पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के सिर पर है सत्ता का कांटों भरा ताज

खंडित जनादेश के बाद शहवाज शरीफ फिर वजीर-ए-आजम बनने को तैयार, मगर उनके सामने ढहती अर्थव्यवस्था, बेहिसाब महंगाई, अराजक इमरान समर्थकों और फौजी दबदबे से जूझने की चुनौती भी है

पंजाब के कसूर में 6 फरवरी को पीएमएल-एन की रैली में शहबाज शरीफ, अपने भाई नवाज शरीफ और भतीजी मरियम शरीफ के साथ
पंजाब के कसूर में 6 फरवरी को पीएमएल-एन की रैली में शहबाज शरीफ, अपने भाई नवाज शरीफ और भतीजी मरियम शरीफ के साथ

पाकिस्तान में तवारीख जैसे फिर-फिर उसी मोड़ पर लौट आती है. जाने-माने शायर सलमान पीरजादा की आम चुनाव 2024 के नतीजों पर चुटीली बातें सब कुछ बयान कर देती हैं. उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट में चुटकी ली, "जालिमों ने ऐसी जबरदस्त धांधली की कि मुझे 2018 के चुनावों की याद दिला दी."

वे जेल में बंद पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के नाराज समर्थकों की चीख-चिल्लाहट का हवाला देते हैं कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) पार्टी को बहुमत से दूर रखने के लिए नतीजों में गड़बड़ी की गई. हालांकि पटीआई से जुड़े उम्मीदवारों को नेशनल असेंबली में सबसे अधिक सीटें आईं. फिर, पीरजादा 2018 के पिछले आम चुनाव का हवाला देते हैं, जब दूसरी पार्टियों ने आज जैसी ही चुनावी धांधली का आरोप मढ़ा था और इमरान खान के हाथ मामूली फासले से सत्ता आ गई थी. 

पहली नजर में दोनों आरोपों में दम नजर आता है. 2018 की तरह, इस बार भी कई सीटें ऐसी हैं जहां आखिरी दौर की गिनती में वोटों की संख्या शुरुआती दौर के रुझान से एकदम उलट थी. फर्क सिर्फ यह है कि 2018 में पीटीआई मजे-मजे फायदे में थी, जबकि 2024 में उसे खामियाजा भुगतना पड़ा और वह हंसी-खुशी विरोधी पार्टियां के हक में आ गई. इनमें खासकर पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन), पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (पीपीपी) और सिंध की शहरी पार्टी मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) हैं. दोनों बार आरोपों के निशाने पर 'फौजी हुक्मरान' हैं. 

इससे भूमिकाओं में भी ऐतिहासिक बदलाव आ गया. पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट कप्तान अप्रैल, 2022 में सत्ता से बेदखल हो गए, क्योंकि उन्होंने उसी 'फौजी निजाम' को नाराज कर दिया, जिसकी मदद से उन्हें 2018 में वजीरे आजम की गद्दी मिली थी. इमरान मई, 2023 से कैद में हैं, और उन्हें एक के बाद एक तीन मामलों में 14 साल तक की जेल की सजा सुनाई गई है, जिनमें दो तो चुनाव से महज हफ्ते भर पहले ही सुनाए गए.

इस बीच, निजाम ने नवाज शरीफ को बहाल कर दिया है. उन्हें उनके तीसरे कार्यकाल के चौथे साल 2017 में प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया था, और छह साल जिल्लत में काटने पड़े, जिनमें चार साल विदेश में देश-निकाले की तरह बिताने पड़े.

पिछले वक्त फौजी हुक्मरानों से उनके टकराव और तमाम जुर्मों पर सजा पर अदालतों ने विराम लगा दिया, ताकि शायद फौज को इमरान खान को सियासी मात देने का मौका मिल जाए. फौज इमरान समर्थकों के रावलपिंडी फौजी मुख्यालय पर हमले और मई, 2023 में लाहौर कोर कमांडर के आवास पर आगजनी से और नाराज हो गई. नए फौज प्रमुख जनरल आसिम मुनीर ने उपद्रवियों पर देश भर में सख्त कार्रवाई का हुक्म दे दिया है.

आम चुनावों से पहले चुनाव आयोग ने पीटीआई पर बतौर पार्टी चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी, चुनाव चिह्न (बल्ला) और पार्टी के भीतर चुनाव नियमों का पालन न करने के लिए झंडे भी जब्त कर लिए. फिर भी, इमरान के जेल में बंद होने के बावजूद पीटीआई समर्थकों के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन से सत्ता-प्रतिष्ठान चौंक गया.

बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ने को मजबूर इमरान की पीटीआई से जुड़े उम्मीदवार नेशनल असेंबली की कुल 265 सीटों (एक सीट का चुनाव टल गया) में से 93 सीटें जीत गए. हालांकि यह बहुमत के लिए जरूरी 134 सीटों से काफी कम है, मगर यह संख्या बाकी दलों में सबसे अधिक है. शरीफ की पीएमएल-एन को सिर्फ 75 सीटें मिलीं.

बिलावल भुट्टो के नेतृत्व वाली पीपीपी 54 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रही, और एमक्यूएम-पी 17 सीटों के साथ चौथे स्थान है. बाकी सीटें एक दर्जन से ज्यादा छोटी पार्टियों के पास गईं. पीटीआई ने ऐलान किया है कि वह करीब 80 सीटों के नतीजों को अदालत में चुनौती देगी. उधर, चुनाव करवाने वाले कार्यवाहक प्रधानमंत्री अनवारुल हक काकड़ ने नतीजों को सही करार दिया. उन्होंने दलील दी, "वाकई धांधली का मंसूबा होता, तो सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाले क्या ऐसे जीत जाते?"

केंद्र में कोई भी एक पार्टी अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, और कोई नए चुनाव कराने के पक्ष में नहीं है, इसलिए गठबंधन सरकार ही लाजिमी है. इमरान ने जेल से ही पीटीआई के किसी मुख्य पार्टी के साथ हाथ मिलाने से इनकार कर दिया. इसलिए, पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) गठबंधन सरकार ही इकलौता विकल्प है, जिसे लोग पीडीएम-2.0 कह रहे हैं.

पीडीएम ने अप्रैल, 2022 में अविश्वास प्रस्ताव में इमरान के सत्ता गंवा बैठने के बाद डेढ़ साल तक सत्ता संभाली थी. उसमें पीएमएल-एन और पीपीपी के अलावा कई इमरान-विरोधी पार्टियां हैं, जो मिलकर बहुमत का आंकड़ा पार कर जाती हैं.

हालांकि, आम चुनाव के साथ हुए सूबों के चुनाव से हालात और पेचीदा हो गए हैं. सबसे ताकतवर सूबे पंजाब में पीएमएल-एन ने कुल 297 जनरल सीटों में से 137 सीटें जीतीं, जो 149 सीटों के जरूरी बहुमत से 12 कम हैं. वजह यह कि पीटीआई ने 116 सीटें जीतकर और वोटों का तकरीबन सीधा बंटवारा करने में कामयाब होकर हैरान कर दिया.

सबसे अशांत सूबे खैबर पख्तूनख्वा में पीटीआई ने 115 जनरल सीटों में से 84 सीटें जीतकर भारी बहुमत हासिल कर लिया, तो वहां उसकी सरकार बनाना तय है. देश की तीसरी बड़ी ताकत पीपीपी ने सिंध में 130 में से 84 सीटों के साथ अपने गढ़ को बरकरार रखा. बलूचिस्तान में दिलचस्प तीतरफा बंटवारा हुआ, जिससे पीपीपी गठबंधन सरकार बना सकती है.

शहबाज की मुश्किलें

केंद्र में पीडीएम 2.0 सरकार बनाने की तैयारियों के मद्देनजर पीएमएल-एन और पीपीपी के बीच तगड़ी सौदेबाजी का अंदाजा है, जिससे सरकार के आराम से चलने को लेकर शक पैदा हो गया है. इरादों के शुरुआती इजहार से तो लगता है कि बड़े भाई नवाज शरीफ के बजाए पूर्व प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ही नए प्रधानमंत्री होंगे.

नवाज शरीफ ने चुनाव से पहले ही इशारा कर दिया था कि अगर पीएमएल-एन को चुनाव में साफ जनादेश नहीं मिला तो वे चौथी बार प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं संभालना चाहेंगे. सियासी पंडितों का यह भी कहना है कि फौज ने चुपचाप अपनी पसंद शहबाज को बता दिया है. फौजी हुक्मरान नवाज की बनिस्बत शहबाज के साथ अधिक सहज रहे हैं, क्योंकि नवाज की फितरत ज्यादा अपनी चलाने की होती है.

मगर फिलहाल शहबाज अल्पमत सरकार ही चलाएंगे, क्योंकि पीपीपी ने सरकार में शामिल होने के बदले बाहर से समर्थन देने का फैसला किया है. पीपीपी के को-चेयरमैन बिलावल भुट्टो-जरदारी और पीएमएल-एन के अध्यक्ष शहबाज शरीफ दोनों ने ऐलान किया है कि वे खुशी से नहीं, बल्कि 'देश के व्यापक हित में' सरकार बनाने जा रहे हैं.

पीपीपी की सरकार में हिस्सेदारी की दिलचस्पी न होने की वजह शायद यह हो सकती है कि यह कांटों का ताज पहनने जैसा है. फिर, पिछली पीडीएम सरकार के बारे में पार्टी को लेकर लोगों में गलतफहमी और पहले के मुख्य विरोधियों के साथ गलबहियां डालने से भविष्य में पार्टी के सियासी नतीजों पर असर की फिक्र भी हो सकती है.

उधर, देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है—विकास दर में गिरावट आई है, इसकी बड़ी वजह तो इमरान सरकार की बदइंतजामी रही है, मगर उसके बाद आई पीडीएम सरकार पर लोगों का ठीकरा फूटा. महंगाई दर करीब 40 फीसद बनी हुई है और फलों, सब्जियों और पेट्रोल सहित सभी जरूरी सामान की कीमतें आसमान छू रही हैं.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का अनुमान है कि पाकिस्तान का बाहरी कर्ज 2023-24 में 130.85 अरब डॉलर छू जाएगा, जो 2022-23 के 123.57 अरब डॉलर से ज्यादा है. अर्थव्यवस्था की बहाली के लिए फौरन कुछ सख्त उपायों की जरूरत होगी, जिससे लोग नाराज होकर सड़क पर उतर सकते हैं. इस पर भी आम राय है कि फौरन कड़ी शर्तों वाले आईएमएफ मदद कार्यक्रम में शामिल होना होगा.

फौज के नियंत्रण वाली विशेष निवेश सुविधा परिषद (एसआईएफसी) पहले ही नेशनल एयरलाइन पीआईए और पाकिस्तान स्टील मिल्स जैसे सरकारी सफेद हाथियों को निजी क्षेत्र को देने की सिफारिश कर चुकी है. निजीकरण के इस नए दौर से बिलाशक मजदूरों की नाराजगी बढ़ेगी. सो, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और उसकी बहाली शरीफ भाइयों के लिए सबसे बड़ा इम्तिहान होगी.

नवाज की पहेली

पीएमएल-एन ने नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भले जोरदार चुनाव प्रचार किया, मगर कई लोगों का तब भी लगा था कि बड़े शरीफ असल में अपनी बेटी मरियम की सियासी जमीन तैयार करने और यह साबित करने में जुटे थे कि 2017 में उनसे नाजायज तरीके से कुर्सी छीनी गई थी. हो सकता है कि उन्होंने ये दोनों लक्ष्य हासिल कर लिए हों, मगर अब बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि पंजाब की नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री मरियम नवाज कैसा कामकाज दिखाती हैं.

दरअसल, पीएमएल-एन का खासकर पंजाब में महत्वाकांक्षी नाराज नौजवानों से सामना है, जो अमूमन रिवायती सियासी पार्टियों के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे हैं. पीएमएल-एन के अपने उम्मीदवारों के चयन से भी इशारा मिलता है कि शरीफ परिवार ही उसके केंद्र में है और वही तय करता है कि किस पर भरोसा करना है. अब देखना यह है कि क्या मरियम इस धारणा को बदल सकती हैं और नौजवानों को पार्टी की ओर खींच सकती हैं. उन्हें अपना रवैया भी बदलना पड़ सकता है, क्योंकि कहा जाता है कि उन्हें असहमति बर्दाश्त नहीं होती.

पीएमएल-एन केंद्र और पंजाब में सरकार बनाने तो जा रही है, मगर पार्टी इस हकीकत से भी रू-ब-रू है कि उसे पंजाब सूबे के मध्य हलके में गंभीर झटके लगे हैं, जिसे वह अपना गढ़ मानती है. पार्टी के बड़े लीडर पीटीआई के गुमनाम उम्मीदवारों के सामने हार गए. पूर्व गृह मंत्री और पंजाब पीएमएल-एन के अध्यक्ष राना सनाउल्लाह अपनी सीट भी हार गए. उन्होंने जो कहा, उसमें दम है. उन्होंने एक टीवी चैनल से कहा, "इस चुनाव में मुख्य मुद्दा महंगाई है."

"लोग बिजली, गैस और पेट्रोल के दाम बढ़ने से नाराज हैं, उन्हें बिलों का भुगतान करने के लिए अपने घरेलू सामान बेचने पड़ रहे हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमने (चुनाव प्रचार में) क्या कहा, उससे इन तीन चीजों का दर्द भुलाया नहीं जा सका. चुनाव के बीच (इमरान खान को) तीन मामलों में दोषी ठहराए जाने का शायद उलटा असर हुआ और उनके हक में सहानुभूति लहर चली, भले ही यह अदालती कार्रवाई थी, हमारा कोई लेना-देना नहीं था."

भुट्टो का गणित

पीपीपी के केंद्र में सरकार को बाहर से समर्थन देने के फैसले पर पीएमएल-एन के कई वरिष्ठ नेताओं ने नाराजगी जाहिर की है कि पीपीपी हिस्सेदारी से बचना भी चाहती है और मलाई भी काटना चाहती है. अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, पीपीपी समर्थन के बदले में पीएमएल-एन से राष्ट्रपति पद, सभी चार सूबों की गवर्नरशिप, नेशनल असेंबली के स्पीकर और सीनेट के चेयरमैन का पद मांग रही है. दिलचस्प यह है कि इसका मतलब न सिर्फ आसिफ अली जरदारी की राष्ट्रपति पद पर वापसी होगी, बल्कि ये तमाम संवैधानिक पद असेंबलियों के जल्दी भंग हो जाने पर भी बरकरार रहेंगे.

बिलावल ने 13 फरवरी को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जरदारी के दोबारा राष्ट्रपति बनने की वकालत की. उन्होंने कहा, "मैं यह इसलिए नहीं कह रहा हूं कि वे मेरे अब्बा हैं, बल्कि इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पाकिस्तान में आग लगी हुई है और सिर्फ उन्हीं में उसे बुझाने की सलाहियत है." मौजूदा हालात के मद्देनजर यह पीपीपी के लिए सबसे स्मार्ट रणनीति हो सकती है, बिलावल इन चुनावों में पीपीपी को मिले फायदे को और मजबूत करने की ओर देख रहे होंगे.

एक तो, पीपीपी ने सिंध सूबे (कराची को छोड़कर) में भारी जीत हासिल की और एक बार फिर सभी चारों सूबों में प्रतिनिधित्व वाली इकलौती पार्टी बनकर उभरी है. पार्टी बलूचिस्तान में (मौलाना फजलुर रहमान की जमीयत-ए-उलेमा-ए-इस्लाम या जेयूआई-एफ के साथ) मिलकर सबसे बड़ी पार्टी बन गई है और सिंध और बलूचिस्तान दोनों में सरकार बनाने जा रही है.

नेशनल असेंबली में भी उसकी संख्या में सुधार हुआ. लेकिन 1990 के दशक के बाद से पंजाब में उसने जो जमीन खो दी है, उसे वापस पाने के लिए उसे कड़ी मेहनत करनी होगी. देश में तकरीबन आधे वोटरों वाला पंजाब ही मायने रखता है. हालांकि, मुख्यधारा के सबसे नौजवान नेता के नाते बिलावल के पास वक्त है.

इमरान की लंबी छाया

अलबत्ता इस बात से किसी को कम ही गुरेज है कि तमाम उम्मीदों के विपरीत पीटीआई वह करने में कामयाब रही जो उससे पहले कोई भी पार्टी अपने खिलाफ सत्ता-प्रतिष्ठान के ऐसे हमले के सामने नहीं कर पाई थी. वह न केवल अपने सामने पैदा की गई चुनावी बाधाओं को नाकाम करने के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने में सफल रही—साझा चुनाव चिह्न न होते हुए भी उसने मतदाता तक यह जानकारी पहुंचाई कि हरेक निर्वाचन क्षेत्र में किस उम्मीदवार को वोट देना है—वह उन खुफिया अफसरों को भी गच्चा दे सकी जिनका काम ही पीटीआई की लामबंदियों पर निगाह रखना था.

इन नतीजों ने निश्चित रूप से इमरान का हौसला बढ़ाया है, जिन्हें चुनावों से ठीक हफ्ते भर पहले तीन अलग-अलग मामलों में 10 साल, 14 साल और सात साल की सजा दी गई थी. इनमें से पहले दो मामले उनकी तरफ से सरकारी स्तर के उपहारों में से अपने लिए रखी गई महंगी वस्तुओं के बारे में गलतबयानी और कुख्यात 'साइफर’ मामले में सरकारी गोपनीयता कानून के उल्लंघन से जुड़े थे.

अलबत्ता जिसने कई लोगों को नाराज कर दिया, वह तीसरा फैसला था, जिसमें उन्हें और उनकी बीवी बुशरा को इसलिए दोषी ठहराया गया कि बुशरा की 'इद्दत’ की इस्लामी अवधि पूरी होने या पिछली शादी के बाद इंतजार करने से पहले ही उन्होंने शादी का करार कर लिया.

यहां तक कि जो लोग इमरान और उनकी लगातार सियासी लक्रफाजी और गतिविधियों के खिलाफ थे, वे भी सत्ता-प्रतिष्ठान के एक ऐसे मामले में पड़ने से नाराज थे जो लाजिमी तौर पर पूरी तरह निजी मामला था. पीटीआई के समर्थकों ने जाहिरा तौर पर इसे इमरान के साथ घोर नाइंसाफी की एक और मिसाल की तरह देखा और शायद इसी की झलक उनके मतदान के लिए बड़े पैमाने पर निकलने में दिखी हो.

मगर क्या इसका मतलब यह है कि इमरान जल्द बाहर आ सकते हैं और फिर आजाद हो सकते हैं? ज्यादातर सयाने जानकारों को इसमें शक है. पीटीआई के लिए अब भी ढेरों अड़चनें हैं, भले ही नेशनल असेंबली में उनके पास सबसे ज्यादा सीटों का गुट हो. एक तो इसलिए कि वे सब एक पार्टी के अनुशासन से बंधे होने के बजाए तकनीकी तौर पर निर्दलीय हैं, और आशंकाएं जाहिर की जा रही हैं कि दूसरी पार्टियां उन्हें तोड़कर अपने साथ आने के लिए फुसलाने या रिश्वत देने की कोशिश कर सकती हैं. धीरे-धीरे पीएमएल-एन की तरफ बढ़ने का सिलसिला शुरू भी हो गया है.

ऐसा होने से रोकने के लिए यह मुमकिन है कि पीटीआई अपने निर्दलीय उम्मीदवारों से किसी ऐसी छोटी पार्टी में शामिल होने को कहे जिसे पाकिस्तान के चुनाव आयोग (ईसीपी) ने इन असेंबली के लिए मान्यता दे रखी है. मजहबी-सियासी पार्टी मजलिस-ए-वहदत-ए-मुस्लिमीन (एमडब्ल्यूएम) के साथ उसकी बातचीत चल भी रही है. निर्दलीय अधिसूचना जारी होने के तीन दिन के भीतर दूसरी पार्टी में शामिल हो सकते हैं और ऐसा करने से वे कानून के दायरे में आ जाएंगे जो उन्हें पाला बदलने से रोकेगा.

दूसरी अड़चन महिलाओं और अल्पसंख्यकों को आवंटित आरक्षित सीटें हैं, जिनसे संसद में सीटों की संख्या अंतत: बढ़ जाएगी. ये आरक्षित सीटें सियासी पार्टियों की जीती गई सीटों की संख्या के अनुपात में आवंटित की जाती हैं और निर्दलीयों को उससे बाहर रखा जाता है. पीटीआई का कहना है कि एमडब्ल्यूएम ने आरक्षित सूची के लिए उम्मीदवारों की पर्याप्त बड़ी सूची नहीं दी है, जैसा कि ईसीपी के नियम कहते हैं.

इसके अलावा पीटीआई उन सीटों के नतीजों को भी चुनौती दे रही है जिन पर उसे लगता है कि हेरफेर किया गया है. दोनों का हश्र अदालतों में याचिकाओं के रूप में हो सकता है. क्या पीटीआई समय रहते अदालती आदेश हासिल कर पाएगी ताकि वह सरकार के गठन और उसके सियासी दुष्परिणामों को रोक पाए? संभावना बहुत मुश्किल दिखाई देती है.

क्या पीटीआई के पास सड़कों पर विरोध प्रदर्शन के माध्यम से अफरा-तफरी फैलाने की ताकत है? यह संभावना भी नजर नहीं आती, खासकर 9 मई को उसके ऐसे आखिरी दुस्साहस के बाद की गई कड़ी कार्रवाई को देखते हुए. मगर हो सकता है कि सत्ता-प्रतिष्ठान और यहां तक कि पीएमएल-एन भी पीटीआई को कुछ रियायतें देकर मुल्क में ध्रुवीकरण कम करना चाहें. हालांकि तत्काल तो यह संभावना कम ही है कि जिद्दी इमरान को राजनीति में लिप्त होने की खुली छूट दी जाएगी.

मसलन, उन्होंने अली अमीन गंडापुर को खैबर पख्तूनख्वा के मुख्यमंत्री के पद के लिए नामजद किया है, जो काम करने और नतीजे देने से ज्यादा पार्टी के चतुर रणनीतिकार तौर पर जाने जाते हैं. इसे मुख्य रूप से फौज की जरा परवाह न करने की तरह देखा जा रहा है, क्योंकि गंडापुर पार्टी के भीतर ज्यादा लोकप्रिय नहीं हैं और उन पर 9 मई के दंगों में शामिल होने के आरोप भी लगे हैं.

पाकिस्तान के सियासी जानकारों का मानना है कि अगर कोई लीक से हटकर असामान्य घटनाक्रम नहीं घटता है, तो सियासी उबाल धीरे-धीरे ठंडा होता जाएगा. ऐसी स्थिति में पीटीआई के लिए चुनौती यह होगी कि वह चुनाव का अगला मौका मिलने तक अपने को साबुत और कायम रखे.

जनरल मुनीर की चुनौती 

कुछ लोगों को मौजूदा सियासी फिजा निजाम के लिए बारूद के ढेर की तरह लग सकती है. सियासी पार्टियों की चौतरफा नाराजगी को थोड़ी सावधानी से संभालने की जरूरत होगी. मगर ज्यादा लंबे नजरिये से देखें तो खंडित जनादेश फौज के सियासी इंजीनियरों के लिए अल्लाह तआला का भेजा तोहफा भी है, क्योंकि इससे उन्हें सियासी कर्ताधर्ताओं को फुसलाने और उन पर दबाव डालने की ज्यादा गुंजाइश मिल जाती है.

अलबत्ता, मौजूदा चुनावी नतीजे सियासत में ध्रुवीकरण के अलावा किसी और चीज की तरफ इशारा करते हैं, और वह है कि जम्हूरी सियासत में छेड़छाड़ करने की फौजी निजाम की ताकत की भी सीमा है, और यह कि चुनावों में हेरफेर करना ज्यादा मुश्किल हो गया है. फौजी निजाम इससे कुछ हद तक शुरू से ही वाकिफ था. यही वजह है कि चुनावों को असेंबलियों के भंग होने से तीन महीने की संवैधानिक तौर पर अनिवार्य अवधि से आगे टाला गया.

पाकिस्तान के डावांडोल आर्थिक हालात के मद्देनजर फौजी निजाम को भी बखूबी एहसास है कि किसी भी आर्थिक बहाली के लिए सियासी स्थिरता सबसे अव्वल जरूरत या पूर्वशर्त है और अर्थव्यवस्था पर ध्यान न देने से संस्था के तौर पर उसकी अपनी हैसियत भी खतरे में पड़ सकती है.

मगर ज्यों-ज्यों इस बात के लिए सार्वजनिक शोर-शराबा जोर पकड़ रहा है कि फौज अपने को सियासत से पूरी तरह अलग करे—चुनाव नतीजों से हैरान ज्यादातर सियासी पार्टियां फौरन इसकी मांग कर रही हैं—फौज प्रमुख जनरल आसिम मुनीर के लिए चुनौती यह होगी कि वे इस मांग और खुद को पाकिस्तान का निर्णायक रक्षक व देश के राष्ट्रीय हितों का मध्यस्थ मानने के सेना के अटूट विश्वास के बीच संतुलन कैसे साधते हैं.

—हसन जैदी, कराची में

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