तीन चुनौतियां और अवसर एक

परिवर्तनकाल से गुजर रही दुनिया में, भारत के पास मौका है कि वह पिछले साल की तुलना में इस साल विश्व व्यवस्था को अपनी आकांक्षाओं के मुताबिक अधिक अनुकूल आकार दे

विदेश नीतिः चीन-अमेरिका प्रतिद्वंद्विता के लंबे समय तक कायम रहने की संभावना है, ऐसे में भारत के साथ अमेरिका के संबंध प्रगाढ़ बने रहेंगे
विदेश नीतिः चीन-अमेरिका प्रतिद्वंद्विता के लंबे समय तक कायम रहने की संभावना है, ऐसे में भारत के साथ अमेरिका के संबंध प्रगाढ़ बने रहेंगे

भारत @2023 : विदेश नीति

शिवशंकर मेनन, पूर्व विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार

वर्ष 2022 हमें एक लड़खड़ाती हुई विश्व अर्थव्यवस्था, यूक्रेन में एक अंतहीन युद्ध, चीन में कोविड संक्रमणों की सूनामी, हर जगह बड़े पैमाने पर राष्ट्रवाद, अनेक स्थानों पर उभरते भू-राजनीतिक संकटों और दूसरी तरफ सकारात्मक परिवर्तन के गिने-चुने दृश्यों के साथ छोड़कर गया है. चीन-अमेरिका का सामरिक विवाद भी हमारे आसपास के क्षेत्र में बढ़ रहा है. इस स्थिति में भारत के सामने चुनौतियों का अंबार है. बड़ी शक्तियों की बढ़ती प्रतिद्वंद्विता के साये में जो वैश्विक वातावरण बना है आवश्यक रूप से भारत के कायापलट के लिए अनुकूल नहीं है, क्योंकि इसमें बाहरी वचनबद्धताओं की आवश्यकता होगी. फिर भी महान शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता की इस दुनिया में भारत के लिए अवसर बन सकते हैं, यदि हम तीन मूलभूत चुनौतियों को सफलतापूर्वक संभाल सकें.

तीन चुनौतियां 
बाहरी चुनौतियों में सबसे प्रमुख है चीन और वह भारत की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा है. वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर 2020 में हमने जो देखा, वह चीन द्वारा एलएसी का एक पूर्व-निर्धारित अतिक्रमण था और समझौतों और प्रचलित व्यवस्था के इस पूर्ण उल्लंघन ने यथास्थिति को बदल दिया. एलएसी अब गर्म है, और पूरे एलएसी पर तैनात दोनों पक्षों के 1,00,000 से अधिक सैनिक टकराव की स्थिति में हैं. आगे की घुसपैठ और अतिक्रमण को रोकने के लिए, पहला काम उपायों और कार्यों के संयोजन से एलएसी पर प्रभावी प्रतिरोध बनाना होगा. साथ ही, भारत और चीन आर्थिक रूप से जुड़े हुए हैं. सीमा पर तनातनी की घटनाओं के वर्ष में भी चीन भारत के सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार के रूप में उभर रहा है. चीन कई अन्य वजहों से भी भारत के लिए बहुत अहमियत रखता है. इसलिए रिश्तों को सुधारने के प्रयास गंभीरता से किए जाने चाहिए लेकिन यह एक ऐसा कार्य है जिसे दोनों पक्षों के बीच उच्च-स्तरीय राजनीतिक जुड़ाव के बिना नहीं किया जा सकता और तीन साल से अधिक समय से यह हुआ नहीं है.

दूसरी, एक नई एशियाई और वैश्विक आर्थिक व्यवस्था बनने की प्रक्रिया में है और कोविड महामारी तथा यूक्रेन में युद्ध ने इसे गति दी है. आसियान देशों के बीच की क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी या आरसीईपी दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक क्षेत्र बनाती है लेकिन भारत इसमें शामिल नहीं है. चीन अब अफगानिस्तान और भूटान को छोड़कर सभी एशियाई देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है. बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई), एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐंड इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) और न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) तथा अन्य पहलों द्वारा चीन-केंद्रित भौतिक, डिजिटल और वित्तीय संपर्क के नए अवसर बनाए जा रहे हैं.

वैश्विक विनिर्माण मूल्य और आपूर्ति शृंखलाएं जिन्होंने वैश्वीकरण के दशकों के दौरान तेज विकास में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी, लगभग पांच वर्षों से कम होती जा रही हैं. चीन और अमेरिका इसे सतह पर लेकर आ गए हैं, और जलवायु परिवर्तन तथा अन्य बहानों के नाम पर संरक्षणवाद को बढ़ावा मिल रहा है. यदि भारत को इस सदी के पहले दशक के उच्च विकास पथ पर वापस लौटना है, तो हमें आरसीईपी और भारत-प्रशांत आर्थिक ढांचे (आईपीईएफ) के व्यापार चरण से दूर जाने के बजाय वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ अपना जुड़ाव बढ़ाने की आवश्यकता है. 

तीसरी चुनौती अधिक कठिन अंतरराष्ट्रीय हालात से सफलतापूर्वक निपटने के लिए सुसंगतता और सामंजस्य बनाने की है जो आंशिक रूप से एक घरेलू चुनौती है. इतिहास की सभी सफल उदीयमान शक्तियों ने सही समय की प्रतीक्षा की है और तब तक मौजूदा व्यवस्था के साथ काम किया है. अपने उदय के लिए समर्थन हासिल करने और व्याख्या करने के लिए आंतरिक और बाहरी रूप से एक प्रेरक कथा का निर्माण किया है. 

आज, हम कई खेमों में बंटी दुनिया में हैं, और भारत पूर्वी चीन सागर से ताइवान, दक्षिण चीन सागर से भारत-चीन सीमा, यमन और इसी तरह के एशिया में कई समुद्री भू-राजनीतिक तनाव क्षेत्रों से घिरा हुआ है. यह भारत की भू-राजनीतिक स्थिति और विकल्पों को कठिन बनाता है.

चार अवसर 
इन सबके बावजूद परिवर्तन काल और संकट, अपने साथ अवसर भी लेकर आते हैं. फिलहाल उन कार्यों को पूरा करने का मौका है जिन्हें जरूरी माना जाता है लेकिन सामान्य समय के दौरान करना कठिन होता है, जैसा कि हमने 1991 में सुधारों के साथ देखा था. 

विभिन्न व्यवस्थाओं में बंटी दुनिया ऐसी दुनिया है जहां अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के बीच से एक नई व्यवस्था बनेगी. यह भारत जैसे देशों के लिए एक ऐसी व्यवस्था के विकास को प्रोत्साहित करने का एक अवसर है जो हमारी आकांक्षाओं के लिए पिछली की तुलना में अधिक अनुकूल है, विशेष रूप से साइबर स्पेस जैसे नए डोमेन में.

तथ्य यह है कि चीन-अमेरिका प्रतिद्वंद्विता के लंबे समय तक कायम रहने की संभावना है और यहीं पर अन्य शक्तियों के सामने भू-राजनीतिक संतुलन के लिए अवसर बनता है. हमने देखा है कि कैसे बड़ी संख्या में देश यूक्रेन संकट पर दोनों में से किसी एक पक्ष के साथ खड़े होने में झिझकते दिखे और एक तीसरा रास्ता तलाश रहे थे. हम दक्षिण पूर्व एशियाई देशों को अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा के बीच एक सुरक्षित रास्ता तैयार करते भी देख रहे हैं, जिनमें से अधिकांश चीन से आर्थिक रूप से लाभान्वित हो रहे हैं लेकिन अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर भरोसा करते हैं. 

महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता की दुनिया का एक लाभार्थी अमेरिका के साथ भारत का संबंध है. अमेरिका अब भारत को अलग तरह से देखता है. भारत के लिए, अमेरिका परिवर्तन का एक आवश्यक भागीदार है, न कि केवल एक ऐसी महाशक्ति जो चीन को लेकर हमारी कुछ चिंताओं को साझा करता है. दोनों देशों के बीच बढ़ता सामरिक सामंजस्य रक्षा और समुद्री सुरक्षा, राजनीति और क्वाड, आईपीईएफ (भारत-प्रशांत आर्थिक ढांचा) और अन्य नए गठनों में गहराते संबंधों में परिलक्षित होता है. बढ़ता सामंजस्य इशारा देता है कि यह साझेदारी 2023 में बढ़ेगी. 

एक और अवसर तो उपमहाद्वीप में ही बन रहा है. भारत के पास भुगतान प्रणाली और कनेक्टिविटी जैसे आर्थिक साधनों को स्थापित करने के लिए अपने सहयोगियों के साथ काम करने का अवसर है जो हमारे कुछ पड़ोसियों के आर्थिक और राजनीतिक संकट को दूर करने में मदद कर सकता है. वैसे संकट, जिससे फिलहाल उपमहाद्वीप के तीन देश जूझ रहे हैं और उनकी सरकारों ने आईएमएफ से मदद के लिए संपर्क किया है और पिछले डेढ़ साल में पांच सरकारें बदली हैं, के बीच हमारे लिए उन चीजों को करने का मौका बनता है जिसे हम सभी समझते हैं कि यह एक जरूरत है लेकिन घरेलू राजनीति सामान्य समय में इसकी अनुमति नहीं देती है.

दूसरा अवसर एक नया एशियाई राजनीतिक संतुलन बनाने के लिए काम करना है जो वैश्विक दक्षिण की चिंताओं के अधिक अनुकूल हो. हम पहले से ही एशिया के समुद्र में कई ऐसे तरीकों से सहयोग कर रहे हैं जो दो दशक पहले अकल्पनीय थे. हमें जापान, वियतनाम, इंडोनेशिया, सिंगापुर जैसे देशों और हिंद-प्रशांत में अन्य देशों के साथ अपने काम का विस्तार करने की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि एशिया खुला, बहुलतावादी और समावेशी बना रहे, जैसा कि वह अपने पूरे इतिहास में रहा है.

इस प्रकार, 2023 के लिए हमें कुछ भू-राजनीतिक पूर्वानुमान भले ही धूमिल नजर आ सकते हैं लेकिन भारत ने इससे पहले भी बदतर स्थिति का सामना किया है और संकट को अवसर में बदलकर रचनात्मक प्रतिक्रिया दी है. इसके लिए नई नीतियों और अलग नजरिए की जरूरत होगी, लेकिन मुझे विश्वास है कि भारत इसे फिर से कर सकता है.

 

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