टीम मोदी 3.0 के लिए क्या रहेगा एजेंडा?

कांटे के मुकाबले वाले चुनाव के बाद राजकाज संभालने वाली नई एनडीए सरकार की कुछ चुनिंदा प्राथमिकताएं, जिन पर गौर करना उसके लिए लाजिमी

राष्ट्रपति भवन में 9 जून को शपथ ग्रहण के बाद नया एनडीए मंत्रिमंडल
राष्ट्रपति भवन में 9 जून को शपथ ग्रहण के बाद नया एनडीए मंत्रिमंडल

नरेंद्र मोदी 10 जून को साउथ ब्लॉक के शिखर सत्ता-परिसर में पहुंचे तो गलियारे में कतारबद्ध खड़े प्रधानमंत्री कार्यालय में उनके साथ काम कर चुके अधिकारी तालियों से उनका स्वागत कर रहे थे. मोदी सीधे सादगी भरे कोने में स्थित अपने दफ्तर में गए और जिस पहली फाइल पर दस्तखत किए, वह पीएम किसान सम्मान निधि के तहत देश के 9.3 करोड़ किसानों को 2,000 रुपए की 19वीं किस्त जारी करने का आदेश था. इस मद में सरकारी खजाने से 20,000 करोड़ रुपए खर्च होंगे.

मोदी के लिए यह सब खूब जाना-पहचाना है. आखिर वे पिछले 10 वर्षों से यहां हैं, यही कुछ कर रहे हैं. लेकिन इस बार एक साफ फर्क है. पिछले दो कार्यकाल के विपरीत, वे तीसरे कार्यकाल में गठबंधन सरकार के अगुआ हैं. आम चुनाव 2024 के गजब जनादेश ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 543 सदस्यीय लोकसभा में 272 सीटों के साधारण बहुमत से पीछे रोक दिया. पार्टी को 240 सीटें मिलीं, जो जरूरी आधे आंकड़े से 32 कम हैं.

इससे उसकी सरकार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के अपने 24 सहयोगियों की बैसाखी पर आ टिकी है, जिन्हें 53 सीटें मिली हैं.

लिहाजा, यह कई तरह की मजबूरियां, विरोधाभास और टकराव की संभावनाएं लिए हुए है, जिनसे मोदी को टकराना होगा. यकीनन, यह आसान कतई नहीं होगा. वे अब तक बहुमत वाली सरकारों की ही अगुआई करते रहे हैं, चाहे 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हों या 2014 से 2024 के बीच देश के प्रधानमंत्री. लेकिन मोदी ने इस धारणा को फौरन झटक दिया कि उनका गठबंधन की राजनीति से कोई साबका नहीं है.

उन्होंने अपने करीबी सहयोगियों से कहा कि भिन्न वैचारिक आधार वाले दलों से वास्ता पड़ने का उनका पहला बड़ा अनुभव इमरजेंसी के दौरान का था, जब वे आरएसएस प्रचारक के रूप में मोरारजी देसाई, जॉर्ज फर्नांडीस, आरएसएस के नानाजी देशमुख जैसे प्रमुख विपक्षी नेताओं और यहां तक कि जमात-ए-इस्लामी के नेताओं के साथ कदमताल कर रहे थे, जो इमरजेंसी के विरोध में भूमिगत आंदोलन में शरीक थे. कथित तौर पर वे खुद को बचाए रख पाए थे.

बाद में 1990 के दशक में गुजरात में कांग्रेस की सरकार के दौरान मोदी विपक्षी भाजपा के राज्य संगठन के एक नेता हुआ करते थे. तब वे ही सत्तारूढ़ दल के साथ विवादास्पद मुद्दों पर आम सहमति बनाने और तालमेल बैठाने के लिए मुख्य व्यक्ति हुआ करते थे.

फिर नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो मोदी ने भाजपा के संगठन महासचिव के रूप में नीतीश कुमार, शरद यादव, जयललिता और ममता बनर्जी सहित तमाम सहयोगियों के साथ तालमेल बैठाने में अहम भूमिका निभाई थी. इस तरह के अनुभवों के मद्देनजर वे गठबंधन की राजनीति से नावाकिफ नहीं हैं. बेशक, मोदी उस अनुभव को गठबंधन सरकार की बारीकियों की साज-संभाल में काम में लाएंगे.

मोदी मंत्रिमंडल में संदेश

नई एनडीए सरकार की दिशा और दशा मोदी ने मंत्रिमंडल के गठन के साथ ही तय कर दी. भाजपा ने वित्त, रक्षा, गृह, विदेश मामले और वाणिज्य जैसे तमाम भारी-भरकम तथा महत्वपूर्ण मंत्रालयों को अपने पास रखा, जो कुल मिलाकर सरकार के प्रभावी आकार का 85 फीसद बैठते हैं.

संदेश दो-टूक है: मोदी और भाजपा को अपने दम पर भले बहुमत न मिला हो, लेकिन सरकार काफी हद तक उसी राह चलेगी, जैसा वे चाहते हैं. इन विभागों के मंत्री भी नहीं बदले गए. इस ढंग से मोदी ने नीतियों में निरंतरता का संकेत दिया, जो इन मंत्रालयों से संबंधित सभी पक्षों को आश्वस्त करने वाला होना चाहिए

उनकी 72-सदस्यीय मंत्रिपरिषद में अनुभव का भी भरपूर खजाना है, जिसमें छह पूर्व मुख्यमंत्री और 43 ऐसे मंत्री शामिल हैं, जिन्होंने संसद में तीन या अधिक कार्यकाल पूरे किए हैं (देखें ग्राफिक, मोदी सरकार). यही नहीं, मंत्रिपरिषद में बहुत सारे नए खून और नई ऊर्जा का भी समावेश है. इनमें 26 लोगों ने पहले कभी मंत्री पद नहीं संभाला है. नए मंत्रिमंडल मंं भी सभी क्षेत्रीय और सामाजिक तबकों और समूहों के पहलुओं का ध्यान रखा गया है.

इसमें देश के कुल 28 में से 24 राज्यों का प्रतिनिधित्व है. एनडीए के नौ सहयोगियों को 11 विभाग दिए गए हैं, जिनमें सबसे ज्यादा 16 सीटें जीतने वाली तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और 12 सीटें जीतने वाले जनता दल-यूनाइटेड या जद (यू) को दो-दो मंत्रालय मिले हैं. जातिवार विभाजन के मामले में 60 फीसद से ज्यादा मंत्री वंचित और कमजोर तबकों से संबंधित हैं. उनमें 27 अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी), 10 अनुसूचित जातियों (एससी), पांच अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और पांच अल्पसंख्यक समुदायों से हैं, लेकिन कोई भी मुसलमान नहीं है.

मोहन भागवत, संघ प्रमुख

मोदी और भाजपा को आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के सरसंघचालक मोहन भागवत से अप्रत्याशित झिड़की मिली. उन्होंने नागपुर मुख्यालय में दिए अपने एक भाषण में चुनाव के दौरान तमाम राजनैतिक दलों के मंचों से उठीं विभाजनकारी बातों पर नाराजगी जाहिर की. भागवत ने कहा, "जिस रूप में घटनाक्रम सामने आए हैं. हर पक्ष ने एक-दूसरे पर हमले के लिए अपनी प्रचार रणनीतियों के विभाजनकारी असर को अनदेखा किया. इससे सामाजिक और मानसिक विसंगतियां बढ़ रही हैं, यह चिंताजनक है."

उन्होंने नई सरकार को राष्ट्रीय सहमति बनाने और विपक्ष को दुश्मन न मानने की सलाह दी. भागवत ने संकेत दिए कि वे मणिपुर में जारी संकट से निबटने के मोदी सरकार के तरीके से नाखुश हैं. लेकिन भागवत की यह टिप्पणी कि "सच्चा सेवक" वह है, जो अपने काम को बिना किसी गर्व के करता है और अहंकार से मुक्त होता है, लोगों को प्रभावित कर गई.

अगले दिन मोदी ने अपने सोशल मीडिया एक्स हैंडल के माध्यम से अपने सभी समर्थकों से कहा कि वे अपने हैंडल से 'मोदी का परिवार' विशेषण हटा दें, जिसे चुनाव के दौरान जोड़ने के लिए उनसे कहा गया था. उसके फौरन बाद भाजपा-आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व की समीक्षा बैठक बुलाई गई, ताकि 2024 के चुनाव के दौरान गायब हो चुके राजनैतिक उद्देश्यों और लक्ष्यों के लिए ज्यादा तालमेल बनाया जा सके.

अब कड़वी हकीकत

हालांकि, मोदी की असली परीक्षा तो इस मामले में होगी कि वे तीसरे कार्यकाल की आगामी कई चुनौतियों से कैसे सफलतापूर्वक निबट पाते हैं. इनमें सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली है, जो चुनाव में भाजपा के निराशाजनक प्रदर्शन की मुख्य वजह मानी जा रही है. देश बेशक दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जिसकी जीडीपी वृद्धि दर आठ फीसद के करीब है. लेकिन चुनाव पूर्व और चुनाव बाद के जनमत सर्वेक्षणों से पता चलता है कि लोग मोदी सरकार से दो प्रमुख मुद्दों—बेरोजगारी और महंगाई—को लेकर सबसे ज्यादा नाराज हैं.

फिर, करोड़ों युवा और महत्वाकांक्षी आबादी अब मुफ्त रियायतों से संतुष्ट नहीं हैं, बल्कि सम्मानजनक रोजगार और कमाई का साधन चाहती है. यही लोग देश की कामकाजी आबादी का बहुमत हैं. उनके महान भारत के स्वप्न के मायने लाभकारी रोजगार, सिर पर खुद की पक्की छत, पर्याप्त भोजन, पीने योग्य पानी, घरों में बाथरूम, बच्चों के लिए अच्छे स्कूल, परिवारों के लिए स्वास्थ्य सेवा और आवाजाही तथा संचार माध्यमों दोनों की सुलभ कनेक्टिविटी वगैरह है.

अब हर किसी की नई न्यूनतम चाहत जीवन-यापन की सहूलत है, न कि सिर्फ गरीबी रेखा से ऊपर उठना. 2047 तक विकसित भारत का मोदी का आह्वान दूर का सपना था, लोग अगले पांच वर्षों में सुखी और सुरक्षित भारत चाहते हैं और उम्मीद करते हैं कि मोदी सरकार उनकी बढ़ती आकांक्षाओं के साथ तालमेल बनाए रखेगी.

अलबत्ता, मोदी को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने अपने पिछले दो कार्यकाल में यह आश्वस्त किया कि अधिकांश देशवासियों की बुनियादी जरूरतें पूरी हों. भोजन सामग्री, पीने का पानी, स्वच्छता और कुछ हद तक आवास के मद में कई कार्यक्रम चलाए गए. हालांकि इन सभी कार्यक्रमों के अंतिम छोर तक पहुंचाने में सुधार की काफी गुंजाइश है. वे माल तथा सेवा कर (जीएसटी) और दिवाला तथा दिवालियापन संहिता जैसे कई दूरगामी आर्थिक सुधार भी ले आए, जिससे बैंकों के डूबत कर्ज या गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों को निबटाने में मदद मिली है.

उन्होंने निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए कॉर्पोरेट कर दरों में भी भारी कटौती की और इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिए भारी मात्रा में सार्वजनिक खर्च किया. महामारी के दौरान और उसके बाद अर्थव्यवस्था को संभालने के उनके किफायती और विवेकी तरीके की सर्वत्र प्रशंसा हुई. राजनैतिक स्तर पर अनुच्छेद 370 को हटाना, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और तीन तलाक को अपराध घोषित करके समान नागरिक संहिता के आंशिक अमल से कई विभाजनकारी मुद्दों को खत्म किया गया. हालांकि ये कदम विवादास्पद भी रहे.

लेकिन बावजूद इसके उनके दशक भर के कार्यकाल में कई नाकामियां और उथल-पुथल भी देखने को मिली. कृषि सुधार की उनकी कोशिश को किसानों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा, और उन्हें केंद्रीय कृषि कानूनों को निरस्त करना पड़ा. इसी तरह भूमि सुधार शुरू ही नहीं हो पाया. उनकी सरकार जीडीपी में उत्पादन क्षेत्र की हिस्सेदारी को 15 फीसद से आगे बढ़ाने में नाकाम रही है. छोटे और लघु उद्योग वजूद बचाने में ही जुटे हैं, और निर्यात में वृद्धि नौ दो ग्यारह हो गई है.

दो प्रमुख श्रम-सघन पर्यटन और कपड़ा उद्योग उपेक्षित बने हुए हैं. अधिकांश सार्वजनिक उपक्रमों की विनिवेश योजनाओं को अनिश्चित काल के लिए टाल दिया गया है. शिक्षा सुधार और कौशल विकास कछुए की गति से आगे बढ़े हैं, जबकि स्वास्थ्य में पहल बीमा और सस्ती दवा मुहैया करने से आगे नहीं बढ़ पाई है, इलाज और सुविधाओं में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है.

आसान लक्ष्य

मोदी और उनकी टीम चुनाव खत्म होने के बहुत पहले ही 125 दिन का एजेंडा तैयार कर चुकी थी, इसलिए जल्द ही काम शुरू कर देने की संभावना की जा सकती है. हालांकि नई सरकार अर्थव्यवस्था की रक्रतार बढ़ाने के लिए क्या करने जा रही है, इसका पहला संकेत तो संपूर्ण केंद्रीय बजट से ही मिलेगा, जिसे जुलाई में पेश किया जाना है. देश में कृषि श्रम बल का 44 फीसद हिस्सा कुल जीडीपी का 15 फीसद है, इसलिए उस क्षेत्र में सुधार बेहद जरूरी है.

छोटे-मोटे काम करने वाले श्रमिकों का एक और बड़ा हिस्सा बेरोजगारी और अल्परोजगार से आज भी बुरी तरह जूझ रहा है, जो अभी तक कोविड-19 महामारी के झटके से उबर नहीं पाया है. एक नामी-गिरामी अर्थशास्त्री ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "मूल समस्या यह है कि पूंजी उन जगहों पर केंद्रित है जहां कामगार बेहद थोड़े हैं. और कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा पूंजी के बिना काम कर रहा है. इससे श्रम उत्पादकता घट गई है. आखिरकार, यह बदलाव के दौर की समस्या है. उत्पादन क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में अधिक श्रमिकों को रोजगार मुहैया कराया जाना चाहिए. उत्पादन और सेवा क्षेत्रों के बीच के बेमानी फर्क को खत्म करना होगा और अर्थव्यवस्था के इन दोनों पैरों के सहारे आगे बढ़ना होगा."

कृषि क्षेत्र में सरकार को किसानों को सिर्फ अनाज उगाने की लत से दूर करने के तरीके खोजने चाहिए और देश में दालों और खाद्य तेलों की जरूरत को पूरा करते हुए बागवानी के ऊंचे-मुनाफे वाले लेकिन जोखिम भरे धंधे की ओर बढ़ना चाहिए, जिनका हम बड़ी मात्रा में आयात करते हैं. अनुमान है कि कटाई की पुरानी और खराब तकनीकों और नाकाफी प्रसंस्करण तथा भंडारण इन्फ्रास्ट्रक्चर की वजह से लगभग एक-तिहाई कृषि उपज बर्बाद हो जाती है.

देश का 2.5 लाख करोड़ रुपए का प्रसंस्कृत खाद्य उद्योग अभी भी नवजात अवस्था में है, जो फिलहाल जीडीपी का 1.8 फीसद है, लेकिन इसमें तेजी से बढ़ोतरी की संभावना है और उस दिशा में कोशिश की जानी चाहिए. कोविड महामारी के दौरान मोदी सरकार के 2020 के कृषि कानूनों का उद्देश्य इस क्षेत्र में गतिरोध को तोड़ना था, लेकिन जिस जबरन तरीके से और हड़बड़ी में उन्हें लाया गया, उससे किसानों में विश्वास नहीं जगा.

खासकर देश के अनाज के कटोरे पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में. सरकार को अब किसानों के प्रमुख अंदेशों को दूर करना और उनकी जरूरतों का हल मुहैया करना चाहिए. फलों और सब्जियों को सुरक्षित रखने के लिए कोल्ड चेन का नेटवर्क स्थापित करने के अलावा किसान-उत्पादक सहकारी समितियों को प्रोत्साहन देना चाहिए, ताकि वे अपनी उपज को लाभकारी मूल्यों पर ढुलाई और बिक्री में सक्षम हो सकें.

विशेषज्ञों का कहना है कि कृषि सुधार के अलावा भी कई ऐसे आसान उपाय हैं, जिनका फायदा मोदी सरकार उठा सकती है. मसलन, श्रम कानूनों की पेचीदा विविधता और भूलभुलैया निजी क्षेत्र के विकास में मुख्य बाधा रही है. मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में देश में "कानूनी कोलेस्ट्रॉल" को घटाने की बात की थी और अपनी सरकार को 29 केंद्रीय और औद्योगिक श्रम कानूनों को चार नई श्रम संहिताओं में समाहित करने के लिए कहा था. इन संहिताओं में सामाजिक सुरक्षा, व्यावसायिक स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति, औद्योगिक संबंध और मजदूरी शामिल थे.

यह विधेयक सितंबर 2020 में पारित किया गया और मसौदा केंद्रित नियम जारी किए गए. पश्चिम बंगाल, सिक्किम, मेघालय और नगालैंड को छोड़कर चौबीस राज्यों ने तब से अपने मसौदा नियम प्रकाशित किए हैं. अब नियमों को प्रभावी बनाने के लिए बस केंद्र को अंतिम अधिसूचना जारी करनी है, लेकिन पहले उसे देश भर के मजदूर संघों के भारी विरोध को दूर करना होगा. साथ ही, देश में कुशल कार्यबल की भारी कमी को पूरा करने के लिए कौशल विकास कार्यक्रम को फौरन बढ़ाया जाना चाहिए. इसके अलावा, श्रम-सघन कपड़ा और पर्यटन क्षेत्रों में सुधारों को गति देना तथा उन्हें तीव्र गति से आगे बढ़ाना जरूरी है.

उद्यम में उछाल लाने की खातिर

सरकार को उद्यम लगाने और निजी निवेश में उछाल लाने के लिए उत्पादन की दो मुख्य बुनियादी जरूरतों—भूमि और पूंजी—के प्रवाह को मुक्त करने पर काम करना होगा. अपने पहले कार्यकाल में मोदी सरकार ने किसानों के विरोध के आगे घुटने टेक दिए और विवादास्पद भूमि अधिग्रहण विधेयक को वापस ले लिया. उस विधेयक में उद्योग और इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण को आसान बनाने का प्रस्ताव था.

विशेषज्ञों का कहना है कि देश के शहरों में जमीन की दरें दुनिया में सबसे महंगी हैं, जिसका मुख्य कारण जमीन की कमी है. इससे देसी उद्यमों का प्रतिस्पर्धी मुनाफा कम हो जाता है, खासकर बड़े कारखानों के मामले में बड़ी जमीन की दरकार होती है. एक विकल्प यह है कि सरकार के स्वामित्व वाली बड़ी मात्रा में जमीन को सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों या रक्षा बलों, खासकर छावनी क्षेत्र और रेलवे से मुक्त करना शुरू किया जाए. फ्लोर स्पेस इंडेक्स प्रतिबंधों में ढील देने से शहरों में ऊंची इमारतों के विकास की भी अनुमति मिल सकती है, जिससे जमीन की कमी की कुछ भरपाई हो सकती है.

उधर, वित्त क्षेत्र में अर्थव्यवस्था की जीवनरेखा वित्तीय रकम हासिल करने की प्रक्रिया और कार्यप्रणाली अभी भी बोझिल तथा पेचीदा है और उसमें बड़े सुधार की जरूरत है. सार्वजनिक क्षेत्र के 12 बैंकों में से अधिकांश पूंजी का वितरण सही ढंग से नहीं कर पाते हैं, जिससे सरकार को 2019 में 2.46 लाख करोड़ रुपए के निवेश के साथ उनके एनपीए को खत्म करने के लिए मजबूर होना पड़ा. इसके बावजूद, अक्तूबर 2023 में सरकारी बैंकों का एनपीए 3.7 लाख करोड़ रुपए पहुंच गया था.

अधिकांश सरकारी बैंकों का निजीकरण करने की जरूरत है और एनबीएफसी (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी) क्षेत्र को फलने-फूलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. दूसरा चिंताजनक कारक यह है कि सुस्त वैश्विक आर्थिक विकास के साथ देश के निजी क्षेत्र की नई निवेश योजनाएं 2023-24 में पिछले वर्ष के 37 लाख करोड़ रुपए के उच्च स्तर से 15.3 फीसद गिर गईं.

निजी निवेश को प्रोत्साहित करने तथा एफडीआई के और अधिक पलायन को रोकने के लिए सभी क्षेत्रों में विनियामक व्यवस्था को आसान बनाने की मांग की जा रही है. इसे बेहद जरूरी बताया जा रहा है. निवेशकों की शिकायत है कि उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है मानो वे अपराधी हैं तथा उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करनी होगी.

प्रवर्तन निदेशालय और राजस्व खुफिया निदेशालय जैसी जांच एजेंसियों के पास लोगों को गिरफ्तार करने और जेल भेजने के अलावा उनकी संपत्ति जब्त करने की बेरोकटोक ताकत दे दी गई है, जिसने इस मामले में नकारात्मक भूमिका निभाई है. इससे डर का माहौल बना है. मोदी सरकार ने अपने राजनैतिक विरोधियों से बदला लेने के लिए इन एजेंसियों का इस्तेमाल करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है.

दूसरा महत्वपूर्ण सुधार जीएसटी को मौजूदा चार स्लैब से घटाकर दो स्लैब करना और छोटे व्यापारियों और उद्यमियों के लिए अपने बिल दाखिल करना आसान बनाना है. इसके अलावा कॉर्पोरेट टैक्स में कमी के अनुरूप मध्यम वर्ग के लिए आयकर के स्तर को कम करने और रियायतें बढ़ाने से खपत को बढ़ावा मिल सकता है.

नया संघीय समझौता

इस बीच, निर्यात क्षेत्र पर फौरन ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि 2023-24 में व्यापारिक निर्यात की वृद्धि दर 437 अरब डॉलर (36.5 लाख करोड़ रुपए) पर स्थिर हो गई है. अधिक द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करने का इरादा यकीनन स्वागतयोग्य है, लेकिन इस प्रक्रिया को तेज करना होगा, ताकि इसका असर अर्थव्यवस्था में दिखे. पड़ोसियों के साथ व्यापार को बढ़ावा देना भारत की व्यापक विदेश नीति के एजेंडे में अच्छी तरह से फिट हो सकता है.

पाकिस्तान के दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के विकास को नाकाम करने के बाद भारत ने बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (बिमस्टेक) की स्थापना की, जिसके सदस्य बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, भारत, म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड हैं. इस समूह की स्थापना 1997 में की गई थी, लेकिन पिछले 27 वर्षों में केवल पांच शिखर बैठकें हुई हैं. आखिरी मार्च 2022 में हुई थी.

विदेश नीति के एक विशेषज्ञ कहते हैं, "अगर भारत को महान शक्ति बनना है तो उसे पहले प्रमुख क्षेत्रीय शक्ति बनना होगा. हमें क्षेत्रीय व्यापार के विस्तार पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जैसा कि चीन ने आसियान और मध्य एशिया के साथ किया, और साथ ही साथ उसने दुनिया भर में अपना विस्तार किया है."

मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल की कामयाबी के लिए अहम यह है कि वह ग्रामीण क्षेत्रों में तीव्र विकास, सुधारों के फौरी अमल और अंतिम व्यक्ति तथा अंतिम घर तक डिलिवरी आश्वस्त करने के लिए नई संघीय व्यवस्था विकसित करे. यही नहीं, केंद्र सरकार को राज्यों के साथ राजस्व साझा करने से बचने के लिए केंद्रीय उपकर लगाने की प्रथा को भी बंद करना चाहिए.

मोदी अमूमन फख्र से कहते हैं कि देश के 28 राज्यों में से 22 में भाजपा किसी न किसी तरह से सत्ता में है, जिससे आम सहमति बनाने का उनका काम बहुत आसान हो जाना चाहिए. इसलिए इन मामलों में उन्हें फौरन पहल करनी चाहिए. कई विशेषज्ञ प्रशासनिक बाधाओं को कम करने और जमीनी स्तर पर उद्यमशीलता और नए-नए उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य, जिला और पंचायती राज स्तर पर छोटे सुधार करने की ओर इशारा करते हैं.

नरेंद्र मोदी 2014 में केंद्र की सरकार में पहुंचने के पहले से ही प्रतिस्पर्धी और सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने के बारे में काफी कुछ कहते रहे हैं, लेकिन अब उन्हें राज्यों से कमतर टकराव के नजरिए पर काम करना चाहिए. केंद्र ने मोटे तौर पर पिछले दस वर्षों में काफी टकराव वाला रवैया ही दिखाया है. इसकी एक मिसाल यह है कि राज्यपालों ने विपक्ष शासित राज्यों में लगातार अपनी शक्तियों का अतिक्रमण किया है और कई मामलों में उन्हें सुप्रीम कोर्ट की फटकार सुननी पड़ी है.

अगर एनडीए सरकार को टिके रहना है तो मोदी और भाजपा को गठबंधन धर्म का भी पूरी ईमानदारी से पालन करना चाहिए. साथ ही, जैसा कि आरएसएस प्रमुख भागवत ने सलाह दी है, समय की मांग राष्ट्रीय सहमति है. मोदी का "सुधार, प्रदर्शन और परिवर्तन" का सिद्धांत प्रासंगिक बना हुआ है. अगर मोदी और उनकी टीम विभिन्न मंत्रालयों के लिए एजेंडे के रूप में सूचीबद्ध अगले पन्नों में दी गई सभी चीजों को हासिल करने में सक्षम होती है, तो मोदी 3.0 सरकार विकसित भारत की ओर बढ़ने में एक गेम-चेंजर बन जाएगी.

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