सेहत की कुंडली : कैसी रहेगी कल आपकी तबीयत?
एआइ की ताकत से लैस डाइग्नोस्टिक्स कैसे भारत में हेल्थकेयर के पूरे परिदृश्य को बदल रहा है

अच्छा सोचिए जरा, अगर कोई पहले से बता दे कि भविष्य में आपको कौन-सी बीमारी होने का अंदेशा है और आप ऐसे कदम उठाएं जिससे वह संभावित बीमारी पैदा ही न हो? फ्यूजीफिल्म और डॉ. कुट्टीज हेल्थकेयर के साझा उपक्रम नूरा में एक विशेष स्वास्थ्य जांच पैकेज इसी में मदद कर सकता है. गुरुग्राम में उसके परिसर में कदम रखने पर अगर लगे कि आप भटककर किसी आलीशान होटल में चले आए हैं, तो आपको माफ किया जा सकता है.
यहां जापानी लकड़ी के पैनल से सजे बगीचों के बीच माचा चाय के कप के साथ आपका स्वागत किया जाता है. फिर आपको किमोनो पहनाया जाता है और निजी देखरेख में उन कमरों में ले जाया जाता है जो दो मंजिलों पर फैले हैं. नहीं, इनके अंदर हॉट टब नहीं है. यहां आपको ब्लड प्रेशर मॉनीटर, सीटी स्कैन और ईसीजी मशीनें मिलेंगी. 'कंप्यूटराइज्ड टोमोग्राफी, इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम’...हर टेस्ट के लिए आपको एक खास कमरे में ले जाया जाता है. मशीनें हाइ-रिजॉल्यूशन कैमरों, सेंसर और रेडिएशन या विकिरण उत्सर्जन में 97 फीसद कमी लाने वाली टेक्नोलॉजी से लैस हैं. इसके चलते कुछ खास किस्म के कैंसर के लिए बार-बार कराए जाने वाले स्कैन में सहूलियत हो जाती है.
अब यही भविष्य है. इसने चिकित्सा के समूचे नजरिए को बदल दिया है. अगर पारंपरिक अक्लमंदी इस कहावत में थी कि इलाज से बेहतर है एहतियात, तो अब एहतियात की जगह प्रीडिक्शन यानी पूर्वानुमान ने ले लिया है. गुरुग्राम के मेदांता-द मेडिसिटी के चेयरमैन डॉ. नरेश त्रेहन के शब्दों में, ''पारंपरिक तौर पर हम सोचते थे कि हमें बीमारी के इलाज में निवेश करना चाहिए. फिर कुछेक दशक पहले एहसास हुआ कि हमें बीमारी से बचने के एहतियाती उपाय करने चाहिए. मगर प्रीवेंटिव हेल्थकेयर एक ढीली-ढाली, कहने की सी बात थी. लोगों को अस्पताल से दूर रहने के कदम उठाने को वह प्रेरित नहीं करती थी.’’ वे यह भी कहते हैं कि इसलिए अब हम 'प्रीडिक्टिव हेल्थकेयर’ की बात कर रहे हैं. ''इसमें हम मरीज के पूरे परिवेश, उसकी जीन कुंडली और रक्त के कुछ मानदंड सरीखे पहलुओं का इस्तेमाल करते हैं. इसके जरिए यह देखते हैं कि किसी व्यक्ति में किसी गैर-संक्रामक बीमारी का ज्यादा जोखिम तो नहीं! फिर उसी की जरूरत के हिसाब से प्रीवेंटिव प्लान यानी एहतियाती उपायों की योजना बनाते हैं.’’
इस 'प्रीडिक्टिव हेल्थकेयर’ या भविष्य में होने वाले रोगों की खबर देने वाली व्यवस्था की चाभी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के हाथ में है. मानव जीवन के कई खित्तों में पैठ बनाने के बाद अब यह स्वास्थ्य सेवाओं में भी आ गई है. एआइ ने इंटरनेट ऑफ थिंग्ज, मशीन लर्निंग और दूसरी अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के साथ उस चीज को जन्म दिया, जिसे आइओएमटी यानी इंटरनेट ऑफ मेडिकल थिंग्ज कहा जाता है.
एआइ डेटा की भारी तादाद में से ऐसे अल्गोरिद्म बनाती है जो बीमारी का तेजी से, सटीक पता लगाने और इलाज करने में मदद करती हैं. इस टेक्नोलॉजी का पश्चिम में जमकर इस्तेमाल हो रहा है, जहां इलाज की बेहद ऊंची लागत खुद ही एहतियाती उपायों को आदर्श बना देती है. अब धीरे-धीरे यह भारत में भी आ रही है, जहां डॉक्टर और चिकित्सा प्रतिष्ठान बीमारी का पूर्वानुमान लगाने और शुरुआत में ही उसे खत्म करने के लिए एआइ के औजारों की ताकत का इस्तेमाल करने लगे हैं. साथ ही, कई कंपनियां ऐसे एआइ डाइग्नॉस्टिक औजार बनाने में जुट गई हैं जो सस्ती भी हों और ऊंचे दर्जे की भी.
नीति आयोग के सदस्य डॉ. वी.के. पॉल कहते हैं, ''यह बेहद जरूरी है कि भारत इस नई प्रीडिक्टिव डाइग्नॉस्टिक टेक्नोलॉजी में पीछे न रहे. अपनी घरेलू मैन्युफैक्चरिंग क्षमता का लाभ उठाकर हम जांच की नई टेक्नोलॉजी बना सकते हैं जो किफायती दरों पर भारतीयों को उपलब्ध हो. 'मेक इन इंडिया’ एआइ और जेनेटिक्स का इस्तेमाल करने वाले डाइग्नॉस्टिक्स को ज्यादा सुलभ बना देगा.’’ यह हमारे जैसे विशाल आबादी वाले देश में ज्यादा उपयोगी होगा, जहां एलोपैथिक डॉक्टर-मरीज का अनुपात 1:1,456 है (आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 के मुताबिक), जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय पैमाने 1:1,000 से कम है.
दूसरे आंकड़े भी इतने ही मायूस करने वाले हैं—अच्छी स्वास्थ्य सेवा सुलभ होने के लिहाज से गैरबराबरी कायम है. हमारा स्वास्थ्य का 75 फीसद बुनियादी ढांचा मेट्रो शहरों में केंद्रित है, दवाओं पर खर्च के कारण हर साल 5.5 करोड़ नागरिक गरीबी के गर्त में चले जाते हैं, और हर चौथा भारतीय 70 साल की उम्र से पहले गैर-संक्रामक रोगों से मरने के खतरे से घिरा है. यही वह परिदृश्य है जिसमें एआइ की अगुआई में हो रही रोग की पहचान किफायती विकल्प देने और मौजूदा थोड़े-से मेडिकल बुनियादी ढांचे पर बोझ कम करने का वादा करती है.
एआइ पर आधारित प्रीडिक्टिव एनालिसिस सबसे ज्यादा रोग की पहचान में उपयोगी है. ऐसे में यह उद्योग बढ़ने से संकेत मिलता है कि भारत किधर जा रहा है. आंकड़े भले अभी मामूली दिखें. भारत में डाइग्नॉस्टिक्स में एआइ पर बाजार विश्लेषक फर्म इनसाइट्स 10 की 2023 की एक रिपोर्ट ने इसकी वृद्धि 2022 में 165 करोड़ रुपए से 2030 में 1,987 करोड़ रुपए होने का अनुमान जाहिर किया है, जो इस अवधि में 38 फीसद चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) है.
ग्लोबल मैनेजमेंट और कंसल्टिंग सर्विस फर्म प्रैक्सिस ग्लोबल एलायंस की 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय मेडिकल डाइग्नॉस्टिक्स उद्योग के 2021 में 82,790 करोड़ रुपए से 2026 में 1.66 लाख करोड़ रुपए पर पहुंचने की उम्मीद है. इस क्षेत्र की बड़ी फर्म रिसर्च ऐंड मार्केट्स की 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में जेनेटिक डाइग्नॉस्टिक्स का मूल्य 2022 में जहां 503 करोड़ रुपए था, इसके करीब 7 फीसद की सीएजीआर के साथ बढ़ने का अनुमान है.
प्रीडिक्टिव हेल्थकेयर क्या है?
असल में डेटा का इस्तेमाल करके प्रीडिक्टिव एनालिटिक्स बीमारी के सचमुच आने से पहले उसके अंदेशे का आकलन करता है. इसका इस्तेमाल स्वस्थ वयस्कों के लिए किया जा सकता है, जिनमें अगर किसी बीमारी के आने का रुझान दिखाई देता है तो वे जीवनशैली में बदलाव या डॉक्टरी सलाह से पूरी तरह रोक सकते हैं. दरअसल, किसी व्यक्ति के जन्म से पहले ही उसमें जेनेटिक या आनुवंशिक खामियों की भविष्यवाणी करने के लिए प्रीडिक्टिव डाइग्नॉस्टिक्स का इस्तेमाल किया जा सकता है. ठीक यही विकल्प एक इंजीनियर की पत्नी, हैदराबाद की 25 वर्षीया गृहिणी रुबीना सेनगुप्ता ने बच्चे को जन्म देने की योजना बनाने से पहले चुना. उन्होंने क्लैरिया कैरियर स्क्रीनिंग टेस्ट करवाया. यह देशभर में फैली जेनेटिक डाइग्नॉस्टिक्स चेन मेडजीनोम की तरफ से पेश प्रजनन से जुड़ी जेनेटिक जांच है. इसमें भावी माता-पिता के 2,000 जीन में तब्दीलियों की जांच की जाती है और यह पूर्वानुमान लगाया जाता है कि क्या वे कोई बीमारी अपने आने वाले बच्चे को दे सकते हैं. सेनगुप्ता कहती हैं, ''अगर हमारे भीतर कुछ निश्चित वाहक जीन हैं, तो मुझे लगता है कि हमें अपना बच्चा पैदा करने के बजाय कोई बच्चा गोद ले लेना चाहिए.’’
इसी तरह बेंगलूरू की 46 वर्षीया ग्राफिक कलाकार शालिनी पाहवा ने एंडोमेट्रियल कैंसर यानी गर्भाशय की भीतरी परत में होने वाले कैंसर का जेनेटिक टेस्ट करवाया क्योंकि उनकी मां को यह था. वे कहती हैं, ''उन्हें मेरे जीन में एक म्यूटेशन मिला जिसकी वजह से यह पक्के तौर पर मुझे होता.’’ पाहवा ने अपना गर्भाशय ही निकलवा देने का फैसला किया. वे यह भी कहती हैं, ''इसे रखने का मुझे कोई मतलब दिखाई नहीं दिया क्योंकि इस अंग को वैसे भी निकलवाना ही होता.’’
प्रीडिक्टिव एनालिटिक्स ने कैंसर की पहचान में वाकई कायापलट कर दिया है. रोश डाइग्नॉस्टिक्स का नैविफाइ टूल डॉक्टरों को एक अल्गोरिद्म देता है जिससे फेफड़ों और स्तनों में कैंसर का पता लगाया जा सकता है. इस स्विस बहुराष्ट्रीय कंपनी के भारत, पाकिस्तान, म्यांमार, इंडोनेशिया और फिलीपींस के लिए एशिया-प्रशांत उपक्षेत्रीय प्रमुख थिलो ब्रेनर कहते हैं, ''कैंसर की देखभाल में प्रिसीशन मेडिसिन की दिशा में पहला कदम सटीक डाइग्नॉस्टिक है. इसके लिए एआइ का इस्तेमाल फायदेमंद हो सकता है. इमेज एनालिसिस अल्गोरिद्म पैथोलॉजिस्ट के पास मौजूद जानकारी को बढ़ाकर मरीज की देखभाल पर असर डाल सकती हैं.’’ इस एमएनसी का पुणे में एक हेल्थकेयर डिजिटल सेंटर भी है जो रोग की पहचान बताने के लिए उन्नत टेक्नोलॉजी और डेटा एनालिटिक्स का इस्तेमाल करने पर जोर देता है. फिर बेंगलूरू स्थित स्टार्ट-अप प्रीडिबल भी है, जिसने एक सॉफ्टवेयर लंगआइक्यू विकसित किया है, जो सीटी स्कैन के डेटा का इस्तेमाल करके शुरुआत में ही फेफड़ों के कैंसर, क्रोनिक पल्मोनरी ऑब्सट्रक्टिव डिसऑर्डर और फेफड़ों में होने वाले रोगों का पूर्वानुमान लगाने में मदद करता है.
मेदांता और अपोलो सरीखे कई अस्पताल तथा नूरा, डॉ. डांग्स लैब, मेडजीनोम और मैपमाइजीनोम सरीखी स्वतंत्र क्लिनिक विभिन्न रोगों के अंदेशे का पहले से पता लगाने के लिए एआइ संचालित जांच पैकेज पेश कर रही हैं. ज्यादातर अल्गोरिद्म रोग की भविष्यवाणी करने के लिए मरीज के पहले से डाले गए डेटा सेट और चिकित्सा जानकारी पर भरोसा करती हैं. मसलन, टाइप 2 डायबिटीज के मामले में मेडिकल जर्नल डायबिटोलॉजिया में छपे 2020 के एक अध्ययन ने पाया कि मोटापे से इसका जोखिम छह गुना बढ़ जाता है.
इसी पत्रिका में छपे 2007 के एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि टीसीएफ7एल2 जीन में भिन्नताओं का गहरा वास्ता भारतीय आबादी में टाइप 2 डायबिटीज से था. शोध से यह भी पता चला कि उचाट नींद और परिवार में रोग के इतिहास से डायबिटीज का जोखिम बढ़ जाता है. इस तरह अगर कोई मरीज मोटापे से ग्रस्त पाया जाता है, उसके जीन रूप बदल रहे हैं, उचाट नींद सोता है और परिवार में डायबिटीज का इतिहास रहा है तो अल्गोरिद्म उसमें टाइप 2 डायबिटीज विकसित होने की औसत से ज्यादा अंदेशे की भविष्यवाणी करेगी.
एक और रोग फैमिलियल हाइपरकोलेस्टरोलीमिया है, जो आनुवंशिक विकार है. यह क्रोमोजोम 19 में खामी से पैदा होता है. इसकी वजह से शरीर खून से लो-डेनसिटी लिपोप्रोटीन (एडीएल) यानी खराब कोलेस्टरॉल को नहीं हटा पाता. अगर किसी मरीज में मोटापे, रोग के पारिवारिक इतिहास और धूम्रपान की आदत सरीखे जोखिम के दूसरे कारकों के साथ यह जीन पाया जाता है, तो एआइ अल्गोरिद्म दिल के दौरे की अत्यधिक संभावना की भविष्यवाणी करेगा, जब तक कि इसे रोकने के कदम नहीं उठाए जाते—भले ही उस व्यक्ति के दिल में कोई ब्लॉकेज या रुकावट न हो.
दरअसल, रोग का पूर्वानुमान लगाने को तकरीबन सभी नवीनतम डाइग्नॉस्टिक एआइ टेक्नोलॉजी के इर्द-गिर्द घूमते हैं. टेस्ट चाहे खून के हों या जीन आधारित, बेशक इनसान के हाथों किए जाते हैं, पर एआइ जितनी तेज और सटीक ढंग से और बड़े पैमाने पर विश्लेषण कर सकता और निष्कर्ष निकाल सकता है, उसका कोई सानी नहीं. पैथोलॉजी और खासकर खून की जांच के लिए एआइ सबसे कामयाब रहा है क्योंकि विशेषज्ञों का कहना है कि खून की जांच की रिपोर्टों का डेटा आसान है, खासकर जब विभिन्न आयु समूहों, देशों, लिंग और जातीयता का तकरीबन हर व्यक्ति खून की जांच करवाता है.
कुछ उत्पाद इतने ताकतवर हैं कि उनमें खून और पेशाब की माइक्रोस्कोपी एआइ के जरिए पूरी तरह स्वचालित है. इनमें मेडिकल इमेजिंग डेटा का विश्लेषण करने के लिए एआइ से संचालित सॉफ्टवेयर बनाने वाली भारतीय फर्म सिगटपल का प्रमुख प्रोडक्ट एआइ100 भी है. यह काबिल पैथोलॉजिस्ट के काम की हू-ब-हू कामयाब नकल करता है और भारत में एचसीजी तथा थायरोकेयर सरीखी पैथ लैब में इस्तेमाल किया जा रहा है. सिगटपल के संस्थापक और सीईओ डॉ. तथागत राय दस्तीदार कहते हैं, ''यह सॉफ्टवेयर एआइ मॉड्यूल है जो इमेज का विश्लेषण करता है. नतीजा फिर वेब ब्राउजर के पैथोलोजिस्ट के सामने रखा जाता है, जिसे किसी भी समय कहीं से भी देखा जा सकता है. इससे न केवल एक नमूने की समीक्षा में लगने वाला समय कम हो जाता है बल्कि पैथोलॉजिस्ट दूर से ही नमूनों की समीक्षा कर सकता है.’’ सिगटपल दूसरे उत्पादों पर भी काम कर रहा है, जो बायोप्सी और पैप स्मियर सरीखे दूसरे नमूनों की माइक्रोस्कोपी को भी स्वचालित बना देंगे.
इस साल मई में दिल्ली का डॉ. डांग्स लैब एलर्जीनियस डीएक्स लेकर आया, जो अत्याधुनिक माइक्रोएरे टेक्नोलॉजी और नैनोपार्टिकल्स का इस्तेमाल करने वाला उन्नत मॉलिक्यूलर एलर्जी डाइग्नॉटिक्स टेस्ट है. करीब 25,000 रुपए लागत का यह टेस्ट एलर्जी पैदा करने वाले 163 सामान्य तत्वों से होने वाली संभावित एलर्जी का सटीक पता लगा सकता है और एलर्जी पैदा करने वाले विभिन्न तत्वों के 300 अवयवों का विश्लेषण कर सकता है.
दिल्ली से कॉलेज के पहले साल की पढ़ाई कर रहे 18 वर्षीय नमन माहेश्वरी ने यह टेस्ट करवाया और कहते हैं कि इसने उनकी जिंदगी बदल दी. माहेश्वरी को बचपन में कच्चे दूध के पनीर से एलर्जी होती थी और उन्हें दूध पूरी तरह छोड़ना पड़ा था. मगर टेस्ट से पता चला कि दूध का एक खास अवयव उनकी एलर्जी का कारण था, जो गर्मी से अपने स्वाभाविक गुण गंवा बैठता है या दूसरे शब्दों में, पकाए जाने के दौरान निष्क्रिय हो जाता है. माहेश्वरी बताते हैं, ''मेरे डॉक्टर ने कहा कि मैं कच्चा दूध तो नहीं पर पकाए हुए दूध के उत्पाद सुरक्षित ढंग से ले सकता हूं. हाल में मैंने पहली बार दूध में पका दलिया खाया और कुछ भी उल्टा-सीधा नहीं हुआ.’’ लैब के सीईओ डॉ. अर्जुन डांग के मुताबिक, भारत में एलर्जी के सटीक डाइग्नॉसिस में एक अहम कमी है. ''एआइ संचालित एलर्जीनियस डीएक्स लाने के पीछे हमारा लक्ष्य इसी कमी को पूरा करना है. इस टेस्ट ने एलर्जी के डाइग्नॉसिस को पूरी तरह से बदल दिया’’ है क्योंकि एलर्जिक प्रतिक्रिया पैदा करने वाले सटीक कारणों की पहचान करके स्वास्थ्य सेवा के प्रोफेशनल अब मरीजों के हिसाब से इलाज की योजना बना सकते हैं और सलाह दे सकते हैं.
प्रीडिक्टिव एनालिटिक्स कैसे काम करता है?
प्रीडिक्टिव एनालिटिक्स बुनियादी तौर पर ऐतिहासिक डेटा के आधार पर काम करता है. इसमें यह मिलती-जुलती रिपोर्ट, शोध और मानदंडों के साथ मरीज की जांच के नतीजों की तुलना करता है. बेशक अंतिम डाइग्नॉसिस में सटीकता और आत्मविश्वास का स्तर बहुत कुछ उस डेटा पर निर्भर करता है जो एआइ संचालित मशीन में डाला जाता है और उसमें जमा रहता है. एफआइएनडी/फाइंड (फाउंडेशन फॉर इनोवेटिव न्यू डाइग्नॉसिस) में भारत के कंट्री ऑपरेशंस प्रमुख संजय सरीन कहते हैं, ''एल्गोरिद्म को डेटा का प्रशिक्षण देना होता है. अगर मैं चाहता हूं कि एआइ टीबी के मरीज की रिपोर्टों का विश्लेषण करे, तो मुझे उसमें विभिन्न इलाकों और आबादी के टीबी मरीजों की बहुत-सी अलग-अलग पिछली रिपोर्ट डालनी होती हैं. डेटा जितनी विविधता वाला होगा, विश्लेषण और पूर्वानुमान भी उतना ही मजबूत और सटीक होगा.’’ (टीबी प्रीडिक्टिव हेल्थ प्रोग्राम में शामिल की जाने वाली अकेली संक्रामक बीमारी है.)
एआइ डाइग्नॉस्टिक्स एक्स-रे, ईसीजी, सीटी स्कैन और एमआरआइ सरीखे रेडियोलॉजी पदार्थों का विश्लेषण करने के लिए डीप-लर्निंग अल्गोरिद्म का भी असरदार तरीके से इस्तेमाल कर रहा है ताकि संभावित रूप से मौजूद विसंगतियों की पहचान और शारीरिक अंग की मौजूदा स्थिति के आधार पर विसंगतियों की भविष्यवाणी की जा सके. मसलन, टीबी की पहचान करने वाले एआइ इमेजिंग उत्पादों के लिए फाइंड भारत में विभिन्न संगठनों के साथ मिलकर काम कर रहा है. सरीन कहते हैं, ''इमेजिंग ऐसा क्षेत्र है जिसमें एआइ ने तेजी से सटीक नतीजे देने के लिए अच्छा काम किया है. आज टीबी के एआइ इमेजिंग औजार आपको जिला अस्पतालों तक में मिल जाएंगे. इसमें बस हार्डवेयर में एक बार निवेश की लागत आती है.’’
एआइ ने इमेजिंग डाइग्नॉस्टिक्स पर इतना साफ असर डाला है कि कुछ मशीनें रिपोर्ट डाले जाने के कुछ ही मिनट के भीतर ईसीजी के नतीजों की व्याख्या और विश्लेषण कर सकती हैं. मसलन, बेंगलूरू स्थित कंपनी ट्राइकॉग के पास इंस्टाईसीजी नाम की एक मशीन है जो 10 मिनट के भीतर ईसीजी की रिपोर्ट का विश्लेषण कर देती है, जबकि एक अन्य मशीन इंस्टाईको ईसीजी के जरिए डाइग्नॉसिस में डॉक्टरों की मदद करके यह पक्का करती है कि कहीं कोई चूक न रह जाए. दिल की गंभीर बीमारियों से ग्रस्त मरीजों को संभालने और डाइग्नॉसिस में मदद के लिए 5,000 से ज्यादा कैथेटराइजेशन लैब, अस्पताल, क्लिनिक और डाइग्नॉस्टिक सेंटर इनका इस्तेमाल कर रहे हैं. ट्राइकॉग अब ग्लोबल बायोफार्मा फर्म एस्ट्राजेनेका के साथ मिलकर प्रोजेक्ट हार्टबीट पर काम कर रहा है. यह ऐसा औजार है जो ईसीजी की व्याख्या कर सकता और मरीजों को सबसे नजदीकी कैथ लैब का रास्ता दिखा सकता है.
एआइ का सबसे अहम योगदान जेनेटिक जानकारी को प्रोसेस करने में रहा है, खासकर दिल की बीमारी, मेटोबॉलिक विकारों और कैंसर के मामले में, जिनमें मशीनों को कुछ निश्चित जेनेटिक खतरे के निशानों को पहचानने के लिए प्रशिक्षित किया गया है. दिल्ली और मोहाली स्थित डीएनए फॉरेंसिक लैबोरेटरी करीब 14,000 रुपए में ऐसे अलग-अलग टेस्ट की पेशकश करती है. ये टेस्ट बीमारियों से सामान्य रूप से जुड़े बदलावों की जांच करके उच्च रक्तचाप, ऑटोइम्यून बीमारियों, त्वचा के रोगों, आंख की तकलीफों, नींद के विकारों और यहां तक कि थ्रोम्बोसिस के जोखिम का पूर्वानुमान लगा सकते हैं.
मेडजीनोम भारत में 1,300 से ज्यादा किस्म के जेनेटिक टेस्ट की पेशकश करती है. मेडजीनोम में बायोइन्फॉर्मेटिक्स डिपार्टमेंट के जीनोमिक, मेडिसिन और पर्सनल जीनोमिक्स डिविजन के एसोसिएट डायरेक्टर डॉ. रमेश मेनन कहते हैं, ''टेक्नोलॉजी की बदौलत हम बड़ी तादाद में रिपोर्ट प्रोसेस करके मौजूद जेनेटिक जानकारी के और भी व्यापक डेटाबेस के साथ उनकी तुलना कर पा रहे हैं..’’ दिल्ली के साकेत स्थित मैक्स अस्पताल में रेडियोलॉजी सेवाओं के प्रिंसिपल डायरेक्टर डॉ. भरत अग्रवाल कहते हैं, ''कुछ निश्चित जीन की मौजूदगी का मतलब है आपको कुछ निश्चित बीमारियां होने की कहीं ज्यादा संभावना है. पक्का तो नहीं पर जोखिम है. फिर आप ज्यादा जांच के लिए आते हैं, ताकि बीमारी का यथासंभव जल्द से जल्द पता लगा सकें और उसकी शुरुआत और गंभीरता को टालने के लिए जीवनशैली में बदलाव कर सकें. इससे आपकी जिंदगी लंबी होती है और गुणवत्ता बढ़ती है.’’
प्रीडिक्टिव हेल्थकेयर के खतरे
कुछ चेतावनियां वाजिब हैं. अमेरिकी बायोटेक आंत्रप्रेन्योर और थेरोनास की संस्थापक और चीफ एग्जीक्यूटिव एलिजाबेथ होम्स की गाथाएं चेतावनियों से भरा ताजातरीन किस्सा हैं. अपनी ब्लड टेस्टिंग टेक्नोलॉजी में बीमारी के प्रकट होने से पहले उसके पूर्वानुमान की यह दूरदृष्टि ही उन्होंने निवेशकों को बेची. मगर पता चला कि यह उतनी क्रांतिकारी नहीं थी जितना बनाकर उन्होंने इसे पेश किया था. इसी तरह कैंसर की पहचान और इलाज में गेमचेंजर बताकर आइबीएम के जिस वॉटसन सुपर कंप्यूटर की जय-जयकार की जाती थी, वह अब असुरक्षित सिफारिशें करने के लिए जांच के दायरे में है.
डॉ. दस्तीदार कहते हैं, ''ऐपल वॉच की ईसीजी ऐप्लिकेशन को मिली एफडीए की मंजूरी में महज करीब 600 लोगों के परीक्षण का सत्यापन डेटा शामिल था. ड्रग, वैक्सीन या पारंपरिक डाइग्नॉस्टिक डिवाइस सरीखी ऐसी ऐप्लिकेशन के लिए बड़े पैमाने पर की गई क्लिनिकल स्टडी की जरूरत होती है.’’ एआइ संचालित मशीन लंबे वक्त के जोखिमों की भविष्यवाणी कर सके, इसके लिए उसे लंबे वक्त के डेटा की जरूरत होती है, जो आसानी से नहीं मिलता. हालांकि डॉ.दस्तीदार को उम्मीद है और वे मानते हैं कि एआइ की बीमारियों के पूर्वानुमान की क्षमताओं के बारे में जागरूकता बढ़ने के साथ ऐसा डेटा इफरात में उपलब्ध होगा. वे कहते हैं, ''डाइग्नॉस्टिक्स के लिए एआइ विकसित करना ऐसा प्रयास है जिसमें कई सारे क्षेत्रों के कई सारे लोगों को मिलकर करना होता है. इसमें इंजीनियरों, डॉक्टरों और चिकित्सा संस्थानों की बराबर भागीदारी की जरूरत है.’’ फिर जिस व्यक्ति की जांच की जा रही है, उसके डाइग्नॉस्टिक डेटा की गुणवत्ता का मसला भी है. पूर्वानुमान लगाने के लिए सभी एनालिटिक्स अंतत: ब्लड मार्कर, बॉडी स्कैन और जेनेटिक मार्कर पर निर्भर होते हैं. अगर ये अच्छी क्वालिटी के नहीं हैं तो पूर्वानुमान भरोसे लायक नहीं होगा. फाल्स नेगेटिव यानी जांच के नेगेटिव नतीजे का खतरा भी है.
डेटा की पाइरेसी या चोरी एक और अड़चन है. कई एआइ कंपनियों को बड़ी मात्रा में मरीजों का डेटा सुलभ है. विशेषज्ञों की राय में यह बेहद जरूरी है कि वे किसी भी किस्म का रिसाव रोकने के लिए सख्त सुरक्षा लागू करें. एआइ को क्या करना, क्या नहीं करना चाहिए, या डेटा का इस्तेमाल कैसे करना और नहीं करना चाहिए, इसकी साज-संभाल के कोई सक्चत मानदंड भी अभी नहीं हैं.
आगे का रास्ता
ज्यादातर डॉक्टर आगाह करते हैं कि सेहत के भविष्य सूचक औजार केवल जोखिम का विश्लेषण मुहैया करते हैं, भविष्य में किसी बीमारी के नहीं होने की गारंटी नहीं देते. जब वे जोखिम के बारे में पक्का बता देते हैं, उन्हें कम करने के कदम उठाए जा सकते हैं. मसलन, धूम्रपान करने वाले शख्स को फेफड़ों का कैंसर विकसित होने का खतरा है, तो वह तंबाकू छोड़ने का विकल्प चुन सकता है. इससे बीमारी का जोखिम भले पूरी तरह खत्म न हो पर इसकी संभावित शुरुआत 10-15 साल निश्चित रूप से टाली जा सकती है. इसी तरह कैंसर के अत्यधिक जोखिम से घिरा शख्स शुरुआती अवस्था में ही पता लगाने के लिए बार-बार जांच को जा सकता है, बजाय इसके कि बीमारी बढ़ने के बाद जाए.
कुछ डॉक्टरी सलाह जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों को पूरी तरह उलट सकती है. मसलन, फैमिलियल हाइपरलिपिडीमिया में कोलेस्टरॉल हमेशा असामान्य रूप से बढ़ा हुआ होता है, जिसका पता जेनेटिक टेस्ट से लगाया जा सकता है. अगर उस व्यक्ति को समय रहते स्टैटिन पर रखा जाता है, तो उसे दिल का दौरा पड़ने से बचाया जा सकता है. बेंगलूरू में बनेरघट्टा रोड स्थित फोर्टिस अस्पताल में आंतरिक चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. शालिनी जोशी कहती हैं, ''कुछ मामलों में अगर कोई व्यक्ति अधिकतम अनुशासन और जीवनशैली के सक्चत नियमों से बंधकर रहता है, तो वह डॉक्टरी मदद के बिना ही बीमारी से पूरी तरह बच सकता है. मगर यह विरले ही होता है.’’ इसीलिए स्वास्थ्य सेवा में प्रीडिक्टिव एनालिटिक्स का असल जोर व्यक्ति को समय रहते सुधार की राह पर लाने पर होता है, ताकि अगर बीमारी को नहीं भी तो कम से कम इलाज से पैदा हो सकने वाली जटिलताओं और घातक नुक्सान को रोका जा सके.
कुछ डॉक्टरों के मुताबिक, खतरे का जल्द पूर्वानुमान लगाकर इलाज और दवा की जरूरत से पूरी तरह बचा जा सकता है. एम्स दिल्ली के पूर्व डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया, जो अभी मेदांता में इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनल मेडिसिन ऐंड रेस्पिरेटरी ऐंड स्लीप मेडिसिन के चेयरमैन हैं, कहते हैं, ''विडंबना यह है कि कुछ मरीज दरअसल दवाइयां लेना पसंद करते हैं क्योंकि यह शॉर्टकट समाधान है. आप अपनी सेहत का बहुत कम ध्यान रखे बिना जिस तरह जी रहे हैं, उसी तरह जिंदगी जीते रह सकते हैं.’’ वे यह भी कहते हैं, ''मगर मैं नहीं समझता कि यह सही कदम है. सभी दवाओं के साइड इफेक्ट होते हैं. ऐसे में सबसे अच्छा यही है कि सुधार के शुरुआती उपायों पर विचार किया जाए जो अव्वल तो बिना दवाई वाले हैं और जीवनशैली से ज्यादा जुड़े हैं.’’
जीवनशैली से जुड़े इन बदलावों में आहार की पाबंदियां, योग, व्यायाम, ध्यान, स्वास्थ्य की नियमित जांच, डॉक्टर से सलाह लेते रहना वगैरह शामिल हो सकते हैं. इसलिए अगर आपको डायबिटीज का अत्यधिक जोखिम है तो आप इन्सूलिन मत शुरू कर दीजिए, पहले अपना खान-पान बदलिए और कसरत करना शुरू कीजिए.
कोलकाता के मैनेजमेंट इंटर्न 21 वर्षीय सुदीप्त चौधरी ने यही करना शुरू किया है. जेनेटिक और रक्त परीक्षणों और रोग के पारिवारिक इतिहास से तस्दीक हुई कि उन्हें भविष्य में दिल के दौरे का पूरा अंदेशा था. यह बात चूंकि वे कम उम्र से ही जानते थे, डॉक्टर ने उन्हें स्टैटिन (अक्सर कोलेस्ट्रॉल कम करने के लिए दी जाने वाली दवाएं) या दिल की दवाओं से बचने की सलाह दी. इसके बजाय वे वसा कम करने के लिए आहार में सुधार ला रहे हैं और रोज कार्डियो कसरत शुरू कर दी है. उन्होंने शराब और सिगरेट भी बंद कर दी है. वे कहते हैं, ''मैं जानता था, अगर जारी रखता हूं तो पक्का जल्दी मर जाऊंगा, इसी बात से मैं छोड़ने के लिए प्रेरित हुआ. खतरे के बारे में जानने से मुझे मदद मिली.’’
डॉक्टरों का कहना है कि एक स्थिति का पूर्वानुमान दूसरी परेशानियों को रोकने में भी मदद कर सकता है. अपने रक्तचाप को इस तरह संभालकर कि वह लाइलाज न बने, दिल के दौरों और लकवों को रोका जा सकता है. दरअसल, मेदांता हॉस्पिटल का हाल का एक अध्ययन बताता है कि बचपन के मोटापे का नतीजा बालिग होने पर नींद में सांस रुकने और कई तरह के मेटाबॉलिक विकारों की शक्ल में सामने आ सकता है. डॉ. गुलेरिया कहते हैं, ''सबसे अच्छा तो यही है कि जितना जल्द हो सके अपनी सेहत के प्रति सजग रहें और उसमें निवेश करें.’’
बीमारियों की शुरुआत रोकने के लिए समय के ग्राफ पर पीछे तो नहीं लौटा जा सकता, पर प्रीडिक्टिव डाइग्नॉस्टिक्स और जोखिम के समझदार विश्लेषण से भविष्य का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. और इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, जरूरी कदम उठाए जा सकते हैं.