प्लास्टिक का कचरा फैलाने में भारत अव्वल! सेहत के लिए यह कितना खतरनाक?
भारत प्लास्टिक से प्रदूषण फैलाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश बना. हमारी सेहत के लिए इसके क्या हैं मायने; और फिर इसे दुरुस्त करने के उपाय क्या हैं

हरियाणा-दिल्ली सीमा पर टिकरी कलां में 250 एकड़ में फैले प्लास्टिक बाजार की धूल-धक्कड़ भरी आड़ी-तिरछी गलियां. हर तरफ प्लास्टिक के टुकड़ों से भरे सफेद पीपी रफिया थैलों के ऊंचे-ऊंचे ढेर.
यहां प्लास्टिक को करीब 100 विभिन्न किस्मों में अलग किया जाता है और ध्यान रखा जाता है कि हर बोरी में सिर्फ एक ही किस्म हो क्योंकि प्लास्टिक की अलग-अलग किस्मों को एक साथ गलाया नहीं जा सकता.
पीवीसी और प्लास्टिक अपशिष्ट विक्रेता संघ के कार्यालय सचिव विजय शर्मा बताते हैं, ''देश के तकरीबन हर जिले से प्लास्टिक कचरा यहां आता है."
शर्मा के मुताबिक, रोजाना 30-50 ट्रक आते हैं, जिनमें से हरेक में तकरीबन 10-15 टन माल होता है. दूसरे कारोबारियों का अनुमान है कि यह आंकड़ा करीब 200-250 ट्रक का है. कहने का मतलब यह कि टिकरी कलां की चौहद्दी में विशाल असंगठित बाजार मौजूद है, जो संगठित बाजार से काफी बड़ा है.
यहीं सारी कहानी छुपी हुई है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की ओर से जुटाए 23 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के आंकड़ों के 2022 में किए गए विश्लेषण के आधार पर सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट (सीएसई) का निष्कर्ष था कि देश में कुल प्लास्टिक कचरे का सिर्फ 12 फीसद ही रिसाइकल होता है, करीब 20 फीसद जला दिया जाता है, जबकि 70 फीसद के आसपास का कोई हिसाब नहीं.
यह कूड़े के पहाड़ों या लैंडफिल में जा पहुंचता है या फिर सड़कों के किनारे फेंक दिया जाता है. सो, आश्चर्य नहीं कि सितंबर 2024 में विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन में भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक बनकर उभरा. यह निष्कर्ष 2020 में दुनिया भर की 50,702 नगरपालिकाओं के आंकड़ों के आधार पर निकाला गया.
भारत में हर साल 93 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जो दुनिया में सालाना 5.21 करोड़ टन प्लास्टिक उत्सर्जन का 20 फीसद है. इसका अर्थ समझें: यह वातावरण में फैला वह कचरा है, जिसका निबटान या प्रबंधन नहीं किया जा सका है. भारत में अनुमानित 58 लाख टन प्लास्टिक खुले में जला दिया जाता है, जिससे जहरीली गैस निकलती है.
करीब 35 लाख टन लैंडफिल या कूड़े के ढेर में डाल दिया जाता है, जो कालांतर में समुद्र में पहुंचता है. इसमें प्लास्टिक कचरे की वह अपार मात्रा शामिल नहीं जिसे बटोरा और इधर-उधर फेंक दिया जाता है जहां यह सड़ता-गलता है और जमीन में विषैले तत्व छोड़ता है.
यह तो भारत में पैदा होने वाले कुल 2.78 करोड़ टन प्लास्टिक कचरे का एक-तिहाई हिस्सा ही है, जो केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2020 में 35 लाख टन के आंकड़े से बहुत ज्यादा है. इसकी वजह, बकौल अध्ययन, सरकारी आंकड़ों में ग्रामीण इलाकों, खुले में जलाए या असंगठित क्षेत्र में रिसाइकल किए गए प्लास्टिक कचरे शामिल नहीं हैं.
इस अध्ययन के लेखकों ने इंडिया टुडे को एक ई-मेल में बताया कि भारत में कुल 2.78 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है जो सीपीसीबी के 2020 के लिए लगाए गए अनुमान 35 लाख टन से कहीं, कहीं ज्यादा है. अध्ययन के मुताबिक, भारत के सरकारी आंकड़े में ग्रामीण इलाकों और इनफॉर्मल सेक्टर में बिना बटोरे हुए खुले में जला दिया गया या रिसाइकल किया गया कचरा शामिल नहीं है.
भारत इस मुहाने पर आखिर पहुंचा कैसे? प्लास्टिक शुरू में 1957 में पॉलीस्टाइरीन के रूप में भारत आया. हालांकि भारत में दूसरे कई रूपों में इसका उत्पादन होने में कुछ दशक लग गए. इसकी उपयोगिता इसके नाम से ही पता चल जाती है.
नाम ग्रीक शब्द प्लास्टिकोस से आया है जिसका मतलब है, चाहे जिस आकार में ढालो. प्राकृतिक गैस या पेट्रोलियम जैसे जीवाश्म ईंधन से बनी यह रासायनिक सामग्री प्लास्टिक अणुओं की लंबी शृंखला है, जिन्हें पॉलीमर कहा जाता है, ठीक जैसे सैकड़ों कागज के टुकड़े नत्थी हों.
गरम करने पर किसी भी आकार में ढाले जा सकने वाला इसका गुण बड़े काम का पाया गया. गरम करने पर उसके गुणों के आधार पर प्लास्टिक को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बांटा गया. एक, थर्मोप्लास्टिक, जो गरम होने पर नरम हो जाता है, उसे गलाकर दो-तीन बार नए आकार में ढाला और रिसाइकल किया जा सकता है.
दूसरा, थर्मोसेट, जिसे गरम करके एक ही आकार में ढाला जा सकता है. उसे रिसाइकल नहीं किया जा सकता. थर्मोप्लास्टिक से पीईटी (पॉलीएथलीन टेरेक्रथेलेट) बोतलें, पीवीसी पाइप, कप तथा खाद्य वस्तुओं के कंटेनर बनाने के इस्तेमाल में आने वाले पॉलीप्रोपलीन और थैले बनाए जाने वाला पॉलीएथलीन बनता है. थर्मोसेट बैकलाइट, मेलामाइन और जूते का तल्ला, टायर, रबर पाइप बनाने में काम आता है.
हल्का, टिकाऊ, वाटरप्रूफ और सस्ता होने से प्लास्टिक कालांतर में खाद्य उद्योग से लेकर फैशन, निर्माण, वाहन, स्वास्थ्य सेवा सब में छा गया. घर-परिवार में भी घुस आया क्योंकि खाने-पीने का सामान और कपड़ा वगैरह की खरीदारी में यह सहज थैला बन जाता है. आबादी और अर्थव्यवस्था के साथ प्लास्टिक का उत्पादन और इस्तेमाल भी बढ़ा.
2023 में 3.5 लाख करोड़ रुपए का माना जाने वाला प्लास्टिक उद्योग वित्त वर्ष 2028 में 10 लाख करोड़ रु. का होने जा रहा है. इसकी 30,000 प्रसंस्करण इकाइयां हैं, जिनमें ज्यादातर छोटे और मझोले उद्यम हैं, जो 40 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार और जीडीपी में 1.4 फीसद का योगदान देते हैं. प्लास्टिक निर्यात संवर्धन परिषद के मुताबिक, वित्त वर्ष 2025 में भारत का प्लास्टिक निर्यात 12.5 अरब डॉलर (करीब 1.07 लाख करोड़ रुपए) का था.
आज भारत दुनिया भर में प्लास्टिक के शीर्ष तीन उपभोक्ताओं में एक है. उससे आगे चीन और अमेरिका हैं. हालांकि भारत की प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की खपत 13 किलोग्राम है, जो 30 किलोग्राम के वैश्विक औसत के मुकाबले आधे से भी कम है.
लेकिन भारत में प्रति व्यक्ति 0.05 किलो प्लास्टिक कचरे के मुकाबले में चीन में प्रति व्यक्ति 0.08 किलो कचरा निकलता है, फिर भी कचरा प्रबंधन की हमारी अक्षमता हमें दुनिया में सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा फैलाने वाला देश बनाती है. नेचर के अध्ययन की गणना के मुताबिक चीन के 28 लाख टन उत्सर्जन से यह तीन गुना ज्यादा है.
जानलेवा प्लास्टिक
प्लास्टिक की सर्वव्यापकता ने अब उसे वैश्विक खतरा बना दिया है, जिसमें भारत की अहम भूमिका बताई जाती है. इसकी जैविक रूप से न घुलने वाली प्रकृति का मतलब है कि प्लास्टिक हमेशा के लिए और हर जगह मौजूद रहेगा. समय के साथ यह सूक्ष्म और नैनो आकार के कणों में बंट जाता है, जो मिट्टी, हवा, पानी, सब्जियों में घुस जाता है, जिससे आदमी और जानवरों में समान रूप से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं.
हृदय और मस्तिष्क जैसे जटिल शारीरिक अंगों में प्लास्टिक की मौजूदगी से पता चलता है कि यह न केवल भोजन के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर रहा है, जैसा कि मल-मूत्र में उसकी मौजूदगी से पता चलता है, बल्कि माइक्रोप्लास्टिक रक्तप्रवाह में भी प्रवेश कर रहा है और विभिन्न अंगों में जमा हो रहा है.
जानवर अमूमन प्लास्टिक को खाने की चीज समझकर चबा जाते हैं. गुजरात के आणंद में कामधेनु विश्वविद्यालय के पशुपालन और पशुचिकित्सा महाविद्यालय में पशु चिकित्सा सर्जरी और रेडियोलॉजी के प्रमुख प्रोफेसर डॉ. पी.वी. पारीख बताते हैं कि ऑपरेशन के दौरान एक गाय के पेट में 65 किलो प्लास्टिक की थैलियां, कप और डिस्पोजेबल चम्मच फंसे पाए गए थे.
किसी ने यह सोचकर गाय खरीदी कि वह गर्भवती है पर जब नौ महीने बाद भी बच्चा न हुआ तो वह उसे पारीख के पास लाया. गरिमा पूनिया की ठोस कचरा प्रबंधन संस्था कचरेवाला फाउंडेशन ने 2018 से अंदमान द्वीप समूह के समुद्र तटों से चार टन से अधिक प्लास्टिक कचरा हटाया है. वे बताती हैं कि कैसे प्लास्टिक के मछली पकड़ने के जाल कोरल में उलझ जाते हैं और समुद्री जीवों की मौत का सबब बनते हैं. ''इसी साल हमने एक किमी से ज्यादा मछली पकड़ने के जाल, रस्सियां वगैरह बरामद कीं."
अब तक किया क्या गया
प्लास्टिक की खपत कम करने के लिए सरकार ने 2022 में एक बार इस्तेमाल वाली 19 सिंगल यूज प्लास्टिक (एसयूपी) वस्तुओं पर प्रतिबंध लगा दिया, जिनमें प्लास्टिक कटलरी, स्ट्रॉ, ट्रे, सजावटी थर्मोकोल वगैरह शामिल हैं.
कैरी-बैग और बैनर जैसी एसयूपी वस्तुओं पर मोटाई का मानदंड लगाया गया था. यानी 120 माइक्रॉन से कम के प्लास्टिक कैरी बैग और 100 माइक्रॉन से कम पीवीसी बैनर पर प्रतिबंध लगा दिया गया क्योंकि पतले प्लास्टिक को इकट्ठा करना और रीसाइकल करना मुश्किल है.
फिर, लैंडफिल में जाने वाले प्लास्टिक को नियंत्रित करने की कोशिश में सरकार ने 2022 में प्लास्टिक पैकेजिंग के लिए विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी (ईपीआर) के दिशानिर्देश जारी किए, जिसके तहत उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों (पीआइबीओ) को अपने उत्पादों की पैकेजिंग से उत्पन्न प्लास्टिक के 100 फीसद निबटान की जिम्मेदारी डाली गई.
इनमें प्लास्टिक पैकेजिंग में संग्रह, रिसाइकल, और दोबारा रिसाइकल सामग्री का इस्तेमाल शामिल थे. पर्यावरण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ''आज की तारीख में यह प्लास्टिक पैकेजिंग पर ईपीआर के लिए दुनिया की सबसे बड़ी व्यवस्थाओं में से एक है." इस अप्रैल से कोक और पेप्सिको जैसी शीतलपेय कंपनियों को बोतलों में 30 फीसद रिसाइकल किया प्लास्टिक इस्तेमाल करना होगा.
हिंदुस्तान यूनीलीवर के एक प्रवक्ता ने पैकेजिंग में रिसाइकल प्लास्टिक के इस्तेमाल का स्वागत किया. वे कहते हैं, ''एचयूएल ने अपने ईपीआर को 2020 में 58,000 टीपीए से 2021 में 1,00,000 टीपीए तक बढ़ा दिया. उसके बाद से हम अपने प्लास्टिक फुटप्रिंट को सौ फीसद यथावत करके चल रहे हैं."
इसी तरह गोदरेज एंटरप्राइजेज समूह में एन्वायरनमेंटल सस्टेनेबिलिटी की प्रमुख तेजश्री जोशी का कहना है कि वे अपने रिसाइकल पार्टनरों के जरिए पैकेजिंग में 10-15 फीसद ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं. ''पिछले पांच साल में हमने 15,000 टन से ज्यादा प्लास्टिक का विभिन्न क्षेत्रों में रिसाइकल किया."
लेकिन भारत में हर चीज की तरह अच्छे इरादे अमल के दरवाजे पर ही ठिठक जाते हैं. ऑस्ट्रेलियाई परोपकारी संस्था मिंडेरू फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के एसयूपी प्रतिबंध ने इस श्रेणी के मुश्किल से 11 फीसद उत्पादों पर ही असर डाला, और उस पर अमल कई मोर्चों पर बेमानी रहा है.
दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था टॉक्सिक्स लिंक ने अक्तूबर, 2023 में पांच भारतीय शहरों में 700 ठिकानों पर सर्वे किया. उसमें स्ट्रीट फूड विक्रेता, रेस्तरां, रेलवे स्टेशन और मॉल शामिल थे. सर्वेक्षण में दिल्ली और ग्वालियर में सबसे कम अमल पाया गया, जहां 84 फीसद अभी भी प्रतिबंधित एसयूपी का इस्तेमाल कर रहे थे.
उसके बाद गुवाहाटी (77 फीसद), मुंबई (71 फीसद) और बेंगलूरू (55 फीसद) का नंबर था. कैरी बैग (120 माइक्रोन से कम) आम तौर पर उपलब्ध थे और दूसरी प्रतिबंधित चीजों की बिक्री भी सभी शहरों में जारी थी. मसलन, थर्मोकोल सजावट (74 फीसद), गुब्बारे और प्लास्टिक की डंडियां (60 फीसद) वगैरह.
नॉर्वे की गैर-लाभकारी संस्था ग्रिड-अरेंडाल की वरिष्ठ सर्कुलर इकोनॉमी विशेषज्ञ स्वाति सिंह संब्याल का कहना है कि अमल न होने की मुख्य वजहों में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और नगरपालिका जैसे स्थानीय निकायों की बेहद ढिलाई है. वे बताती हैं कि अमल कराने वाले कर्मियों की भारी कमी से यह और मुश्किल हो जाता है.
"इसके अलावा, प्लास्टिक के विकल्प मुहैया करा सकने वाला उद्योग अपेक्षाकृत बेहद छोटा है, उसे बाजार की मुख्यधारा में जोड़ने की कोशिश न के बराबर है." विकल्पों में बांस की कटलरी, सुपारी के पत्तों से बने टेबलवेयर या पेपर प्लेट, प्लांट-आधारित लाइनिंग वाले पेपर कप, क्लिंग फिल्म के बजाए मोम से बने पैकेट वगैरह शामिल हैं. लेकिन ये सभी महंगे हैं और ज्यादा उपलब्ध भी नहीं. यही वजह है कि एसयूपी विकल्पों के मुख्यधारा में इस्तेमाल की दर कम है.
सीएसई के म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट के प्रोग्राम मैनेजर सिद्धार्थ घनश्याम सिंह प्लास्टिक प्रदूषण को सिर्फ कचरा प्रबंधन से कहीं ज्यादा बड़ी समस्या मानते हैं. कचरा प्रबंधन के मोटे तौर पर चार चरण हैं: खपत घटाना, दोबारा काम में लेना, रिसाइक्लिंग, बटोर लेना. हम पहले ही कदम पर लड़खड़ा जाते हैं—वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक का उत्पादन बढ़ रहा है.
नतीजतन, स्विस रिसर्च कंसल्टेंसी अर्थ ऐक्शन की 2023 की रिपोर्ट से पता चलता है कि कचरा प्रबंधन क्षमता में सुधार के बावजूद वैश्विक प्लास्टिक प्रदूषण 2040 तक तीन गुना हो जाएगा. बेंगलूरू स्थित सामाजिक उद्यम 'साहस जीरो वेस्ट' की संस्थापक तथा सीईओ विल्मा रोड्रिग्स कहती हैं, ''हम कचरा प्रबंधन के उचित साधनों के बिना प्लास्टिक का उत्पादन जारी नहीं रख सकते."
सिंह कहते हैं, ''यह कच्चे माल की सप्लाई, उत्पादन और बिक्री हर मामले में समस्या पैदा करता है." दरअसल पॉलिमर्स की आपूर्ति करने वाली इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, गेल, बीपीसीएल और रिलायंस जैसी बड़ी पेट्रोकेमिकल कंपनियों से लेकर उत्पादक तक सभी पर अंकुश लगाने की जरूरत है, जो ज्यादातर एमएसएमई हैं.
ये पॉलिमर्स को अपने विभिन्न विक्रेताओं की जरूरत के उत्पादों में ढालते हैं, ब्रांडों, खुदरा विक्रेताओं और उपभोक्ताओं तक पहुंचाते हैं जो अंतत: बिक्री के जरिए लोगों को पकड़ाते हैं. सरकार की 'केमिकल ऐंड पेट्रोकेमिकल स्टैटिक्स ऐट अ ग्लांस 2024' शीर्षक रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल उत्पादित 19 मीट्रिक टन पेट्रोकेमिकल्स में 65.8 फीसद या करीब 12.5 मीट्रिक टन का इस्तेमाल पॉलिमर बनाने के लिए किया जाता है.
प्लास्टिक को वैसे तो चौतरफा 'करामाती सामग्री' के तौर पर देखा जाता है, लेकिन सिंह को लगता है कि अब फोकस बदलने का वक्त आ गया है—प्लास्टिक को छोटे वक्त के, सुविधाजनक उद्देश्यों के बजाए स्वास्थ्य सेवा, रक्षा और हवाई क्षेत्र में अनिवार्य इस्तेमाल के लिए आरक्षित कर देना चाहिए.
उधर, ब्रांड मालिक देश में प्लास्टिक प्रदूषण के सबसे बड़े गुनाहगार बने हुए हैं. वैश्विक नेटवर्क ब्रेक फ्री फ्रॉम प्लास्टिक की 2021 की 'अनरैप्ड: एक्सपोजिंग इंडियाज टॉप प्लास्टिक पॉल्यूटर्स' शीर्षक वाली रिपोर्ट के मुताबिक, सारे प्लास्टिक कचरे का 35 फीसद और सारे ब्रांडेड प्लास्टिक कचरे का 40 फीसद हिस्सा मल्टीलेयर्ड प्लास्टिक है, जो रिसाइकल नहीं हो सकता.
इनमें प्लास्टिक के जिन 1,49,985 टुकड़ों की जांच की गई, उनमें प्लास्टिक से प्रदूषित करने वाले अंतरराष्ट्रीय ब्रांड में यूनिलीवर, पेप्सिको, कोका कोला, रेकिट बेंकिजर, नेस्ले, अमेजन, कोलगेट-पामोलिव, पीऐंडजी, क्राफ्ट हेंज और मोंडेलेज इंटरनेशनल और भारतीय ब्रांड में पारले, आईटीसी लि., ब्रिटानिया, हल्दीराम, यूनाइटेड स्पिरिट्स, टाटा कंज्यूमर प्रोडक्ट्स, मैरिको, हेक्टर बेवरेजेज, मिल्की मिस्ट और बालाजी को गिनाया गया.
ईपीआर के मामले में तो रोड्रिग्स कहती हैं, ''ब्रांड दरअसल संग्रह और रिसाइक्लिंग के लिए वाजिब भुगतान करना नहीं चाहते और अक्सर अनौपचारिक क्षेत्र का विकल्प चुनते हैं." रिसाइक्लिंग के मानक दिशानिर्देश न होने से हालात और पेचीदा हो जाते हैं. 30-40 फीसद कचरा तो संग्रह और निबटान प्रणाली की अनियमितताओं के चलते रिसकर बाहर आ जाता है.
रिवर्स लॉजिस्टिक्स को सुव्यवस्थित बनाने में एक और बाधा लागत है. टॉक्सिक्स लिंक के सतीश सिन्हा कहते हैं, ''करीब 30 फीसद प्लास्टिक कचरे को जला दिया जाता है, जो प्लास्टिक रिसाइक्लिंग के आंकड़ों में शामिल है." विशेषज्ञ देश में प्रामाणिक आंकड़ों की कमी पर भी अफसोस जताते हैं.
रिसाइक्लिंग की झंझटें
सभी प्लास्टिक एक जैसी नहीं होतीं और अलग-अलग किस्म की प्लास्टिक को अलग-अलग ढंग से रिसाइकल करना होता है. भारत में मुश्किल यह है कि घरों के स्तर पर प्लास्टिक को अलग करने की व्यवस्था ठीक नहीं. इससे प्लास्टिक मिले-जुले ठोस कचरे का हिस्सा बन जाती है, जिसे सब्जियों और फलों के छिलकों सरीखे गीले कचरे और कागज, प्लास्टिक के बैग और ई-कचरे सरीखे सूखे कचरे के साथ फेंक दिया जाता है, और इसलिए रिसाइकल करना मुश्किल हो जाता है.
यही नहीं, पॉलीप्रोपलीन, पॉलीस्टरीन और कम घनत्व वाली पॉलीथायलीन सरीखी थर्मोप्लास्टिक को कुछ हद तक रिसाइकल किया जा सकता है, लेकिन उन्हें भी अक्सर थर्मोसेट प्लास्टिक की तरह ही शोधित किया जाता है और कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्रों में भेज दिया जाता है.
भारत में ज्यादातर रिसाइक्लिंग अनौपचारिक ढंग से होती है और केवल वही प्लास्टिक कचरा उठाया जाता है जो फायदेमंद हो. लिहाजा, टॉक्सिक्स लिंक के सिन्हा के मुताबिक, पीईटी बोतलों और शैंपू तथा बॉडीवॉश के कंटेनरों सरीखे प्लास्टिक के ''आसान" कचरे की कीमत कबाड़ीवालों से 40-50 रुपए प्रति किलो तक मिल जाती है, और इसलिए उनकी औपचारिक रिसाइक्लिंग प्रणाली है, वहीं बहुपरतीय और फेंकने लायक डिब्बों सरीखी दूसरे किस्म की प्लास्टिक के लिए महज 5-10 रुपए मिलते हैं, और उन्हें इकट्ठा किए बिना छोड़ दिया जाता है.
टॉक्सिक्स लिंक में वेस्ट और सस्टेनिबिलिटी के प्रोग्राम ऑफिसर विनोद कुमार का कहना है कि प्लास्टिक के उत्पाद भी बहुत पेचीदा हो गए हैं. वे कहते हैं, ''एक उत्पाद बनाने के लिए अलग-अलग पॉलिमर को कॉम्प्रेस या मिक्स किया जा रहा है, जिससे रिसाइक्लिंग मुश्किल और महंगी हो जाती है."
जिन वस्तुओं को रिसाइकल नहीं किया जाता, उन्हें अक्सर कचरा भराव क्षेत्रों में फेंक दिया जाता है या ईंट भट्टों के मालिक ईंटों को पकाने के वास्ते ताप पैदा करने के लिए गैरकानूनी ढंग से खरीद लेते हैं. वे कहते हैं, ''ग्रामीण इलाकों में कचरा उठाने की कमजोर व्यवस्था के कारण लोग सर्दियों में तापने के लिए कचरा जलाने का सहारा लेते हैं, जिससे वातावरण में जहरीला धुआं घुल जाता है."
उच्च कोटि की रिसाइक्लिंग न होने और प्लास्टिक के कचरे से होने वाले प्रदूषण के कारण ज्यादातर प्लास्टिक को डाउनसाइकल यानी इस तरह रिसाइकल किया जाता है जिससे निम्न गुणवत्ता के उत्पाद बनते हैं. 12,000 से ज्यादा व्यवसायों के प्लास्टिक कचरे की साज-संभाल में मदद करने वाली टेक समाधान प्रदाता कंपनी रिसाइकल के सह-संस्थापक तथा सीओओ अभिषेक देशपांडे का कहना है कि इसकी वजह से इन चीजों को केवल 3-4 बार ही रिसाइकल किया जा सकता है.
रोड्रिग्स का कहना है कि जब तक लगातार चलने और अपने आप सुधार करने वाले तरीके से प्लास्टिक का संग्रह हकीकत नहीं बन जाती, तब तक चर्चा खपत कम करने पर होनी चाहिए. संब्याल का सुझाव है कि बदलाव व्यक्तिगत स्तर से शुरू हो. मसलन, हमेशा कपड़े का थैला साथ लेकर चलें और शॉपिंग बैग लेने से इनकार कर दें.
यही नहीं, अपने थैले में तीन चीजें रखने की आदत विकसित करें—स्टील या कोकोनट स्ट्रॉ समेत स्टील की कटलरी, पानी की बोतल, और खोमचों पर खाने के लिए झोला. वे कहती हैं, ''इस तरह आप प्लास्टिक की कई सारी चीजों से बचेंगे. आप रोज इसका अभ्यास कर पाएं तो अपने आसपास के कम-से-कम पांच लोगों को ऐसा ही करने के लिए प्रेरित करें."
संकट के विशालकाय पैमाने को देखते हुए वैश्विक कार्रवाई बेहद जरूरी है. संयुक्त राष्ट्र के 175 सदस्य देश 2022 में प्लास्टिक के प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए अपने ढंग की पहली और कानूनी तौर पर बाध्यकारी संधि पर सहमत हुए. मगर पिछले साल कोरिया के बुसान में हुई समझौता वार्ताओं के दारौन ग्लोबल नॉर्थ और साउथ में फूट की वजह से इसे 2026 के लिए टाल दिया गया.
अगली समझौता वार्ता 5-14 अगस्त को जेनेवा में होनी है. अगर हम इस समस्या से नहीं निबटते तो प्लास्टिक का बोझ 2025 तक मछलियों से ज्यादा हो जाएगा और कौन जाने वह इस ग्रह पर तमाम इंसानों के बायोमास यानी जैवभार से भी ज्यादा हो जाए.