्ति की कीमत पर बहुत ज्यादा मजबूत हो जाएगा.''
इलाके में इज्राएल का दबदबा बढ़ जाएगा और उसकी महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने वाला कोई मुस्लिम देश न होने से वह गंभीर खतरा बन जाएगा और तनाव कभी खत्म नहीं होंगे. खासकर, जैसा कि विदेश मंत्रालय में पूर्व सचिव टी.एस. तिरुमति कहते हैं, तब तो और भी अगर ईरान के खिलाफ अपने दुस्साहस से उत्साहित नेतन्याहू अपने 'इरेत्ज इज्राएल' या जोर्डन नदी से लेकर भूमध्य सागर तक फैली जमीन को हासिल करने के सपने को पूरा करने के लिए आगे बढ़ने का फैसला करते हैं.
ऐसे में इज्राएल को गजा और वेस्ट बैंक को हड़पते देखा जा सकता है. हालांकि फलस्तीनी भूभागों को हड़पने से इज्राएल आसपास के मुस्लिम देशों के साथ सीधे टकराव की स्थिति में आ जाएगा और इसका नतीजा अंतहीन टकराव होगा. बढ़ते आम लोगों के रक्तपात के साथ हमास के खिलाफ इज्राएल के सैन्य अभियान को, जिसे पहले जायज माना जा रहा था, अब नेतन्याहू के प्रतिशोध जैसा देखा जा रहा है.
भारत के लिए ऊंचे दांव
भारत के लिए पश्चिम एशिया में लगातार जारी अशांति की सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक है. युद्ध जारी रहने की स्थिति में ईरान की होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करने की धमकी से बाजार कांपने लगे. दुनिया की करीब 20 फीसद तेल और 30 फीसद गैस आपूर्ति होर्मुज जलडमरूमध्य के रास्ते होती है.
भारत की तेल और गैस की 40 फीसद से ज्यादा जरूरतें खाड़ी के देशों से पूरी की जाती हैं. ऐसे में किसी भी तरह की रुकावट से पेट्रोलियम की कीमतों में तेज बढ़ोतरी देखी जा सकती है और महंगाई को 6 फीसद के नीचे रखने में भारत की सारी कामयाबी पर पानी फिर सकता है. तेल की कीमतों में हर 10 डॉलर के इजाफा होने पर भारत अतिरिक्त 1 अरब डॉलर (8,580 करोड़ रुपए) आयात में गंवा देता है. भारत अपनी तेल और गैस की जरूरतों का 89 फीसद आयात करता है और ऐसे में यह आर्थिक वृद्धि को धीमा कर सकता है.
इतना ही नहीं, विदेशों से भारत को भेजी जाने वाली 129.1 अरब डॉलर (11.04 लाख करोड़ रुपए) की सालाना धनराशि का करीब 40 फीसद 2024 में खाड़ी सहयोग परिषद के देशों से आया, जहां 89 लाख प्रवासी भारतीय रहते हैं. वहां टकराव की स्थिति में उन पर गंभीर असर पड़ सकता है. टकराव के इलाकों से भारतीय नागरिकों को निकालना भी पड़ता है, जैसा कि ईरान में किया गया. यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इज्राएल और ईरान से सैन्य विकल्पों के बजाए तनाव कम करने और बातचीत तथा कूटनीति को ज्यादा जगह देने की अपील की.
इस टकराव और साथ ही भारत के अपने ऑपरेशन सिंदूर का दूसरा सबक यह है कि किस तरह हवाई दबदबा और लक्ष्य से काफी दूर से हमला करने में सक्षम हथियार आधुनिक युद्ध में बड़ी भूमिका निभाने लगे हैं. इसलिए भारत को सटीक मिसाइलों और गोला-बारूद से लैस लॉइटरिंग ड्रोन समेत मानवरहित लड़ाकू वाहनों के जरिए अपनी हमलावर क्षमताओं को मजबूत करने की जरूरत है.
मगर, ईरान और इज्राएल के विपरीत, जो सरहद साझा नहीं करते और 2,000 किमी की दूरी है, पाकिस्तान और चीन के साथ भारत की सरहदें लगती हैं इसलिए वह अकेले हवाई ताकत पर भरोसा नहीं कर सकता. जनरल नरवाणे कहते हैं, ''भारत के मामले में तीनों सैन्य क्षेत्रों थल, वायु या समुद्र को बराबर का महत्व देना होगा. हमें यह भी पक्का करना होगा कि हमारे पास अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी हो, क्योंकि विमान, टैंक और ऐसे ही विशाल लड़ाकू वाहनों के 21वीं सदी में डायनोसोर बन जाने का अंदेशा है.''
इससे भी ज्यादा अहम लड़ाई के नैरेटिव को नियंत्रित करना और अंतरराष्ट्रीय जनमत को अपने पक्ष में झुकाना है. इस मामले में न तो अमेरिका और इज्राएल ने और न ही ईरान ने कोई अच्छा काम किया, इस बात को लेकर बेचैनी और गहरी हो गई कि यह संघर्ष विराम और चाहे जो हो स्थायी सुलह तो नहीं ही है.