इतिहास का संपादन
स्कूली पाठ्यक्रम को युक्तिसंगत बनाने के नाम पर भारतीय इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों से महत्वपूर्ण संदर्भों की चुनिंदा काट-छांट से एक बार फिर शिक्षा के राजनीतिकरण की आशंकाएं जोर पकड़ीं.

आवरण कथा : एनसीईआरटी
अतीत के बारे में लिखने पर विंस्टन एस. चर्चिल ने एक बार तंज किया था, ''इतिहास मेरे प्रति दयालु होगा, क्योंकि मेरा इरादा इसे लिखने का है.’’ ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री ने जो बात मजाक में कही थी, वह गद्दीनशीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ओर पूरी संजीदगी से फेंकी जा रही है. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की तरफ से इस महीने की शुरुआत में छात्रों के लिए जारी मिडिल और हाइस्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में संशोधनों को लेकर जबरदस्त विवाद खड़ा हो गया है.
इन बदलावों और खासकर हाल के इतिहास में किए गए बदलावों को लेकर भारी आरोप लगे हैं. आलोचकों ने नरेंद्र मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि वह भगवा निजाम के लिए असहज घटनाओं पर लीपापोती करने के लिए पाठ्यक्रम तय करने वाली देश की प्रमुख संस्था का इस्तेमाल कर रही है.
एनसीईआरटी ने यह कहकर बचाव किया कि हटाए गए हिस्सों को पिछले जून में सार्वजनिक किया गया था और वे छात्रों पर पाठ्यक्रम का बोझ हल्का करने और उन्हें कोविड-19 महामारी से पढ़ाई में उत्पन्न व्यवधानों से 'तेजी से उबरने’ में मदद करने के लिए ''युक्तिसंगत बनाने की प्रक्रिया’’ का हिस्सा हैं. उसने यह भी कहा कि ये बदलाव राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 में तय उन चीजों के अनुरूप हैं जिनमें विषय सामग्री कम करने के लिए कहा गया है. नतीजतन, एनसीईआरटी ने बीते पांच साल में तमाम विषयों के पाठ्यक्रम का 30 फीसद हिस्सा काट-छांट दिया है.
बदलावों को लेकर पिछले साल भी विशेषज्ञों के बीच हंगामा मचा था. उन्होंने खासकर इतिहास और राजनीति विज्ञान की पाठ्य-पुस्तकों से अहम हिस्सों को हटाए जाने का हवाला दिया था, जिनमें मुगलों पर एक पूरा अध्याय, वर्ण व्यवस्था के तहत जाति-आधारित असमानता के उल्लेख, दलित आंदोलन और उनके संघर्ष, हस्तक्षेप और कविताएं, राजकाज का नेहरू युग, इमरजेंसी, 2002 के गुजरात दंगे और नक्सलवादी आंदोलन शामिल थे.
आलोचकों ने इसे भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार के हाथों इतिहास के 'भगवाकरण’ की एक और कोशिश कहकर तीखी आलोचना की थी. उस विवाद की लपटों को एक बार फिर हवा दी गई जब 2023-24 के अकादमिक साल के लिए हटाए गए हिस्सों वाली नई पाठ्य-पुस्तकें स्कूली छात्रों तक पहुंचीं. विशेषज्ञों ने पाया कि कुछ और हिस्से हटा दिए गए हैं, ऐसे हिस्से जिनका पिछली जून में जारी ''युक्तिसंगत बनाई गई’’ विषय सामग्री की सूची में जिक्र नहीं था.
पूर्व जानकारी के बगैर हटाए गए ज्यादा विवादास्पद हिस्सों में हिंदू उग्रवादी धड़ों के हाथों महात्मा गांधी की हत्या की पूर्व कोशिशों, उनकी वास्तविक हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर प्रतिबंध और हत्यारे नाथूराम गोडसे की ब्राह्मण और हिंदू उग्रवादी पत्रिका का संपादक होने की पहचान के उल्लेख हैं.
कक्षा 12 के छात्रों के लिए राजनीति विज्ञान की पाठ्य-पुस्तक स्वतंत्रता के बाद भारत की राजनीति के पहले अध्याय में 'महात्मा गांधी की शहादत’ उपशीर्षक के तहत यह हिस्सा हटा दिया गया: ''उन्हें (गांधी जी को) ऐसे लोग खासकर नापंसद करते थे जो चाहते थे कि हिंदू बदला लें या जो चाहते थे कि भारत उसी तरह हिंदुओं का देश बने जिस तरह पाकिस्तान मुसलमानों का देश था.
उन्होंने गांधी जी पर मुसलमानों और पाकिस्तान के हित में काम का आरोप लगाया. गांधी सोचते थे कि ये गुमराह लोग हैं. उन्हें पक्का यकीन था कि भारत को केवल हिंदुओं का देश बनाने की कोई भी कोशिश भारत को बर्बाद कर देगी. हिंदू-मुस्लिम एकता की उनकी सतत खोज ने हिंदू उग्रवादियों को इस कदर उकसाया कि उन्होंने गांधी जी की हत्या के कई प्रयास किए.’’
एक और हटाया गया हिस्सा यह है: ''गांधी जी की हत्या का देश की सांप्रदायिक स्थिति पर तकरीबन जादुई असर पड़ा. बंटवारे से जुड़ा गुस्सा और हिंसा अचानक थम गई. भारत सरकार ने उन संगठनों पर कड़ी कार्रवाई शुरू कर दी जो सांप्रदायिक नफरत फैला रहे थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सरीखे संगठनों पर कुछ वक्त के लिए रोक लगा दी गई. सांप्रदायिक राजनीति अपना आकर्षण खोने लगी.’’
थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री पार्ट III शीर्षक कक्षा 12 की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में गोडसे और उसके हाथों गांधी की हत्या के जिक्र में बदलाव किए गए. पहले इसमें लिखा था: ''गांधी जी को एक नौजवान ने गोली दागकर मार डाला. हत्यारा, जिसने बाद में समर्पण कर दिया, नाथूराम गोडसे नामक पुणे का ब्राह्मण और एक उग्रवादी हिंदू अखबार का संपादक था, जिसने गांधी जी की मुसलमानों के तुष्टीकरण वाला बताकर भर्त्सना की थी.’’ अब लिखा है: ''30 जनवरी की शाम दैनिक प्रार्थना सभा में एक नौजवान ने गांधी जी को गोली मार दी. हत्यारा, जिसने बाद में आत्मसमर्पण कर दिया, नाथूराम गोडसे था.’’
एनसीईआरटी के डायरेक्टर प्रोफेसर दिनेश प्रसाद सकलाणी 'नए हटाए गए हिस्सों’ के जून की सूची में न होने की वजह संभावित 'भूल-चूक’ बताते हैं, वहीं अकादमिक जगत के लोग और विपक्षी राजनैतिक नेता यह कहकर इसकी भर्त्सना कर रहे हैं कि यह पार्टी और उसके वैचारिक स्रोत आरएसएस के अतीत से जुड़ी असुविधाजनक सच्चाइयों को हटाने की भाजपा सरकार की निर्लज्ज कोशिश है.
लेखक तथा महात्मा गांधी के पड़पोते तुषार गांधी कहते हैं, ''इतिहास को अपनी विचाराधारा के अनुकूल ब्योरों से बदलना संघ परिवार का एजेंडा रहा है. यह कतई हैरानी की बात नहीं कि एनसीईआरटी ने खास तौर पर वही उल्लेख हटाए, जिसमें संघ के बापू की हत्या में लिप्त रहने के संकेत हो सकता थे.’’
असुविधाजनक सच्चाइयां?
पिछले साल हटाया गया सबसे विवादास्पद हिस्सा कक्षा 12 की राजनीति विज्ञान की पाठ्य-पुस्तक के आखिरी अध्याय में था. 2002 के गुजरात दंगों से संबंधित दो पूरे पन्ने हटा दिए गए थे. पहले पन्ने पर हिंसा पर काबू पाने में नाकामी के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की तरफ से की गई गुजरात सरकार की आलोचना का जिक्र था. दूसरे पन्ने पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की 'राजधर्म’ वाली टिप्पणी थी.
वाजपेयी ने मार्च, 2002 में अहमदाबाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, जहां तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी उनके बगल में थे, कहा था, ''(गुजरात के) मुख्यमंत्री को मेरा संदेश है कि उन्हें 'राजधर्म’ का पालन करना चाहिए. शासक को जाति, नस्ल और धर्म के आधार पर अपनी प्रजा में कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए.’’ सरकार के बचाव में प्रो. मक्खन लाल कहते हैं, ''हिंदू-मुस्लिम दंगों का चुनिंदा ढंग से जिक्र किया गया. 1967-70 और 1985 के अहमदाबाद दंगों की बात क्यों न हो, जिनमें हजारों लोग मारे गए और छह माह या और ज्यादा वन्न्त चले थे?’’ (देखें साथ का कॉलम, इतिहास लेखन में चुनिंदा होना).
आलोचक यह भी आरोप लगाते हैं कि सत्तारूढ़ पार्टी मुस्लिम हुक्मरानों और खासकर मुगलों को बदनाम कर रही है और इस तरह छात्रों को उपमहाद्वीप के इतिहास के एक अहम दौर की जानकारी से वंचित कर रही है. तमाम कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में मुगलों और मुसलमानों से जुड़ी विषय सामग्री में काट-छांट की गई है.
कक्षा 12 की इतिहास की पाठ्यपुस्तक थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री पार्ट II से 'किंग्स ऐंड क्रोनिकल्स’: द 'मुगल कोर्ट्स’ (अध्याय 16वीं और 17वीं सदियां) (थीम 9) अध्याय हटा दिया गया. इस अध्याय में मुगल काल की अकबरनामा और पादशाहनामा सरीखी पांडुलिपियों और मुगल शासकों के दरबार के नियम-कायदों का जिक्र शामिल था.
कक्षा 7 की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक आवर पास्ट्स II में 'द मुगल एम्पायर’ शीर्षक अध्याय से दो पन्नों के एक चार्ट, जिसमें हुमायूं, शाहजहां, अकबर, जहांगीर और औरंगजेब सरीखे मुगल बादशाहों की उपलब्धियों के ब्योरे दिए गए थे, को हटा दिया गया. 'अकबर की नीतियों’ से संबंधित एक हिस्सा भी गायब हो गया है, जिसमें उनके प्रशासन, विभिन्न लोगों के धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाजों में उनकी दिलचस्पी और संस्कृत ग्रंथों के फारसी अनुवाद करवाने के लिए सौंपे गए उनके कामों की व्यापक खूबियां शामिल थीं.
इस तरह 'युक्तिसंगत बनाए गए’ अध्यायों में कक्षा 12 की राजनीति विज्ञान की पाठ्य-पुस्तक का 'लोकप्रिय आंदोलनों के उदय’ से संबंधित अध्याय भी है. इनमें आधुनिक वक्त के उत्तराखंड का चिपको आंदोलन, महाराष्ट्र के दलित पैंथर्स, आंध्र प्रदेश का शराब-विरोधी आंदोलन, 1980 के दशक के कृषि संघर्ष और नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) शामिल थे.
बचा रह गया है तो सूचना के अधिकार कानून का मार्ग प्रशस्त करने वाला आंदोलन, वह भी एक अलग बॉक्स में. कुछ कक्षाओं की समाजशास्त्र की पाठ्य-पुस्तक भारत में सामाजिक बदलाव और विकास से वह अभ्यास बॉक्स चला गया जिसमें छात्रों से कृषि कानूनों के खिलाफ हाल के किसान आंदोलन पर चर्चा करने के लिए कहा गया था.
सिर्फ कक्षा 12 की पाठ्य-पुस्तकें ही नहीं, निचली कक्षाओं की पाठ्य-पुस्तकों में भी फेरबदल किए गए हैं. मसलन, कक्षा 10 की पाठ्य-पुस्तक लोकतांत्रिक राजनीति II से तीन अध्याय—'लोकतंत्र और विविधता’, 'लोकतंत्र की चुनौतियां’ और 'जन संघर्ष और आंदोलन’—निकाल दिए गए हैं. पहला अध्याय दुनिया भर में नस्ल और जाति के आधार पर सामाजिक विभाजनों और असमानता की अवधारणा से छात्रों का परिचय करवाता है. दूसरा लोकतांत्रिक राजनीति में सुधार की बात करता है.
तीसरा दबाव समूहों और आंदोलनों—जिसमें एनबीए भी है—के माध्यम से राजनीति को प्रभावित करने के अप्रत्यक्ष तरीकों पर विचार करता है. एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार कहते हैं कि इस काट-छांट से कुछ बचे हुए विषय 'समझ से बाहर’ हो गए हैं. मसलन, वे कहते हैं, छात्र अब भारत के संघीय ढांचे की समझ के बगैर संविधान के बारे में जानेंगे. कक्षा 8 की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक आवर पास्ट्स III से 'स्वतंत्रता के बाद भारत’ अध्याय हटा दिया गया है, जो संविधान की रचना और भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के बारे में बताता है.
इतिहास और राजनीति विज्ञान के कई विशेषज्ञ जोर देकर कहते हैं कि पाठ्य-पुस्तकों की विषय सामग्री को युक्तिसंगत बनाने की भाजपा की कवायद और कुछ नहीं, बल्कि भारतीय समाज में मुसलमानों के योगदान को मिटाने और साथ ही हिंदुओं को महिमामंडित करने की गरज से तैयार की गई है.
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में समकालीन इतिहास के प्रोफेसर रहे आदित्य मुखर्जी कहते हैं कि युक्तिकरण की यह कवायद खालिस राजनैतिक कदम है और कोविड-19 से इसका कुछ लेना-देना नहीं है (देखें, इतिहास की राजनीति). जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर तथा मध्ययुगीन इतिहासकार हरबंस मुखिया मानते हैं कि यह हिंदुओं के मुसलमानों के खतरे से घिरे होने के नैरेटिव को पुख्ता करके हिंदू वोटों को गोलबंद करके 2024 का आम चुनाव जीतने की भाजपा की रणनीति का हिस्सा है.
रोमिला थापर, इरफान हबीब, कुमकुम रॉय और मृदुला मुखर्जी सरीखे कुछ अन्य इतिहासकार दावा करते हैं कि मुगलों और मुसलमानों से संबंधित हिस्सों को चुनिंदा ढंग से हटाने से सरकार की व्यापक सांप्रदायिक मंशा का खुलासा ही हुआ है, जो वैसे भी भारत के अतीत के बारे में गलत अनुमानों पर आधारित है. इन इतिहासकारों की तरफ से जारी एक बयान में कहा गया, ''मध्यकाल में भारतीय उपमहाद्वीप में मुगल और विजयनगर दो सबसे अहम साम्राज्य थे, जिन दोनों की चर्चा पिछली पाठ्य-पुस्तकों में की गई है.
बदले गए संस्करण में जहां मुगलों से संबंधित अध्याय हटा दिया गया है, विजयनगर साम्राज्य से जुड़ा अध्याय कायम रखा गया है.’’ इस काट-छांट पर गहरी चिंता जाहिर करते हुए भारतीय इतिहास कांग्रेस (आइएचसी) ने कहा कि 'विवेकसंगत वैज्ञानिक ज्ञान’ को महत्व देने वाले तमाम अध्येताओं के लिए यह तरीका दोषपूर्ण और अस्वीकार्य है. मुगलों से संबंधित अध्याय हटाए जाने की तरफ इशारा करते हुए आइएचसी ने कहा कि इतिहास के प्रति ऐसा संकीर्ण सांप्रदायिकतावादी नजरिया आधुनिक प्रगतिशील समाज के विचार का निषेध करता है.
एनसीईआरटी की दलील
एनसीईआरटी ने बड़ी फुर्ती से इन बदलावों के लिए किसी पक्षपात या राजनैतिक दबाव से सरासर इनकार किया. एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हृषिकेश सेनापति के तहत 2017 और 2019 में पाठ्यक्रमों में दो संशोधन किए गए. उनका दावा है कि किसी तरह का कोई राजनैतिक दबाव नहीं था. सेनापति कहते हैं, ''हमने शिक्षकों और छात्रों सहित सभी संबंधित पक्षों से सुझाव मांगे और पारदर्शी तथा लोकतांत्रिक तरीके से बदलाव शामिल किए गए.
बेशक, हमने मंत्री से भी सलाह किया, क्योंकि वे अध्यक्ष होते हैं.’’ खुद इतिहासकार एनसीईआरटी के निदेशक सकलाणी का कहना है कि इस मुद्दे पर जारी बहस बेमानी है, क्योंकि हटाए गए संदर्भ अल्पकालिक हैं और उनसे छात्रों की पढ़ाई तथा ज्ञान में कोई फर्क नहीं पड़ेगा. वे कहते हैं, ''हम फिलहाल संक्रमण के दौर में हैं और स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क (एनसीएफ) को अंतिम रूप देने में जुटे हैं.
अगले साल से संशोधित एनसीएफ के तहत नई पाठ्य-पुस्तकें छपनी शुरू होंगी और मौजूदा पुस्तकें हट जाएंगी.’’ पूर्व निदेशक जे.एस. राजपूत इससे सहमत हैं. वे कहते हैं, ''कोई इनकार नहीं कर सकता कि गोडसे ने गांधी की हत्या की. कोई मुगल इतिहास को हटा नहीं सकता. इसलिए शोर-शराबा करने वालों को नए एनसीएफ के तहत लिखी गई नई पाठ्य-पुस्तकों का इंतजार करना चाहिए.’’
सकलाणी इस आरोप को भी खारिज करते हैं कि पाठ्य-पुस्तकों से मुगल इतिहास को मिटा देने की कोशिश चल रही है. वे कहते हैं, ''मुगल इतिहास विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रम का हिस्सा बना हुआ है. छात्र आज भी कक्षा 7, 11 और 12 में मुगल इतिहास पढ़ रहे हैं. कक्षा 12 में मुगलों पर दो में से एक अध्याय हटाया गया है, क्योंकि विशेषज्ञ समिति ने सोचा कि यह महत्वपूर्ण नहीं है.’’
दूसरी दलील यह है कि एक पाठ्य-पुस्तक से हटाए गए संदर्भ दूसरों में मौजूद हैं. मसलन, कक्षा 6 की समाज विज्ञान की पाठ्य-पुस्तक से अगर जाति और वर्ण से संबंधित संदर्भ हटाए गए हैं, तो कक्षा 12 की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में भारतीय समाज के बारे में विस्तृत वर्णन अल-बेरूनी के हवाले से मौजूद है. गोडसे को ''हिंदू उग्रवादी’’ बताने का संदर्भ भी कक्षा 12 की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में मौजूद है.
और, अगर 2002 के गुजरात दंगों के संदर्भ हटाए गए हैं तो, बकौल सकलाणी, कक्षा 12 की समाजशास्त्र की पाठ्य-पुस्तक इंडियन सोसाइटी से 1984 के सिख-विरोधी दंगों का जिक्र भी हटाया गया है. सबसे अहम तो यह है कि 1975 की इमरजेंसी और उस दौरान इंदिरा गांधी सरकार के सत्ता के दुरुपयोग से संबंधित बड़ा हिस्सा भी कक्षा 12 की राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र की पाठ्य-पुस्तकों से हटा दिए गए हैं.
सकलाणी बताते हैं, ''विशेषज्ञ समिति ने सुझाव इस आधार पर दिया कि क्या जरूरी नहीं है या दूसरी कक्षाओं की किताबों में पहले ही दोहराया जा चुका है. इमरजेंसी का संदर्भ भी हटा देने का मतलब है कि इस सबके पीछे कोई राजनैतिक मंशा नहीं है. मुगलों या इमरजेंसी के संदर्भ हर किताब से नहीं हटाए गए हैं, वे दूसरे अध्यायों या कक्षाओं में अभी भी पाए जा सकते हैं.’’
एनसीईआरटी के निदेशक का दावा है कि ''युक्तिसंगत’’ बनाने की पूरी कवायद बाहरी विशेषज्ञों की मदद से बड़े पेशेवर ढंग से की गई है, जिन्होंने सलाह दी कि उन अध्यायों को छात्रों के ज्ञान को प्रभावित किए बिना हटाया जा सकता है. हालांकि, सकलाणी इस प्रक्रिया में शामिल बाहरी विशेषज्ञों का नाम बताने से इनकार कर देते हैं या वे यह दलील भी देने से मना कर देते हैं कि किस आधार पर संदर्भ हटाए गए. आखिर जवाब केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री अन्नपूर्णा देवी से लोकसभा में मिला, जिससे विशेषज्ञों के नाम का खुलासा हुआ.
इतिहास की किताबों के लिए बाहरी विशेषज्ञों में जेएनयू के इतिहास अध्ययन केंद्र में इतिहास के प्रोफेसर उमेश कदम, दिल्ली के हिंदू कॉलेज में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर अर्चना वर्मा, और स्कूलों के तीन पोस्टग्रेजुएट शिक्षक थे. राजनीतिशास्त्र में संशोधन का सुझाव देने वाले विशेषज्ञों में भोपाल के रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन (एनसीईआरटी से संबद्ध) में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर वनतांगपुइ खोबंग, हिंदू कॉलेज में राजनीतिशास्त्र विभाग की मनीषा पांडेय और दो पोस्टग्रेजुएट स्कूल शिक्षक शामिल थे. राजनीतिशास्त्र के विशेषज्ञों से दो दौर का सलाह-मशविरा हुआ, मगर इतिहास के विशेषज्ञों से सिर्फ एक बार सलाह किया गया.
इन पाठ्य-पुस्तकों के मूल लेखकों सहित ज्यादातर इतिहासकारों का आरोप है कि एनसीईआरटी ने बिना उनसे सलाह किए ''मनमाने’’ ढंग से बदलाव किए. देश भर के 250 इतिहासकारों ने एक बयान जारी किया कि ''पाठ्य-पुस्तकों को तैयार करने वाली टीम के सदस्यों से सलाह करने की कोई कोशिश नहीं की गई, जिनमें इतिहासकार और स्कूली अध्यापकों के अलावा एनसीईआरटी के सदस्य भी थे.’’
कक्षा 9 से 12 की समाज विज्ञान की पाठ्य-पुस्तकों के दो लेखकों, सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के पूर्व वरिष्ठ फेलो योगेंद्र यादव और पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर सुहास पलसिकर हटाए गए संदर्भों में साफ-साफ राजनैतिक मंशा देखते हैं. एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक राजपूत इससे सहमत हैं कि सामान्य कायदा तो यही है कि पाठ में कोई परिवर्तन करने के पहले मूल लेखकों से सलाह ली जानी चाहिए.
भाजपा पाठ्य-पुस्तकों को क्यों बदलना चाहती है?
भाजपा सरकार ने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में फेरबदल की कोशिश पहली बार नहीं की है. राष्ट्र निर्माण के लिए शिक्षा में 'सुधार’ लंबे समय से संघ परिवार का नजरिया रहा है. उसका मानना है कि भारतीय शिक्षा थॉमस मैकाले की साम्राज्यवादी विरासत में जकड़ी हुई है और स्वतंत्रता के बाद के इतिहास-लेखन में वामपंथी इतिहासकारों का वर्चस्व रहा है.
इसलिए उनका प्रयास भारतीय जड़ों के अपने संस्करण में वापस जाने का रास्ता खोजने का है. उनकी सबसे बड़ी शिकायतों में से एक यह है कि मुगलों को इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में अनुचित स्थान मिलता है, जबकि क्षेत्रीय नायक, खासकर हिंदू राजा हाशिये पर हैं. उनका दावा है कि उनका उद्देश्य सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना नहीं है, बल्कि भारतीय इतिहास की अधिक ''सटीक’’ तस्वीर पेश करना है.
1999 और 2004 के बीच, तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री, भाजपा के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी ने भारत के ''गौरवशाली हिंदू अतीत’’ को उजागर करने के घोषित इरादे से स्कूल और उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम में बड़े पैमाने पर बदलाव की शुरुआत की. 1988 के एनसीएफ को संशोधित किया गया था और रोमिला थापर, आर.एस. शर्मा, सतीश चंद्रा और बिपिन चंद्रा को विशेष रूप से उनके कथित 'हिंदू विरोधी पूर्वाग्रह’ के लिए निशाने पर लिया गया था.
प्रधानमंत्री मोदी अब उसी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. वे पहली बार 2014 और फिर 2019 में, दोनों बार बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आए. भाजपा अब अधिक स्थायी शिक्षा सुधार का लक्ष्य बना रही है. यह मोदी सरकार के तहत पाठ्य-पुस्तकों का तीसरा फेरबदल है. पहला 2017 में और दूसरा 2018-19 में हुआ था. प्रधानमंत्री ने पिछले दिसंबर में यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वे विभाजक रेखा के किस तरफ खड़े हैं.
केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के आयोजन 'वीर बाल दिवस’ कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि लोगों में हीनभावना पैदा करने के लिए इतिहास के नाम पर मनगढ़ंत कहानियां सिखाई जाती हैं. मोदी ने गुरु गोबिंद सिंह के बेटों की शहादत के संदर्भ में कहा, ''एक तरफ, मजहबी कट्टरता से अंधी ताकतवर मुगल सल्तनत थी और दूसरी तरफ हमारे गुरु थे, जो ज्ञान से प्रदीप्त थे और हमारी प्राचीन परंपरा का अनुसरण कर रहे थे.’’
प्रधानमंत्री के ऐसे ''तोड़-मरोड़’’ के दावों को पी.सी. भंडारी जैसे प्रतिबद्ध पैदल सिपाहियों का समर्थन हासिल था, जिसने नवंबर 2020 में एक आरटीआइ याचिका दायर करके पूछा था कि इस बात के क्या प्रमाण हैं जिसके आधार पर कक्षा 12 की एनसीईआरटी की थीक्वस ऑफ इंडियन हिस्ट्री III पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या 234 पर यह दावा किया गया है कि शाहजहां और औरंगजेब ने युद्धों के दौरान ध्वस्त मंदिरों की मरम्मत के लिए अनुदान जारी किया था.
जवाब में एनसीईआरटी ने कहा कि दावे को साबित करने के लिए कोई प्रमाण मौजूद नहीं है (इतिहासकार की यह मान्यता कई शाही फरमानों और जमीन के रिकॉर्ड पर आधारित है). इसके बाद, जुलाई 2021 में, शिक्षा पर संसदीय स्थायी समिति ने ''पाठ्यपुस्तकों से हमारे राष्ट्रीय नायकों के बारे में अनैतिहासिक तथ्यों और गलतबयानी के संदर्भों को हटाने, भारतीय इतिहास के सभी कालखंडों के समान या आनुपातिक संदर्भों को दर्ज करने, और महान ऐतिहासिक महिला नायकों की भूमिका को उजागर करने’’ से जुड़ी में प्रस्तुतियां मांगीं.
भाजपा सांसद विनय सहस्रबुद्धे की अध्यक्षता में समिति ने आरएसएस से जुड़े भारतीय शिक्षण मंडल और शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के प्रतिनिधियों, एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक राजपूत और शिक्षाविद् शंकर शरण से भी मुलाकात की, जो पहले से ही ''स्कूली पाठ्यपुस्तकों के मार्क्सवादी संस्करण’’ में संशोधन और उन्हें ''भारतीय परिप्रेक्ष्य’’ में फिर से लिखने की मांग कर रहे थे.
कांग्रेस ने पाठ्य-पुस्तकें कैसे बदलीं
इतिहास को फिर से लिखने के प्रयास के लिए अगर भाजपा की निंदा की जा रही है, तो कांग्रेस भी पाप के लिए समान रूप से दोषी मानी जाती है. अधिकांश दक्षिणपंथी विचारक मुगलों के प्रति कथित ''झुकाव’’ के लिए एम.सी. छागला को जिम्मेदार ठहराते हैं जो 1963-1966 तक कांग्रेस सरकारों में शिक्षा मंत्री थे. उन्होंने 1960 के दशक में भारतीय इतिहास को 'धर्मनिरपेक्ष’, 'निष्पक्ष’ और 'उपनिवेशवाद-विरोधी’ दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने के लिए इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों के पुनर्लेखन की शुरुआत की थी.
उन्होंने इतिहास शिक्षा पर एक समिति बनाई, जिसने रोमिला थापर, आर.एस. शर्मा, सतीश चंद्रा, बिपिन चंद्र और अर्जुन देव को किताबें लिखने की जिम्मेदारी सौंपी. यह काम 1971 से छागला के उत्तराधिकारी सैयद नुरुल हसन की निगरानी में हुआ. हसन पर इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों पर मार्क्सवादी छाप छोड़ने वाले लेखकों के एक विशेष समूह को प्रोत्साहित करने का आरोप है. प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी मानते हैं कि 1980 के दशक में मार्क्सवादी इतिहासकारों के वर्चस्व का कारण सरकारी संरक्षण था.
कन्नड़ उपन्यासकार और दार्शनिक एस.एल. भैरप्पा ने कई मौकों पर याद किया है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ''राष्ट्र में एकता’’ के लिए पाठ्य-पुस्तकों में संशोधन का सुझाव दिया था. उन्होंने निगरानी के लिए राजनयिक जी. पार्थसारथी की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय समिति बनाई थी. भैरप्पा समिति के सदस्य थे. उनके अनुसार, पार्थसारथी चाहते थे कि काशी में औरंगजेब द्वारा मंदिरों को तोड़े जाने और मस्जिदों के निर्माण का उल्लेख हटा दिया जाए. भैरप्पा, जिन्हें इस साल पद्म भूषण मिला, का दावा है कि वे सहमत नहीं थे, तो उन्हें हटा दिया गया था.
भैरप्पा का यह भी मानना है कि आर.एस. शर्मा और सतीश चंद्र जैसे इतिहासकारों ने गलत तरीके से बौद्ध धर्म के पतन के लिए सम्राट अशोक द्वारा पक्षियों और जानवरों की बलि देने की प्रथा पर प्रतिबंध लगाने को जिक्वमेदार ठहराया, जिसके कारण यज्ञ बंद हो गए. इससे ब्राह्मणों को दक्षिणा मिलनी बंद हो गई और फलस्वरूप उनकी आजीविका खत्म हो गई. इसी वजह से उन्होंने विद्रोह किया और अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य बिखर गया.
भैरप्पा इसके बजाए बी.आर. आंबेडकर का हवाला देते हैं, जो पेशेवर इतिहासकार तो नहीं लेकिन बौद्ध थे. उन्होंने अपनी पुस्तक द डिक्लाइन ऐंड फॉल ऑफ बुद्धिज्म में लिखा है, ''भारत में बौद्ध धर्म का पतन मुसलमानों के दिल दहला देने वाले कार्यों से हुआ.’’ उनके मुताबिक, आंबेडकर ने उल्लेख किया है कि कैसे मुस्लिम आक्रांताओं ने नालंदा, विक्रमशिला, जगद्दल, ओदंतपुरी विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया और बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला, जो ''भारत में बौद्ध धर्म की सबसे बुरी तबाही’’ थी.
अगर भाजपा ने जोशी के नेतृत्व में शिक्षा के भगवाकरण की कोशिश की, तो बाद की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2005 में पाठ्य-पुस्तकों को भाजपा-आरएसएस के प्रभाव से ''मुक्त’’ करने के लिए नया एनसीएफ शुरू किया. किसी भी भाजपा सरकार—राज्य सरकारों सहित—में सबसे ज्यादा निशाने पर नेहरू ही होते हैं. हाल के संशोधन में भी, उनके दो उद्धरणों को कक्षा 12 और 6 की पाठ्य-पुस्तकों से हटा दिया गया है. इसके विपरीत, कांग्रेस नेहरू को अन्य कई महान हस्तियों पर प्राथमिकता देने की गलती करने की दोषी रही है.
2008 में, एनसीईआरटी ने कक्षा 8 के हिंदी पाठ्यक्रम में गौतम बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं पर एक किताब बुद्धचरित को हटाकर नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया के हिंदी संस्करण को शामिल कर दिया. राजनयिक से नेता बने पवन के. वर्मा ने अपनी पुस्तक द ग्रेट हिंदू सिविलाइजेशन: अचीवमेंट, नेगलेक्ट, बायस ऐंड द वे फॉरवर्ड में लिखा है, ''यह डर हमेशा से था कि मुस्लिम शासन का विरोध करने वाले हिंदू नायकों की भूमिका को जरूरत से ज्यादा स्थान देकर इतिहास की पढ़ाई को 'सांप्रदायिक’ न बना दिया जाए.
प्राचीन भारत की प्राचीनता की खोज जैसे विषयों को अवांछनीय माना गया, क्योंकि वे हिंदुओं के 'महिमामंडन’ का कारण बन सकते हैं. छह शताब्दियों तक चला भक्ति काल के अभूतपूर्व पुनर्जागरण के दौर मुगल साम्राज्य के राजनैतिक कालखंड के वर्णन में गुम हो गया.’’
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने पहले ही घोषणा कर दी है कि राज्य इस वर्ष से संशोधित एनसीईआरटी पाठ्य-पुस्तकों का उपयोग करेगा. दूसरी ओर, गैर-भाजपा शासित राजस्थान, पश्चिम बंगाल और केरल के शिक्षा मंत्रियों ने बदलाव का कड़ा विरोध किया है. आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और ओडिशा के शिक्षा मंत्रियों ने कहा है कि वे एनसीईआरटी के बदलावों की जांच कर रहे हैं.
एनसीईआरटी के अध्यक्ष केंद्रीय शिक्षा मंत्री होते हैं, इसलिए इसकी स्वायत्तता पर सवाल उठते हैं और सत्ताधारी पार्टी के एजेंडे को आगे बढ़ाने के आरोप लगते हैं. राजनैतिक दल अपने राजनैतिक दृष्टिकोण पर जोर देते हैं. यह दीगर बात है कि इससे छात्रों का भविष्य दांव पर होता है. अब एनसीएफ में शामिल लोगों पर यह जिम्मेदारी है कि वे बिना किसी धार्मिक या वैचारिक पूर्वाग्रह के हमारे अतीत के सटीक और प्रामाणिक वर्णन वाली पाठ्य-पुस्तकों की नींव रखें.
''विशेषज्ञ समिति ने काट-छांट का सुझाव इस आधार पर दिया कि क्या जरूरी नहीं है, या दूसरी कक्षाओं और किताबों में दोहराया गया है’’
—प्रो. डी.पी. सकलाणी, निदेशक, एनसीईआरटी
''इतिहास को अपनी विचारधारा के ज्यादा अनुकूल संस्करण में बदलना संघ का लंबे समय से एजेंडा रहा है. आश्चर्य नहीं कि एनसीईआरटी ने उन संदर्भों को हटा दिया, जिसमें बापू की हत्या में आरएसएस पर दोष आ सकता है’’
—तुषार गांधी, लेखक तथा महात्मा गांधी के पड़पोते
''कोई इनकार नहीं कर सकता कि गोडसे ने गांधी की हत्या की. कोई मुगल इतिहास को हटा नहीं सकता. इसलिए नए एनसीएफ के तहत नई पाठ्य-पुस्तकों का इंतजार करें’’
—जे.एस. राजपूत, पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी
''इन पाठ्य-पुस्तकों को तैयार करने वाली टीमों के सदस्यों से सलाह-मशविरा करने की कोई कोशिश नहीं
की गई’’
स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में बदलाव पर 250 इतिहासकारों की प्रतिक्रिया के तहत दिया गया बयान
गांधी जी की हत्या के बारे में काट-छांट
'स्वतंत्रता के बाद भारत की राजनीति’ के पहले अध्याय में 'महात्मा गांधी की शहादत’ शीर्षक के तहत पाठ में इन बिंदुओं को हटा दिया गया है.
''उन्हें (गांधी जी को) ऐसे लोग खासकर नापसंद करते थे जो चाहते थे कि हिंदू बदला लें या फिर जो यह चाहते थे कि भारत हिंदुओं के लिए देश बने, जैसे पाकिस्तान मुसलमानों के लिए बना था...गांधी जी को लगता था कि ये गुमराह हैं...हिंदू-मुस्लिम एकता पर उनकी दृढ़ता ने हिंदू चरमपंथियों को इस कदर भड़काया कि उन्होंने गांधी जी की हत्या के कई प्रयास किए.’’
''गांधी जी की मृत्यु का देश में सांप्रदायिक तनाव की स्थिति पर एकदम जादुई असर हुआ. विभाजन को लेकर कायम गुस्सा और हिंसा अचानक थम गई. भारत सरकार ने सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले संगठनों पर शिकंजा कसा. और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया...’’
कक्षा 12ः इतिहास
थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री पार्ट III में निक्वनलिखित अंश को भी बदल दिया गया है. पहले लिखा था: ''गांधी जी को एक युवक ने गोली मार दी थी. बाद में समर्पण कर देने वाला यह हत्यारा पुणे का एक ब्राह्मण था. उसका नाम नाथूराम गोडसे था, और वह एक कट्टरपंथी हिंदू अखबार का संपादक था, जिसने गांधीजी को मुसलमानों का तुष्टीकरण करने वाला करार दिया था.” अब लिखा है: ''30 जनवरी की शाम दैनिक प्रार्थना सभा के दौरान एक युवक ने गोली मारकर गांधी की हत्या कर दी. बाद में आत्मसमर्पण करने वाला यह हत्यारा नाथूराम गोडसे था.”
इमरजेंसी पर पाठ बदला
कक्षा 12ः राजनीति विज्ञान
⯃'स्वतंत्रता के बाद भारत की राजनीति’ के 'लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट’ शीर्षक वाले अध्याय में पांच पेज घटा दिए गए हैं. हटाई गई सामग्री इंदिरा गांधी सरकार की इमरजेंसी लगाने के विवादास्पद फैसले से संबंधित है. हालांकि, उस दौरान बड़े पैमाने पर राजनैतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी, मीडिया पर प्रतिबंध, हिरासत में यातना और मौतों, और जबरन नसबंदी जैसी ज्यादतियों का जिक्र बरकरार रखा गया है. इसमें मई 1977 में जनता पार्टी सरकार की तरफ से जांच आयोग गठित करने का भी उल्लेख है.
कक्षा 12ः समाज शास्त्र
⯃ 'इंडियन सोसाइटी’ नामक पाठ्य-पुस्तक के अध्याय-6 यह पैराग्राफ हटा दिया गया है: ''जून 1975 से जनवरी 1977 तक लागू 'इमरजेंसी’ के दौरान भारत के लोगों ने कुछ समय के लिए निरंकुश शासन का अनुभव किया. संसद को निलंबित कर दिया गया था और कानून सीधे सरकार बना रही थी. नागरिक स्वतंत्रता खत्म कर दी गई थी और बड़ी संख्या में सक्रिय नेताओं को गिरफ्तार कर बिना मुकदमे जेल में डाल दिया गया...फिर 1977 की शुरुआत में अप्रत्याशित रूप से चुनाव हुए तो लोगों ने सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के खिलाफ जमकर मतदान किया.’’
सांप्रदायिक दंगों के बारे में काट-छांट
कक्षा 12ः राजनीति विज्ञान
⯃'स्वतंत्रता के बाद भारत की राजनीति’ के अंतिम अध्याय में 2002 के गुजरात दंगों पर दो पेज हटाए गए हैं. इसमें पहले पन्ने पर दंगों की एक विस्तृत रिपोर्ट थी और हिंसा से निपटने में नाकाम रहने के लिए एनएचआरसी की तरफ से गुजरात सरकार की आलोचना किए जाने का उल्लेख था. हटाया गया एक अंश इस तरह था: ''गुजरात जैसी घटनाएं हमें राजनैतिक मकसद के लिए धार्मिक भावनाओं के उपयोग के संभावित खतरों के प्रति आगाह करती हैं.
यह लोकतांत्रिक राजनीति के लिए एक खतरा है.’’ दूसरे पन्ने पर दंगों पर तीन अखबारों की रिपोर्ट के कोलाज के साथ एनएचआरसी की वार्षिक रिपोर्ट के एक अंश को भी शामिल किया गया था. इसमें यह जिक्र भी था कि मार्च 2002 में अहमदाबाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जब 'राजधर्म’ निभाने की नसीहत वाली टिप्पणी की थी, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी उनके साथ ही बैठे थे.
कक्षा 12ः समाज शास्त्र
⯃1984 के सिख विरोधी दंगों के साथ-साथ गुजरात दंगों का संदर्भ भी समाजशास्त्र की किताब इंडियन सोसाइटी से हटा दिया गया है. अध्याय 6 में 'सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्र-राज्य’ खंड के तहत हटाया गया पैराग्राफ कुछ इस तरह था: ''आम तौर पर कहीं भी या अतीत में कभी अपने समान-धर्मियों द्वारा झेले गए अपमान या उनकी मौतों का बदला लेने को जायज ठहराया जाता है. कोई भी क्षेत्र किसी न किसी रूप में सांप्रदायिक हिंसा से पूरी तरह मुक्त नहीं रहा है.
कम हो या ज्यादा लेकिन हर धार्मिक समुदाय ने ऐसी हिंसा झेली है. हालांकि, अगर आनुपातिक रूप से देखें तो अल्पसंख्यक समुदायों पर इसका असर कहीं अधिक दर्दनाक होता है. सांप्रदायिक दंगों पर जिस हद तक सरकारों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, उसमें कोई भी सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी अपने निर्दोष होने का दावा नहीं कर सकती. दरअसल, सांप्रदायिक हिंसा के दो सबसे त्रासद उदाहरण दो प्रमुख राजनैतिक दलों के शासनकाल में हुए. 1984 में दिल्ली के सिख विरोधी दंगे कांग्रेस के शासनकाल में हुए थे. वहीं, 2002 में गुजरात में भाजपा सरकार के दौरान अप्रत्याशित ढंग से मुस्लिम विरोधी हिंसा फैली.’’
मुगल इतिहास में फेरबदल
कक्षा 12ः इतिहास
⯃थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री पार्ट II के दो अध्यायों 'किंग्स ऐंड क्रोनिकल्स’ और 'मुगल दरबार’ (16वीं और 17वीं शताब्दी) को हटा दिया गया है. इसमें अकबरनामा और पादशाहनामा जैसी मुगलकालीन पांडुलिपियों और मुगल शासकों के दरबार से जुड़े नियम-कायदों का संदर्भ शामिल था.
कक्षा 11ः इतिहास
⯃थीम्स इन वर्ल्ड हिस्ट्री किताब में 'द सेंट्रल इस्लाम लैंड’, 'कन्फ्रंटेशन ऑफ कल्चर्स’ और 'औद्योगिक क्रांति’ जैसे अध्यायों को हटा दिया गया है.
कक्षा 7ः इतिहास
⯃आवर पास्ट्स- II पाठ्य-पुस्तक में 'द मुगल एम्पायर’ नामक अध्याय को बदलकर 'द मुगल्स (16वीं से 17वीं शताब्दी)’ कर दिया गया है. इसमें हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब जैसे मुगल बादशाहों की उपलब्धियों का बखान करने वाला दो पन्नों का चार्ट हटा दिया गया है. 'अकबर की नीतियों’ पर केंद्रित एक खंड को भी हटा दिया गया है, जिसमें उनके प्रशासन के खास तरीकों, विभिन्न लोगों के धर्मों और सामाजिक रीति-रिवाजों में उनकी रुचि के साथ-साथ संस्कृत के ग्रंथों का उनके द्वारा फारसी में अनुवाद कराने का जिक्र था.
⯃इसी किताब के एक अध्याय का शीर्षक 'दिल्ली के सुल्तान’ से बदलकर 'दिल्ली—12वीं से 15वीं सदी’ कर दिया गया है.
⯃'अठारहवीं शताब्दी की राजनैतिक संरचना’ पर केंद्रित एक अध्याय में पुराने मुगल प्रांतों से बनाए गए अवध, बंगाल और हैदराबाद आदि स्वतंत्र राजनैतिक राज्यों पर चर्चा संबंधी पांच पृष्ठ हटा दिए गए हैं. राजपूतों, मराठों, सिखों और जाटों के नियंत्रण वाले राज्यों से जुड़ा पाठ बरकरार रखा गया है.
⯃महमूद गजनवी के नाम के आगे से 'सुल्तान’ की उपाधि हटा दी गई है. इस वाक्य कि, 'उसने लगभग हर साल उपमहाद्वीप पर धावा बोला’ को बदलकर 'धार्मिक वजहों से उसने उपमहाद्वीप पर 17 बार (1000 से 1025 ईसवी तक) हमला बोला’ कर दिया गया है.
महमूद गजनवी पर यह पैरा हटा दिया गया है: ''सुल्तान महमूद को उन लोगों के बारे में और जानने में रुचि थी, जिन पर उसने विजय हासिल की थी और उपमहाद्वीप के बारे में जानकारियों को कलमबंद करने का जिम्मा उसने अल-बेरूनी नामक एक विद्वान को सौंपा था. अरबी में लिखी गई किताब उल-हिंद इतिहासकारों के लिए जानकारियों का एक अहम स्रोत रही है. उन्होंने यह लेखा-जोखा तैयार करने के लिए संस्कृत विद्वानों से सलाह ली थी.’’
⯃छात्रों को अब इसी किताब का एक अन्य अध्याय 'शासक और भवन’ नहीं पढ़ना होगा. यह हिंदू राजाओं के बनवाए मंदिरों और मुस्लिम शासकों द्वारा निर्मित मस्जिदों, मकबरों और किलों की स्थापत्य शैली पर केंद्रित था.
कक्षा 6ः समाज शास्त्र
⯃सोशल ऐंड पॉलिटिकल लाइफ पार्ट-1 के अध्याय 'डाइवर्सिटी ऐंड डिस्क्रिमिनेशन’ का कुछ हिस्सा हटा दिया गया है, जिसमें मुसलमानों के बारे में एक सामान्य रूढ़िवादी धारणा का जिक्र था कि वे लड़कियों को पढ़ाने में रुचि नहीं रखते हैं, साथ ही यह बताया गया था कि यह सच्चाई से कैसे दूर है. साथ में पढ़ाई करती तीन लड़कियों की एक तस्वीर भी बाहर कर दी गई है.
सामाजिक आंदोलनों और जाति संबंधी मुद्दों पर काट-छांट
कक्षा 12ः राजनीति विज्ञान
⯃स्वतंत्रता के बाद भारत की राजनीति किताब में चिपको, दलित पैंथर्स, 1980 के दशक का कृषक संघर्ष और नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे लोकप्रिय आंदोलनों पर केंद्रित एक अध्याय हटा दिया गया है. इसमें 'एकदलीय प्रभुत्व वाला दौर’ शीर्षक का एक अन्य अध्याय भी हटा दिया गया है.
कक्षा 12ः समाज शास्त्र
⯃सोशल चेंज ऐंड डेवलपमेंट इन इंडिया में एक एक्सरसाइज बॉक्स हटाया गया है, जिसमें छात्रों से हाल के किसान आंदोलन पर चर्चा करने को कहा गया था.
कक्षा 12ः राजनीति विज्ञान
⯃डेमोक्रेटिक पॉलिटिक्स II के तीन अध्यायों 'लोकतंत्र और विविधता’, 'लोकतंत्र की चुनौतियां’ और 'लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन’ को हटाया गया है. इनके माध्यम से छात्रों को सामाजिक असमानताओं की अवधारणा से परिचित कराया जाता था, लोकतांत्रिक राजनीति में सुधार पर बात होती थी, साथ ही दबाव समूहों के जरिए राजनीति को प्रभावित करने के परोक्ष तरीकों और नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे आंदोलनों का भी जिक्र शामिल था.
कक्षा 7ः समाज शास्त्र
⯃ सोशल ऐंड पॉलिटिकल लाइफ- II में 'समानता के लिए संघर्ष’ वाले अध्याय को हटा दिया गया है, जिसमें ’90 के दशक के मध्य में मध्य प्रदेश के सतपुड़ा जंगल के विस्थापित वनवासियों के अधिकारों के लिए तवा मत्स्य संघ की लड़ाई के बारे में बताया गया था.
कक्षा 6: समाज शास्त्र
⯃सोशल ऐंड पॉलिटिकल लाइफ- I में लोकतंत्र की अवधारणा पर एक शुरुआती अध्याय हटाया गया है. इसमें बताया गया था कि लोगों की भागीदारी, टकरावों का समाधान, समानता और न्याय कैसे एक लोकतांत्रिक सरकार के कामकाज को प्रभावित करते हैं.
⯃इसी किताब में 'विविधता और भेदभाव’ वाले अध्याय का एक बड़ा हिस्सा हटा दिया गया है. इसमें जाति संबंधी नियमों के संदर्भ में बताया गया था कि कैसे 'अछूतों’ को उनके लिए निर्धारित कामों के अलावा कुछ करने की अनुमति नहीं थी. कैसे अगड़ी जातियों के लोग उन्हें गांव के कुएं से पानी लेने या मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते थे, और कैसे उनके बच्चे स्कूल में ऊंची जाति के बच्चों के साथ नहीं बैठ सकते थे.
कक्षा 6: इतिहास
⯃पाठ्य-पुस्तक अवर पास्ट्स- I में वंशानुगत वर्ण क्रम, आश्रम (जीवन के चार चरण) और अस्पृश्य के तौर पर लोगों के वर्गीकरण संबंधी वाक्यों को हटा दिया गया है.
⯃इसी पुस्तक में, 'भवन, पेंटिंग और पुस्तकों’ वाले अध्याय में पुराणों पर केंद्रित एक अंश को हटा दिया गया है, जिसमें कहा गया था कि प्राचीन भारत में महिलाओं और शूद्रों को वेदों का अध्ययन करने की अनुमति नहीं थी.
पिछली सरकारों ने इतिहास को कैसे बदला
अतीत में भी हर रंग-पांत की सरकारों की तरफ से इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों को फिर से लिखने के प्रयास किए जा चुके हैं
1960-1970
⯃भारतीय इतिहास को 'धर्मनिरपेक्ष’, 'निष्पक्ष’ और 'उपनिवेश-विरोधी’ दृष्टिकोण देने के लिए इतिहास की किताबों को नए सिरे से लिखने की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू के अंतिम कार्यकाल सहित तीन प्रधानमंत्रियों के समय में शिक्षा मंत्री रहे एम.सी. छागला ने की. उन्होंने एक समिति गठित की जिसने रोमिला थापर, आर.एस. शर्मा, सतीश चंद्रा, बिपन चंद्रा और अर्जुन देव जैसे नामचीन इतिहासकारों की किताबों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया. 1971 से ऐसी कवायद की निगरानी छागला के उत्तराधिकारी बने सैयद नुरुल हसन ने संभाली. आलोचकों का दावा है कि हसन ने उन लेखकों को आगे बढ़ाया जिन्होंने इतिहास की किताबों में मार्क्सवादी छाप छोड़ी.
⯃1969 में, इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान गठित एक संसदीय समिति चाहती थी कि प्राचीन भारत पर पाठ में बताया जाए कि आर्य भारत के मूल निवासी थे. हालांकि, इस मांग को संपादकीय बोर्ड के साथ-साथ लेखक थापर ने भी खारिज कर दिया.
⯃हिंदू और सिख समूहों ने कहा कि उनके धर्मों और धार्मिक नेताओं की अनदेखी की गई है. हिंदू महासभा और आर्य समाज ने दावा किया कि प्राचीन काल में गोमांस खाने के उल्लेख ने 'हिंदू राष्ट्रीयता’ की भावनाओं को आहत किया है.
1977
⯃ऐसे आरोपों पर कि मुगलकाल को अधिक महिमामंडित किया गया है, मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार ने नवंबर 1977 में पाठ्य-पुस्तकों की समीक्षा के लिए इतिहासकारों की एक समिति गठित की. हालांकि, समिति ने पाठ्य-पुस्तकों को जारी रखने का समर्थन किया, लेकिन सरकार ने अगले वर्ष जुलाई में सीबीएसई पाठ्यक्रम से प्राचीन भारत पर आर.एस. शर्मा की किताब को हटा दिया.
2011-2004
2000 में 1988 का नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क संशोधित किया गया. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के दौरान कथित तौर पर हिंदुओं के प्रति पूर्वाग्रह को लेकर थापर, शर्मा, सतीश चंद्रा और बिपन चंद्रा की किताबें निशाने पर रहीं.
सतीश चंद्रा की किताब में गुरु तेग बहादुर को फांसी, औरंगजेब और शिवाजी से संबंधित अंश, आर.एस. शर्मा की किताब से मांस खाने वाले तमिल ब्राह्मणों और भगवान महावीर का उल्लेख और अर्जुन देव तथा इंदिरा अर्जुन देव की किताबों से जाटों का संदर्भ हटा दिया गया. आलोचकों ने आरोप लगाया कि भाजपा ने हिंदुओं को महिमामंडित करने और कंटेंट के 'भगवाकरण’ के लिए पौराणिक गाथाओं को पाठ्य-पुस्तकों में इतिहास के रूप में शामिल किया है.
2004-2014
⯃2005 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2000 को संशोधित किया और पाठ्य-पुस्तकों में बदलाव किए.
⯃ 2008 में, उस समय विवाद खड़ा हो गया जब एनसीईआरटी ने गौतम बुद्ध के जीवन पर केंद्रित बुद्धचरित की जगह नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया को स्थान दिया.
मोदी सरकार के इससे पहले किए गए बदलाव
2017-18
⯃12वीं कक्षा की राजनीतिशास्त्र की किताब पॉलिटिक्स इन इंडिया सिंस इंडिपेंडेंस में एनसीईआरटी ने 2002 के गुजरात दंगों के संदर्भ में एक अंश का शीर्षक 'गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगों’ से बदलकर सिर्फ 'गुजरात दंगे’ कर दिया. साथ ही, इकोनॉमिक्स, बिजनेस स्टडीज, एकाउंटेंसी, और पॉलिटिकल साइंस की किताबों में जीएसटी और नोटबंदी और बेटी बचाओ को विषयों के रूप में जोड़ा.
2018-2019
⯃एनसीईआरटी ने इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में, 'भारतीय ज्ञान, परंपराओं और प्रथाओं’ से संबंधित सामग्री जोड़ी, जिसमें विक्रम संवत (हिंदू कैलेंडर), धातु विज्ञान, शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, पाइका विद्रोह, सुभाष चंद्र बोस, स्वामी विवेकानंद, रणजीत सिंह, रानी अवंतीबाई लोधी और श्री अरबिंदो घोष आदि से संबंधित अंश शामिल थे.
⯃कक्षा-9 की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक से जातिवादी हिंसा, क्रिकेट के इतिहास और किसानों पर उपनिवेशवाद और पूंजीवाद के प्रभाव संबंधी अंश को हटा दिया गया.
इतिहास लेखन में चुनिंदा होना
मेहमान का पन्ना/मक्खन लाल
इतिहास की किताबों में बदलाव के लिए कोविड-19 की आड़ लेने की कोई जरूरत नहीं है. किताबों से मुगल दौर के हिस्से, आरएसएस या गुजरात दंगों का जिक्र हटाना अपने आप में जायज है. स्कूल के बच्चों पर जटिलताओं का बोझ नहीं डाला जाना चाहिए.
लोग अक्सर हैरान होते हैं कि एक बार लिखे जाने के बाद इतिहास पत्थर में ढला क्यों नहीं होता—उसमें संशोधन क्यों करना पड़ता है. मगर इतिहास के दार्शनिकों ने इसे हमेशा गतिशील प्रक्रिया के रूप में समझा है. मसलन आर.जी. कलिंगवुड ने द आइडिया ऑफ हिस्ट्री में ये शब्द लिखे: ''हर युग को अपनी मन:स्थितियों की रोशनी में अतीत की पुनव्यर्याख्या करनी चाहिए.’’
मार्क्सवादी इतिहास-लेखन और इतिहास के साथ उसका रिश्ता हर युग के इतिहासकारों को स्वाभाविक रूप से मिलने वाली व्याख्या की इस छूट या गुंजाइश से कहीं ज्यादा अनोखा है. 1960 के दशक से ही भारत में पाठ्य पुस्तकें रोमिला थापर, आर.एस. शर्मा, इरफान हबीब, सतीश चंद्रा, बिपन चंद्रा वगैरह वामपंथी इतिहासकारों ने लिखीं. इनमें से ज्यादातर किसी न किसी कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्ड धारक थे.
मार्क्स और उनके अनुयायियों यानी मार्क्सवादी इतिहासकारों के लिए इतिहास का प्रश्न महज यह समझना नहीं है कि 'क्या हुआ’, 'कैसे हुआ’ और 'यह क्यों हुआ’. उनके लिए प्रश्न यह है कि इतिहास का इस्तेमाल करके 'दुनिया कैसे बदलें’. मार्क्सवादी इतिहासकार यह समझने में नाकाम रहे कि हम जिस समाज में रहते हैं, वह जटिल ऐतिहासिक प्रक्रिया के जरिए विकसित हुआ है, जो दासता के बाद सामंतवाद के उदय और बुर्जुआ तबके के हाथों सामंती कुलीनतंत्र को उखाड़ फेंकने के मार्क्सवादी फॉर्मूले से बहुत अलग है.
फिर हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि दुनिया भर में औपनिवेशवाद के अनुभव ने दिखाया है कि ज्यादा ताकतवर संस्कृति जो यथार्थ को पराधीन संस्कृति से बहुत अलग तरीकों से परिभाषित करती है, उनका दबदबा या तो पूरी तरह नष्ट कर देती है या कम से कम इतना तो करता ही है कि कम ताकतवर संस्कृतियों को दासता की भूमिका में धकेल देती है. सांस्कृतिक तौर पर जिसे 'वैध’ माना जाता था, उसे 'अवैध’ बना देती है, और राजनैतिक तौर पर कमजोर संस्कृतियों को नई संहिता की बाध्यताओं के भीतर फिट होने के लिए अपने यथार्थ को किसी न किसी तरह रूपांतरित करना पड़ता है.
एनसीईआरटी की तरफ से इतिहास और राजनैतिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में किए गए कुछ बदलावों को लेकर एक बार फिर विवाद खड़ा हो गया है—और इन बदलावों को सरकार के दखल का नतीजा माना जा रहा है. हमें याद रखना चाहिए कि यह पहली बार नहीं है जब इस तरह का आरोप लगाया गया है.
हमने यह 1977-80 और 1998-2005 में देखा. दरअसल, विवाद की प्रतिक्रिया में जब सरकारी बयानों में कहा गया कि कोविड-19 महामारी के संदर्भ में छात्रों पर बोझ कम करने के लिए ये कदम उठाए गए, तो यह उन बयानों का मसौदा तैयार करने वाले लोगों की बेचारगी के बारे में बताता था जिन्हें न केवल पाठ्यक्रम तैयार करने और इतिहास लेखन के बारे में ज्ञान नहीं था बल्कि जिनकी अपने कार्यों की तार्किक और अकादमिक ढंग से बचाव की कोई तैयारी भी नहीं थी
आइए देखें कि क्या बदलाव किए गए और पुरातत्वविद्-इतिहासकार होने के नाते मैं उन्हें कैसे देखता हूं. पहला, भारतीय इतिहास की सबसे निंदनीय घटना गांधी की हत्या के संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के उल्लेखों को संपादित करके हटाना. तथ्य यह है कि आरएसएस को अदालती मामले में नाथूराम गोडसे के साथ कभी पक्ष बनाया ही नहीं गया.
तमाम जांच आयोग और केंद्र तथा राज्य सरकारों की जांच एजेंसियों की विभिन्न रिपोर्टें तस्दीक करती हैं कि आरएसएस का इस हत्या से कुछ लेना-देना नहीं था. इस मुद्दे पर नेहरू और पटेल के बीच हुई खतो-किताबत भी यही बताती है और उस पर पाबंदी नेहरू के सुझाव पर हटाई गई थी. मामले की सच्चाई यह है, तो पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से इस झूठ को क्यों कायम रखा जाए और किसी निर्दोष तथा निरपराध को आरोपित और बदनाम क्यों किया जाए?
मुगल दरबार से संबंधित अध्याय को हटाने के लिए कोविड-19 की आड़ लेना वाकई दयनीय है. मुद्दा यह है: दक्षिणी, पश्चिमी और पूर्वी भारत के उस वक्त के सत्तारूढ़ राजवंशों की कीमत पर मुगलों को इतनी ज्यादा जगह—कुल तीन अध्याय—क्यों दें? मुगल कभी भारत के सर्वोच्च शासक नहीं थे. मुगलों के समकालीन राजवंशों की बड़ी संख्या भारत के विभिन्न हिस्सों में राज करती थी.
यही नहीं, अकबर (1556-1605) से पहले और औरंगजेब (1658-1707) के बाद मुगल क्षेत्रीय या छोटे-से हिस्से के हुक्मरान से ज्यादा कुछ नहीं थे. महज 151 साल के प्रभुत्व को इतिहासकारों ने इतनी ज्यादा जगह दी कि जिसे सही नहीं ठहराया जा सकता. फिर सिर्फ मुगल दरबार ही क्यों, और चोला, पांड्या, मराठा, यादव, काकातिया राजाओं के दरबार, विजयनगर साम्राज्य और ऐसे ही कई अन्य साम्राज्य क्यों नहीं?
पिछली पाठ्यपुस्तकों ने बड़े पैमाने पर निषेधवाद का सहारा लिया. मुस्लिम शासकों के हाथों गैर-मुसलमानों पर अत्याचार, हिंदू मंदिरों का विनाश, जजिया वगैरह को या तो पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया या ज्यादा से ज्यादा सरसरी जिक्र किया गया. इतिहास लेखन के बारे में प. बंगाल के मशहूर परिपत्र—''शुद्धो-अशुद्धो’’—में साफ निर्देश दिया गया था कि मुसलमानों के हाथों हिंदुओं पर अत्याचार और मंदिरों की तोड़-फोड़ पर नहीं लिखना है. इसी तरह जब प्राचीन भारत की बात आती है, विचार यह था कि इसे खराब से खराब ढंग से प्रस्तुत किया जाए और उस युग में उदित विज्ञानों, गणित, खगोलभौतिकी, राजनैतिक और कानूनी विचारों या लोकतांत्रिक संस्थाओं का कतई जिक्र न किया जाए.
हिंदू-मुस्लिम दंगों का चुनिंदा ढंग से जिक्र किया गया. एक उदाहरण 2002 का गुजरात दंगा है. यह जिक्र क्यों न हो कि अहमदाबाद में पहला दंगा, जिसके लिखित ब्योरे मिलते हैं, 1713 में होली मनाने को लेकर हुआ था? 1967-70 और 1985 के अहमदाबाद दंगों की बात क्यों न हो, जिनमें हजारों लोग मारे गए थे.
इतिहास अतीत से सुबोध तरीकों से जुड़ने में हमारी मदद करता है. हमारी शासन प्रणालियां, राजनैतिक विचार, धार्मिक मान्यताएं, कला, पुरातत्व, सांस्कृतिक प्रथाएं, शिक्षा व्यवस्थाएं, रीति-रिवाज और व्यवहार के पैटर्न सब तात्कालिक या सुदूर अतीत की उपज हैं. ब्रिटिश सामाजिक इतिहासकार आर्थर मारविक ने लिखा था, ''अगर अतीत का समूचा ज्ञान मिटा दिया जाए, तो व्यक्तियों, समुदायों, समाजों का अस्तित्व बमुश्किल ही बच पाएगा.
इतिहास के बगैर समाज... स्मृति के बगैर इनसान की तरह होगा.’’ मैंने हमेशा कहा है कि इतिहास जोड़ने वाली विराट शक्ति है, बशर्ते जिम्मेदारी और ध्यान से लिखा जाए. हमें याद रखना चाहिए कि हमारे 70 फीसद से ज्यादा छात्र सेकंडरी स्तर तक पहुंचते-पहुंचते स्कूल छोड़ देते हैं. वे कक्षा 1 से 10 के बीच यानी बहुत कच्ची उम्र में जो कुछ पढ़ते हैं, वही ताउम्र साथ ले जाते हैं.
ऐसी स्थिति में हमें अपने बच्चों को हमेशा वही इतिहास पढ़ाना चाहिए जिस पर सभी या कम से कम ज्यादातर इतिहासकार सहमत हों. सारे विवादास्पद मुद्दे उच्चतर पढ़ाई के लिए सुरक्षित रखने चाहिए. मैं इतिहासकारों से अपील करता हूं कि वे स्कूली बच्चों पर सीधे-सादे, अविवादित और निर्विवाद इतिहास से ज्यादा किसी चीज का बोझ न डालें. हमें अपने लोगों की मदद करने की जरूरत है ताकि वे इतिहास के साथ रहना सीखें, इतिहास के शिकंजे में फंसे नहीं. (डॉ. मक्खन लाल पुरातत्वविद् और दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च ऐंड मैनेजमेंट के फाउंडर-डायरेक्टर हैं)
इतिहास की राजनीति
मृदुला मुखर्जी और आदित्य मुखर्जी
इतिहास से संबंधित कार्य इतिहासकारों के लिए छोड़ दिए जाएं और दुनिया तथा मानव इतिहास के बारे में संकीर्ण सोच वाले राजनेता इसमें दखलअंदाजी न करें.
एनसीईआरटी के निदेशक दिनेश सकलानी ने दावा किया है कि कोविड के बाद स्कूल लौटने वाले छात्रों पर पाठ्यसामग्री का भार कुछ कम करने के लिए एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से कुछ ‘फालतू’ अध्यायों और खंडों को हटाया गया है. लेकिन पाठ्य सामग्री को हटाए जाने का संबंध छात्रों पर भार घटाने से कम और हिंदू सांप्रदायिक राजनीति से अधिक है.
इतिहास के सिद्धांतों, इसकी वैज्ञानिक प्रक्रियाओं और 'साक्ष्य के तर्कों’ का उल्लंघन करते हुए, भारत की सत्ता में बैठे बहुसंख्यकों की राजनीति करने वाली ताकतों ने आज तथ्यों को पूरी तरह से झूठलाते हुए या उसकी जगह आस्था, विश्वास और पौराणिक कथाओं को जोड़ने की अवैज्ञानिक प्रथा का सहारा लिया है. सांप्रदायिक विचारधारा इतिहास के इस विशेष संस्करण के मूल में है, जिसे सांप्रदायिकतावादी बहुत लंबे समय से प्रचारित करने की कोशिश कर रहे हैं.
वास्तव में, हिंदू सांप्रदायिकतावादियों ने भारतीय समाज को धार्मिक पहचान के आधार पर गहराई से विभाजित होने की उसी ब्रिटिश औपनिवेशिक धारणा का प्रचार किया, जो धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक और अन्य सभी पहचानों को एक खास मंशा से परिभाषित करती है. इस प्रकार धार्मिक सांप्रदायिक विचारधारा और इतिहास की सांप्रदायिक व्याक्चया का जन्म हुआ. हिंदू सांप्रदायिकतावादियों ने जेम्स मिल से प्रेरित भारतीय इतिहास की औपनिवेशिक समझ को स्वीकार किया.
मिल ने इतिहास को धार्मिक आधार पर विभाजित किया और 'हिंदू शासन’ के बाद 'दमनकारी मुस्लिम शासन’ और फिर 'ब्रिटिश राज’ को उस दमन से एक 'उद्धारक’ के रूप में प्रस्तुत किया. औपनिवेशिक काल में उनकी राजनीति अंग्रेजों के साथ गठबंधन करके मुसलमानों के साथ-साथ हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए संघर्षरत भारतीय राष्ट्रवादियों से लड़ने पर केंद्रित रही.
आजादी के बाद, गांधीजी की हत्या के मद्देनजर आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध के तुरंत बाद, संगठन ने अपने स्कूलों (सरस्वती शिशु मंदिरों) और शाखाओं के माध्यम से, एक जहरीले इतिहास को फैलाने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया, जिसमें मुसलमानों को 'विदेशियों’ और 'लुटेरों’ के रूप में भारत पहुंचे राक्षसों की तरह दर्शाया गया.
इतिहास को तोड़-मरोड़ कर गढ़ने के अलावा आस्था और पौराणिक कथाओं ने भी उसका स्थान लेना शुरू कर दिया. इससे हुआ यह कि अब आरएसएस और भाजपा के शीर्ष नेता पौराणिक कथाओं के राम और कृष्ण जैसे ईश्वरीय नायकों के सटीक जन्मस्थानों को लेकर दावे करने लगे या प्राचीन भारत में प्रचलित प्लास्टिक सर्जरी के प्रमाण के रूप में हाथी-सूंड वाले गणेश का उदाहरण देने लगे.
एक बार जब वे राज्यसत्ता के करीब आ गए तो उन्होंने इस तरह के इतिहास को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में लाने की कोशिश की. 1977 में, जनता पार्टी के एक घटक के रूप में, उन्होंने उन किताबों पर प्रतिबंध लगाने के प्रयास किए, जिन्हें एनसीईआरटी ने हमारे सबसे सम्मानित इतिहासकारों (जैसे रोमिला थापर, आर.एस. शर्मा, बिपिन चंद्र और सतीश चंद्रा) से स्कूली बच्चों के लिए लिखवाया था, ताकि आधुनिक, वैज्ञानिक, उपनिवेश विरोधी और धर्मनिरपेक्ष किताबों तक उनकी पहुंच बने.
राष्ट्रव्यापी विरोध ने इस कदम को रोका. अपने अगले कार्यकाल (1999-2004) के दौरान जब भाजपा के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी तो उन्होंने पहली बार इन पुस्तकों से महत्वपूर्ण हिस्सों को यह कहते हुए हटाने का प्रयास किया कि वे धार्मिक भावनाओं को आहत करते हैं. आखिरकार, उन्होंने इन किताबों को इतने भारी हिंदू सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के साथ घटिया किताबों से बदल दिया कि इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस को 2003 में एक किताब लाने के लिए विवश होना पड़ा, जिसका नाम 'हिस्ट्री इन द न्यू एनसीईआरटी टेक्स्टबुक्स: ए रिपोर्ट ऐंड ए इंडेक्स ऑफ एरर्स’ था.
इसने यह निष्कर्ष निकाला कि ये पाठ्यपुस्तकें ''...सुधार के दायरे से भी परे हैं, और उन्हें पूरी तरह से वापस लेने की आवश्यकता है.’’ 2004 में एनडीए सरकार के गिरने के बाद इन पुस्तकों को हटा दिया गया था और ऐसे विद्वानों की एक टीम से पुस्तकों का एक नया सेट तैयार कराया गया था, जिन्हें उनकी विद्वता के लिए जाना जाता था, न कि किसी राजनैतिक विचारधारा से जुड़ाव के लिए. यही वे पुस्तकें हैं जो वर्तमान हमले के केंद्र में हैं.
अब केंद्र में एक बार फिर से भाजपा के सत्ता में आने से, हमारे बच्चों को जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है उसे बदलने का अभियान नए सिरे से जोर पकड़ चुका है. भाजपा के शीर्ष नेता अब तक पढ़ाए गए ‘‘गढ़ंत आख्यानों’’ को बदलने की मांग करते रहे हैं और यह उसी का परिणाम है कि एनसीईआरटी ने 2022 और 2023 में किताबों से चुनिंदा सामग्री हटाई. जैसी कि उम्मीद थी, हटाई गई सामग्रियों में से मुगल और दिल्ली सल्तनत काल से संबंधित जानकारियां सबसे अधिक हैं.
एक अत्यधिक मुखर भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने 4 अप्रैल, 2023 को घोषणा की: ''मुगलों के झूठ को इतिहास से हटाया जा रहा है. अब अगले चरण में इनका सच बताया जाएगा. मुगलों की लूट, व्यभिचार, अत्याचार, कायरता... कला, साहित्य और संगीत से उनकी नफरत भी पढ़ाई जानी चाहिए.’’
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस्लाम से जुड़े भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण काल को मिटाने का प्रयास एक ऐसी व्यवस्था में हो रहा है, जहां मुसलमानों को दानव बना दिया गया है, उनके नाम की सड़कों, रेलवे स्टेशनों, शहरों आदि के नाम बदले जा रहे हैं और समुदाय इतना आतंकित है कि उसने खुद को अल्पसंख्यक बस्तियों में समेट लिया है. विश्व स्तर पर हुए अध्ययनों के आधार पर कहें तो ये अक्सर भविष्य के नरसंहार के संकेत होते हैं.
और हम जानते हैं कि भारत में अब खुलेआम मुसलमानों के नरसंहार की मांग की जा रही है. संविधान पर आधारित लोकतांत्रिक भारत में विश्वास रखने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए. पुस्तकों से हटाई गई सामग्री में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के सभी संदर्भ भी शामिल हैं, क्योंकि हिंदू-मुस्लिम एकता के उनके प्रयासों ने हिंदू चरमपंथियों को नाराज कर दिया था. यह उस व्यवस्था में हो रहा है जहां हत्यारे नाथूराम गोडसे को भाजपा सांसद देशभक्त कहते हैं!
भारतीय इतिहासकारों की सबसे प्रतिष्ठित संस्था इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने इन कदमों की कड़ी आलोचना की है. देश भर से बड़ी संख्या में इतिहासकारों ने यह कहते हुए बदलावों को तत्काल वापस लेने की मांग की है कि यह सब समाज में फूट डालने के इरादे किया जा रहा है. कई राज्य सरकारों ने भी अपना विरोध दर्ज कराया है, और एनसीईआरटी के कदमों की आलोचना करने वाले लेख और संपादकीय न केवल भारतीय मीडिया में बल्कि दुनिया भर के प्रतिष्ठित प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं.
यह समय है कि इतिहास से संबंधित कार्य इतिहासकारों के लिए छोड़ दिए जाएं और दुनिया तथा मानव इतिहास के बारे में संकीर्ण सोच वाले राजनेता इसमें दखलअंदाजी न करें. दरअसल, पाठ्य-पुस्तक लेखन राजनैतिक प्रभाव और हस्तक्षेप से मुक्त, विशेषज्ञों और प्रतिष्ठित नागरिकों से युक्त निकायों के संरक्षण में होना चाहिए.
(मृदुला और आदित्य मुखर्जी जेएनयू में इतिहास के शिक्षक रहे हैं)