दोस्ती है जरूरी 

भारत-अमेरिका रिश्तों में लंबी छलांग के वादे और उससे जुड़ी मुश्किलें.

बड़े ध्यान से अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन में 22 जून को प्रधानमंत्री मोदी का संबोधन
बड़े ध्यान से अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन में 22 जून को प्रधानमंत्री मोदी का संबोधन

जून 2016 की 8 तारीख थी वह. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिकी कांग्रेस की संयुक्त बैठक को संबोधित करने खड़े हुए तो सभी ने खड़े होकर तालियों की गड़गड़ाहट से उनका अभिवादन किया. अमेरिका के उप-राष्ट्रपति जो बाइडन और सदन के स्पीकर पॉल रायन अध्यक्षता कर रहे थे.

अपनी जबरदस्त वाक्शैली का मुजाहिरा करते हुए मोदी ने कांग्रेस के सदस्यों से कहा कि दोनों देशों के बीच रिश्ते ''इतिहास की हिचकिचाहटों से उबर आए" हैं. उन्होंने अपना संबोधन वाल्ट व्हिटमैन की कविता टू थिंक ऑफ टाइम की इस पंक्ति के साथ खत्म किया, ''ऑर्केस्ट्रा ने अपने सुरों को ठीक से साध लिया है—छड़ी का इशारा हो गया है." फिर उन्होंने जोड़ा कि नया राग बज उठा है.

अब जून, 2023 की 22 तारीख पर आइए. 2016 में मोदी ने जिस राग का जिक्र किया था, वह पूरे विस्तार से बज रहा था. अपने प्रधानमंत्री काल के नौ साल पूरे कर चुके मोदी उस वक्त कहीं ज्यादा विश्वास से भरे नजर आए जब वे अमेरिकी कांग्रेस को दूसरी बार संबोधित कर रहे थे—यह सम्मान दुनिया के कम ही नेताओं को दिया गया है.

इसके एक दिन पहले ही बाइडन, जो अब राष्ट्रपति हैं, ने भारतीय प्रधानमंत्री के लिए लाल कालीन बिछवाया, यहां तक कि शिखर समागम को धूमधाम और तड़क-भड़क के साथ राजकीय यात्रा में तब्दील कर दिया. उनके सम्मान में एक निजी रात्रिभोज तो था ही. मोदी ने कांग्रेस के सदस्यों से मुस्कराते हुए कहा, ''पिछले कुछ साल में एआइ—आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में कई किस्म की प्रगति हुई है. उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण विकास एक और एआइ में हुआ है—(ए) अमेरिका और (आइ) भारत."

यह बात सच है. मोदी की देखरेख में बीते नौ साल में अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बनकर उभरा है और कुल व्यापार बीते पांच साल में दोगुने से ज्यादा बढ़कर 15.67 लाख करोड़ रु. (191 अरब डॉलर) हो गया. अमेरिका ने भारत को प्रमुख रक्षा साझीदार के रूप में उन्नत दर्जा दिया और उसे ढेर सारी सैन्य और दोहरे उपयोग वाली टेक्नोलॉजी तक लाइसेंस-मुक्त पहुंच सुलभ करवाई, जिसे पहले उसने इनकार कर दिया था.

अपनी ओर से भारत ने उन चारों बुनियादी समझौतों पर दस्तखत कर दिए जिनकी अमेरिका को अपनी संस्थाओं के हाइ-टेक हथियार बेचने के लिए जरूरत थी. इनमें लॉजिस्टिक सहायता, सुरक्षित संचार, भूस्थानिक गुप्तचर सहयोग, और यह पक्का करना शामिल है कि संवेदनशील सैन्य जानकारी लीक न हो.

अमेरिका ने 2008 से भारत को 1.64 लाख करोड़ रु. (20 अरब डॉलर) से ज्यादा के सैन्य उपकरण बेचे, जिनमें ज्यादातर पिछले दशक के करार हैं. इनमें लंबी दूरी के पी-81 समुद्री गश्ती विमान, सी-17 ग्लोबमास्टर और सी-130जे हेवी लिफ्ट परिवहन विमान, अपाचे तथा चिनूक हेलिकॉप्टर, हार्पून मिसाइलें, एम777 होवित्जर तोप और सिग साएर असॉल्ट राइफल शामिल हैं.

इस सबने एक ऐसी नींव तैयार की जहां से दोनों नेता 22 जून की अपनी शिखर बैठक में रिश्तों की लंबी छलांग लगा सके. उन्होंने 58 पैराग्राफ का जो साझा बयान जारी किया, उसमें उनके रणनीतिक संबंधों को 'समुद्र से आकाश तक' गहरा और व्यापक होता दिखाया गया. इसके दायरे में रक्षा, बेहद अहम और उभरती टेक्नोलॉजी, अंतरिक्ष में साझा उपक्रम, स्वास्थ्य और शिक्षा आते हैं.

अमेरिका पहली बार भारत के हल्के लड़ाकू विमान तेजस मार्क-2 के लिए जीई-414 जेट इंजन का भारत में साझा उत्पादन तथा टेक्नोलॉजी हस्तांतरण के लिए राजी हो गया. यह बढ़ते विश्वास का संकेत है. दोनों देशों ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर साझा अभियान के समझौते पर भी दस्तखत किए, जिससे भारत के अंतरिक्ष में इनसान को भेजने के कार्यक्रम में चार चांद लग जाएंगे.

एक अन्य बड़े घटनाक्रम में अमेरिका की बड़ी सेमीकंडक्टर बनाने वाली कंपनी माइक्रॉन सार्वजनिक-निजी भागीदारी में 22,560 करोड़ रु. (2.75 अरब डॉलर) की लागत से गुजरात में सेमीकंडक्टर असेंबलिंग और टेस्टिंग कारखाना लगाने को राजी हो गई. इसमें माइक्रॉन 6,770 करोड़ रु. (82.5 करोड़ डॉलर) निवेश करेगी और बाकी रकम केंद्र और राज्य सरकारें लगाएंगी.

ऐसे तंत्र भी स्थापित किए गए हैं जिनमें दोनों पक्ष एआइ, क्वांटम कंप्यूटिंग और यहां तक कि 6जी तथा ओपन रेडियो एक्सेस नेटवर्क (ओ-आरएएन) जैसे अत्याधुनिक टेलीकॉम नेटवर्क सरीखी भविष्य की प्रमुख टेक्नोलॉजी में साथ मिलकर काम करेंगे (देखें, क्या है बड़ा हासिल).

केंद्रीय संचार, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा सूचना-प्रौद्योगिकी और रेलवे मंत्री अश्विनी वैष्णव इंडिया टुडे को बताते हैं, ''अमेरिका अब भारत को टेक्नोलॉजी के लिहाज से समर्थ देश मानता है जो नई टेक्नोलॉजी के विकास में बराबर का भागीदार हो सकता है. " पूर्व विदेश सचिव और अमेरिका में भारत के राजदूत रह चुके हर्ष शृंगला कहते हैं, ''यह अहम है क्योंकि हम पहले के खरीदार-विक्रेता के रिश्ते से बढ़कर साझा मैन्युफैक्चरर और को-प्रोड्यूसर होने जा रहे हैं."

रिश्तों में यह लंबी छलांग कैसे

अमेरिका उच्च टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारत के साथ हाथ मिलाने की जो पेशकश कर रहा है, वह हालिया मेलजोल का सबसे बड़ा निष्कर्ष है. भारत और अमेरिका के रिश्ते हमेशा उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं, जिसमें चढ़ाव कम और उतार ज्यादा रहे. आजादी के बाद भारत ने गुटनिरपेक्षता के रास्ते पर चलने का फैसला किया और अमेरिका ने रिश्तों की शर्तों को उस नीति से परिभाषित किया जिसे दशकों बाद बुश सिद्धांत के जरिए बयान किया गया, ''आप हमारे साथ नहीं हैं, तो हमारे खिलाफ हैं." 1950 के दशक में पाकिस्तान और 1970 के दशक में चीन की तरफ अमेरिका के झुकाव के चलते भारत ने अमेरिका के बजाए सोवियत संघ के साथ ज्यादा करीबी रिश्तों की तरफदारी की.

भारत की एटमी महत्वाकांक्षा हमेशा अमेरिका के साथ किसी भी असरदार साझेदारी की राह का भारी-भरकम रोड़ा रही. 1974 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के पहले एटमी परीक्षण को मंजूरी क्या दी, अमेरिका ने भारत को अछूत देश बना दिया. मई, 1998 में भारत के दूसरे दौर के एटमी परीक्षणों के तुरंत बाद भारत-अमेरिका रिश्ते और भी गहरे गर्त में पहुंच गए जब नाराज अमेरिका ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की हुकूमत के दौरान सख्त आर्थिक पाबंदियां थोप दीं. 2008 में कहीं जाकर रिश्ते फिर पटरी पर आए, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने बेजोड़ अमेरिका-भारत असैन्य परमाणु समझौते पर दस्तखत किए. 

परमाणु समझौते की कामयाबी इस बात में थी कि भारत को परमाणु ईंधन और टेक्नोलॉजी बेचने पर लगी अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां हटा ली गईं. बदले में भारत परमाणु टेक्नोलॉजी के सैन्य इस्तेमाल को असैन्य इस्तेमाल से अलग रखने पर राजी हो गया. यह भारत के लिए बराबरी की जीत थी, क्योंकि इससे भारत को अपना परमाणु हथियार कार्यक्रम वस्तुत: जस का तस रखने की इजाजत मिल गई और साथ ही वह असैन्य परमाणु बिजली संयंत्र लगाने के लिए बेहद जरूरी परमाणु ईंधन और टेक्नोलॉजी भी खरीद सकता था. इसने भारत-अमेरिका रिश्तों की राह में आ रही भारी-भरकम अड़चनों को भी दूर कर दिया.

ओबामा ने भारत के साथ ज्यादा रक्षा सहयोग हासिल करने के लिए 2012 में हालांकि डिफेंस ट्रेड ऐंड टेक्नोलॉजी ट्रांसफर इनिशिएटिव (डीटीटीआइ) को जोरदार तरीके से आगे बढ़ाया, पर अमेरिकी कंपनियां मुख्यत: भरोसे की कमी और नौकरशाही की उलझनों के कारण सौदे करने से हिचकिचा रही थीं. मई 2014 में जब मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में कमान संभाली, तब इस तथ्य के बावजूद कि इस देश ने पिछले तकरीबन पूरे दशक मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें वीजा देने से इनकार किया था.

उनके मन में साफ था कि भारत के तेज आर्थिक विकास के लिए अमेरिका बेहद अहम और ''अपरिहार्य साझीदार" है, और उन्होंने रिश्तों को आगे बढ़ाने पर सख्ती से जोर दिया. ऐसा करते हुए भी मोदी दृढ़संकल्प थे कि भारत बहुत-से भिन्न-भिन्न गठबंधनों से जुड़ा रहेगा और बहु-ध्रुवीय दुनिया के लिए जी-जान से कोशिश करेगा. इसीलिए भारत ने 8.8 अरब डॉलर (72,200 करोड़ रु.) के सौदे में फ्रांस से दो स्क्वाड्रन या 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदे, तो अमेरिका के प्रचंड विरोध के बावजूद रूस से 5.4 अरब डॉलर (44,550 करोड़ रु.) में एस-400 ऐंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइलों की पांच रेजिमेंट भी खरीदीं.

मोदी के नेतृत्व में भारत ने केवल उन सौदों को छोड़कर जिनमें विदेशी खरीद हमारे राष्ट्रीय हितों के लिए बेहद जरूरी थी, किसी भी दूसरे रक्षा सौदे में मेक इन इंडिया पर इस कदर जोर दिया कि सह-उत्पादन और टेक्नोलॉजी का हस्तांतरण लोकप्रिय शब्दावली बन गए. आखिरकार यह जिम्मेदारी बाइडन पर ही आनी थी कि वे कथनी को करनी में बदलते हुए भारत को प्रमुख रक्षा भागीदारी बनाने के अमेरिकी वादे को पूरा करते.

अब हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के साथ जीई-एफ414 इंजन समझौते से भारत को अपने सैन्य मैन्युफैक्चरिंग कौशल को निखारने और कुछ हद तक आत्मनिर्भरता हासिल करने में मदद मिलेगी. जेट इंजन किसी भी लड़ाकू विमान के प्रोपलशन सिस्टम या प्रणोदन प्रणाली का मर्म होते हैं. आइआइटी दिल्ली के एक आयोजन में जेट इंजन सौदे के बारे में भारत में अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने कहा था, ''आप रणनीतिक दांव में ऐसा नहीं करते. आप रिश्ते या दोस्ती में ऐसा करते हैं. यह मौसम के मिजाज से बदलने वाली चीज नहीं है. यह पांच साल में बदलने नहीं जा रही है. इसका मतलब है हम अगले 25 से 50 साल दोस्त बने रहेंगे."

ऐसे इंजन का निर्माण बेहद जटिल प्रक्रिया है. इसमें महारत हासिल करने में भारत तीन से ज्यादा दशकों के अनुसंधान के बाद भी कामयाब नहीं हो पाया (देखें, भारत-अमेरिका रिश्तों का इंजन). मसलन, भारत के गैस टरबाइन रिसर्च एस्टैब्लिशमेंट ने तेजस के वास्ते स्वदेशी कावेरी इंजन के विकास के लिए वर्षों जद्दोजहद की, पर हाल तक यह प्रदर्शन की जरूरतों को पूरा करने में नाकाम रहा, जिससे भारत को अपने एलसीए मार्क-1 के लिए अमेरिका से जीई-एफ404 इंजन खरीदने को मजबूर होना पड़ा.

रक्षा सूत्रों का कहना है कि जीई अब एचएएल को 80 फीसद टेक्नोलॉजी हस्तांतरण पर राजी हो गया है. पूर्व रक्षा सचिव अजय कुमार बताते हैं कि आने वाले वक्त में भारत को क्या करना होगा. वे कहते हैं, ''पहले जीई करीब 50 फीसद टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की पेशकश कर रहा था. यह बढ़ोतरी अच्छी है. मगर इससे हमारे रक्षा अनुसंधान प्रतिष्ठान को इतनी मदद नहीं मिलने वाली कि वे खुद अपने दम पर बना सकें.

अब खाली जगहों को भरने की जिम्मेदारी हमारे रक्षा अनुसंधान प्रतिष्ठान या उद्योग की होगी." पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन इसमें इतना और जोड़ते हैं, ''हम स्मार्ट और तैयार हैं तो यह सौदा बड़ा मौका देता है. हमें मैन्युफैक्चरिंग और टेक्नोलॉजी की चाल को बढ़ाने और ऐसी चीजें करने की जरूरत है जो हमने पहले नहीं कीं."

अमेरिका को भारत की जरूरत क्यों

आखिर वे क्या वजहें है जिनके चलते अमेरिका इतना बढ़-चढ़कर भारत को रिझा रहा है? कार्नेगी एंडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के सीनियर फेलो एश्ले टेलिस एक शब्द में इसका जवाब देते हैं—चीन. वे कहते हैं कि बीजिंग ने बहुआयामी चुनौती पेश कर दी है. एक, आक्रामक चीन अमेरिका के सहयोगी देशों के लिए सैन्य खतरा पैदा कर सकता है, और इसकी वजह से उसे जापान से लेकर ताइवान तक और ऑस्ट्रेलिया से लेकर दक्षिण कोरिया तक अपने सहयोगी देशों की हिफाजत करने के लिए अपनी क्षमताओं में इजाफा करने की जरूरत है.

दो, वह प्रौद्योगिकीय खतरा जो चीन अपने बेहद तेज आर्थिक विस्तार की वजह से पैदा कर रहा है. वह वैश्विक अर्थव्यवस्था के उन तमाम उदीयमान क्षेत्रों में हावी होने का खतरा उत्पन्न कर रहा है, यहां तक कि उनमें भी जहां पारंपरिक तौर पर अमेरिका की बढ़त रही है. अमेरिका ने चीन को अपने बराबर आने से रोकने के लिए टेक्नोलॉजी से इनकार की रणनीति बनाई है. तीन, वैश्विक आपूर्ति शृंखला के केंद्र के रूप में चीन का उभार ऐसी चीज है जिसका मुकाबला कर पाना अमेरिका के लिए मुश्किल हो रहा है.

लिहाजा, जहां चीन दुनिया से कह रहा है कि निरंकुश अधिनायकवादी हुकूमत के भी फूलने-फलने की पर्याप्त जगह होनी चाहिए, अमेरिका का कहना है कि इससे उसके हितों को खतरा है क्योंकि वह विश्व व्यवस्था को उदार मूल्यों और लोकतंत्र से परिभाषित करना चाहता है. बीजिंग ने तमाम महाद्वीपों में बुनियादी ढांचे और ऊर्जा में निवेश के जरिए अपने प्रभाव क्षेत्र का तेजी से विस्तार किया है.

वह लगातार ज्यादा से ज्यादा लड़ाकू और आक्रामक होता जा रहा है और महाशक्ति देश का दर्जा हासिल करने की होड़ में है, जिससे अमेरिका की एकध्रुवीय हुकूमत के उलटने का खतरा पैदा हो गया है. बाइडन प्रशासन जानता है कि अमेरिका के लिए चीन सबसे बड़ी चुनौती बन गया है और उसने चीनी खतरे को कुंद करने की कोशिशें दोगुनी बढ़ा दी हैं.

इस तरह अमेरिका यह पक्का करना चाहता है कि चीन को संतुलित करने के लिए एक असरदार बिरादरी उसके पास हो. एशिया के सभी संभावित महाशक्ति देशों में भारत ही अकेला देश है (खुद चीन के अलावा) जो उसका औपचारिक सहयोगी नहीं है. यही कारण है कि बाइडन प्रशासन के लिए चीन के रणनीतिक संतुलन के रूप में नई दिल्ली के साथ रिश्ते बनाना और भी जरूरी हो गया है.

टेलिस कहते हैं, ''बाइडन का मुख्य उद्देश्य भारत को हिंद-प्रशांत और दुनिया से जुड़ी उनके प्रशासन की रणनीति में उसकी अहमियत का संकेत देना था. इसके जरिए, प्रतीकात्मकता के जरिए और साथ ही ठोस बातों के जरिए वे यही दिखाना चाहते थे. अकादमिक शब्दावली में इसे 'कॉस्टली सिग्नलिंग' कहा जाता है." अमेरिका, भारत की टेक्नोलॉजी और सैन्य क्षमताओं को मजबूत करने को उत्सुक है ताकि वह चीन और अपने दुश्मनों को नुक्सान पहुंचाने की जद से दूर रख सके.

जिस एक और वजह से अमेरिका भारत को अपने पाले में रखना चाहता है, वह है यूक्रेन पर रूस के हमले के प्रभाव और परिणाम. अमेरिका को यह देखकर मलाल और मायूसी हुई कि इस मुद्दे पर रूस को लेकर भारत ने अपना तटस्थ रुख बनाए रखा. भारत के सतर्क रुख के पीछे एक वजह यह है कि हथियारों के लिए वह रूस पर बहुत ज्यादा निर्भर है, आखिर उसके 60 फीसद से ज्यादा सैन्य उपकरण रूसी मूल के जो हैं.

टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण और उन संवेदनशील सैन्य उपकरणों के संयुक्त उत्पादन की पेशकश करके, जिन्हें वह अपने सबसे करीबी सहयोगी देशों को ही बेचता है, अमेरिका रूस पर भारत की निर्भरता को कम करने की उम्मीद कर रहा है. भारत अमेरिकी कंपनियों के लिए आकर्षक बाजार भी है, क्योंकि नई दिल्ली दुनिया के सबसे बड़े रक्षा खरीदारों में एक है.

तीसरे कारण का वास्ता कोविड के बाद के घटनाक्रम से है. महामारी ने वैश्विक व्यापार को तगड़ा झटका पहुंचाया और खासकर सेमीकंडक्टर और फार्मास्यूटिकल्स सरीखी बेहद अहम टेक्नोलॉजी की आपूर्ति के मामले में चीन पर दुनिया की अत्यधिक निर्भरता को उघाड़कर रख दिया. अमेरिका ने पहले तो अपने को चीन से पूरी तरह अलग करने पर विचार किया, पर फिर यह सोचकर इससे परहेज किया कि यह उसकी अपनी अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी हो सकता है.

लिहाजा, उसने अपनी परिसंपत्तियों को 'डी-रिस्क' या जोखिम मुक्त करने के उपाय शुरू किए. अमेरिका में पूर्व भारतीय राजदूत मीरा शंकर बताती हैं कि बाइडन प्रशासन ने खुद अमेरिका में बेहद अहम टेक्नोलॉजी के संयंत्र स्थापित करने के लिए प्रोत्साहन लाभ देने के अलावा 'फ्रेंड-शोरिंग' यानी आपूर्ति शृंखलाओं को कम जोखिम वाले मित्र देशों में ले जाने की रणनीति पर जोर दिया. भारत और वियतनाम इस श्रेणी में आते हैं. शंकर कहती हैं, ''अब जब अमेरिका हिंद-प्रशांत में शक्ति संतुलन को आकार देने पर विचार कर रहा है, उन्हें लगता है कि आर्थिक रूप से मजबूत भारत एशिया में लाभदायक संतुलन प्रदान करेगा, फिर भले वह सहयोगी देश न हो."

यूएस इंडिया स्ट्रैटजिक पार्टनरशिप फोरम के प्रेसिडेंट और सीईओ मुकेश अघी शंकर की बात से इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं, ''अमेरिकी कंपनियों और चीन के बीच संकट के बिंदु बदतर होते जा रहे हैं. इसका अच्छा उदाहरण यह है कि चीन माइक्रॉन की बिक्री पर पाबंदी लगा रहा है और साइबर सुरक्षा के उल्लंघन का आरोप लगाकर उसके दफ्तरों पर छापे मार रहा है. तो, बुनियादी तौर पर अमेरिकी बोर्डरूम चीन के विकल्पों की तलाश में हैं और भारतीय अवसरों का पता लगाने को बहुत उत्सुक हैं."

अघी एक चौथे कारण की तरफ भी इशारा करते हैं कि अमेरिका भारत को क्यों रिझा रहा है. हम जल्द ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होंगे, जो एक विशाल बाजार के मौके की पेशकश करता है. हम दो देशों के बीच 191 अरब डॉलर का व्यापार चीन के 750 अरब डॉलर (61.53 लाख करोड़ रुपए) के मुकाबले अब भी बहुत कम है. इसलिए जैसे-जैसे भारत की खर्च करने की शक्ति में इजाफा हो रहा है, अमेरिकी कंपनियां ताड़ रही हैं कि कारोबार के लिए इसका लाभ कैसे उठाया जाए.

दोतरफा व्यापार को बढ़ाने के लिए मोदी और बाइडन ने लंबे वक्त से चले आ रहे अपने उन सात विवादों में से, जिन्हें वे विश्व व्यापार संगठन में ले गए थे, छह को निबटाने का फैसला किया. यूएस इंडिया बिजनेस काउंसिल के प्रेसिडेंट अतुल केशप कहते हैं, ''सालाना 500 अरब डॉलर का लक्ष्य हासिल करने के लिए निवेश और व्यापार पर ऐसे दोतरफा समझौतों की जरूरत है जो आर्थिक साझीदारी की ताकत और मजबूती को बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र को बढ़-चढ़कर काम करने का और ज्यादा आत्मविश्वास दे सकें."

भारत को क्यों अमेरिका की जरूरत 

अमेरिका की भारत को, बकौल मीरा शंकर, 'रणनीतिक शह' देने की पर्याप्त वजहें हैं, तो कई अहम घटनाक्रमों ने मोदी को भी बाइडन के स्वागत के प्रति सहज कर दिया. चीन हमारे लिए उतना ही चिंता का विषय है, जितना अमेरिका के लिए. खासकर कोविड महामारी के प्रकोप के दौरान मई, 2020 में लद्दाख सेक्टर में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन ने घुसपैठ की हिंसक कोशिश की.

उस क्षेत्र में सैनिकों के बीच ऐसी हिसंक झड़प लगभग 50 वर्षों बाद हुई थी. फिर यूक्रेन पर रूस का हमला हुआ, जिससे ईंधन और खाद्य पदार्थों की कीमतें बेहिसाब बढ़ गईं और मॉस्को का झुकाव बीजिंग की ओर ज्यादा हो गया. तीसरा घटनाक्रम यह था कि महत्वपूर्ण उपकरणों और सामग्रियों के लिए चीन पर अत्यधिक निर्भरता से निजात पाने के लिए अमेरिका सहित प्रमुख देशों ने विकल्प की तलाश शुरू की, ताकि अपनी परिसंपत्तियों और निवेशों को जोखिम से बचाया जा सके. इसलिए चीन प्लस वन यानी एक और विकल्प तलाशने का नजरिया तैयार हुआ. भारत ने खुद को उस विकल्प के रूप में देखा. 

इस सब के साथ लंबे समय से मोदी की कोर टीम को इस बात का एहसास है कि सैन्य और तकनीकी कौशल के मामले में चीन और भारत के बीच खाई कितनी बड़ी हो गई है. चीन का महाशक्ति के रूप में उभरना भारत के हितों के लिए सीधा खतरा है और मोदी सरकार को सभी मोर्चों पर अपनी क्षमताओं का निर्माण करने के लिए तेजी से आगे बढ़ना होगा. इसलिए जेट इंजनों के लिए अमेरिका से तकनीकी हस्तांतरण पर जोर देने और चीन की सीमा से लगे आकाश और समुद्र की रक्षा के लिए परिष्कृत सशस्त्र ड्रोन खरीदने की होड़ मच गई है.

अमेरिका के साथ रक्षा मोर्चे पर बेहतर संबंधों का उद्देश्य चीन को सीमा पर आगे किसी दुस्साहस के खिलाफ मजबूत संकेत भेजना था. टेलिस कहते हैं, ''भारत जानता है कि अमेरिका से उसके रिश्ते जितने करीबी होंगे, चीन के खिलाफ उसकी ताकत उतनी ही अधिक होगी. यह हितों का तालमेल है जिसमें अमेरिका चीन को रोकना चाहता है और भारत भी रिश्ते को मजबूत गति दे रहा है."

रक्षा क्षमताओं में बढ़ती खाई के अलावा, भारत यह भी जानता है कि चीन महत्वपूर्ण और उभरती टेक्नोलॉजी में बहुत आगे है, और बिना बाहरी मदद के उसकी बराबरी कर पाना मुश्किल होगी. यही कारण है कि ऐसी महत्वपूर्ण टेक्नोलॉजी को संयुक्त रूप से विकसित करने के लिए अमेरिका के साथ समझौते इन भविष्य की टेक्नोलॉजी में आत्मनिर्भरता के मामले में भारत के हित में है.

केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना-प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री राजीव चंद्रशेखर ने इंडिया टुडे को बताया, ''अमेरिका अत्याधुनिक तकनीकों का प्रमुख स्रोत बना हुआ है और हालांकि कई देश चिंतित और नाराज हो सकते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि अमेरिका के साथ हमारी साझीदारी भारतीय टेक्नोलॉजी तंत्र के दायरे को मजबूत करती है, जो पहले से ही अच्छा प्रदर्शन कर रहा है, और उसे अपनी क्षमताओं को व्यापक और गहरा करने में सक्षम बनाती है.

दूसरे, भारत और अमेरिका भविष्य की इन सभी प्रौद्योगिकियों को विकसित करने में सहभागी होंगे." चंद्रशेखर का मानना है कि माइक्रॉन के साथ करार भारत के सेमीकंडक्टर मिशन के तहत भारतीय स्टार्ट-अप को बढ़ावा देने के साथ-साथ डिजाइन, उत्पादन, परीक्षण सहित चिप निर्माण के सभी पहलुओं तथा बिक्री में दक्षता हासिल करने में मददगार होगा. चंद्रशेखर कहते हैं, लक्ष्य न केवल भारत बल्कि दुनिया के लिए एक वैकल्पिक और विश्वसनीय सेमीकंडक्टर आपूर्तिकर्ता बनना है.

भारत-अमेरिकी रिश्तों के व्यापक होने का दूसरा बड़ा मामला यह है कि अगले साल अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के संयुक्त मिशन की खातिर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और नासा (राष्ट्रीय वैमानिकी और अंतरिक्ष प्रशासन) के बीच करार हुआ. इसके अलावा, भारत आर्टेमिस संधि का हस्ताक्षरकर्ता बन जाएगा, जो चंद्रमा पर इनसान को फिर भेजने के लिए अमेरिका के नेतृत्व वाले देशों के एक समूह का गठजोड़ है, क्योंकि 1972 में ऐसा करना बंद कर दिया गया था.

चीन आर्टेमिस संधि का हिस्सा नहीं है. लेकिन उसकी महत्वाकांक्षी योजना 2030 तक अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा पर भेजने की है. इसरो के लिए यह एक खास घटना है क्योंकि वह तकनीकी बाधाओं को दूर करने में जुटा हुआ है, जिससे इसके पहले मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम गगनयान में देरी हुई है. वह तीन अंतरिक्ष यात्री भेजने का इरादा रखता है.

इसरो के अध्यक्ष एस. सोमनाथ इन समझौतों में कई सकारात्मक बातें देखते हैं. एक, बकौल उनके, संगठन ने अपनी अंतरिक्ष नीति में संशोधन किया है, ताकि सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार टूटे और निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन मिले. अंतरिक्ष के लिए बहुत-सी महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियां अमेरिका में हैं और आर्टेमिस संधि से भारतीय निजी क्षेत्र को इन क्षमताओं को हासिल करने में अमेरिकी संस्थाओं के साथ सहयोग करने का अधिक अवसर मिलेगा.

सोमनाथ कहते हैं, ''पूरा उद्देश्य उन समस्याओं को दूर करना है जो ऐसे सहयोग में बाधा हैं. अमेरिका को भी नए उपकरणों और प्रौद्योगिकी के विकास के मामले में लाभ होगा, जिनका भारत गुणवत्ता के साथ कम लागत में निर्माण कर सकता है." अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों की यात्रा से इसरो को अपने मानव अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए मूल्यवान जानकारी मिलेगी, जिसके लिए भारत को भुगतान करना होगा. जैसा कि सोमनाथ कहते हैं, ''अभी, हमें केवल राकेश शर्मा (भारत के पहले और एकमात्र अंतरिक्ष यात्री) के अनुभव से मदद मिल रही है. अगर हम अधिक लोगों को प्रशिक्षित करते हैं, तो यह हमारे कार्यक्रम के लिए अच्छा होगा."

कुल मिलाकर, मोदी और बाइडन की आपसी पहल अगर 2024 में दोनों देशों में होने वाले आम चुनाव से पहले सफल हो जाती है, तो दोनों को राजनैतिक लाभ मिलने की उम्मीद है.

क्या हैं खतरें 

विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने प्रेस ब्रीफिंग में मोदी-बाइडन शिखर सम्मेलन को न केवल स्टाइल, बल्कि गहरे अर्थों में 'नई लकीर' बताया. टेलिस अधिक सतर्क रुख अपनाते हैं. टेलिस शिखर सम्मेलन को कुल मिलाकर 'वाकई समग्र सफल' बताते हैं, लेकिन कहते हैं कि 58-पैरा के संयुक्त बयान को सावधानीपूर्वक पढ़ें, तो प्रतिबद्धताएं अनेक हैं जबकि वास्तविक नतीजे थोड़े हैं. उन्होंने कहा, ''आपको यह जानना होगा कि अभी तो प्रक्रिया शुरू है, इनके नतीजे अभी नहीं देखे गए हैं."

मीरा शंकर का भी मानना है कि परिणाम अगर वाकई सकारात्मक चाहिए तो जरूरी है कि भारत तेजी से फ्रेकवर्क तैयार करे और उसे अगले स्तर पर ले जाए. शंकर कहती हैं, ''दोनों देशों को उम्मीदों और सीमाओं दोनों पर खुलकर चर्चा करनी चाहिए. मसलन, अगर ताइवान में युद्ध होता है तो क्या भारत अमेरिका के साथ मिलकर लड़ेगा?

चीन के साथ हमारी सीमा अपरिभाषित है और हम निश्चित रूप से उसके साथ युद्ध में नहीं भिड़ना नहीं चाहेंगे."  टेलिस सहमत हैं. वे कहते हैं, ''आप सही कारणों से सही काम करते हैं, गलत कारणों से सही काम नहीं. गलत वजह यह है कि भारत से आप युद्ध में साथ देने की उम्मीद करें, जो भारत नहीं करेगा. लेकिन आपको यह निर्णय लेना होगा कि भारत ऐसा नहीं करता है, तो भी उसकी अहमियत है. मुझे लगता है कि बाइडन प्रशासन यही कह रहा है."

दूसरी चिंता यह है कि अगर चीन धीमा पड़ने लगे और अमेरिका के लिए चिंता का सबब न रह जाए तो भारत-अमेरिका संबंधों का क्या होगा. पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन कहते हैं, ''वास्तविक खतरा यह है कि अगर चीन और अमेरिका के बीच कोई फौरी समझ बन जाती है, जैसा कि अतीत में हुआ है, वे एक-दूसरे के महत्वपूर्ण हितों का सम्मान करने पर राजी हो जाते हैं तो क्या होगा. एशिया में चीन के महत्वपूर्ण हितों का ख्याल रखा गया, तो भारत को नुक्सान होना लाजिमी है. हम चाहें या नहीं, हमें नुक्सान भुगतना होगा."

यकीनन, चीन के खिलाफ सुरक्षा कवच के रूप में भारत की क्षमता के बारे में बहुत सारे संदेह और शक-सुबहे हैं, जिसकी अमेरिका उम्मीद कर रहा होगा. हार्वर्ड के केनेडी स्कूल में गवर्नमेंट के प्रोफेसर ग्राहम एलिसन ने अमेरिकी पत्रिका फॉरेन पॉलिसी में एक लेख में असुविधाजनक सच्चाइयों की ओर इशारा किया है, जिन पर ''तेजी से उभरते भारत के अफसाने को गहराई से जानने से पहले" विचार करने की जरूरत है. 2006 में जानकारों के उस दावे पर गौर करना चाहिए कि भारत ''दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाला मुक्त बाजार लोकतंत्र" होगा, जो जल्द ही चीन से आगे निकल जाएगा.

तथ्य यह है कि चीन की 177 खरब डॉलर (1,452 लाख करोड़ रु.) की जीडीपी भारत की 32 खरब डॉलर (262 लाख करोड़ रु.) जीडीपी से पांच गुना ज्यादा है, और इन वर्षों में अंतर बढ़ गया है. एलिसन ने आर्थिक विकास को गति देने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकसित करने की दौड़ में भारत के पिछड़ने की ओर भी इशारा किया है. कुछ तुलनाएं ही पर्याप्त होनी चाहिए. चीन में भारत की तुलना में लगभग दोगुने एसटीईएम स्नातक हैं. चीन दुनिया का आधे से अधिक 5जी इन्फ्रास्ट्रक्चर पैदा करता है, जबकि भारत सिर्फ एक फीसद. दुनिया के 65 फीसद एआइ पेटेंट चीन के पास हैं, भारत के पास तीन फीसद. पेंटागन के चिन्ह के इशारे से एलिसन की चेतावनी है—उम्मीद रखना कोई योजना नहीं होती है.

ये भी चिंताएं हैं कि अमेरिका की उच्च टेक्नोलॉजी को साधने की भारतीय उद्योग में क्षमता है भी या नहीं. मसलन, जेट इंजनों के लिए जीई-एचएएल करार में, बकौल मेनन, ''एचएएल के पास राफेल और एलसीए दोनों के लिए बैंडविड्थ की कमी है." उनकी सलाह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की एयरोनॉटिक्स दिग्गज को बेहतर कामकाज के लिए अलग-अलग संस्थाओं में बांटा जाए या उसे निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाए. पूर्व रक्षा सचिव कुमार सहमत हैं कि जेट इंजन साझीदारी निजी क्षेत्र के पास जानी चाहिए थी क्योंकि वहां किफायती लागत में नतीजे आएंगे. वे कहते हैं, ''आम तौर पर, टेक्नोलॉजी हस्तांतरण होता है तो मेक इन इंडिया के परिणामस्वरूप हमेशा लागत काफी बढ़ जाती है."

राजीव चंद्रशेखर आशावादी लेकिन सतर्क हैं. उनका कहना है कि टेक्नोलॉजी संभावनाएं अनेक हैं, लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि नाकामी का जोखिम भी भारी है. यह टेक्नोलॉजी गुणसूत्रों में रचा-बसा है, जहां उलटफेर सामान्य बात है. वे कहते हैं, ''भारत को इस रास्ते पर बढ़ने को तैयार होना होगा. प्रतिस्पर्धी होनी चाहिए और एकदम ऊंचे स्तर की होनी चाहिए, साफ नजरिया रखना चाहिए और आगे बढ़ते रहना चाहिए क्योंकि एकदम नई दुनिया है जिसमें हम अगले दशक में कदम रखेंगे. हमारे देश में प्रतिभाशाली युवा हैं, इसलिए यह कभी भी एक रणनीति, एक उत्पाद या एक समाधान के बारे में नहीं होगा. सैकड़ों और हजारों दिमागों को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखना होगा."

कई आलोचकों को यह भी डर है कि भारत-अमेरिका संबंधों की विषम प्रकृति और उसके जुड़ाव की व्यापकता और गहराई के मद्देनजर खतरा यह है कि भारत पिछलग्गू देश न बन जाए, क्योंकि भारत ने कभी किसी अन्य देश के साथ ऐसा करार नहीं किया है. दूसरे लोग इस तरह की आलोचना को खारिज करते हैं और कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम अपने राजनैतिक पोर्टफोलियो में चतुराई से कई पत्ते समेटे रहती है और अमेरिका तो महज एक पत्ता है. भारत एक बहुध्रुवीय दुनिया चाहता है, उसमें अपने लिए एक जगह चाहता है और वहां तेजी से पहुंचने के लिए ही अमेरिका की ओर झुक रहा है. यही उम्मीद और योजना है.

मोदी अमेरिका को भारत की तेज आर्थिक बढ़ोतरी के लिए खास समझते हैं और रिश्तों की मजबूती के लिए काफी प्रयास भी किया है. लेकिन वे इस बारे में भी एकदम स्पष्ट हैं कि भारत का रवैया बहु ध्रुवीय बना रहेगा

केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव कहते हैं, ''पहले के विपरीत अमेरिका अब भारत को टेक्नोलॉजी समर्थ देश मानता है, जो नई टेक्नोलॉजी के विकास में बराबर का भागीदार बन सकता है"

यूक्रेन पर रूस के हमले के मामले में भारत के निष्पक्ष रुख से अमेरिका मायूस हुआ. टेक्नोलॉजी हस्तांतरण के जरिए वह रूसी हथियारों पर भारत की निर्भरता घटाने की उम्मीद करता है और अपने हथियार और उपकरण वगैरह बेचना चाहता है

मोदी की कोर टीम को यह गहरा एहसास हुआ कि भारत और चीन की टेक्नोलॉजी और सैन्य ताकत के बीच भारी गहरी खाई है और उस खाई को पाटने के लिए अमेरिकी मदद की बेहद जरूरत है

भारत-अमेरिकी रिश्ते की विषमता के मद्देनजर, कई आलोचकों को आशंका है कि भारत कहीं पिछलग्गू देश बनकर न रह जाए और किसी अमेरिका-चीन सुलह की स्थिति में खाली हाथ न छोड़ दिया जाए.

भारत-अमेरिका रिश्तों का इंजन

जीई और एचएएल के बीच एलसीए तेजस मार्क-2 के लिए अत्याधुनिक एफ414 जेट इंजन की भारत में साझा मैन्युफैक्चरिंग और 80 फीसद टेक्नोलॉजी हस्तांतरण का करार भारत-अमेरिका रणनीतिक रिश्तों में अप्रत्याशित मोड़

लड़ाकू जेट इंजन की टेक्नोलॉजी काफी पेचीदा होती है और उसे बनाना बेइंतहा मुश्किल होता है. व्यावसायिक विमानों के जेट इंजन भी बनाना भी काफी मुश्किल होता है, लेकिन व्यावसायिक विमानों के उलट लड़ाकू जेट विमानों को बहुत से अलग काम करने होते हैं, जैसे; आवाज की रफ्तार से कई गुना ज्यादा तेज उड़ना होता है और अचानक रफ्तार बढ़ानी-घटानी पड़ती है, उच्च तापमान और दबाव झेलना पड़ता है जिसका साबका 50,000 फुट से ऊपर की ऊंचाई पर उड़ान भरने से पड़ता है. मतलब यह है कि लड़ाकू इंजनों को अति क्षमतावान, ताकतवर और भरोसेमंद बनाने की दरकार है, जिसमें भारत तीन दशकों के अनुसंधान और विकास के बावजूद स्वदेशी तौर पर बनाने में अब तक सक्षम नहीं हो पाया है.

इसी वजह से जनरल इलेक्ट्रिक (जीई) एयरोस्पेस और हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के बीच एमओयू पर दस्तखत बहुत बड़ी घटना है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया राजकीय अमेरिकी दौरे का एक प्रमुख कूटनीतिक नतीजा है. इस करार में भारत में लाइसेंस के तहत एचएएल को स्वदेशी हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) तेजस मार्क-2 के लिए जीई के अत्याधुनिक एफ414 इंजनों की मैन्युफैक्चरिंग करनी है.

इसके नतीजतन 80 फीसद टेक्नोलॉजी का हस्तांतरण वाकई बड़ा मोड़ है, क्योंकि 2012 से जेट इंजन मैन्युफैक्चरिंग के लिए टेक्नोलॉजी हस्तांतरण की जीई से बातचीत चल रही थी. कंपनी 58 फीसद टेक्नोलॉजी हस्तांतरण पर ही अड़ी थी. एमके2 के लिए भारत विशिष्ट इंजन का नाम एफ414-आइएनएस6 नाम दिया गया है.

भारत पहले ही एफ414 के पूर्व संस्करण जीई-एफ404 इंजन खरीद रहा है, जो भारतीय वायु सेना में सेवारत एचएएल निर्मित तेजस एमके1 और 1ए को संचालित करते हैं. उन्हें ऑफ द शेल्फ शर्त पर खरीदा गया, जिसमें टेक्नोलॉजी हस्तांतरण की शर्त नहीं है. इसलिए एक दशक में शून्य से 80 फीसद टेक्नोलॉजी हस्तांतरण तक पहुंचना वाकई जेट रफ्तार ही मानी जाएगी.

तेजस जेट विमानों से उम्मीद है कि ये वायु सेना के 16 लड़ाकू जेट स्क्वाड्रनों की जगह ले लेंगे, जिसमें मिराज 2000 के तीन स्क्वाड्रन, मिग 29 के पांच स्क्वाड्रन, छह जगुआर स्क्वाड्रन और शेष दो मिग 21 बाइसन स्क्वाड्रन शामिल हैं. भारत में जीई एफ414 के सह-उत्पादन में 99 इंजनों की लागत 1 अरब डॉलर से कम होने की उम्मीद है. हालांकि, इस करार के लिए अमेरिकी कांग्रेस की अहम मंजूरी और औपचारिक मूल्य मंजूरी का इंतजार है.

भारतीय नीति-निर्माताओं को पूरी उम्मीद है कि साल के अंत तक करार पर अंतिम हस्ताक्षर हो जाएंगे. एचएएल को पूरा भरोसा है कि वह अगले तीन वर्षों में पहला जेट इंजन मुहैया करा पाएगा. इस करार को अंतिम रूप तब दिया गया, जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जून की शुरुआत में नई दिल्ली में अपने समकक्ष अमेरिकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन के साथ चर्चा की थी.

जेट इंजन बनाने में जटिल इंजीनियरिंग शामिल होती है, और जीई-एचएएल एम414 सौदे का बेहद अहम बात यह है कि फिलहाल सिर्फ अमेरिका, फ्रांस और रूस के पास ऐसे इंजनों को पूरी तरह से डिजाइन, विकसित और उत्पादन करने की तकनीक है, जो जिससे जेट विमान को संचालित किया जा सकता है. चीन ने अपने जेट इंजन प्रोजेक्ट पर 2 अरब डॉलर से अधिक खर्च किया है, लेकिन आज भी रूस से इंजन का आयात जारी है.

इस मामले में भारत की कोशिश दो बार असंतोषजनक साबित हुई, जिसमें एलसीए के लिए डीआरडीओ का जीटीएक्स-37 इंजन और उसके बाद स्वदेशी कावेरी इंजन. डीआरडीओ के गैस टर्बाइन रिसर्च एस्टेक्लिशमेंट (जीटीआरई) ने कावेरी इंजन के नौ प्रोटोटाइप विकसित किए गए थे, लेकिन वे लड़ाकू जेट के आवश्यक मापदंडों पर खरे नहीं उतरे, जिससे भारत के घरेलू लड़ाकू जेट कार्यक्रम में देरी हुई. आखिरकार, भारत के वैमानिकी विकास प्राधिकरण (एडीए) को जीई-404 इंजन का चयन करना पड़ा.

एफ414 इंजन के अनुरूप जीई ने संरक्षण, क्षरण और हॉट एंड के लिए थर्मल अवरोधक से बचने के लिए विशेष कोटिंग्स में इंजन प्रौद्योगिकी के पूर्ण हस्तांतरण की पेशकश की है, कम्बस्टर के लिए लेजर ड्रिलिंग तकनीक, शाफ्ट की बोतल बोरिंग, क्लिस्क मशीनिंग, पतली दीवार वाले टाइटेनियम आवरण की मशीनिंग और घर्षण/जड़त्व वेल्डिंग वगैरह सब कुछ. जब जीई ने 58 फीसद टेक्नोलॉजी हस्तांतरण की पेशकश की थी तो इनमें से कई टेक्नोलॉजी को रोक दिया गया था या आंशिक रूप से पेशकश की गई थी. 

रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों ने अलग पैमाने पर टेक्नोलॉजी हस्तांतरण को सैन्य टेक्नोलॉजी साझीदारी के मामले में अभूतपूर्व बताया. यह दर्शाता है कि जेट इंजन सौदा सिर्फ एक व्यापारिक लेनदेन नहीं है, बल्कि अपनी विशिष्टता में, सैन्य और रणनीतिक मामलों में अमेरिका-भारत के बीच गहरे होते रिश्तों की बुलंदी है.

अमेरिका स्थित स्टिमसन सेंटर साउथ एशिया प्रोग्राम के नॉन-रेसिडेंट फेलो फ्रैंक ओ' डोनेल का कहना है कि यह करार बतौर सैन्य महाशक्ति भारत के उदय का समर्थन करने में अमेरिकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है. उन्होंने कहा, ''अगर भारत अपने रक्षा उद्योग को विकसित करने के लिए इन अवसरों का लाभ उठाता है, तो यह रणनीतिक मुद्दों पर अमेरिका-भारत के लेनदेन से चीन के खतरे पर अंकुश लगा देगा." 

चीन ने अपने जेट इंजन प्रोजेक्ट पर 2 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च किया, मगर आज भी रूस से इंजन खरीदता है. इस मद में भारत की कोशिशें भी कमतर साबित हुईं.

-प्रदीप आर. सागर

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