भारत में गुम होते परिंदे यानी हमारे लिए खतरे की घंटी!

जलवायु परिवर्तन, वनों के उजड़ने, बीमारियों और इंसानी बेरुखी से हमारे परिंदों की संख्या कम हो रही है. हमने अगर अभी हालात नहीं सुधारे तो कुछ पक्षी प्रजातियां हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगी

 दिल्ली एनसीआर के वाइल्डलाइफ एसओएस बर्ड क्लिनिक में घायल काले रंग की चील
दिल्ली एनसीआर के वाइल्डलाइफ एसओएस बर्ड क्लिनिक में घायल काले रंग की चील

एनजीओ वाइल्डलाइफ एसओएस के गुरुग्राम के बाहरी इलाके गढ़ी हरसरू स्थित एक शेल्टर होम में एक इजिप्शियन गिद्ध टूटे पंख और न्यूमोनिया के इलाज का इंतजार कर रहा है. निष्प्राण-सा हो चुका पीली चोंच वाला यह पक्षी, जिसका औपचारिक नाम नियोफ्रॉन पर्कनोप्टेरस जिंजिनियानस (आखिर का शब्द तमिलनाडु के एक शहर जिंजी से लिया गया है) है, पिंजरे में बंद होने से और भी असहाय नजर आ रहा है.

यही नहीं, उस पर एक और भारी बोझ भी है, क्योंकि इस प्रजाति के अन्य गिद्धों का सही-सलामत रहना भी उसके ठीक होने पर ही निर्भर करता है. सफेद दुम वाले गिद्ध, भारतीय गिद्ध और लाल सिर वाले गिद्ध लगातार तेजी से घटते जा रहे हैं और उनकी संख्या में गिरावट का यह आंकड़ा क्रमश: 98 फीसद, 95 फीसद और 91 फीसद है.

इसका असली कारण लंबे समय से जगजाहिर है, और यह है सूजन-रोधी दवा डाइक्लोफेनाक. इसका इस्तेमाल आम तौर पर पशुओं की विभिन्न बीमारियों के इलाज में किया जाता है. लेकिन यह दवा उन पक्षियों के लिए घातक साबित होती है, जो संक्रमित मवेशियों का शव खाते हैं और फिर एक या दो दिन बाद उनका गुर्दा काम करना बंद कर देता है. 

देश के एक अन्य हिस्से में कोलकाता के व्यवसायी और एक उत्साही पक्षी प्रेमी 39 वर्षीय अभिषेक दास सुबह-सुबह उठकर रीथेड हॉर्नबिल (राईटीसेरोस अंडुलेटस) देखने की कोशिश में लगे हैं जो भारत में पाई जाने वाली हॉर्नबिल की नौ प्रजातियों में से एक है. अभिषेक दास को उसकी लाल आंखें और पीला गूलर पाउच बेहद आकृष्ट करता रहा है और वे इस पक्षी के पूरी तरह विलुप्त हो जाने से पहले उसकी एक झलक देखने के लिए अरुणाचल प्रदेश के नामदाफा राष्ट्रीय उद्यान में हैं.

वन भूमि का सिकुड़ते जाना इस प्रजाति के खतरे में होने का एक प्रमुख कारण रहा है, जिसे 'जंगल का किसान' की उपमा भी दी जाती है, क्योंकि ये बीजों को एक से दूसरी जगह बिखराकर वनीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. ब्रिटेन स्थित इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर या आईयूसीएन ने 2018 से इस प्रजाति को अपनी रेड लिस्ट में शामिल कर रखा है.

आईयूसीएन जैव विविधता के संरक्षण और ऐसी प्रजातियों को लेकर नीतियां बनाने और उन्हें बचाने के प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिन्हें संरक्षण की सबसे ज्यादा जरूरत है. उसकी रेड लिस्ट में लुप्तप्राय प्रजातियों को वर्गीकृत करने वाली चार श्रेणियां हैं, क्रिटिकली एंडैंजर्ड (विलुप्त होने का गंभीर खतरा), एंडैंजर्ड (लुप्तप्राय), वल्नरेबल (अति-संवेदनशील) और नियर थ्रेटन्ड (संवेदनशील). इस सूची में भारतीय पक्षियों की 182 प्रजातियां शामिल हैं.

भारत अपने पक्षियों को खोता जा रहा है. यह एक कड़वी सच्चाई है, जिससे आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं. यह ऐसा तथ्य है जिसकी पुष्टि अगस्त 2023 में जारी स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स (एसओआईबी), 2023 रिपोर्ट में भी की गई है. जाहिर है, यह कोई अच्छी खबर नहीं हो सकती.

एसओआईबी की पहल का समर्थन करने वाले 13 भारतीय वन्यजीव संगठनों में एक वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के संस्थापक ट्रस्टी और कार्यकारी निदेशक विवेक मेनन कहते हैं, "हमने उनकी घटती संख्या पर नियंत्रण के लिए कुछ खास नहीं किया तो फ्लोरिकन और बस्टर्ड जैसी कई भारतीय प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी."

एसओआईबी रिपोर्ट में भारतीय पक्षियों की 1,317 प्रजातियों में से 942 के बारे में आकलन के दौरान पाया गया कि 338 प्रजातियों में से 60 फीसद में दीर्घकालिक गिरावट (30 वर्षों से अधिक) दिखी है और 359 प्रजातियों में से 40 फीसद में पिछले आठ वर्षों के दौरान हर साल गिरावट दिखी है.

साफ-साफ कहें तो रिपोर्ट में 178 प्रजातियों के संरक्षण को उच्च प्राथमिकता देने की जरूरत बताई गई है, खासकर यह देखते हुए कि उनकी बहुतायत के संकेतकों में दीर्घावधि में काफी गिरावट आई है और गिरावट लगातार जारी है, या उनकी मौजूदा रेंज बहुत सीमित है, या फिर वे वैश्विक स्तर पर आईयूसीएन की प्रजातियों पर खतरे की रेड लिस्ट में शामिल हैं. एसओआईबी सूची में 323 प्रजातियों के मध्यम संरक्षण की और 14 को आईयूसीएन रेड लिस्ट के लिए प्रस्तावित किया गया है.

इसमें इंडियन रोलर (कोरासियास बेंगहालेंसिस) को भी शामिल किया गया है, जिसे नीले पंखों की वजह से भारत में 'नीलकंठ' के नाम से जाना जाता है और जो वर्तमान में आईयूसीएन की सबसे कम संवेदनशील श्रेणी वाली रेड लिस्ट में शामिल है. दरअसल, एसओआईबी की उच्च प्राथमिकता सूची में करीब 51 फीसद प्रजातियां ऐसी हैं जिन्हें वैश्विक स्तर पर आईयूसीएन सूची में सबसे कम चिंता वाली प्रजाति के तौर पर वर्गीकृत किया गया है.

दूसरी तरफ, विश्व स्तर पर लुप्तप्राय, असुरक्षित या खतरे के करीब मानी जाने वाली 14 प्रजातियों को एसओआईबी मूल्यांकन में निम्न प्राथमिकता में वर्गीकृत किया गया है. मसलन, जेर्डन्स कोर्सर (राइनोप्टिलस बाईटोरक्वेटस), एक नाजुक और टिटहरी जैसा रात्रिचर पक्षी, जो केवल भारत के पूर्वी घाटों में पाई जाती है, इसे आईयूसीएन रेड लिस्ट में लुप्तप्राय होने के गंभीर खतरे वाली श्रेणी में रखा गया है. इसे आखिरी बार 2004 में देखा गया था. यह पिछले कई वर्षों में नहीं दिखा है, लेकिन माना जा रहा है कि आंध्र प्रदेश में घनी झाड़ियों वाले जंगलों के बीच इसकी कुछ आबादी पनप रही है.

पक्षी हमारे लिए क्यों मायने रखते हैं?

पक्षी प्रेमी अभिषेक दास के लिए पक्षियों के बीच रहना ध्यान करने जैसा है. वे कहते हैं, "हम आज जंगली पक्षियों से बहुत दूर हो गए हैं, इसलिए यह भुला चुके हैं कि वे हमारी मानसिक शांति के लिए कितने महत्वपूर्ण हो सकते हैं." मुंबई निवासी 47 वर्षीय बर्डवाचर और बैंकिंग अधिकारी अभिषेक चावला कहते हैं, "मैं अपनी सफलता का श्रेय हमारे स्थानीय पार्क में डेरा डाले रहने वाले गौरैयों और तोतों को देता हूं.

हर सुबह, मैं उनकी मधुर आवाज सुनने जाता हूं, और इससे मुझे बहुत ही सुकून मिलता है. सुबह-सुबह की यह दिनचर्या मेरी सेहत के लिए बहुत मायने रखती है." साइंटिफिक रिपोर्ट्स में 2022 में प्रकाशित शोध उनके इस विचार को पुष्ट ही करता है, जिसके मुताबिक, पक्षियों का गाना स्वस्थ इंसानों में चिंता और मानसिक उन्माद की संभावना को कम करता है.

न केवल मानव स्वास्थ्य बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की बेहतरी के लिए पक्षियों की मौजूदगी बेहद मायने रखती है. वाइल्डलाइफ एसओएस के सीईओ और सह-संस्थापक कार्तिक सत्यनारायण कहते हैं, "अगर पक्षी नहीं बचे तो ज्यादा समय नहीं लगेगा जब इंसानों के लिए भी जीवित रहना मुश्किल हो जाएगा. गौरैया जैसे पक्षी संकेतक प्रजातियां हैं जिनकी उपस्थिति दर्शाती है कि पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत कैसी है."

मेनन कहते हैं, "पक्षी बीजों को एक जगह से दूसरी जगह तक फैलाने (कई जंगल के माली की भूमिका निभाते हैं) और परागण में अहम भूमिका निभाते हैं, कई छोटे जीवों का शिकार भी करते हैं और कीट-पतंगों के कारण होने वाले नुकसान को भी रोकते हैं. वे जलवायु परिवर्तन के बारे में बड़ा संकेत देते हैं क्योंकि उनका प्रवासी पैटर्न बदलती जलवायु परिस्थितियों पर निर्भर करता है."

हो सकता है कि गिद्ध आपको बदसूरत पक्षी लगता हो लेकिन यह शिकारी प्रजाति है. भारत में आम तौर पर मैदानी इलाकों में पाया जाने वाला यह पक्षी सड़े-गले शवों को खाकर गंभीर बीमारी के प्रकोप के खतरों को दूर करता है. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि गिद्धों की संख्या में गिरावट के कारण आवारा कुत्तों की आबादी में चिंताजनक वृद्धि हुई है, खासकर पूरे भारत के शहरी क्षेत्रों में उनकी संख्या तेजी से बढ़ी है. ब्रिटेन की बाथ यूनिवर्सिटी और दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ के शोधकर्ताओं के एक समूह ने निष्कर्ष निकाला है कि रेबीज के मामले बढ़ने के कारण हमें 30 अरब डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ.

स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व के लिए पक्षी भी उतने ही जरूरी हैं. मसलन, पश्चिमी घाट में अधिकांश स्थानिक पक्षी जैसे व्हाइट-बेलीड ट्रीपाइ और वायनाड लाफिंगथ्रश वर्षावन के निवासी हैं और जंगल के अस्तित्व के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं. ये पक्षी उस क्षेत्र के मौसम, मिट्टी, पर्यावरण और क्षेत्रीय परिदृश्य को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं.

दक्षिण एशिया स्थानिक पक्षियों की 232 प्रजातियों का घर है, जिनमें 30 अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, 36 पश्चिमी घाट और 95 भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाते हैं. एसओआईबी की रिपोर्ट दर्शाती है कि 2014 से 2022 के बीच पश्चिमी घाट और श्रीलंका में स्थानिक पक्षियों की संख्या में 50 फीसद से ज्यादा की गिरावट आई है. द हैबिटेट्स ट्रस्ट के प्रमुख ऋषिकेश चव्हाण कहते हैं, ठहमें इसका एहसास नहीं है लेकिन पक्षी महत्वपूर्ण पारिस्थितिक कार्य करते हैं और हमारे भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं."

जिन पक्षियों की आबादी में तेजी से गिरावट देखी जा रही है, उनमें बस्टर्ड या गोडावण और कोर्सर जैसी खुले निवास स्थान वाली प्रजातियां, नदी के रेतीले क्षेत्र में घोंसला बनाने वाले पक्षी जैसे स्किमर और टर्न, तटीय किनारों पर पाए जाने वाले पक्षी, बंजर स्थानों में रहने वाले शिकारी पक्षी और बत्तख शामिल हैं. वैसे, बत्तख जैसी सामान्य प्रजाति की आबादी का घटना विशेषज्ञों के लिए काफी हैरानी-परेशानी का सबब बना हुआ है.

पक्षियों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है?

इसका एक कारण तो जलवायु परिवर्तन है. 2022 की गर्मियों में गुजरात में पक्षियों को आसमान से गिरते देखा गया, क्योंकि वे चिलचिलाचती गर्मी सहन नहीं कर पाए और पानी की कमी और थकान की वजह से जमीन पर आ गिरे. उत्तर भारत के अन्य हिस्सों से भी कुछ इसी तरह के मामले सामने आए. जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के अनुमान के मुताबिक, पिछले 150 वर्षों में वैश्विक औसत तापमान में 0.8 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है.

गर्म जलवायु पक्षियों के प्रवास के पैटर्न को प्रभावित कर रही है. वे ठंडे वातावरण की तलाश में उत्तर की ओर या अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों की तरफ जा रहे हैं. डायवर्सिटी जर्नल में मार्च 2023 में छपे चार भारतीय शोधकर्ताओं के अध्ययन में चौंकाने वाला खुलासा हुआ. शोध के मुताबिक, करीब 1,091 प्रजातियों में 66-73 फीसद प्रजातियां 2070 तक उत्तर की ओर या ऊपरी क्षेत्रों की ओर चली जाएंगी.

जलवायु परिवर्तन काफी हद तक पक्षियों के घोंसले बनाने, भोजन खोजने और प्रजनन संबंधी व्यवहार को भी प्रभावित करता है. हरियाणा, गुजरात, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में 2018 में किए गए और वॉटरबर्ड्स जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि असामान्य मॉनसून के कारण सारस क्रेन (एंटीगोन एंटीगोन) ने जब खुद को कृत्रिम जल संसाधनों वाले क्षेत्रों में पाया तो उन्होंने बेमौसम ही घोंसले बनाना शुरू कर दिया. इस अध्ययन में प्रोग्राम सारसस्केप के निदेशक के.एस. गोपी सुंदर भी शामिल थे.

प्रकृति के साथ अस्तित्व को बचाए रखने की इस जंग में पक्षियों के हारने की बड़ी वजहों में से एक वनों की कटाई और मोनोकल्चर (एक ही फसल को साल दर साल उगाते रहना) की तरफ बढ़ता झुकाव भी है. मोनोकल्चर वृक्षारोपण मसलन कॉफी, चाय, रबड़, सागौन या ताड़, एकल वृक्ष प्रजातियों की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि उनसे फसल की कटाई आसान और फायदेमंद होती है.

लेकिन इससे बड़े पेड़ों और वृक्ष आवरण को नुकसान पहुंच रहा है. इससे वे पक्षी प्रभावित हो रहे हैं जो ऊंची या पतली शाखाओं पर रहना पसंद करते हैं. राजस्थान के शुष्क पर्णपाती और उष्णकटिबंधीय कांटेदार जंगलों के साथ-साथ हिमालयी ओक के जंगलों में अध्ययन से पता चला है कि वृक्ष आवरण, झाड़ियों और पेड़ों की ऊंचाई कम होने से पक्षियों की प्रजातियों में कमी आई है.

कई अध्ययन इसकी पुष्टि करते हैं. मसलन,द कोंडोर जर्नल में 2016 के एक अध्ययन के मुताबिक, ऑयल पाम के पेड़ मिजोरम में नजदीकी वर्षावनों में देखी जाने वाली 14 फीसद पक्षी प्रजातियों को आकर्षित कर पाते हैं. जर्नल बायोलॉजिकल कंजर्वेशन में 2011 का एक अध्ययन बताता है कि उत्तराखंड के पहले से विकसित साल के वनों में केवल 50 फीसद कठफोड़वे सागौन के बागानों में जीवित रह सकते हैं.

उसके बावजूद ये वन राज्य में तेजी से फैल रहे हैं. वर्षावनों के नजदीक बने चाय बागानों में करीब 30 फीसद पक्षी प्रजातियां नजर आनी बंद हो गई हैं. करंट साइंस का 2021 का एक अध्ययन बताता है कि मोनोकल्चर वृक्षारोपण में लगातार विस्तार हो रहा है. नेचर फूड में 2021 में छपा एक अध्ययन बताता है कि 1991 से 2015 तक ऑयल पाम का क्षेत्र 30 गुना बढ़ गया. और यह विस्तार मुख्यत: देश के उष्णकटिबंधीय वर्षावन क्षेत्रों में हो रहा है.

सिकुड़ती जलीय भूमि

अपने आवास उजड़ने से जलीय पक्षियों को वनों में रहने वाली प्रजातियों जितना ही खतरा झेलना पड़ रहा है. मौजूदा समय में देश में 2,01,503 वेटलैंड हैं और उनमें से अधिकांश शहरीकरण के कारण खतरे में हैं. एसओआईबी की रिपोर्ट के मुताबिक, काफी लंबे समय से नदी किनारे घोंसले बनाने वाली पक्षियों की संख्या में 50-80 फीसद की गिरावट देखने को मिली है, और कुछ पक्षियों की संख्या तो लगातार गिरती जा रही है.

आंध्र प्रदेश-तमिलनाडु सीमा पर पुलिकट झील, गुजरात में खंभात और कच्छ की खाड़ी, मुंबई में ठाणे क्रीक और आसपास का मडफ्लैट (तटीय आर्द्रभूमि) और चेन्नई में पल्लीकरनै मार्श जैसे महत्वपूर्ण पक्षी आवास इंसानी दखल की वजह से खतरे में हैं. सिंचाई परियोजनाओं, रेत खनन, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के कारण कम होता जलस्तर नदी के रेतीले घोंसले में रहने वाले पक्षियों के प्रजनन पर असर डाल रहा है.

जल स्तर घटने पर चरने वाले पशु टापुओं की ओर रुख करते हैं और वहां मौजूद आवासों को रौंदते हुए भोजन की तलाश में आगे बढ़ जाते है. इससे 9 से 20 फीसद अंडे नष्ट हो जाते हैं. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) का 2020 का एक अध्ययन बताता है कि घोंसले वाले द्वीपों में शिकारी कुत्तों और सियारों का हमला भी 32 से 35 फीसद अंडों की बर्बादी का कारण बनता है.

खुले आवास में रहने वाले पक्षी भी सुरक्षित नहीं हैं. ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (आर्डियोटिस नाइग्रिसेप्स) की घटती आबादी किसी से छिपी नहीं है. गंभीर रूप से लुप्तप्राय इस प्रजाति के तकरीबन 150 पक्षी ही जंगल में बचे हैं. कई अन्य प्रजातियां भी तेजी से घट रही हैं. मसलन, ग्रेट ग्रे श्राइक (लैनियस एक्सक्यूबिटर) को ही लें. लंबे समय से इस पक्षी की आबादी में 80 फीसद की गिरावट दर्ज की गई है.

विशेषज्ञ इसका कारण बड़े खाली इलाकों में आक्रामक प्रजातियों के फैलने, पवन टरबाइन और बिजली लाइनों की बेतहाशा बढ़ती संख्या को मानते हैं. प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा एक विदेशी आक्रामक प्रजाति का पौधा है. इस विलायती कीकर ने दक्षिण अमेरिका से आकर यहां पैर जमाए हैं.

भारत में इसे 'मैड बबूल' के नाम से भी जाना जाता है. इस प्रजाति ने तमिलनाडु, गुजरात, मध्य प्रदेश, एनसीआर और राजस्थान में शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों को खुले आवास में रहने वाले पक्षियों के लिए अनुपयुक्त बना दिया है. पश्चिमी घाट के ऊंचे घास के मैदानों में लगाए गए वेटल जैसे कुछ विदेशी पेड़ भी तेजी से फैल रहे हैं. इनसे नीलगिरि पिपिट (एंथस नीलगिरिएंसिस) जैसे पक्षियों के भविष्य को खतरा है.

बीएनएचएस के एक शोधार्थी और पक्षी विज्ञानी मृगांक प्रभु एक दशक से अधिक समय से अपने शहर में प्रवासी आबादी पर अध्ययन कर रहे हैं. वे समझाते हैं कि सिर्फ अपने परिवेश में जीवित रहने वाले विशेष पक्षी, जो एक ही पारिस्थितिकी तंत्र में रहने के अभ्यस्त होते हैं या प्रजनन के लिए किसी क्षेत्र विशेष पर निर्भर होते हैं, सबसे अधिक खतरे में क्यों हैं.

प्रभु कहते हैं, "यह एक वाई-आकार के सफर जैसा है, पक्षी आर्कटिक रूस के विशाल क्षेत्र में प्रजनन करते हैं लेकिन बाद में जब नीचे जाते हैं, तो वे सर्दियों में भोजन करने के लिए छोटे रास्ते से एक छोटे इलाके में चले जाते हैं. वे बार-बार एक ही जगह पर आते हैं. अगर इन जगहों पर कुछ भी होता है, तो वे उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएंगे. मसलन, फ्लेमिंगो की चोंच इस तरह बनी है कि वह शैवाल को आराम से खा सके. अगर इसे शैवाल नहीं मिले, तो यह मर जाएगा."

प्रवासी पक्षियों की दुविधा

प्रवासी पक्षियों की लगभग 370 प्रजातियां आम तौर पर तीन रास्तों, मध्य एशियाई फ्लाईवे (सीएएफ), पूर्वी एशियाई-ऑस्ट्रेलियन फ्लाईवे (ईएएएफ) और एशियाई-पूर्वी अफ्रीकी फ्लाईवे (एईएएफ) के जरिए भारत आती हैं.

80 फीसद से अधिक पक्षी मध्य एशियाई रास्ते से उड़ान भरते हुए भारत पहुंचते हैं. लेकिन इन पक्षियों की 87 प्रजातियों पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है. इनका संरक्षण चिंता का विषय है. इनमें दो गंभीर रूप से लुप्तप्राय, पांच लुप्तप्राय और 13 असुरक्षित हैं. भारतीय समुद्र तट ऐसी जगह है जहां हर साल ये अपनी सर्दियां बिताने आती हैं. अगर इन पक्षियों के आगे बढ़ने के रास्ते और भोजन करने की जगहों को बाधित कर दिया गया तो पक्षियों को पता नहीं चलेगा कि उन्हें भोजन या पानी कहां मिलेगा.

वास्तव में पक्षियों के लिए भोजन तक उनकी पहुंच काफी मायने रखती है और ये पक्षियों की आबादी पर भी खासा असर डालती है. पक्षी अलग-अलग तरह के खाने पर निर्भर रहते हैं. गिद्ध और अन्य शिकारी पक्षी मुख्य रूप से मांस खाना पसंद करते हैं. बहुत से पक्षी ऐसे हैं जो फल और फूलों के रस पर निर्भर होते हैं. कुछ पक्षी बीज खाते हैं तो कुछ कीट-पतंगों को खाकर अपनी भूख मिटाते हैं.

कौवा ऐसा पक्षी है जो सर्वाहारी होते हैं यानी इनके खाने में मांस और वनस्पति दोनों शामिल हैं. एसओआईबी 2023 की रिपोर्ट बताती है कि कीट-पतंगों और मांस खाने वाले पक्षियों की संख्या में सबसे अधिक गिरावट आई है. प्रभु के मुताबिक, "या तो खाद्य संसाधनों में हानिकारक प्रदूषक हैं या उपलब्धता में गिरावट आ रही है, या ये दोनों ही वजहें हैं."

पक्षी बेहद खास प्रजाति हैं. जीवाश्म और जैविक साक्ष्य बताते हैं कि वे वास्तव में डायनासोर के प्रत्यक्ष वंशज हैं. साइमन फ्रेजर यूनिवर्सिटी के हालिया शोध से संकेत मिलता है कि विश्व स्तर पर पक्षी की सभी ज्ञात प्रजातियों की उत्पत्ति की प्रक्रिया में लगभग 77 अरब वर्ष का समय लगा है. इसके विपरीत, आधुनिक होमो सेपियन्स को मौजूदा स्थिति तक पहुंचने में मात्र 1,60,000 वर्ष लगे हैं.

खाद्य शृंखला में इंसानों के अचानक शीर्ष पर पहुंचने और हमारी वजह से धरती के मौसम और परिवेश में बदलावों की वजह से पक्षियों को खुद को इसके अनुकूल ढालने का समय नहीं मिला है. प्रभु बताते हैं, "विकासवादी जीव विज्ञान में उन परिवर्तनों को अपनाने में लाखों साल लग जाते हैं, जिनका सामना आज पक्षियों को करना पड़ रहा है. वे न सिर्फ अपनी जैविक जरूरतों के मामले में विशिष्ट होते हैं बल्कि अपने अंडे और प्रजनन को लेकर भी अत्यधिक संवेदनशील होते हैं. मसलन, अगर पक्षियों को आघात पहुंचाया जाए तो इसका सीधा असर उनके प्रजनन पर पड़ेगा."

मानवीय खतरा

फरवरी 2020 में हरियाणा के पलवल में एक दुर्लभ ओरिएंटल डार्टर (एनहिंगा मेलानोगास्टर) की तस्वीर ने इंटरनेट पर तूफान मचा दिया था. इस पक्षी की चोंच पर प्लास्टिक लिपट गई थी और उसका मुंह नहीं खुल पा रहा था. वहीं कुछ साल पहले दिल्ली के बाहर एक वेटलैंड में एक डरे-सहमे ब्लैक-नेक्ड स्टॉर्क (एफिपिओरहाईन्चस एशियाटिकस) की कैमरे में कैद तस्वीरों ने भी काफी हलचल मचाई थी. एक प्लास्टिक की अंगूठी ने उसकी चोंच को सील कर दिया था. आखिरकार, दोनों पक्षियों को बचा लिया गया लेकिन सभी पक्षी उतने भाग्यशाली नहीं होते.

जहरीले रसायन, वातावरण में मौजूद भारी धातुएं, प्लास्टिक और कई कीटनाशकों में इस्तेमाल होने वाला ऑर्गेनोफॉस्फेट, पक्षियों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. अब, चाहे हॉर्मोन में बदलाव हो या फिर उनकी खानपान की आदतों में, या फिर उनका कमजोर होता इम्यून सिस्टम हो, इन सबकी वजह ये जहरीले रसायन ही होते हैं. प्रजनन चरण के दौरान इस तरह का कोई खतरा प्रजनन क्षमता, अंडे के निर्माण और चूजों के पालन-पोषण संबंधी व्यवहार को प्रभावित करता है.

अध्ययन बताते हैं कि जहरीली धातुएं पक्षियों के सभी अंगों को नुकसान पहुंचाती हैं. साइंटिफिक रिपोर्ट्स के 2020 के अध्ययन में पॉइंट कैलिमेरे वन्यजीव अभयारण्य और पिचावरम मैंग्रोव वन में तटवर्ती पक्षियों की 15 प्रजातियों के पंखों में असामान्य रूप से विषाक्त पदार्थों की काफी मात्रा पाई गई थी.

पॉइंट कैलिमेरे एक रामसर साइट (ऐसी आर्द्रभूमि जिसे रामसर कन्वेंशन, 1971 के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय महत्व का माना जाए) है. जर्नल टॉक्सिक्स में 2022 के एक अन्य अध्ययन में भारत में तालाबों में पाए जाने बगुलों (अर्डेओला ग्रेई) और ब्लैक-क्राउन नाइट हेरोन (नक्टिकोरैक्स नक्टिकोरैक्स) के ऊतकों, लिवर, किडनी और पंखों में धातुओं का स्तर सामान्य सीमा से अधिक पाया गया था.

शहरी जिंदगी की मुसीबतें

शहरों में तेज रोशनी और तेज आवाजें पक्षियों के लिए खतरनाक साबित होती हैं. तेज रोशनी पक्षियों को भ्रमित कर सकती है और उनके इमारतों से टकराने का खतरा बढ़ जाता है. एसओआईबी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में पक्षियों के 33 वर्गों की 60 से अधिक प्रजातियां बिजली लाइनों से टकराने या बिजली के झटके से मर जाती हैं. तेज आवाज की वजह से पक्षी ऊंची आवाज में या अलग स्वर में गाने लगते हैं या डरकर अपना आवास छोड़कर कहीं दूर चले जाते हैं.

ऋषि वैली स्कूल में पक्षी विज्ञानी और इंस्टीट्यूट ऑफ बर्ड स्टडीज ऐंड नेचुरल हिस्ट्री के निदेशक वी. शांताराम एक और घटिया प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं, शहरी अभयारण्यों में बर्ड वॉचिंग का तरीका गैर-जिम्मेदाराना है. वे कहते हैं, "लोग उन्हें बाहर निकालने या देखने के लिए पक्षियों की आवाजें निकालते हैं, लेकिन उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता कि यह उन्हें डराता है. इसकी वजह से या तो वे उस इलाके से भाग जाएंगे या फिर शिकारियों के हत्थे चढ़ जाएंगे."

शिकार और अवैध व्यापार के कारण भारत में पक्षियों की प्रजातियां घटती जा रही हैं. पिछले साल पुरानी दिल्ली के जामा मस्जिद स्थित पक्षी बाजार से 1,800 से ज्यादा एलेक्जेंड्रिन, रिंग-नेक्ड और ब्लॉसम-हेडेड पैराकीट (सुग्गा) जब्त किए गए. सत्यनारायण कहते हैं, "इन पक्षियों को अवैध ढंग से पकड़ा जाता है और एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है, उसमें कई बार बचाने के पहले ही उनकी मौत हो जाती है." भले ही वे जिंदा रहें या न रहें, लेकिन सच तो यही है कि जिन पक्षियों को बेचने के लिए पकड़ा जाता है, उसे उनकी मूल जगह और आबादी से दूर कर दिया जाता है. यह तथ्य जंगली आबादी और उनके भविष्य पर असर डालता है.

पक्षियों का अस्तित्व एक अन्य कारण से भी खतरे में है, और वह है पर्याप्त पक्षी चिकित्सा विशेषज्ञों और अस्पतालों का अभाव. यह काम अभी दिल्ली एनसीआर और आगरा में वन्यजीव एसओएस केंद्रों के जरिए किया जा रहा है. यह एनजीओ हर साल 3,000 से 5,000 पक्षियों को बचाता है और उनका इलाज करता है. इन पक्षियों में उल्लू, हॉर्नबिल, फ्लेमिंगो, एग्रेट्स, उकाब, चील, मोर, बत्तख और तोते शामिल हैं. पक्षियों के लिए उनका एक एवियन ट्रीटमेंट सेंटर है, जहां शिकारी पक्षियों का भी इलाज किया जाता है.

पशु चिकित्सकों की वाईल्डलाइफ एसओएस टीम के लिए न सिर्फ सही इलाज देना महत्वपूर्ण है बल्कि समय पर उपचार करना भी उतना ही जरूरी है. वाईल्ड लाइफ एसओएस के सीनियर वेटरिनरी ऑफिसर डॉ. अभिषेक सिंह कहते हैं, "भारत में पक्षियों के इलाज के लिए सुविधाएं बढ़ रही हैं. हम अभी भी जंगली पक्षियों के लिए चिकित्सा प्रक्रियाओं में सुधार कर रहे हैं, चाहे वह एंडोस्कोपी हो, एनेस्थीसिया हो या रक्त निकालना हो, क्योंकि पक्षी बेहद नाजुक होते हैं.

उन्हें किसी भी परेशानी से दूर रखना और उनकी देखभाल करना भी इलाज के जितना ही मायने रखता है." एनजीओ दिल्ली एनसीआर में पहला पक्षी अस्पताल खोलने की योजना बना रहा है. इसके लिए उन्हें 2.5 से 3 करोड़ रुपए की जरूरत होगी. इस पर काम चल रहा है. सत्यनारायण कहते हैं, "देश में इस तरह के अस्पताल की जरूरत है. उम्मीद है कि पक्षियों को खतरों से बचाने में यह गेम-चेंजर साबित होगा."

मुंबई स्थित फीनिक्स वेटरिनरी स्पेशियलिटी में पक्षियों की डॉक्टर शिवानी टंडेल के मुताबिक, स्तनधारियों की तुलना में पक्षी अधिक आसानी से घायल या आहत होते हैं. वे कहती हैं, "स्तनधारियों में एक डायाफ्राम होता है जो छाती और पेट की गुहा को अलग करता है. लेकिन पक्षियों में यह नहीं होता और उनकी मांसपेशियों की दीवार भी पतली होती है.

इसलिए, भले ही चोट बहुत हल्की हो, इससे आंतरिक रक्तस्राव हो सकता है. पक्षियों की हृदय गति भी तेज होती है. अगर स्तनधारियों में यह 120 या 140 है, तो पक्षियों में यह दोगुनी तकरीबन 230-240 होती है. इसलिए उनमें खून भी तेजी से बहने लगता है और वे इतने डर जाते हैं कि सदमे में चले जाते हैं." पक्षियों में मूत्राशय भी नहीं होता है, जिसका मतलब है कि स्तनधारियों की तुलना में उनके शरीर में पानी की कमी होने की संभावना ज्यादा होती है.

हम पक्षियों को कैसे बचाएं?

भारत में पक्षियों की अधिकांश प्रजातियों की आबादी घटने के बावजूद पिछले आठ वर्षों में 217 प्रजातियों की आबादी या तो स्थिर रही है, या उसमें वृद्धि हुई है. किसी संरक्षण परियोजना की सफलता के लिए कुछ आवश्यक मानदंड अपनाना जरूरी है. इस क्षेत्र में दो दशकों से अधिक का अनुभव रखने वाले चव्हाण इस संदर्भ में कहते हैं, "सबसे पहली चीज तो यह कि वैज्ञानिक साक्ष्य एकत्र किए जाएं.

इनमें पर्याप्त डेटा होना जरूरी है. दूसरी बात, बेवजह का ज्ञान देने या सत्तावादी रुख अपनाने से बचें, क्योंकि आप ऐसे लोगों के बीच काम कर रहे हैं जो पक्षियों की भाषा समझते हैं, आपको उन्हें यह नहीं बताना है कि उन्हें क्या करना चाहिए. बल्कि आपको उनकी राय जाननी चाहिए कि क्या किया जा सकता है."

और आखिर में वे इस पर जोर देते हैं कि स्थानिक आवश्यकताओं के अनुरूप ठोस कार्ययोजना बनाई जाए. वे कहते हैं, "दुर्भाग्य की बात है कि संरक्षण अभियान आम तौर पर टेम्पलेट जैसे हो गए हैं. स्कूली शिक्षा कार्यक्रम बनाएंगे, शोध कार्यक्रम चलाएंगे, प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करेंगे. लेकिन यह हमेशा कारगर नहीं होता. पहले दो चरणों का इस्तेमाल करते हुए आपको बहुत सोच-समझकर कुछ ठोस पहल करनी होगी."

इसलिए, पक्षियों के संरक्षण में उपयुक्त पर्यावरण मुहैया कराने के अलावा अनुसंधान और सिटीजन साइंस पर भी गौर करना चाहिए. देश में पक्षियों की रक्षा के लिए पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 3 फरवरी, 2020 को पक्षी संरक्षण की 10 वर्षीय योजना शुरू की थी. इसका उद्देश्य लुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा करना, गंभीर रूप से लुप्तप्राय पक्षियों की संख्या बढ़ाना, शहरी क्षेत्रों में पक्षियों की रक्षा करना और उनके ठिकानों को संरक्षित करना था.

भारत में 870 संरक्षित क्षेत्रों (पीए) का एक पूरा नेटवर्क है, जिसमें राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य, सामुदायिक और संरक्षित रिजर्व शामिल हैं. देश के 554 स्थलों में से 506 में इन क्षेत्रों से बाहर वैश्विक स्तर पर लुप्तप्राय होने की कगार पर पहुंची पक्षी प्रजातियां पाई जाती हैं और अब इन्हें महत्वपूर्ण पक्षी एवं जैव विविधता क्षेत्र (आईबीए) का दर्जा दिया जा रहा है.

दो साल पहले, मंत्रालय ने मध्य एशियाई फ्लाइवे (2018-2023) के साथ प्रवासी पक्षियों और उनके ठिकानों के संरक्षण के लिए भारत की राष्ट्रीय कार्य योजना का भी अनावरण किया. भारत की राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (2017-2031) में पक्षियों और उनके आवासों की सुरक्षा के संबंध में कुछ दिशानिर्देश निर्धारित किए गए हैं. कुछ सरकारी-निजी पहलकदमियों के नतीजे भी उत्साहजनक रहे हैं.

मसलन, मध्य प्रदेश में स्वैच्छिक संगठन भोपाल बर्ड्स ने 2014 में सारस क्रेन की सुरक्षा के लिए समुदाय आधारित कार्यक्रम की शुरुआत की, जिसमें भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट (डब्ल्यूटीआई) और मध्य प्रदेश वन विभाग भी भागीदार बने. कार्यक्रम के तहत, भोपाल में ऊपरी झील के रामसर क्षेत्र के आसपास सारस मित्र की नियुक्ति की गई.

भोपाल बर्ड्स के संस्थापक मोहम्मद खालिक बताते हैं, ठ2014 में अपर लेक के आसपास भोज वेटलैंड क्षेत्र में केवल 12 सारस की सूचना मिली थी. 2021 में यह संख्या बढ़कर 312 हो गई.ठ उत्तर प्रदेश में भी इस पक्षी की आबादी बढ़ी है जहां इसकी संख्या 2013 में 700 की तुलना में बढ़कर 2,500 से अधिक हो गई है.

इसी तरह, विशेषज्ञ अमूर बाज की वापसी को भी एक बड़ी सफलता मान रहे हैं. सॢदयों की शुरुआत के साथ बड़ी संख्या में ये पक्षी मंगोलिया से पूर्वोत्तर भारत की तरफ रुख करते हैं. इधर, इनकी संख्या में इजाफा हुआ. 2023 में जियो-टैग किए गए दो बाज मणिपुर लौटे.

और अभी पिछले साल, नवंबर में हिमाचल प्रदेश में लुप्तप्राय चीड़ फीजैंट (कैट्रस वालिची) को छोड़े जाने के बाद प्रोजेक्ट ने सफलता का एक नया मुकाम हासिल किया जब प्रजनन वाले दो जोड़े देखे गए. इन पक्षियों में केवल 2,700 ही जंगलों में बचे हैं. बिहार में भी, स्थानीय लोगों और वन विभाग के प्रयासों से कदवा-कोसी नदी क्षेत्र में ग्रेटर एडजुटेंट (लेप्टोपटिलोस डुबियस) सारस की संख्या बढ़कर 600 से अधिक हो गई है. अब इन पक्षियों की 90 फीसद आबादी भारत में ही पाई जाती है.

गुरुग्राम में आईएम गुड़गांव के तहत पूरे अरावली जैव विविधता पार्क में देसी पेड़ लगाकर पक्षियों के संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं. यहां अब इसकी 200 से अधिक प्रजातियां हैं. संगठन की सह-संस्थापक लतिका ठुकराल का कहना है, "हम यहां कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं करते और यह तय करते हैं कि क्षेत्र पेड़-पौधों से भरा हो और प्राकृतिक रूप से पक्षियों के अनुकूल हो. इससे यहां कीटों और अंतत: पक्षियों की वापसी हुई है."

इस बीच, दिल्ली में भी चहचहाती घरेलू गौरैया बड़ी संख्या में नजर आने लगी हैं. ईको रूट्स फाउंडेशन के संस्थापक राकेश खत्री कहते हैं, "ये यहां से चली गई थीं क्योंकि हमने अपने घर और दिल उनके लिए बंद कर दिए थे." वे गौरैया के लिए जूट जैसी प्राकृतिक सामग्री से जो घोंसले बनाते हैं, उन्हें अपनाने की दर 90 फीसद रही है.

शांताराम कहते हैं, "पक्षियों की रक्षा करना हमारा नैतिक दायित्व है. केवल इसलिए नहीं कि हमें हर तरह के जीवों के लिए इसमें जगह बनानी चाहिए, बल्कि इसलिए भी कि पक्षी हमारे जीवन को कितना आनंदमय बना देते हैं."                                                                 

—साथ में राहुल नरोन्हा

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