दूर से वह सब देख रहा है
चीन में बने सीसीटीवी कैमरे क्या बीजिंग के आंख-कान की तरह काम कर रहे हैं? विशेषज्ञों ने राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर जताए गहरे अंदेशे. लेकिन मौजूदा कानून और इसे लेकर जागरूकता का अभाव खतरे से मुकाबले के लिए नाकाफी.

प्रदीप आर. सागर
अब भारत और चीन के जनरल 2020-21 में लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर दोनों देशों के बीच 50 साल में सबसे भीषण सैन्य टकराव को खत्म करने के लिए गंभीर बातचीत में उलझे थे, बीजिंग पर नई दिल्ली के साथ दोहरा खेल खेलने की शंकाएं जाहिर की गईं. दोनों ओर के जवानों के बीच खूनी झड़प—जिसमें कई जानें गई थीं—के लगभग 15 महीने बाद चीन सरकार से जुड़े साइबर गुट कथित तौर पर व्यापक साइबर-जासूसी अभियान में जुट गए थे.
मकसद था लद्दाख में एलएसी के पास सात प्रमुख इलेक्ट्रिसिटी लोड डिस्पैच सेंटरों (ईएलडीसी) से मर्जी के मुताबिक इलाके की बिजली आपूर्ति को ठप करना. भारत सरकार को इन हमलों की जानकारी थी, जिनमें देश की राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया व्यवस्थाओं को नाकाम करने के लिए साइबर हमला और इन गुटों की कारगुजारियों की रोकथाम के लिए पहले उठाए गए कदम शामिल थे.
भारत सरकार ने इन साइबर हमलों की पुष्टि अप्रैल 2022 तक नहीं की थी. जब अमेरिका स्थित साइबर सुरक्षा फर्म रिकॉर्डेड फ्यूचर ने हमले के ब्यौरे जाहिर किए तब उसने इनकी पुष्टि की. फर्म ने अंदेशा जताया कि चीनियों की इस कार्रवाई से अक्सर सीसीटीवी नेटवर्कों में इस्तेमाल किए जाने वाले इंटरनेट प्रोटोकॉल (आइपी) कैमरे और इंटरनेट से संचालित डिजिटल वीडियो रिकॉर्डिंग (डीवीआर) उपकरण खतरे में पड़ गए.
फर्म के लोगों का साफ तौर पर कहना था कि यह कार्रवाई भारत में बिजली के बुनियादी ढांचे के बारे में जानकारी जुटाने की कोशिश थी. उसके बाद जल्द ही केंद्र ने इस बात की तस्दीक की कि एलएसी के नजदीक भारतीय बिजली संयंत्रों को वाकई निशाना बनाया गया था. केंद्रीय बिजली मंत्री आर.के. सिंह ने कहा कि 2021 में लद्दाख के दो बिजली वितरण केंद्रों को हैक करने की कोशिशों को नाकाम कर दिया गया. आर.के. सिंह ने पत्रकारों से कहा, ''ये हमले जासूसी के लिए थे. वे नाकाम हो गए क्योंकि ऐसे साइबर हमलों के खिलाफ हमारी सुरक्षा तगड़ी है.’’
चीन की सरकार ने ऐसे किसी हमले की बात से पूरी तरह से इनकार किया लेकिन इससे भारत के उच्च सुरक्षा प्रतिष्ठान और बेहद संगीन बिजली और टेलीकॉम क्षेत्र में खतरे की घंटियां बज उठी थीं. खासकर, भारत सरकार के एक फौरी आकलन से पता चला कि देश भर में करीब 20 लाख सीसीटीवी कैमरे लगे हैं. इनमें से 90 फीसद से ज्यादा उन चीनी कंपनियों में बने हैं जिनमें चीन सरकार की आंशिक मिल्कियत है. कहीं ज्यादा चिंता की बात यह है कि उनमें करीब आधे कैमरे सरकारी विभागों में लगे हैं.
इसकी पुष्टि संचार और आइटी राज्यमंत्री संजय धोत्रे ने मार्च 2021 में लोकसभा में की कि सरकारी संस्थाओं में करीब दस लाख चीन-निर्मित कैमरे लगे हैं. धोत्रे ने चिंता जाहिर करते हुए कहा, ''सीसीटीवी कैमरों के जरिए हासिल किए गए वीडियो डेटा को विदेश स्थित सर्वरों को ट्रांसफर किए जाने की संभावनाएं हैं.’’ उन्होंने सीधे चीन का जिक्र नहीं किया लेकिन यह जाहिर था कि वे किस देश की ओर इशारा कर रहे हैं.
विशेषज्ञों की माने तो चिंता की बात यह है कि इन सीसीटीवी कैमरों की टेक्निकल बनावट कमजोर है, जिसे आसानी से भेदा जा सकता है और आक्रमण के लिहाज से इस्तेमाल किया जा सकता है. प्रधानमंत्री कार्यालय में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा संयोजक लेफ्टिनेंट जनरल राजेश पंत (रिटायर) ने इंडिया टुडे से कहा, ''आपको अब सीमा पार जासूस भेजने की जरूरत नहीं, ये सीसीटीवी किसी भी गलत मंसूबे वाले देश की आंख बन जाते हैं. देश भर में ऐसे संयंत्रों की बेरोकटोक मौजूदगी देश के लिए गंभीर सुरक्षा खतरा है.’’ पंत कहते हैं कि उन्होंने हाल में केंद्रीय गृह मंत्रालय को लिखा है कि किसी सरकारी विभाग के ऐसे उपकरणों की खरीद के लिए दिशा-निर्देश तैयार किए जाएं ताकि अप्रामाणिक उपकरणों की आ रही बाढ़ पर रोक लग सके और पहले लगाए जा चुके उपकरणों के 'सुरक्षा उपाय’ पर विचार किया जाए.
अब यह मामला खासा तात्कालिक महत्व का बन गया है. खासकर पिछले तीन महीने में. इस अवधि में ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने अपने-अपने सरकारी विभागों में चीन-निर्मित सीसीटीवी लगाने पर तुरंत प्रभाव से रोक लगा दी है. ऐसा करके इन देशों ने अमेरिका की राह अख्तियार की है. अमेरिका में इस दिशा में 2019 में ही कदम उठा लिए गए थे और नवंबर 2022 में पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया.
विशेषज्ञों का अनुमान है कि भारत में चीन निर्मित क्लोज टीवी कैमरों की बाजार पैठ घरेलू प्रतिष्ठानों में 80 फीसद से ज्यादा और सैन्य सहित सरकारी प्रतिष्ठानों में 98 फीसद से ज्यादा है. ये छज्जों और कॉर्निसों पर लगे हैं. दीवारों, मुंडेरों और खंभों के ऊपर से हर जगह से यानी हर जगह से हमें ताक रहे हैं. यह सातों दिन चौबीसों घंटे निगरानी का जमाना है. भारत के सुरक्षा विशेषज्ञ अब एक भयावह खतरे की तरफ उंगली उठा रहे हैं और वह है सीसीटीवी कैमरों से निगरानी के जरिए बेहद संवदेनशील जानकारियों में सेंध. इस जासूसी का एजेंट और लाभार्थी आखिर कौन है? उत्तर और पूर्व में हमारा अड़ियल और दुश्मन पड़ोसी चीन.
रक्षा प्रतिष्ठान में खतरे की घंटी
यह खुलासा होने के बाद कि तमाम भारतीय नौसैन्य प्रतिष्ठानों पर चीनी मूल के निगरानी कैमरे लगे हैं, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एनएससीएस) और रक्षा गुप्तचर एजेंसी (डीआइए) दोनों ने इन कैमरों के जरिए डेटा में सेंध लगाए जाने के संभावित खतरे के बारे में सुरक्षा चिंताएं जाहिर कीं. इंडिया टुडे ने भारत के रक्षा मंत्रालय के एकीकृत रक्षा मुख्यालय का मई 2022 का एक आंतरिक नोट देखा, जो कहता है, ''सीसीटीवी सिस्टम का जोखिम में पड़ना सैन्य प्रतिष्ठान की सुरक्षा को जोखिम में डाल सकता है.’’
इसके फौरन बाद दक्षिणी नौसेना कमान ने कई जगहों पर चीनी सीसीटीवी कैमरों की मौजूदगी पर खतरे की घंटी बजाई. अनुमान लगाया गया कि दक्षिणी नौसेना कमान की इकाइयों और प्रतिष्ठानों पर सुरक्षा की दृष्टि से लगे करीब 1,500 निगरानी कैमरे चीनी मूल के हैं. कोच्चि में मुख्यालय वाला दक्षिणी नौसेना कमान भारतीय नौसेना प्रशिक्षण कमान है. उसके गुजरात, आंध्र प्रदेश, गोवा, ओडिशा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल और लक्षद्वीप जैसे राज्यों में कई नौसेना प्रतिष्ठान हैं.
नौसेना ने संवेदनशील जगहों से हिकविजन/प्रामा हिकविजन कंपनियों के सीसीटीवी निगरानी सिस्टम को हटाने या उसे दूसरी जगह लगाने की मांग की. ये चीनी और उसकी भारतीय सहयोगी कंपनियां निगरानी उपकरणों के विश्व बाजार में अगुआ हैं. सुरक्षा चिंताओं के मद्देनजर सभी नौसैन्य ठिकानों से कहा गया कि वे इन निगरानी कैमरों और उनके स्टोरेज डिवाइस को इंटरनेट से न जोड़ें.
भारतीय सेना में सूचना प्रणालियों के पूर्व डायरेक्टर जनरल लेफ्टिनेंट जनरल पी.सी. कटोच (सेवानिवृत्त) इस बारे में बेबाकी से कहते हैं, ''अगर हम चीनी सर्विलांस कैमरे लगाना जारी रखते हैं तो हम केवल खुद को ही दोष दे सकते हैं. और किसी को नहीं. हमें उनको हटाकर तुरंत उनकी जगह कोई भरोसेमंद और सुरक्षित सर्विलांस सिस्टम लगाने की जरूरत है. वरना तो हम उसकी (चीन की) नजरों में हैं.’’
भारतीय खुफिया एजेंसियों को सबसे बड़ा डर यह सता रहा है कि चीनी मूल के सीटीटीवी कैमरों की व्यापक तैनाती की वजह से बदतर से बदतर स्थिति में भी डेटा लीक होकर चीनी खुफिया ताकतों के हाथों में जा सकता है. उन्हें यह भी शक है कि कुछ चीनी फर्म और उनके भारतीय पार्टनर केंद्र और राज्य सरकार के महकमों, दूसरे संस्थानों और सैन्य प्रतिष्ठानों के अलावा तमाम भारतीय स्मार्ट शहरों, पुलिस मुख्यालयों, राजमार्गों और हवाई अड्डों में लगे सीसीटीवी कैमरों तक पिछले दरवाजे से बनाई गई पहुंच के जरिए हासिल डेटा वापस बीजिंग को भेज रहे हैं.
दरअसल, वीडियो सिक्योरिटी सर्विलांस (वीएसएस) या सीसीटीवी टेलीकॉम नेटवर्क से जुड़ा कैमरा उपकरण भर नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा है. इस सिस्टम में वीडियो नेटवर्क रिकॉर्डर भी फिट होता है, जिससे तमाम तस्वीरें, जो कि बाद में विश्लेषण के लिए जमा कर ली जाती हैं, एक नेटवर्क से जुड़ी होती हैं. इसे हजारों मील दूर रखे सर्वरों से जोड़ा जा सकता है. ठीक यहीं राष्ट्रीय सुरक्षा का जोखिम पैदा होता है क्योंकि डेटा किसी को भी ट्रांसफर किया जा सकता है.
एक खुफिया अधिकारी की मानें तो आधुनिक कैमरों में यह सुविधा है कि जरूरत पड़ने पर उन्हें दूर से ही खोला जा सकता है. मसलन, वे आवाज रिकॉर्ड कर सकते हैं या गाड़ियों के नंबर प्लेट पढ़ सकते हैं. वे सीसीटीवी में सिस्टम-ऑन-चिप (एसओसी) का जिक्र कर रहे हैं, जो अपने प्रोसेसर और मेमोरी के साथ सॉफ्टवेयर के निर्देश पर काम करता है और उसमें चेहरे की पहचान और रफ्तार की कार्यप्रणालियों के ऐप जुड़े होते हैं. एसओसी के विश्व बाजार में वर्षों से चीन की हिसिलिकॉन का दबदबा है.
यही कंपनी हिकविजन और डहुआ को भी इन कैमरों की सप्लाइ करती है. ये दोनों फर्में दुनिया में सीसीटीवी की बड़ी सप्लायर हैं. चीन की सरकार की आंशिक मिल्कियत वाली इन कंपनियों के उत्पादों का भारत सरकार में व्यापक इस्तेमाल होता है और इन्हें ही रक्षा मंत्रालय के नोट में संभावित खतरा बताया गया है. उनके इंटरनेट से जुड़ते ही बहुत सारा विजुअल डेटा चीन पहुंच जा सकता है. अलग-अलग स्रोतों से हासिल ऐसी सामग्री को डेटा फ्यूजन से जोड़कर उच्च गुणवत्ता वाली खुफिया जानकारी जुटाई जा सकती है.
यह बात तो जग-जाहिर है कि ऐसे सर्विलांस सिस्टम के डेटा का इस्तेमाल आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) आधारित चेहरे, नंबर प्लेट और किसी चीज की पहचान के लिए किया जा सकता है. सैन्य अभियान के पूर्व महानिदेशक (डीजीएमओ) लेफ्टिनेंट जनरल विनोद भाटिया (रिटायर) का कहना है कि एआइ चेहरा पहचान सिस्टम को सीसीटीवी में इस्तेमाल होने वाले आइपी कैमरों से जोड़ा जा सकता है, जो नेटवर्क या इंटरनेट से डेटा का लेन-देन कर सकता है.
इस तरह जासूसी या सर्विलांस में उसका इस्तेमाल किया जा सकता है. फौरी चेहरे की पहचान के सिस्टम से आसानी से नियमित कर्मचारियों, वीआइपी और अजनबियों को पहचाना जा सकता है और पहचान संबंधी रिकॉर्ड प्लेटफॉर्म पर लोड किए जा सकते हैं. इस तरह का डेटा गलत हाथों में पड़ जाने से सुरक्षा को गंभीर खतरा हो सकता है.
सीधे-सीधे खतरे की जद में
अंतरराष्ट्रीय तौर पर भी कई देशों ने चीन निर्मित सीसीटीवी कैमरों पर पाबंदी लगाई हुई है. चीनी जासूसी के डर से अमेरिकी फेडरल कम्युनिकेशंस कमिशन ने राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरों का हवाला देकर दोनों कंपनियों पर अमेरिका में प्रतिबंध लगा दिया और उन्हें सीधे-सीधे ब्लैकलिस्ट कर दिया. अमेरिकी रक्षा विभाग ने हिकविजन और 26 दूसरी फर्मों को ''चीनी सेना की ओर से नियंत्रित या उसकी मिल्कियत वाली’’ फर्मे बताया. दरअसल, अगस्त 2020 में अमेरिका ने नेशनल डिफेंस ऑथराइजेशन ऐक्ट को लागू करके सरकारी एजेंसियों को हिकविजन के उत्पादों की खरीद पर साफ तौर पर पाबंदी लगा दी.
फिर, ब्रिटेन सरकार ने नवंबर 2022 में चीनी सर्विलांस कैमरों पर पाबंदी लगाई तो उसके कुछ ही दिनों बाद हिकविजन ने कहा कि उसे सुरक्षा के लिए खतरा बताना ''कोरा झूठ’’ है और चीन के विदेश मंत्रालय ने साफ खंडन जारी किया. ऐसी आवाज उठाने वाला ताजा देश ऑस्ट्रेलिया है.
इस साल 9 फरवरी को उसने ऐलान किया कि वह जासूसी के डर से अपने रक्षा ठिकानों से चीनी सीसीटीवी कैमरे पूरी तरह से हटा देगा. यह कदम एक ऑडिट के बाद उठाया गया, जिसके मुताबिक सरकारी भवनों पर हिकविजन और डहुआ के 900 सर्विलांस कैमरे लगे हैं. हिकविजन ने ऑस्ट्रेलिया के इस कदम पर भी प्रतिक्रिया जाहिर की और कहा कि वह ऑस्ट्रेलिया के लिए सुरक्षा खतरा बिल्कुल नहीं है और आखिरी उपभोक्ता के वीडियो डेटा तक उसकी पहुंच नहीं हो सकती.
वैसे, सर्विलांस कैमरों से बिल्कुल अलग, 4 फरवरी को अमेरिका ने चीनी ''जासूसी गुब्बारा’’ मार गिराया, जिससे अंदाजा लगता है कि पश्चिम चीन के 'सैन्य और गैर-सैन्य मिलीजुली इकाइयों’ के अंतरराष्ट्रीय सर्विलांस प्रोग्राम को लेकर किस कदर चौकन्ना है. अमेरिका ने आरोप लगाया कि यह गुब्बारा कई रक्षा ठिकानों की निगरानी कर रहा था; चीन ने कहा कि वह वैज्ञानिक और मौसम विज्ञान से जुड़े मकसदों के लिए था और संयोग से अमेरिका के हवाई क्षेत्र में पहुंच गया था. अमेरिका ने अब पांच चीनी फर्मों और एक रिसर्च इंस्टीट्यूट को बीजिंग के संदिग्ध सर्विलांस बैलून प्रोग्राम के लिए निर्यात ब्लैकलिस्ट में जोड़ लिया है.
भारत में मई 2020 में लद्दाख में चीनी सेना की घुसपैठ और जून में गलवान घाटी में झड़प के बाद वित्त मंत्रालय के परिव्यय विभाग ने जीएफआर (जनरल फाइनेंस रूल) 144 xi जारी किया, ताकि चीनी कंपनियां सीधे या अपने भारतीय/चीनी सहयोगियों के जरिए उद्योग संवर्द्धन और आंतरिक व्यवसाय विभाग (डीपीआइआइटी) से पहले से पंजीकरण के बिना खरीद प्रक्रिया में हिस्सा न ले सकें.
जीएफआर सभी राज्यों, केंद्रीय विभागों, सार्वजनिक संस्थानों के साथ-साथ चीनी कंपनियों, उनकी भारतीय सहयोगियों और उनकी शाखाओं या एजेंसियों पर लागू होता है. हालांकि सुरक्षा हलके के सूत्रों का दावा है कि चीनी सीसीटीवी उद्योग ने रुकावटों को लांघने और भारत, खासकर सरकारी ठिकानों के लिए सप्लाइ जारी रखने के नए तरीके निकाल लिए हैं. वित्त मंत्रालय के निर्देश से पार पाने के लिए चीनी फर्म अमूमन परोक्ष भागीदारी के तरीके निकाल रही हैं.
ये सस्ती दरों पर सेमी-नॉकडाउन किट स्थानीय कंपनियों को बेचती हैं. जीईएम (गवर्नमेंट ई-मार्केटप्लेस) पर नियमित मौजूदगी दर्ज कराने वाले घरेलू आयातकों या वितरकों ने भी चीनी माल को ताइवान, विएतनाम, थाइलैंड, सिंगापुर, इंडोनेशिया, दुबई और फिलीपींस के रास्ते परोक्ष तरीके से आयात करना शुरू कर दिया है. मतलब यह कि वीएसएस के जरिए व्यापक जासूसी के प्रति जागरूकता और शक-शुबहे सुरक्षा हलकों में तो निश्चित तौर पर हैं लेकिन उनका मुकाबला करने के लिहाज से कानून बेहद सामान्य हैं.
पिछले दरवाजे से दखल
हिकविजन और डहुआ जैसी चीन की सरकारी कंपनियां तैयार या आधा-तैयार (तकरीबन 90 फीसद चीन के पुर्जों के साथ) उपकरण सभी भारतीय घरेलू ब्रांडों को सप्लाइ करती हैं. ये वीएसएस हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर भी अपने भारतीय सहयोगियों, साझा उपक्रमों या वितरकों के जरिए भारतीय बाजार में सप्लाइ करती हैं. और पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की ओर से बनाए गए कानूनी प्रावधान चाइना इंटेलिजेंस लॉ, 2017 के मुताबिक ये कंपनियां अपने सभी डेटा को चीन की सरकारी खुफिया एजेंसियों के साथ साझा करने को बाध्य हैं.
भारत में इन कंपनियों की पैठ खतरनाक ढंग से व्यापक है. हिकविजन और डहुआ के सर्विलांस कैमरा नेटवर्क के सबसे ज्यादा इस्तेमाल वाले देशों में भारत का नंबर सातवां है. 2020 में हिकविजन ने राष्ट्रीय राजधानी में 1,50,000 सीसीटीवी कैमरे लगाने के लिए दिल्ली सरकार की निविदा हासिल कर ली. अत्यंत संवेदनशील और वर्गीकृत रक्षा परियोजनाओं पर काम कर रहे भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) ने भी इसे विक्रेता के रूप में सूचीबद्ध किया है.
ज्यादा परेशानी की बात यह है कि इसी फर्म ने दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (डीएमआरसी), रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) और प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) को भी कैमरों की आपूर्ति की है. सैन्य प्रतिष्ठानों में इसके निगरानी कैमरों का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है.
दरअसल, चीनी सर्विलांस उपकरणों को लेकर जासूसी शक-शुबहे के केंद्र में हिकविजन और डहुआ कंपनियां ही हैं. रक्षा मंत्रालय के आंतरिक नोट में हिकविजन को ऐसी कंपनी बताया गया है, जिसमें 41 फीसद हिस्सेदारी चीन सरकार की है और वह भारत में एक भारतीय कंपनी के साथ मिलकर काम करती है.
रक्षा मंत्रालय के पत्र में कहा गया, ''इन कैमरा प्रणालियों के मॉड्यूल की आपूर्ति चीनी फर्म करती है. मगर इन उत्पादों पर 'मेड इन इंडिया’ का ठप्पा लगा होता है.’’ इसमें यह भी कहा गया कि डेटा में सेंध दरअसल मरम्मत या बदलने के दौरान प्रोग्राम/कोड किए गए सर्वरों या वाइ-फाइ अथवा सिम-आधारित कनेक्टिविटी के लिए इनके भीतर बने हार्डवेयर के जरिए सर्विलांस/भंडार के जरिए लगाई जा सकती है.
इंडिया टुडे ने हिकविजन और डहुआ की भारतीय सहयोगियों प्रामा हिकविजन और डहुआ टेक्नोलॉजी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड से उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए संपर्क किया. प्रामा हिकविजन ने तो कोई जवाब देना ही मुनासिब नहीं समझा. लेकिन डहुआ ने जवाब दिया. अपने जवाब में उसने कहा कि ''निजी क्षेत्र का कारोबार होने के नाते न हम किसी सरकार की मिल्कियत हैं और न ही हम पर किसी तरह का कोई नियंत्रण है. डहुआ अपने दायित्व के प्रति पूरी गंभीरता से जवाबदेह है.
हम भारत में स्थानीय स्तर पर बनाए गए उत्पादों की सप्लाइ करते हैं और हम प्रासंगिक कानून-कायदों का पालन करते हैं. डहुआ उत्पाद और डेटा सुरक्षा की उच्च गुणवत्ता को कायम रखती है. हम उपभोक्ता डेटा को स्टोर या मैनेज नहीं करते और हम किसी तीसरे पक्ष को डेटा ट्रांसमिट नहीं करते. हम अपने उद्योग में सुरक्षा प्रक्रियाओं के आम मानकों का पालन करते हैं और हम उस हर बाजार में लागू कानूनों, कायदों और कारोबारी मर्यादाओं का पालन करते हैं, जिसमें हम काम करते हैं.’’
खतरनाक गठजोड़
रक्षा मंत्रालय के एक सूत्र का कहना है कि हिकविजन की शुरुआत चीन सरकार की इकाई के रूप में हुई और कम्युनिस्ट हुकूमत से उसके करीबी रिश्ते हैं. पूरी तरह सरकारी मिल्कियत वाली विशालकाय रक्षा-औद्योगिक कंपनी चाइना इलेक्ट्रॉनिक्स टेक्नोलॉजी ग्रुप कॉर्पोरेशन (सीईटीसी) इसकी सबसे बड़ी शेयरधारक है.
इस सूत्र का तो दावा है कि ''देश में सरकार की उदार मदद और विदेशों में कम कीमत पर बिक्री के बूते हिकविजन दुनिया में सर्विलांस की बहुत ताकतवर कंपनी बन गई. इसके कारखाने रोज 2,60,000 कैमरे बनाकर बाहर निकाल सकते हैं. 2019 में उसने दुनिया के करीब एक-चौथाई सर्विलांस कैमरे बनाए, जिनकी बिक्री 150 से भी ज्यादा देशों में की गई.’’
असल में बड़े पैमाने पर उत्पादन की वजह से कम लागत के चलते चीनी सीसीटीवी की कीमत ऐसी है कि इस टेक्नोलॉजी को आयात करके 'मेड इन इंडिया’ के रूप में इसकी मार्केटिंग, रीब्रांडिंग और बिक्री के प्रोत्साहन लाभ खासे अधिक हैं, इतने ज्यादा कि स्थानीय मैन्युफैक्चरिंग और आरऐंडडी में निवेश के फायदे उसके आगे बहुत छोटे पड़ते हैं.
नतीजा यह हुआ कि भारत और दुनिया के ज्यादातर अग्रणी ब्रांडों ने अपनी उत्पाद इकाइयां बंद कर दीं. मिसाल के तौर पर भोपाल स्मार्ट सिटी परियोजना ने सीसीटीवी के लिए एक प्रमुख अमेरिकी फर्म के उत्पादों का विकल्प चुना. हालांकि उसने अपने सारे कैमरे चीन की भीमकाय कंपनी—डहुआ—से मैन्युफैक्चर करवाए. कई कंपनियों ने संवेदनशील सरकारी प्रतिष्ठानों में इन कैमरों को लगाने के लिए यही मॉडल दोहराया.
चीन-निर्मित इलेक्ट्रॉनिक/डिजिटल उपकरणों से खतरे का अंदेशा कोई नया नहीं है. 2014 में इंडियन कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (सर्ट-इन) की जानकारियों के मुताबिक, भारतीय वायु सेना ने अपने कर्मचारियों और उनके परिवारवालों से जियोमी रेडमी 1 स्मार्टफोन न इस्तेमाल करने को कहा. शक था कि ये फोन डिवाइस आइडेंटिफायर, फोन नंबर, एड्रेस बुक नंबर और टेक्स्ट मैसेज चीन के सर्वर को भेज देते हैं.
इसी तरह 2017 में डोकलाम में सीमा पर टकराव के तीन महीने बाद थल सेना ने चीन सीमा पर तैनात अपने सभी जवानों से अपने स्मार्टफोन को फॉर्मेट करने और ट्रूकॉलर और वीचैट जैसे चीनी मूल वाले ऐप को डिलीट करने को कहा. शक था कि ये ऐप्लीकेशन, कुल 42 ऐसे स्पाइवेयर या मैलिसस वेयर से जुड़े हैं, जिनका संबंध चीन के हैकरों से है.
2015 में अमेरिका स्थित आला साइबर सुरक्षा फर्म फेयरआइ ने एक रिपोर्ट में दावा किया कि चीन के हैकर राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य जानकारियों के लिए भारत सरकार और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की जासूसी कर रहे हैं. 2015 में ही रक्षा मंत्रालय ने नई दिल्ली के साउथ ब्लॉक में अपने कर्मचारियों को इंटरनेट के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी और उनसे कहा कि हैकिंग के खतरे के मद्देनजर वाइ-फाइ और ब्लूटूथ के साथ उपकरणों का इस्तेमाल न करें. पिछले दो साल में केंद्र सरकार 100 से ज्यादा चीनी मोबाइल ऐप पर ''राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा’’ का हवाला देकर पाबंदी लगा चुकी है.
हाल ही में एक ऐसा मामला खुफिया अधिकारियों के हाथ लगा जिसमें एक अमेरिकी कंपनी ने पिछले दो-तीन साल से 'मेड इन यूएसए’ उत्पादों की आपूर्ति करने का दावा किया था, मगर अगस्त 2022 में पता चला कि भारतीय मानक ब्यूरो (बीआइएस) से मिले प्रमाणपत्र में उन्हें हिकविजन की शंघाई फैक्ट्री में मैन्युफैक्चर किया दिखाया गया था.
ये कैमरे भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण, जम्मू-कश्मीर पुलिस, भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण और केंद्रीय गृह मंत्रालय (एमएचए) को सप्लाइ किए जा रहे हैं. इस खुलासे के बाद श्रीनगर में जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल के दफ्तर को सीसीटीवी की आपूर्ति के लिए कंपनी की निविदा रद्द कर दी गई. हालांकि इसके आगे कोई कार्रवाई नहीं की गई.
फौरी हल की जरूरत
गृह मंत्रालय के निश्चित दिशा-निर्देश नहीं होने की वजह से कई विशेषज्ञ अब जासूसी से अचूक सुरक्षा पक्की करने के लिए वीएसएस प्रणालियों की समूची खरीद प्रक्रिया में अतिरिक्त नियम और शर्तें लागू करने की मांग कर रहे हैं. राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा संयोजक पंत का कहना है कि उन्होंने सरकारी सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलीमेटिक्स (सी-डॉट) से सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर की जांच के लिए एक राष्ट्रीय इकाई बनाने को कहा है, ताकि संवेदनशील सरकारी विभागों की खरीद के लिए उपकरणों की जांच की जा सके. विशेषज्ञ दूसरा उदाहरण सिंगापुर का देते हैं, जहां आइओटी (इंटरनेट ऑफ थिंग्स) स्टार रेटिंग तैयार की गई है, जो बता देती है कि कोई उपकरण जासूसी बग से मुक्त है या नहीं.
विशेषज्ञ बीएसआइ मानकों के मुताबिक सीसीटीवी पर अमल में सरकारी कोताही की बातें करते हैं. सीसीटीवी के लिए मौजूदा मानक वही हैं, जो मोबाइल फोन, कैश रजिस्टर, लैपटॉप, सेट-टॉप बॉक्स, पावर बैंक और इस तरह की चीजों पर लागू होते हैं, जबकि उनके मुताबिक, समय की मांग यह कहती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा का विशेष ध्यान रखकर कायदे बनाए जाएं. टेलीकॉम इक्विपमेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (टीईएमए) के चेयरमैन एन.के. गोयल कहते हैं, ''यह कहीं भी राष्ट्रीय सुरक्षा पहलुओं की बात नहीं करता. बीआइएस मानक केवल आग या उनके टिकाऊपन सरीखे खतरों का जिक्र करता है.’’
सर्विलांस प्रणालियों के मामले में राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं की तरफ इशारा करते हुए सैन्य विशेषज्ञ यह भी बताते हैं कि टेलीविजन से लेकर वाशिंग मशीन तक तमाम घरेलू उपकरण किस तरह इंटरनेट से जोड़े जा रहे हैं और इस तरह डेटा चोरी के लिहाज से अत्यंत संवेदनशील हैं. एक सैन्य जानकार कहते हैं, ''फोन और दूसरे गैजेट बनाने वाली चीनी कंपनी जिओमी मिलिट्री-ग्रेड सेंसर और 30 दिन की बैटरी लाइफ वाला फिटनेस बैंड महज 35 डॉलर में बेचती है. ये घड़िया अक्सर पहनने वाले की आवाजाही, दिल की धड़कन और नींद के पैटर्न पर नजर रखती हैं. इसलिए जासूसी किए जाने का डर हमेशा बना रहता है.’’
लेफ्टिनेंट जनरल भाटिया कहते हैं कि सीसीटीवी से मिले इनपुट को अन्य उपलब्ध डेटा (मसलन, मोबाइल फोन इत्यादि) से जोड़कर चीनी अहम जानकारियां आसानी से इकट्ठा कर सकते हैं. वे कहते हैं, ''चीन रिमोट कंट्रोल से इन सर्विलांस उपकरणों तक आसानी से पहुंच हासिल कर सकता है. खतरा एकदम सामने खड़ा है. खरीद प्रक्रिया में बदलाव करने के अलावा हमें अपनी सैन्य टुकड़ियों को चीन के जासूसी के नए तरीकों के बारे में जागरूक करने की भी सख्त जरूरत है.’’
राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे के अलावा, कम कीमत के बिल बनाकर किए गए आयात की वजह से सरकार को करोड़ों के राजस्व का नुक्सान भी होता है और भारत महज चीनी सामान को एसेंबल करने के बजाए मैन्युफैक्चरिंग के जरिए सर्विलांस हार्डवेयर का विशुद्ध निर्यातक होने का मौका भी गंवा बैठता है.
पुणे स्थित बाजार विश्लेषक कंपनी मार्केटिंग रिसर्च फ्यूचर की एक रिपोर्ट के मुताबिक सीसीटीवी के वैश्विक बाजार के 2020 और 2030 के बीच 13.1 फीसद सीएजीआर (चक्रवृद्धि सालाना वृद्धि दर) से बढ़कर करीब 46.52 अरब डॉलर (3.8 लाख करोड़ रुपए) हो जाने की उम्मीद है. उद्योग के अंदरूनी लोगों का दावा है कि चीनी आयात की वजह से भारत का इसमें तकरीबन कोई हिस्सा नहीं है. अलबत्ता अगर हमारे बाजार को पाट रहे सस्ते चीनी आयात पर विराम लगा दिया जाए और भारतीय कंपनियों को बढ़ावा दिया जाए, तो चीजें बदल सकती हैं.
अब सुरक्षा प्रतिष्ठान में खतरे की घंटियां जोर से बजने लगी हैं तो नॉर्थ ब्लॉक में एक विभाग सर्विलांस उपकरणों के जरिए संभावित चीनी जासूसी पर रोक लगाने के बारे में सोच रहा है, मगर सीसीटीवी के व्यापक संदिग्ध नेटवर्क ने इसे बेहद मुश्किल काम बना दिया है. खुफिया एजेंसियों ने ऐसे मामलों की तस्दीक की है कि उन्हें चिप लगे उपकरण मिले हैं, जिनके जरिए सूचनाएं चीन भेजी जा सकती हैं.
हालांकि केंद्र सरकार अगर चीनी टेलीकॉम से जुड़ी हर चीज पर फौरन प्रतिबंध जड़ देती है तो उसका खुद की सर्विलांस व्यवस्था पर असर पड़ेगा. समूचे सर्विलांस सिस्टम को बदलने का मतलब होगा कि अपने ऊपर अतिरिक्त वित्तीय बोझ डाल लेना. इसलिए विशेषज्ञों की सलाह है कि इसे चरणबद्ध तरीके से किया जाना चाहिए. शुरू में इसे अत्यधिक संवेदनशील सुरक्षा प्रतिष्ठानों में किया जाए और उसके बाद फिर धीरे-धीरे इसे बाकी सरकारी संस्थानों में किया जाए.
सरकार के साथ काम कर रहे एक साइबर विशेषज्ञ नाम न छापने की शर्त पर इस बारे में थोड़ी और परतें खोलते हैं, ''हम कैमरों में लगे चीनी चिप्स में हेर-फेर करने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ मामलों में यह पाया गया है कि इन चिप्स की भारतीय सॉफ्टवेयर से रीप्रोग्रामिंग की जा सकती है. अगर यह हो गया तो चीनी जासूसी तंत्र पर काबू पाया जा सकेगा. (चीन-निर्मित सीसीटीवी पर) पाबंदी एक राजनैतिक कदम है.
दरअसल हमें दरकार यह आश्वस्त करने की है कि सर्विलांस उपकरणों में चीन की खुफिया की पिछले दरवाजे से घुसपैठ न हो.’’ वे यह भी कहते हैं कि डेटा सुरक्षा का कोई स्पष्ट कानून न होने की वजह से स्थितियां और मुश्किल हो जाती हैं. हालांकि फिलहाल सबसे जरूरी यह है कि चीनी सर्विलांस सिस्टम को ऐसे साफ किया जाए कि उससे राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई खतरा न हो सके. खतरे की घंटी की आवाजें जब तेज होने लगी हैं तो कारगर और एकदम सटीक कानूनी प्रावधान के साथ जमीनी कार्रवाइयों का इंतजार है.