चौहानों की उत्पत्ति : इतिहास के झरोखे से
टॉड चौहानों के रीति-रिवाजों, सूर्य और पशुओं की उपासनों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने सीथियन करार देते हैं जो मध्य एशिया से भारत आए और यहां अपनी कॉलोनी बना ली.

चौहानों की उत्पत्ति : इतिहास के झरोखे से
इतिहास में चौहानों की उत्पत्ति; के चार संदर्भ मिलते हैं:
अग्निकुल का संदर्भ: इसका पहला जिक्र चंद्र बरदाई की पृथ्वीराज रासो में मिलता है. इसके अनुसार जब परशुराम ने क्षत्रियों का संहार कर दिया तो असुरों का प्रकोप बढ़ने लगा. ऋषियों के हवन में बाधा पहुंचने लगी. इस समस्या के निवारण के लिया ऋषि वशिष्ठ ने अबू पर्वत पर एक यज्ञ किया. इससे चार क्षत्रिय कुल उत्पन्न हुए.
प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान. मुहणोत नैणसी अपने ख्यात (इतिहास की किताब) में और सूर्यमल्ल मिश्रण ने अपनी किताब वंश भास्कर में इसी मत को ठीक माना है. लेकिन यह बात किसी भी वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले इनसान को ठीक नहीं जान पड़ेगी.
सूर्यवंश: दूसरा मत के सूर्यवंश के संबंध में है. इसका पहला जिक्र जयानक की पृथ्वीराज विजय में मिलता है. इसके अलावा नयनचंद्र सूरी के लिखे हमीर महाकाव्य में भी चौहानों को सूर्यवंशीय क्षत्रिय बताया गया है. बाद के दौर में इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने भी चौहानों को सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा. लेकिन सेवाड़ी के अभिलेख में जो वंशवृक्ष दिया गया है, उसमें चौहानों का ताल्लुक सूर्यवंश के साथ जुड़ता नहीं दिखता. बल्कि इन्हें इंद्र की संतति दिखाया गया है.
तीसरा संदर्भ: चौहानों की ब्राह्मण कुल से उत्पत्ति .इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा अपनी किताब द अर्ली चौहान डायनेस्टीज में इस इस बात के सबूत पेश करते हैं. 'चाहमानों’ के बिजौलिया शिलालेख में उनकी उत्पति के बारे में 'विप्र श्रीवत्सगोत्रेभूत’ लिखा गया है. चौहानों की एक शाखा कायमखानी है, जिसने बाद के दौर में इस्लाम स्वीकार कर लिया था. कायम खां रासो में भी चौहानों के ब्राह्मण होने की बात कही गई है. लेकिन यह दावा भी बहस का मुद्दा है.
चौथा मत: एनल्स ऐंड ऐंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान लिखने वाले कर्नल जेम्स टॉड का है. टॉड चौहानों के रीति-रिवाजों, सूर्य और पशुओं की उपासनों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने सीथियन करार देते हैं जो मध्य एशिया से भारत आए और यहां अपनी कॉलोनी बना ली. लेकिन कर्नल टॉड ने राजस्थान के ज्यादातर राजवंशों को विदेशी साबित करने की कोशिश की है. इसकी एक वजह अंग्रेजों के भारत पर कब्जे को ऐतिहसिक तौर पर जायज ठहराना भी रहा होगा.
मौर्यों की उत्पत्ति : इतिहास के झरोखे से
मौर्यों की उत्पत्तिh; पर इतिहास में अलग-अलग जानकारी मिलती हैं.
रोमन इतिहासकार जस्टिन ने मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य के बारे में लिखा कि वे एक बेहद साधारण परिवेश से आए और सत्ता पर काबिज हुए.
बौद्ध साहित्य चंद्रगुप्त के क्षत्रिय कुल में पैदा होने की बात कहते हैं. बौद्ध ग्रंथ महावंश के अनुसार चंद्रगुप्त शाक्य क्षत्रियों की मोरिया शाखा से संबंधित थे. भगवान बुद्ध भी क्षत्रियों की शाक्य शाखा से आते थे. कौशलों के हमले के बाद मोरियों को हिमालय में शरण लेनी पड़ी. यहां उन्होंने एक नगर बसाया और इस इलाके में मोरों की बहुतायत होने की वजह से इसे 'मौर्य नगर’ कहा गया.
जैन साहित्य में चंद्रगुप्त मौर्य का ताल्लुक शाही मोरों को पालने वाली एक जाति से जोड़ा गया है. हेमचंद्र की लिखी परिशिष्टपरवन में चंद्रगुप्त मौर्य की मां को 'मयूर पोषका ग्रामे’ या मोर पालने वाले गांव के मुखिया की बेटी बताया है.
पुराणों में चंद्रगुप्त मौर्य को शूद्र करार दिया गया है. विष्णु पुराण के अनुसार चंद्रगुप्त की मां मूरा नाम की एक शूद्र महिला थी. इसी वजह से चंद्रगुप्त और उनके वंशजों ने अपने नाम के आगे मौर्य लगाना शुरू किया.
विशाखदत्त के लिखे संस्कृत नाटक मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त के लिए 'कुलहीन’ और 'वृषला’ शब्द का इस्तेमाल हुआ है. इसका मतलब है कि चंद्रगुप्त का संबंध शूद्रकुल से रहा होगा.
सुहेल देव : इतिहास के झरोखे से
सुहेल देव का पहला जिक्र अमीर खुसरो की किताब एजाज-ए-खुसरवी में आता है.
1620 के आस-पास अब्दुल रहमान चिश्ती ने फारसी में एक किताब लिखी मिरात-ए-मसूदी. यह किताब सैयद सालार मसूद की कहानी कहती है. इसमें सुहेल देव को भरथरु बताया है.
1940 में पेशे से स्कूल टीचर और कवि गुरु सहाय दीक्षित द्विजदीन ने सुहेल देव बावनी लिखी. वे एक हाथ में तलवार लेकर सुहेल देव पर लिखी इस वीर रस की कविता को तमाम मंचों पर गाते हुए दिखाई देते थे. इसने गुरु सहाय को स्थानीय स्तर पर सेलेब्रिटी बना दिया और सुहेल देव के किरदार को नए सिरे से जिंदा कर दिया.
सुहेल देव बावनी में दीक्षित ने सुहेल देव को एक जैन वंशीय क्षत्रिय बताया है.
बाद में सुहेल देव पर लिखे गए तमाम दस्तावेजों में उनकी जाति के ऊपर संशय बरकरार है. कई जगह उन्हें भर क्षत्रिय, विसेन राजपूत, बैस राजपूत, पांडव वंशी तोमर तक कहा है.
1950 में हुए स्मारक आंदोलन में आर्य समाज, राम राज्य परिषद् और हिंदू महासभा ने सुहेल देव को पासी राजा के तौर पर स्थापित किया था.
राजभर जाति मिरात-ए-मसूदी के आधार पर सुहेल देव के राजभर होने का दावा पेश करती है.
दावेदार और दावे
सम्राट अशोक
दावेदार जातियां कुर्मी और कुशवाहा
कुर्मी और कुशवाहा जातियों का दावा सम्राट अशोक के क्षत्रिय वंश से ताल्लुक रखते हैं लेकिन कालांतर में आजीविका बदलने से वर्ण व्यवस्था में स्थान बदल गया
पृथ्वीराज चौहान
दावेदार जातियां गुर्जर और राजपूत
गुर्जर जाति का दावा पृथ्वीराज के दरबारी कवि जयानक ने पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर के लिए गुर्जराधिपति शब्द का इस्तेमाल किया है
राजपूतों का दावा गुर्जर स्थानवाचक शब्द है जातिवाचक नहीं, जबकि पृथ्वीराज की वंशावली सीधी-सीधे राजपूतों की है
राजा सुहेलदेव
दावेदार जातियां पासी और राजभर
पासी जाति का दावा 2001 में 'महाराजा सुहेल देव सेवा समिति’ संगठन ने स्थापित करने की कोशिश की कि राजा सुहेल देव पासी थे
राजभर जाति का दावा अब्दुर रहमान चिश्ती की लिखी मिरात-ए-मसूदी में सुहेल देव के भरथरु समुदाय से होने की बात लिखी गई है. इस आधार पर राजभर समुदाय सुहेल देव को राजभर कहता है
राणा पुंजा
दावेदार जातियां भील और राजपूत
भील समुदाय/जाति का दावा राणा पुंजा की पैदाइश मेरपुर की है. 15 साल की उम्र में पिता के निधन के बाद उन्हें उनकी बिरादरी का मुखिया बना दिया गया था
राजपूत जाति का दावा - राणा पुंजा का संबंध भोजावत सोलंकी राजपूतों से है.