सदाबहार इंडिया

हमें इंडिया और भारत दोनों नामों पर बराबर तवज्जो देनी जारी रखनी चाहिए, न कि इतिहास के गर्भ से निकले एक नाम को छोड़ देना चाहिए, जिसे दुनिया जानती-पहचानती है

इंडिया
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- शशि थरूर

असहमतियों को सुलझाना महान भारतीय गुण है. संविधान सभा इस बात पर विभाजित थी कि हमारे देश को 'इंडिया’ कहा जाए या 'भारत’, तो हमारे संविधान-निर्माताओं ने गणतंत्र के मूलभूत दस्तावेज का मसौदा तैयार करते वक्त सही समाधान किया, जिसमें 'इंडिया, दैट इज भारत’ (इंडिया, जो भारत है) का उल्लेख किया गया और दोनों पक्षों को खुश किया गया. प्रस्तावना में अंग्रेजी में 'वी, द पीपल ऑफ इंडिया’ और हिंदी में 'हम, भारत के लोग’ की बात की गई है. अनुच्छेद 52 अंग्रेजी में ऐलान करता है, 'देयर शैल बी अ प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया’, और हिंदी में इस पद को 'भारत के राष्ट्रपति’ कहा गया. इससे एक सरल, अनउलझी प्रथा शुरू हुई. अंग्रेजी में, और इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, हमारे देश को 'इंडिया’ कहा जाता है; हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में देश का नाम 'भारत’ है.

यह चलता रहा है, ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेजी में 'जर्मनी’ के नाम से जाना जाने वाला देश वहां के तमाम ड्यूश भाषा-भाषी लोगों के लिए ड्यूशलैंड है (जिस भाषा को हम 'जर्मन’ कहते हैं). उस गौरवशाली देश में किसी ने भी इस बात पर जोर नहीं दिया कि अंग्रेजी बोलने वालों को भी ड्यूशलैंड कहना होगा, जिसका राष्ट्रवाद एक समय में हमसे कहीं अधिक उग्र था.

लेकिन कई सहस्राब्दियों और आजादी के बाद 76 साल से जो प्रचलन में है, अब वह हमारी सरकार को नहीं सुहाता. अचानक अंग्रेजी में प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया ने 'प्रेसिडेंट ऑफ भारत’ के नाम से औपचारिक निमंत्रण जारी किया और जी20 शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री की कुर्सी के आगे नेम-प्लेट पर रोमन लिपि में 'इंडिया’ के बजाए 'भारत’ लिखा गया तो ऐसा विवाद उठ खड़ा हुआ, जो निरर्थक और निहायत गैर-जरूरी है. जो बड़े सहज ढंग से चल रहा था, उसके साथ छेड़छाड़ क्यों? जैसा अमेरिकी कहते हैं, ''टूटा ही नहीं, तो ठीक क्यों करना?’’

सत्ताधारी दल के समर्थक कह रहे हैं कि 'इंडिया’ औपनिवेशिक गुलामी का प्रतीक है और कि पवित्र प्राचीन, ऐतिहासिक नाम ही 'दिमागी उपनिवेशीकरण’ को दूर करने का तरीका है जो इंडिया नाम का तात्पर्य है. वे सरासर गलत हैं, और अगर वे सही भी हों, तो भी 'इंडिया’ नाम छोड़ना बुरा विचार होगा.

वे गलत क्यों हैं? क्योंकि इंडिया नाम का ब्रिटिश उपनिवेशवाद से कोई लेना-देना नहीं है. यह नाम भारत में अंग्रेजों के आने के लगभग दो सहस्राब्दी पहले का है. ईस्वी सन्र की शुरुआत से बहुत पहले प्राचीन यूनानी और फारसी लोग सिंधु या 'इंडस’ नदी के पार की धरती को 'इंडिया’ कहा करते थे. प्राचीन इतिहासकार हेरोडोटस और मेगस्थनीज ने ईसा पूर्व पांचवीं और चौथी शताब्दी में इंडिया के बारे में लिखा था. इंडिया शब्द पुरानी अंग्रेजी (5वीं शताब्दी सीई) में मौजूद था और किंग जेम्स बाइबिल में भी उसका जिक्र है. और यह शब्द सिर्फ अंग्रेजी में नहीं है. डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1602 में हुई थी, लगभग उसी समय जब 1599 में ब्रिटिश कंपनी आई थी. 'ईस्ट इंडीज’ में उनके उपनिवेश के बाद इंडोनेशिया नाम पड़ा. हमारे उपमहाद्वीप का एक नाम 'इंडिया’ ब्रिटिश राज से बहुत पहले का है.

लेकिन यह दलील सही भी हो कि 'इंडिया’ नाम अंग्रेजों के साथ प्रचलित हुआ, तब भी इसे देसी 'भारत’ के पक्ष में हटा देना गलत होगा. दरअसल, पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना चाहते थे कि हमारे देश का नाम भारत या हिंदुस्तान रखा जाए, ताकि उसे इंडिया नाम की प्रतिष्ठित विरासत पर दावा करने के अधिकार से वंचित किया जा सके.

उन्हें लगता था कि उस पर उनके अपने देश का भी बराबर का दावा है. उस समय, हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नाम 'भारत’ रखने के पैरोकारों के विरोध के बावजूद नव स्वतंत्र देश का नाम 'इंडिया’ बरकरार रखने पर जोर दिया, ताकि हमें इंडिया का उत्तराधिकारी माना जाए, जो संयुक्त राष्ट्र और लीग ऑफ नेशन्स का सदस्य है. इंडिया नाम को बरकरार रखकर उन्होंने यह आश्वस्त किया कि पाकिस्तान सिर्फ एक अलग हुआ देश है, जिसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता के लिए नए सिरे से आवेदन करना है.

इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इंडिया नाम की सदियों से बनी बहुमूल्य ब्रांड वैल्यू है. जब किसी ब्रांड का उल्लेख किया जाता है, तो वह जनता के मन में जुड़ाव की एक पूरी शृंखला के साथ-साथ यह अपेक्षा भी लेकर आता है कि वह कैसा प्रदर्शन करेगा. कोई देश कोई शीतल पेय या सिगरेट नहीं है, लेकिन उसका नाम ही दूसरों के मन में कुछ जुड़ाव पैदा कर सकता है.

यही कारण है कि दुनिया की नजरों में 'इंडिया’ का महत्व रहा है- यह एक पौराणिक और विचित्र धरती थी, जो सदियों से पर्यटकों और व्यापारियों के लिए ख्वाहिश का देश रहा है, ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया के 'मुकुट का गहना’ था, उनके लिए 'भारत की महारानी’ की उपाधि गौरव का विषय थी. नेहरू चाहते थे कि लोग यह समझें कि जिस भारत का वे नेतृत्व कर रहे हैं, वह उस अनमोल विरासत का उत्तराधिकारी है. दूसरे शब्दों में, वे ब्रांड पर कब्जा बनाए रखना चाहते थे.

यही कारण है कि हमें इतिहास और दुनिया भर में मान्य गौरवपूर्ण नाम पर अपना दावा छोड़ने के बजाए दोनों शब्दों का उपयोग जारी रखना चाहिए. बेशक, अंतत: किसी भी ब्रांड के निरंतर मूल्य की एकमात्र वास्तविक गारंटी उस उत्पाद या सेवा का वास्तविक प्रदर्शन है. लेकिन विश्व स्तर पर इंडिया ब्रांड के सभी फायदों को त्यागने की मूर्खता क्यों की जाए, जबकि हम देश में 'भारत’ की ताकत को छोड़े बिना उसका आनंद उठा सकते हैं?

अंतिम तर्क: हमारे पड़ोसी अरब और फारसी लोग 'स’ का उच्चारण 'ह’ करते हैं, इसलिए उन्होंने सिंधु के पार के लोगों को 'हिंदू’ कहा. तो, अगर भाजपा के लोगों को इंडिया अस्वीकार है, तो उसी तर्क से उन्हें 'हिंदू’ नाम को भी अस्वीकार करना होगा, क्योंकि वह भी विदेशी मूल का है. अब वे हम सबसे यह मांग नहीं कर पाएंगे कि 'गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं.’ व्युत्पत्तिशास्त्र की दृष्टि से, यह 'गर्व से कहो कि हम भारतीय हैं’ का खंडन करने जैसा ही है! वास्तव में, हम सभी बहुत लंबे समय से इस अत्यंत निरर्थक और बचकाने प्रस्ताव पर बहस करने में और अधिक समय बर्बाद कर रहे हैं.

शशि थरूर लेखक और कांग्रेस के लोकसभा सदस्य हैं

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