आवरण कथाः हिजाब पर हंगामा
क्या स्कूलों में इस पर प्रतिबंध होना चाहिए? क्या इस्लाम धर्म का पालन करने के लिए इसे पहनना जरूरी है? क्या हैं पक्ष-विपक्ष की कानूनी दलीलें? इस विवाद के नतीजे का मुल्क पर क्या असर पड़ेगा?

सुनील मेनन
जिन लोगों को हिजाब परेशान करने वाली पहेली नजर आता है, उनके लिए कवियित्री कमला दास से ज्यादा इसे पहनने वाली पहेलीनुमा शख्सियत दूसरी नहीं हो सकती. उन्होंने 65 की उम्र में प्यार की खातिर इस्लाम कुबूल किया और कमला सुरैया बन गईं. तो क्या यह परंपरा तोड़ने वाली लेखिका मुस्लिम पर्दे के पीछे छिप गई थी, जिसने यौनिकता के मामलों में चौंकाने वाले ढंग से आत्मकथा लिखकर अपनी अंतरंग जिंदगी उघाड़कर रख दी—इतनी दो-टूक कि 'स्ट्रिप्टीज’ कहकर उसकी आलोचना की गई?
यह देश के सार्वजनिक जीवन में हंगामा बरपा देने वाला सबसे अविश्वसनीय विवाद था. वस्तुत: रहस्य मंग लिपटी पहेली की तरह वे 2009 में गुजर गईं. मगर 13 साल बाद बदकिस्मती से हिजाब फिर अचानक केंद्रीय मंच पर ले आया गया है और उसके साथ धरती को हिला देने वाली ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया गया है,
जिनमें बहुत-सी और भी अंदरूनी परतों में खलबली मची है और जिसकी विस्फोटक ताकत भी बहुत ज्यादा है. ऐसी घटनाएं जो भीतरी और बाहरी जिंदगियों की मिट्टी पर घटित हुई हैं.
यह मामूली ढंग से शुरू हुआ. तटीय कर्नाटक के उडुपी कस्बे में मध्य-किशोरावस्था की छह लड़कियों को उनके प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज (प्लस 2 के समकक्ष) ने कक्षा में हिजाब पहनकर आने देने से इनकार कर दिया. सचाई के कई संस्करण हैं, पर इतना तय है कि विवाद 2020 के मॉनसून सेमेस्टर जितना पुराना है. ये लड़कियां फ्रेशर्स के तौर पर आईं.
कुछ दिन उन्होंने सामान्य कपड़े पहने, जिनमें हिजाब भी था. फिर सबने अपनी-अपनी यूनिफॉर्म खरीदीं. उन्होंने यूनिफॉर्म के साथ सिर पर दुपट्टा पहनने की इजाजत मांगी, पर नहीं मिली—कक्षा में जाने के लिए उन्हें हिजाब उतारने पड़े. वह हिजाब, जो उनके लिए पवित्र था, सार्वजनिक तौर पर खुद को समेटने का हिस्सा था. जिसका सार्वजनिक रूप में उल्लंघन हो चुका था.
कॉलेज जिन नियमों की बदौलत इस तरह व्यक्तिगत अधिकार में दखलअंदाजी कर सका, उनको लेकर कुछ अस्पष्टता है. कॉलेज में 2004 से यूनिफॉर्म थी, पर कोई लिखित दिशानिर्देश नहीं थे, निषेधों के बारे में तो निश्चित ही कुछ नहीं था. (वास्तव में, कर्नाटक में 1980 के दशक में रामकृष्ण हेगड़े के वक्त से ही अपवादस्वरूप हिजाब की अनुमति का इतिहास रहा है).
ज्यादा अहम यह कि कॉलेज के यूनिफॉर्म के नियम धुंधले वैधानिक आधार पर टिके थे. सरकार के प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों पर लागू होने वाले कानून कर्नाटक शिक्षा अधिनियम 1983 में यह अनिवार्य नहीं है. बाद में इस कानून के तहत 1995 में पारित नियमों में कॉलेज विकास समितियों (सीडीसी) को अपने-अपने कॉलेजों के लिए यूनिफॉर्म के नियमों सहित नियम बनाने की अनुमति दी गई. यहीं एक प्रत्यक्ष विरोधाभास के साथ मामला और पेचीदा हो गया. जो भी हो, ज्यादातर लोगों के मुताबिक, हाल के वर्षों तक यूनिफॉर्म के नियम का कड़ाई से पालन नहीं होता था. संयोग से तभी मौजूदा विधायक रघुपति भट कॉलेज की सीडीसी के अध्यक्ष बन गए.
दूसरी लहर की वजह से पूरा मामला ठंडा पड़ गया और सार्वजनिक जीवन के तमाम दूसरे पहलू भी नेपथ्य में चले गए. मगर सिर्फ अक्तूबर तक, जब कॉलेज फिर खुला और लड़कियों ने अपनी मांग फिर उठाई. 29 दिसंबर के आसपास गर्मागर्मी अचानक बढ़ी जब लड़कियों ने कॉलेज के गेट के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. शुरुआत में यह इतनी मामूली खबर थी कि बेंगलूरू के अखबारों तक पहुंचने में भी इसे महीना लग गया.
मगर फरवरी आते-आते समूचा भू-दृश्य जमीनी सुरंगों से पटे पड़े रणक्षेत्र की तरह दहकने लगा. और इससे भारत के राजनैतिक और सामाजिक जीवन की अत्यंत प्रज्ज्वलनशील हवा में इतना विशाल आग का गोला उठा कि उसकी आंच देश के विशाल भूभाग और उससे आगे तक महसूस की जा सकती थी.
यह बराबरी की लड़ाई नहीं थी, लेकिन इसमें एक महागाथा की तमाम शिखर ऊंचाइयां और गहरी घाटियां दिखाई दीं. आसपास के कॉलेजों के भगवाधारी छात्रों की भीड़ के धमकाने वाले जवाबी प्रदर्शनों के साथ यह स्थानीय खबर अखबारों के पहले पन्ने पर आ गई. प्रदर्शनों को महीना हुआ था कि लड़कियों ने कर्नाटक हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया.
उन्होंने कहा कि अपनी पसंद की पोशाक पहनने की उनकी इच्छा को कई मूलभूत अधिकारों के तहत संरक्षण हासिल है. यह शानदार फेहरिस्त है—समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19), धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25), अल्पसंख्यक होने के अधिकार (अनुच्छेद 29).
असल में अनुच्छेद 25 के तहत सिख कृपाण की दोटूक अनुमति स्पष्ट उदाहरण है, जो राज्यसत्ता के ऐसे अतिक्रमण से सिख लड़कों की रक्षा करती है. बहरहाल, सरकार ने जल्दबाजी में तैयार आदेश से जवाब दिया, जिसमें सार्वजनिक स्कूलों और कॉलेजों में 'समानता, अखंडता और सार्वजनिक व्यवस्था को भंग’ करने वाले कपड़ों पर पाबंदी लगा दी गई. तय बातों का जिक्र किए बिना इसमें घोषणा की गई कि ''एक समान शैली के कपड़े अनिवार्य रूप से पहनने होंगे.’’
इस तरह कॉलेज यूनिफॉर्म को पूर्व प्रभाव से सरकारी मंजूरी दी गई, जो कर्नाटक शिक्षा अधिनियम 1983 का उल्लंघन थी. यह वस्तुत: हिजाब पर पाबंदी थी. मूल छह लड़कियों में एक 17 वर्षीया आलिया असदी ने दुखी मन से इंडिया टुडे से कहा कि ''हमारी यूनिफॉर्म से मिलते-जुलते रंग का सिर पर ओढ़ा जाने वाला एक दुपट्टा भर, जो चेहरा भी नहीं ढकता’’ 'सार्वजनिक व्यवस्था’ के लिए खतरा मान लिया गया था. अब इसे गैर-कानूनी करार दे दिया गया, मानो यह दहशतगर्दी का कोई पहचान चिन्ह हो.
इससे पहले कि आपको पता चलता, उडुपी के कई सरकारी कॉलेज, जिनमें से कुछ ने पहले बिना ना-नुकुर किए हिजाब की इजाजत दी थी, हिजाबधारी मुस्लिम लड़कियों के साथ भेदभाव बरतने लगे—उन्हें प्रवेश द्वार पर रोक लिया जाता या अलग कक्षाओं में बिठाया जाता. शिक्षकों और प्रिंसिपल से नाकाम गुहार लगाती इन अभागी लड़कियों की तस्वीरें राष्ट्रीय चैनलों पर जोर-शोर से दिखाई जाने लगीं.
हताशा और आक्रोश खौलने लगा. इस पड़ाव पर भगवा क्रोध की कोरियोग्राफी की छाया तले, हिजाब समर्थक प्रदर्शन कर्नाटक के कई जिलों—शिवमोगा, विजयपुरा, गडग, दक्षिण कन्नड़, दावणगेरे, मैसुरू, चित्रदुर्ग—में जंगल की आग की तरह फैल गए. मांड्या में भगवाधारी लड़कों की नारे लगाती भीड़ का सामना करती मुस्कान नाम की एक अकेली लड़की राष्ट्रीय मीम बन गई. तटीय इलाके के ही मूल निवासी राज्य भाजपा अध्यक्ष और सांसद नलिन कतील ने कहा कि कर्नाटक का 'तालिबानीकरण’ नहीं होने दिया जाएगा. सरकार ने हाइस्कूल और कॉलेज तीन दिन के लिए बंद कर दिए.
मगर अब संक्रमण के उत्तर में फैलने की बारी थी—हू-ब-हू ऐसे ही प्रदर्शन महाराष्ट्र, हैदराबाद, कोलकाता, राजस्थान और मध्य प्रदेश में देखे गए. बारूद की डिब्बियों सरीखी सोशल मीडिया की जगहें भनभनाने लगीं, खासकर चुनाव की पूर्वसंध्या पर उत्तर प्रदेश में. द्रमुक के एक सासंद ने संसद में मुद्दा उठाया. प्रधानमंत्री ने इसकी तरफ इशारा किया. वकीलों, धर्मशास्त्रियों, ऐक्टिविस्ट और आम लोगों में गर्मागर्म बहस छिड़ गई.
यहां तक कि असली तालिबान ने बेजा एक बयान जारी कर दिया. तमाम नजरें अब कर्नाटक हाइकोर्ट पर टिकी हैं, जहां भाजपा की राज्य सरकार भी एक पक्ष है. वह राज्य सरकार जिसकी अगुआई सधे हुए अभिनेता की तरह नई पार्टी की नीतियों के मुताबिक होंठ हिलाते एक पूर्व समाजवादी के हाथों में है.
विवाद में दांव पर लगे बुनियादी सवाल निहत्था कर देने की हद तक सीधे-सादे हैं. सिर पर इस्लामी दुपट्टा पहनना पसंद करने वाली मुस्लिम लड़कियों को क्या सार्वजनिक कॉलेजों में शिक्षा से वंचित कर देना चाहिए? क्या सरकार संचालित शैक्षणिक संस्थाओं को छात्रों की पोशाक के बारे में इस ढंग से कानून या नियम बनाने का जनादेश हासिल है जो निर्धारित यूनिफॉर्म के ऊपर और अलग से धर्म की किसी भी अभिव्यक्ति को गैरकानूनी ठहराता हो?
क्या उडुपी के कॉलेज का यह रुख—जो दरअसल केवल हिजाब पर पाबंदी लगाता है, क्योंकि माथे पर हिंदू नामम (तिलक) सरीखी धर्म की अन्य अभिव्यक्तियां अप्रभावित रहेंगी—कानूनन सही, न्यायोचित और विधिसम्मत है? ऊपर से भले सीधे-सादे दिखाई दें, पर ये सवाल आज के भारत में डायनामाइट से कम नहीं हैं.
केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने, जिनका भूमिहार तिलक और चोटी उतने ही ग्लानिहीन ढंग से दुनिया के सामने पेश किए जाते हैं जितनी उनकी बातें, विडंबना के रत्ती भर एहसास के बगैर कहा कि यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) 'मौजूदा समय की मांग’ है—कुछ तरह मानो वे 'यूनिफॉर्म’ की ओर इशारे का लोभ संवरण न कर पा रहे हों.
फिर चुनावों का सामना कर रहे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सत्ता में लौटने पर ऐसी एक संहिता का वादा कर डाला. इंडिया टुडे से आरएसएस के विचारक शेषाद्रि चारी ने भी कहा कि ''केंद्र सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने के कर्तव्य से बंधी है. संविधान के निर्देशक सिद्धांतों में अनुच्छेद 44 में इसका प्रावधान है.’’
कानून, सीधे अदालत से
इस बीच, लाइवस्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्मों पर रिकॉर्ड दर्शक आकर्षित कर रही कर्नाटक हाइकोर्ट में चल रही सुनवाई ने दिलचस्प मोड़ ले लिया—दो लिहाज से. तीन जजों की पीठ ने कुछ इस तरह जताया मानो वह अंतरिम आदेश से माहौल शांत कर रही हो. अंतरिम आदेश में यथास्थित कायम रखने के लिए कहा गया—जो कुछ लोगों की नजर में वाजिब नहीं था क्योंकि इसने एक धार्मिक प्रतीक (हिजाब) को राजनैतिक प्रतीक (भगवा दुशाले) के समकक्ष रख दिया और हिजाब पर पाबंदी को असल में कायम रखा (इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका नाकाम रही).
प्रशासनिक मिजाज रखने की न तो अदालत को छूट है और न ही वह उसका प्रधान गुण है. फिर यह तो होना ही था कि जमीन पर इसका असर त्रासद से कम नहीं था. स्कूल जब 14 फरवरी को फिर खुले, तो ऐसे दृश्य जिनमें सैकड़ों हिजाबधारी लड़कियों से कैंपस छोड़कर चले जाने के लिए कहा जा रहा था, दर्जन भर जिलों से सामने आए—कोडागू में तो 43 लड़कियों के जत्थे से एक बार में ही ऐसा करने के लिए कह दिया गया.
यहां तक कि छोटी लड़कियों को भी नहीं बक्चशा गया, क्योंकि अब तक शांत रहे स्कूलों ने अंतरिम आदेश का कुछ ज्यादा ही अर्थ निकाल लिया था. मांड्या, चिकमगलुरू, तुमकुरू में नाराज माता-पिताओं की स्कूल प्रबंधनों के साथ तकरार हई. कई जगहों पर शर्म का एक और पहलू नजर आया—शिक्षिकाओं और छात्राओं को प्रवेश द्वार के बाहर ऐन सड़क पर बुर्का उतारने को मजबूर किया गया, बजाए इसके कि उन्हें भीतर एक कमरे में ऐसा करने दिया जाता, जिसकी वे अभ्यस्त थीं.
मुस्लिम माता-पिता को दुनिया से पहले दीन को तवज्जो देने के लिए ट्रॉल किया गया, पर असल पीड़ित तो मासूम बच्चे थे. बड़ी तादाद में मुस्लिम लड़कियों के अधबीच स्कूल छोड़ देने की आशंका बिल्कुल वास्तविक है.
मगर इस दोषपूर्ण यथास्थिति को कायम रहने देने से पहले अदालत ने अपने सामने मौजूद सीधे-सादे प्रश्न से मुंह फेरने के लिए याचिकाकर्ताओं के वकील की एक दलील को अहम माना और उस पर गौर किया. ज्यादा जटिल विषय पर ध्यान केंद्रित करते हुए उसने प्रश्न इस तरह तय किया—क्या हिजाब पहनना इस्लाम के अनिवार्य आचरण का हिस्सा है?
मूल वाक्य में 'हिजाब’ से पहले 'कक्षा में’ शब्द थे, जिससे इसे उस निश्चित विषय पर फोकस कर दिया गया जो मूल घटना का तकाजा था. मगर यह बात भी किसी की नजर से चूक नहीं सकी कि इसे संदर्भ से इस तरह काट दिया गया था कि सामान्य प्रस्ताव की तरह पढ़ा जा सकता था. आपस में जुड़े गोल घेरों की शृंखला के माध्यम से इस मामले ने व्यावहारिक राजनीति के तमाम मर्मस्थलों को छू लिया था—मजहब, पहचान, लैंगिक अधिकार, सामुदायिक संबंध, बहुसंख्यक/अल्पसंख्यक टकराव के इर्द-गिर्द झूलती चुनावी राजनीति, तमाम स्वतंत्रताओं के मूलभूत अधिकारों की तो बात ही छोड़ दें.
कुछ-कुछ मुद्दों की ज्वलनशील मैत्रियोश्का डॉल या गुड़िया की तरह, सिवा इसके कि हर गुड़िया के भीतर दूसरी सभी गुड़ियाएं थीं. ऊंट चाहे जिस करवट बैठे, पर उडुपी का मामला भारत के संवैधानिक, राजनैतिक, सामाजिक और कानूनी इतिहास का निर्णायक क्षण बनने का खतरा उत्पन्न कर रहा है—शायद उतने ही बड़े पैमाने पर और उतना ही बेचैनी भरा, जितना शाह बानो मामला था.
क्या जानी-पहचानी आशंकाओं की झलक इसमें देखी जा सकती है? या याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने ही इस मोड़ की तरफ ले जाने वाली राह खोली? जाहिरा तौर पर यह यकीनी दावा करने के लिए कि हिजाब पहनना 'इस्लाम का अनिवार्य अंग’ है, आखिरकार उन्होंने केरल हाइकोर्ट के दो फैसलों का हवाला दिया—एक 2015-16 का फैसला और दूसरा 2018 का (देखें अदालतों ने आखिर क्या कहा).
कर्नाटक के सुप्रीम कोर्ट के वकील के.वी. धनंजय को लगता है कि यहां उन्होंने रणनीतिक गलती कर दी. वे जोर देकर कहते हैं कि मामला बहुत तकलीफदेह दायरे में जा रहा था और हैरानी जाहिर करते हैं कि याचिकाकर्ता यह घोषणा करना न्न्यों चाहते थे कि हिजाब पहनना इस्लाम का अनिवार्य अंग है, यह जानते हुए कि इसमें इतने पेचीदा मसले शामिल हैं?
वे कहते हैं, ''अदालत के लिए यह नया दायरा है. सच है कि अन्य हाइकोर्ट ने इस मुद्दे की पड़ताल की है, पर बहुत सरसरी ढंग से. पीठ ने इस सवाल पर—और यह तार्किक, जायज सवाल है—कि क्या कुरान में सब कुछ इस्लाम के आचरण का अनिवार्य अंग है, याचिकाकर्ताओं का पक्ष पूछा. यह ऐसी दिशा में जा रहा है जिसका पहले से अंदाज नहीं लगाया जा सकता.’’ आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के 1994 के इस फैसले ने कि 'मस्जिद इस्लाम के आचरण का अनिवार्य अंग नहीं है’ बाबरी मस्जिद के मामले को नया मोड़ दे ही दिया था.
मूलभूत अधिकारों पर टिके रहना शायद ज्यादा सुरक्षित तरीका होता. ऐसा लगता है कि अस्पष्टता सैद्धांतिक इस्लाम के भीतर ही है. कुरान केवल शालीनता की मांग करता है—स्पष्ट तौर पर केवल इतना कहता है कि धर्मपरायण औरतों को ''अपने छिपे हुए आभूषण जाहिर नहीं करने चाहिए, सिवा उनके जो सामान्य रूप से प्रकट होते हैं. उन्हें अपने पर्दे अपने सीनों के ऊपर डालने दें’’ (24:31). स्वाभाविक रूप से इसकी अधिकतम व्याख्या की या नहीं की जा सकती है (खुद भाषा ही इसकी गुंजाइश देती है, जफरुल इस्लाम खान के स्तंभ में अनुवाद देखें).
सुप्रीम कोर्ट की वकील शाहरुख आलम को भी लगता है कि न्यायिक केंद्रबिंदु का कोई औचित्य नहीं था. उनके मुताबिक, बहस तलब कृत्य हिजाब पहनना नहीं था, बल्कि कॉलेज की 'मनमानी कार्रवाई’ और 5 फरवरी का सरकारी आदेश था. सरकार की तरफ से एडवोकेट जनरल ने अदालत से कहा कि यह नियमों में 'एक अहम कमी को पूरा करना’ था.
याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने इस 'अहम कमी’ को पूरा करने के ज्यादा लाभदायक तरीके की तरफ इशारा किया—केंद्रीय विद्यालयों ने 2012 में यूनिफॉर्म के लिए दिशानिर्देश जारी किए, जिनमें ऐसा करने को इच्छुक मुस्लिम लड़कियां 'बॉटम वियर से मैच करता भूरे रंग का, लाल किनारी वाला सिर का दुपट्टा’ पहन सकती थीं. सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती थी?
इसकी बजाए, बताया जाता है कि कर्नाटक के गृह मंत्री अरागा ज्ञानेंद्र ने हिजाब पर वस्तुत: पाबंदी का इस आधार पर अनुमोदन किया कि स्कूलों और कॉलेजों को 'भारतीय मूल्य सिखाने’ ही चाहिए. उन्हें शायद पता नहीं कि मध्य प्रदेश में आरएसएस की मुस्लिम शाखा ने हिजाब को ''भारतीय पहनावा’’ घोषित करके इस गुत्थी का समाधान किया था.
वह अहम कमी बेशक कहीं और हो सकती है. जांच सबसे पहले सरकार की कार्रवाई और उस संस्था की हो जिसने यूनिफॉर्म पहनने का फरमान दिया—शिक्षा की सुलभता पर क्या ऐसे नियम-कायदे थोपे जा सकते हैं? शाहरुख कहती हैं, ''छात्र उन कार्रवाइयों का विरोध कर रहे हैं. उन्हें जांच का विषय नहीं बनाना चाहिए.’’ आखिर में, याचिकाकर्ताओं के करीबी एक अन्य वकील ने कहा कि वह बात जो ''खालिस प्रशासनिक सवाल के तौर पर’’ निचले पायदान पर सुलझाई जा सकती थी, ऐसे दायरे में ले जाई गई है, जो ''अदालत, इसमें शामिल समुदायों और खुद देश के लिए जोखिम भरा है.’’
जमीनी स्तर पर गहरी उलझनें
हालांकि इसके दूरगामी प्रभाव को रोक पाना मुश्किल है—खासकर तब जब एक से अधिक पक्ष ऐसा ही चाहता हो. कुछ दशक पहले तक कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि 2022 में उडुपी में हिजाब पहनी लड़कियों और भगवा गमछा लपेटे लड़कों के बीच नारेबाजी होगी. लेकिन इसके लिए जमीन तैयार की गई है. तटीय कर्नाटक लंबे समय से हिंदुत्व की प्रयोगशाला रहा है.
यहां कई कुख्यात घटनाएं हुई हैं और दूसरे पक्ष में भी वैसा ही सांप्रदायिक उभार देखने को मिला है. केरल में पैदा हुआ पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआइ) अपने कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया सरीखे सहयोगियों के जरिये वर्तमान विवाद में शामिल रहा है. हाल के वर्षों के दौरान विभिन्न गर्मागरम बहसों में पीएफआइ का इस्लामी कट्टरवाद आलोचनाओं के घेरे में रहा है.
लेखक और राजनैतिक टिप्पणीकार शाजहां मदमपत कहते हैं, ''वास्तव में ये दो अलग-अलग आंदोलन हैं, जो बुनियादी रूप से एक-दूसरे से पूरी तरह असंबद्ध हैं.’’ वे हिजाब मसले को हिंदुत्व परियोजना की नई रणनीति का हिस्सा मानते हैं और कहते हैं कि बीफ के नाम पर लिंचिंग, सीएए-एनआरसी, शहरों के नाम बदलने आदि के बाद इसका मकसद मुसलमानों की पहचान के सभी प्रतीकों और मौजूदगी को मिटा देना है.
उनका कहना है कि मिटाने की यह प्रक्रिया मोदी सरकार की नीति है. इसके साथ ही वे कर्नाटक के इस इलाके पर सावधानीपूर्वक गौर करने की वकालत करते हैं. वे कहते हैं, ''अगर आप भारत भर में इस्लामी शुचिता का खाका खींचते हैं तो तटीय कर्नाटक देश के किसी भी अन्य क्षेत्र से सबसे आगे होगा और यहां चेहरा ढकने सरीखी प्रथाओं का प्रचलन काफी ज्यादा है.’’
केरल में अपने मूल स्थान मल्लपुरम का जिक्र करते हुए वे कहते हैं आपको वहां कट्टरता नहीं बल्कि रूढ़िवादिता की अभिव्यक्तियां देखने को मिलेंगी. लेकिन फिर वे भटकल और वहां से निकलने वाले संदिग्ध आतंकियों की ओर ध्यान दिलाते हैं. वे कहते हैं, ''उडुपी के तटीय इलाकों में जारी सामाजिक मंथन का वह अभिन्न हिस्सा है. केरल में कासरगोड तक उसने प्रतिस्पर्धी कट्टरता के खेल को पाला-पोसा है.’’
इस्लामिक लिबरेशन थियोलॉजी से जुड़े विद्वान अहमद अशरफ कहते हैं कि कर्नाटक की मुस्लिम आबादी की ओर से 'हिंदुत्व के सांस्कृतिक और राजनैतिक खतरे’ को प्रतिक्रिया देना उचित नहीं लग रहा. वे कहते हैं, ''ऐसी प्रतिक्रियाएं केवल भाजपा को ही फायदा पहुंचाएंगी.’’ उनके मुताबिक, हिंदुत्व का मुकाबला विशुद्ध राजनैतिक मोर्चे पर नहीं किया जा सकता, यह नए जमाने की सांस्कृतिक राजनीति के जरिए होना चाहिए.
वे मानते हैं कि भारत का मुस्लिम समुदाय और उनके संगठन और नेतृत्व—ठीक भारत के दलितों, अवर्णों और आदिवासियों की तरह—उस लड़ाई के लिए अभी तैयार नहीं हैं. उनका मानना है, ''उन्होंने भाजपा-आरएसएस की सोच पद्धति को आत्मसात कर लिया है.’’
समाज विज्ञानी शिव विश्वनाथन और विस्तार देते हैं. इस बात का अफसोस जताते हुए कि कर्नाटक में प्रगतिशील राज्य के सभी गुण हैं, वे मानते हैं कि यह दुखद तरीके से पतन की ओर जा रहा है और इसमें केवल भाजपा शामिल नहीं है. उनका मानना है कि अल्पसंख्यक पहली बार पहचान के विशेष पहलुओं को शिद्दत से तलाश रहे हैं. वे कहते हैं, ''पहचान की मुहर अब नागरिकता नहीं बल्कि अल्पसंख्यक होना है.’’
इसकी अधिक नजर आने वाली निशानी वेशभूषा है और दुर्भाग्य की बात यह है कि इसे उनके स्कूल और कॉलेज जाने वाले बच्चों पर थोपा जा रहा है. वे कहते हैं, ''यह तकरीबन एक कॉस्ट्यूम बॉल की तरह है—और फिर उसके बरअक्स कॉस्ट्यूम के रूप में भगवा शॉल का कृत्रिम ड्रामा शुरू हो गया.’’
इस राजनीति के बीच शिक्षा के बारे में कोई नहीं सोच रहा है. छह लड़कियों में शामिल आलिया और शिफा अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहती हैं, ''हम भी टैक्स देने वाले नागरिक हैं. हमें समान अधिकार क्यों नहीं है? वे हमें अलग कक्षाओं में क्यों बैठा रहे हैं और केवल हमें ऑनलाइन क्लास करने को क्यों मजबूर कर रहे हैं? हम अलग-थलग नहीं पड़ना चाहते.’’
उन्होंने ऑनलाइन क्लास से इनकार कर दिया है और अगले महीने परीक्षाएं हैं. सीबीएफसी (केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड) की सदस्य और अपने विचारों में दक्षिणपंथी वाणी त्रिपाठी का मानना है कि भारत में मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा के मामले में मुख्यधारा के रूप में नहीं देखा जाता है और अगर कोई मुस्लिम लड़की शिक्षा के लिए राह तलाश रही है तो ''उसके अदम्य साहस और सफर को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. उसे कभी भी चुनौती नहीं दी जानी चाहिए.’’
विश्वनाथन भी शिक्षा प्रक्रिया को लेकर इसी चिंता को रेखांकित करते हैं. वे कहते हैं, ''उस मोर्चे पर आप संघर्ष के बीज बो रहे हैं, यहां तक कि स्कूलों को समस्याग्रस्त क्षेत्र में तब्दील कर दिया गया है और राजनैतिक पार्टियां चंद अतिरिक्त वोटों के लिए उसे तोड़-मरोड़ रही हैं.’’ विश्वनाथन मानते हैं कि वे दक्षिण को बदलने की कोशिश कर रहे हैं. वे कहते हैं, ''कर्नाटक अनंतमूर्ति से लेकर शिवराम कारंत सरीखे विद्वानों से समृद्ध रहा है. अब किसी भी ऐसे विद्वान का नाम बताइए जो इस मसले पर खड़ा हुआ हो और कुछ कहा हो.’’ विश्वनाथन का मानना है कि संकट को आसानी से टाला जा सकता था, लेकिन ऐसा नजर नहीं आता कि कोई इस समस्या का समाधान चाहता है. वे कहते हैं, ''अदालत दुविधा में है; वह शिष्टाचार से चिपकी हुई है और ऐसा बर्ताव कर रही है मानो यही उद्देश्य है. हम निष्पक्षता की तलाश नहीं कर रहे, बल्कि सचाई की तलाश कर रहे हैं.’’
वे पूछते हैं कि बच्चों का क्या होगा अगर अंतरिम आदेश की वजह से उन्हें स्कूलों से बाहर कर दिया जाता है. वे शैक्षणिक संस्थानों को भी उनकी कायरता के लिए समान रूप से जिम्मेदार ठहराते हैं. उनका कहना है, ''क्या वे बिंदी हटाने की हिम्मत करेंगे? आइए, इसका सामना करते हैं. हिजाब कोई नुक्सान नहीं पहुंचाता है, यह कोई व्यवधान नहीं पहुंचाता. यह खतरनाक नहीं है. हां, यह पहचान का प्रतीक है लेकिन यह इस बात का जश्न भी है कि कई सारी मुस्लिम लड़कियां स्कूल जा रही हैं.’’ यह जश्न अब शोक में बदल सकता है.
गूढ़ सवाल
भारतीय जनता को एक नया हौवा सौंप दिया गया है: हिजाब. लेकिन इसे पहनने वालों के व्यक्तिगत अनुभव का शायद ही कभी हिसाब लगाया जाता है. अधिकतर हिजाबी महिलाएं अपनी सुविधा और स्वतंत्रता की बात करती हैं (कमला दास ने भी ऐसा ही किया था), लेकिन वह व्यावहारिक पहलू स्पष्ट रूप से अन्य सभी संभावनाओं को खारिज नहीं करता. यह पोशाक अपने आप शब्दावली संबंधी भ्रमों से घिरी हुई है.
'हिजाब’ शब्द का सीधा संदर्भ सिर ढकने वाले स्कार्फ से है, लेकिन इसे मुस्लिम महिला की पोशाक की परंपरा से जोड़ दिया गया है (देखें पर्दा है पर्दा)—कभी इसके लिए 'पर्दा’ शब्द का प्रयोग किया जाता रहा और उर्दू शायरों ने अपनी प्रेम संबंधी रचनाओं में उसका खूब इस्तेमाल किया है. निश्छल प्रेम हाल तक भारत में एक अनूठा चीज रहा है—वह इस्लामिक पोशाक अब नफरत और हिंसक विद्वेष का जरिया बन गई है.
इसके केंद्र में इस पूरे शरीर के पहनावे का अजीब विरोधाभास है—यह पहनने वाले के शरीर को छुपाते हुए उसे यौन आकर्षण से दूर रखने की कोशिश करता है, लेकिन इसके साथ ही सार्वजनिक स्थानों पर वह पहनने वाले को और ज्यादा नजर में लाता है जहां वह पोशाक आम परंपरा में शामिल नहीं होती. समकालीन भारत में पर्दानशीन मुस्लिम महिलाओं के लिए यह अभिशाप सरीखा हो गया है.
सुल्ली डील्स/बुल्ली बाई विवाद के बाद, कर्नाटक के स्कूल-कॉलेजों के दरवाजे पर सरेआम कपड़े (हिजाब) उतारे जाने के प्रसंग से कोई नहीं चूका. ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि एक से अधिक टिप्पणीकारों ने इसे द्रौपदी के मिथकीय प्रसंग से जोड़ा. यह पर्दा शरीर के 'सामान्य’ हिस्सों को ढकता है, सामाजिक संपर्क के माध्यमों में व्यवधान डालता है, इसलिए इसे अक्सर हिंदू हक के लिए अप्रत्यक्ष मनोवैज्ञानिक मकसद के रूप में देखा जाता है—यानी जंग जीतने की एक गुप्त इच्छा.
वहीं दूसरे ओर, हिजाब शायद संघर्ष से भी जुड़ा है—अल्पसंख्यक समुदाय का दमन स्वीकार कर लेने के बजाए चुनौती देने का प्रतीक है. इस घोर राजनैतिक दौर में, यह प्रतिरोध की शब्दावली का हिस्सा बन गया है. खतरे की स्थिति में, धर्म के एक चिह्न के तौर पर इसके जरिए अपनी पहचान को और अधिक जानबूझकर प्रदर्शित करना अपने आप में एक नेक कार्य के रूप में देखा जा सकता है.
शायद यही वजह है कि पारंपरिक रूप से इसे पितृसत्ता का प्रतीक के तौर पर देखे जाने के बावजूद, नारीवादियों के एक वर्ग ने हिजाब पहनकर प्रतिरोध जताती महिला की तारीफ की. यह मुश्किल और जटिल मसला है, और हिजाब की बहस मुस्लिम नारीवादियों से ज्यादा तीव्र कहीं और नहीं रहा है—कहीं सोशल मीडिया पर खुलकर, तो कहीं बंद व्हाट्सऐप समूहों में. हिजाब-विरोधी नारीवादियों ने हिजाब को पूर्व-आधुनिक स्त्री की दासता का प्रतीक माना है.
उन्होंने इस पोशाक से महिलाओं को मुक्ति दिलाने के लिए दशकों तक लड़ाई लड़ी है, लेकिन इस कठिन परिस्थिति में सार्वजनिक तौर पर अपनी असहमति जताने को लेकर वे सतर्क हैं (एक ने तो इस पर एक कॉलम लिखने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया). यही वजह है कि के.वी. धनंजय ठठा मारते हैं, ''कुछ प्रगतिशील मुस्लिम महिलाएं भी शायद चाहती होंगी कि याचिकाकर्ता यह केस हार जाएं’’ ताकि हिजाब को 'इस्लाम का एक अभिन्न हिस्सा’ के तर्क के पक्ष में कोई फैसला न आ जाए और उन्हें फिर दशकों पीछे ने धकेल दे.
शाहरुख नाजुक फर्क को समझाती हैं, ''किसी भी सूरत में अदालत महिला की अपनी स्वतंत्र मर्जी को छीन लेगी. चाहे हिजाब पहनने के उनके अधिकार को ठुकराकर, या फिर उसे अनिवार्य बनाकर.’’ एक स्तर पर, हिंदुत्व का व्यापक मामला इस्लाम के भीतर के प्रगतिशील धाराओं के विकास को रोक सकता है. और नारीवादी आंदोलन की यह टेक थोड़ा दबाव में हो सकती है कि लैंगिक मुद्दों को किसी बेहतर वक्त के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विवि में कानून और शासन पढ़ाने वाली गजाला जमील बाहरी परिस्थितियों को यह निर्धारित करने की अनुमति नहीं देंगी और उनके लिए स्पष्ट तौर पर यह पसंद का मामला है. वे कहती हैं, ''अगर महिलाओं को जबरन कोई पोशाक पहनाया जाता है तो उनके लिए यह उसे उतार देने का संघर्ष है.
लेकिन अगर महिलाएं इसे पहनना चाहती हैं, और उनसे यह छीना जा रहा है, तो यह पूरी तरह से अलग मसला है. पारंपरिक तौर पर कई नारीवादी इसी पुराने विचार पर टिकी हैं कि हिजाब पहनना पसंद करने वाली महिलाएं नहीं जानती कि क्या कर रही हैं. तो ऐसा सोचने वाली नारीवादियों ने बदलती दुनिया से कोई सबक नहीं लिया है.’’
समकालीन परिदृश्य—मसलन कर्नाटक का मामला—पहली नजर में उलझन भरा लग सकता है. इस आलेख के लिए बातचीत में पूर्वी उत्तर प्रदेश और मालवनी तट से लेकर मप्पिला, केरल तक, कई लोगों ने स्वीकार किया कि उन्होंने अपनी मां और दादियों को पूरी बुर्का जैसी चीज में कभी नहीं देखा. मदमपत कहते हैं, ''मैं मलप्पुरम में एक गांव के रूढ़िवादी सलफी परिवार से हूं.
मेरी 71 वर्षीय मां सेवानिवृत्त शिक्षिका हैं. मैंने उन्हें अब तक लंबी बाजू वाली ब्लाउज और मक्कना (स्कार्फ) के अलावा केवल साड़ी में ही देखा है. हज से लौटी महिलाओं और इलाके के सर्वोच्च इमाम परिवार जो खुद को सऊदी मूल का बताते हैं, को छोड़ दें तो 1990 के दशक में मेरे इलाके में बुर्का नहीं दिखता था. अब यह हर तरफ नजर आता है. तथ्य यह है कि सऊदी-असर वाले सलफी इस्लाम का नियंत्रण केवल 10 फीसद मुसलमानों में है, लेकिन अब उनका प्रभाव बाकियों में भी फैल गया है, जिसे हम रस्मी इस्लाम कहते हैं.’’
—सुनील मेनन, साथ में नबीला जमाल, उडुपी में, आदित्य विग
हिजाब पर नहीं बल्कि ऐसे कपड़े पहनने पर रोक वाले सरकार के 5 फरवरी के उस आदेश को रद्द किया गया है जो ''भाईचारा, एकता और सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित कर रहा था’’.