आवरण कथाः अनहोनी की आशंका
कोविड की जानलेवा दूसरी लहर ने खौफ और चिंता की एक नई महामारी को जन्म दिया है. लोग अपने प्राण खोने, प्रियजनों के हमेशा के लिए साथ छोड़ जाने, अकेले रह जाने और नौकरी/रोजगार आदि छिन जाने जैसे अंदेशों से खासे दहशत में हैं. चिंता और व्यग्रता ने इस संकट में मानसिक संत्रास से जुड़े नए पहलू लाकर जोड़ दिए हैं

मुंबई के मशहूर मनोचिकित्सक डॉ. हरीश शेट्टी मनुष्य के मन पर पड़ने वाले किसी त्रासदी के असर को बहुत अच्छी तरह जानते हैं. 33 साल के अपने लंबे करियर में उन्होंने महाराष्ट्र के 1993 के लातूर भूकंप, गुजरात के कांधला में 1998 में आए चक्रवात और 2002 के गुजरात दंगों के शिकार लोगों की व्यक्तिगत और एक मायने में सामूहिक पीड़ा से भी उबरने में मदद की है: उनके आशियाने उजड़ गए, प्रियजन बिछड़ गए, उनकी खुद की जिंदगी तो तबाह हुई ही, जो कि सबको पता ही है.
लेकिन कोविड के बारे में उनका कहना है कि यह तो ‘‘अदृश्य दुश्मन है. दिखने वाले किसी दुश्मन के डर को आप पढ़ सकते हैं, उसकी कल्पना कर सकते हैं, दिमाग में उसकी एक तस्वीर बना सकते हैं. लेकिन इस दुश्मन के नजर न आने से उसका खौफ लाखों गुना बढ़ गया है. उन त्रासदियों का असर तो एक झटके का था; इसका तो अंत ही नहीं दिखता.’’ बल्कि उन्होंने तो हमारी सामूहिक मनोदशा को स्पष्ट करने के लिए एक नया ही शब्द गढ़ डाला है: फियरोडेमिक यानी डर और खौफ की महामारी.
एक ऐसे देश में चिंता ही आज चिंता का बड़ा सबब बन गई है, जहां भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआइ) की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 19.73 करोड़ लोग मानसिक विकारों से ग्रस्त थे. कोविड की घातक दूसरी लहर में 25 अप्रैल से 25 मई के बीच मात्र एक महीने में 1,14,860 लोगों की जान गई है जबकि पिछली लहर में सात महीने में 1,14,682 जाने गई थीं. इस तथ्य ने स्थिति को और चिंताजनक बना दिया है.
पहले तो इस बीमारी का ही खौफ बड़ा है. पूरे अप्रैल भर, 27 वर्षीय वैभव (बदला हुआ नाम) को एक ही आवाज सुनाई पड़ती रही, वह थी दिल्ली में एंबुलेंस के सायरन के लगातार बजने की आवाजें. उन्होंने गिनना शुरू कर दिया कि एक दिन में सायरन कितनी बार सुनाई पड़ते हैं. फिर एक दिन उन्हें अपनी सांस फूलती महसूस होने लगी. छाती में जकड़न महसूस हुई, नब्ज तेज होने लगी और ब्लडप्रेशर बढ़ गया.
वैभव को यकीन हो गया था कि उन्हें कोविड है. इसके बाद वे अपने हृदय रोगी पिता के बारे में चिंता करने लगे. कहीं संक्रमण उन तक न पहुंच जाए? अगर ऐसा हुआ तो क्या वे उनके लिए अस्पताल में बिस्तर, ऑक्सीजन या दवा का इंतजाम कर पाएंगे? क्या वे मर जाएंगे? इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते, वैभव पूरी तरह से एक पैनिक अटैक के बीच पहुंच चुके थे.
महामारी घोषित किए जाने के 14 महीने बाद भी कोविड-19 ऐसी बीमारी बनी हुई है जिसके स्वभाव के बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता. पुणे के सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ लॉ ऐंड पॉलिसी (सीएमएचएलपी) के निदेशक सलाहकार और मनोचिकित्सक डॉ. सौमित्र पठारे का कहना है, ‘‘इसने अनिश्चितता का माहौल पैदा कर दिया है और यही कोविड से प्रेरित चिंता का मूल कारण बन गया है.’’
अगर उन्हें या उनके परिजनों को समय पर चिकित्सीय सहायता नहीं मिल सकी तो क्या होगा? इस डर से लोग ऑक्सीजन कंसंट्रेटर और सिलिंडर के साथ-साथ दवाओं की जमाखोरी कर रहे हैं. या फिर लोग कोविड अपडेट के लिए लगातार खबरों पर नजर रख रहे हैं. वे बाहर निकलने से डरते हैं: ऐसा न हो कि उन्हें संक्रमण हो जाए. कुछ लोग लक्षणों, दवाओं और जांच के बारे में सलाह लेने के लिए बार-बार अपने डॉक्टर को फोन कर रहे हैं.
हरियाणा के हिसार में रहने वाली 50 वर्षीया गृहिणी कृतिका (बदला हुआ नाम) जैसे लोगों को इस बात की चिंता है कि संक्रमण दोबारा न हो जाए. कोविड से उबरने के बाद की स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर कृतिका बहुत ज्यादा चिंतित रहती हैं. ''कोरोना वापस आ गया और उसने परिवार को नुक्सान पहुंचाया तब क्या होगा? इस चिंता से मैं ध्यान नहीं हटा पा रही.’’ लोग तो वसीयत तक तैयार करा रहे हैं या पक्का कर रहे हैं कि उनके बैंक खातों और बीमा पॉलिसियों में नॉमिनी के नाम जरूर दर्ज हों.
मौत का डर
बेंगलूरू स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ ऐंड न्यूरोसाइंसेज (निमहांस) ‘‘परिवार और दोस्तों से दूर कहीं अप्राकृतिक परिस्थितियों में मृत्यु और मृत्यु के बारे में चिंता’’ को इस महामारी में उभरने वाले प्राथमिक मनोवैज्ञानिक मुद्दों में से एक मानता है. सोशल और पारंपरिक मीडिया पर सामूहिक कब्रों और जलती चिताओं के दृश्य और अस्पताल के बिस्तरों, ऑक्सीजन और दवाओं की कमी की लगातार आती खबरें, इस भय को और बढ़ा रही हैं.
दिल्ली में फोर्टिस हेल्थकेयर में मानसिक स्वास्थ्य और व्यवहार विज्ञान विभाग के निदेशक, मनोचिकित्सक डॉ. समीर पारिख कहते हैं, ‘‘आज आपका पूरा वातावरण दर्दनाक और दुख से भरा है. जान का डर अस्तित्व संबंधी दुष्चिंता का सबसे बुनियादी रूप है.’’
यह डर दूसरी लहर में और स्पष्ट हो गया है, जिसमें माना जाता है कि कोविड नए स्वरूप में अधिक संक्रामक और घातक बनकर उभरा है. जिन लोगों को एक बार कोविड हो चुका है, उन्हें दोबारा हो रहा है, जो इससे उबर चुके हैं, वे कुछ सप्ताह बाद हृदय गति रुकने या दौरे पड़ने से मर रहे हैं. हाल ही में, कई लोगों ने क्वयूकोरमाइकोसिस या ब्लैक फंगस के कारण दम तोड़ दिया है, जो कोविड का एक दुष्प्रभाव है और अक्सर प्राणघातक साबित होता है.
हालांकि, महामारी की शुरुआत से ही इस वायरस से जान जाने का डर बना हुआ है. इंडियन जर्नल ऑफ साइकिएट्री में ‘साइकोलॉजिकल इंपैक्ट ऑफ कोविड-19 लॉकडाउन’ शीर्षक से अप्रैल 2020 में छपे एक अध्ययन में 21 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने माना कि उन्हें जान का डर महसूस होता है. मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) के स्कूल ऑफ ह्यूमन ईकोलॉजी में मनोचिकित्सक और एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. चेतना दुग्गल का कहना है कि पहली लहर के मुकाबले दूसरी में मौत का डर बढ़ा है.
वे कहती हैं कि महामारी की शुरुआत में प्रवासी कामगार, जिनके पास घर लौटने को पैसे या परिवहन की सुविधा नहीं थी, वे शहरों में अकेले मरने को लेकर ज्यादा चिंतित थे. लेकिन ‘‘नुक्सान की मात्रा दिमाग पर हावी है’’ क्योंकि लोगों में अब खुद के या परिजनों की जान जाने का डर पैदा हुआ है. दुग्गल कहती हैं कि जरूरत पडऩे पर चिकित्सा सहायता भी शायद ही मिले, इस फिक्र ने दहशत और बढ़ा दी है.
परिजनों को गंवाने का डर
लोगों को न सिर्फ अपनी मौत का डर है बल्कि परिजनों और दोस्तों को लेकर भी उतने ही चिंतित हैं. दूसरी लहर में रोज होने वाली मौतों की संख्या तेजी से बढ़ने के साथ यह डर कई गुना बढ़ गया है. कई परिवारों ने अचानक कई सदस्यों, यहां तक कि युवाओं को भी खो दिया है. 27 साल के रितेश (बदला हुआ नाम) बताते हैं, ‘‘मेरा सब कुछ लुट गया.’’ कोविड से एक रात उन्होंने अपनी बहन को खो दिया और अगले दिन माता-पिता भी नहीं रहे. खौफ और सन्नाटे से भरे घर में लौटना मुश्किल हो रहा है. उन्हें रोज खुदकुशी के विचार आते हैं.
मुंबई में माइंड टेंपल क्लीनिक चलाने वाली क्लीनिकल साइकाइट्रिस्ट डॉ. अंजलि छाबड़िया कहती हैं कि नुक्सान को स्वीकारने में असमर्थता का मानसिक स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक असर हो सकता है जिनमें अवसाद, अभिघातजन्य तनाव विकार (पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) और दुष्चिंता शामिल हैं. छाबडिय़ा उन कई मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों में से एक हैं जिन्होंने दूसरी लहर के दौरान शोक और प्रियजनों की मृत्यु के शोक के लिए काउंसलिंग सेशन शुरू किया है.
कैंसर के कारण प्रियजनों की मौत के मामले में व्यक्ति अक्सर इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार रहता है कि जान बचाना असंभव है. इसके ठीक उलट कोविड पीड़ितों के परिजन और दोस्त अपने प्रियजन की एकाएक हुई मौत को स्वीकारने के लिए संघर्ष करते हैं, खासकर जब इतने सारे लोग कोविड के बाद भी जीवित रहते हैं. बंद के चलते भी कई शोकसंतप्त परिवारों के लिए अलग तरह के संघर्ष का सामना करना होता है क्योंकि लॉकडाउन प्रतिबंधों के कारण वे प्रियजनों के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हो सकते.
संक्रमण के जोखिम के कारण, अंतिम संस्कार अब आनन-फानन में निबटाया जाता है, जिसमें या तो कोई परिजन शामिल नहीं होता या इक्का-दुक्का लोग ही होते हैं और बाद के सारे अनुष्ठान ऑनलाइन आयोजित किए जाते हैं. शवों को श्मशान घाटों तक ले जाने के लिए वाहनों की कमी और अंत्येष्टि के लिए प्रतीक्षारत शवों की कतारों की खबरों ने लोगों को मानसिक तौर पर और परेशान किया है.
छाबड़िया मुंबई के 65 वर्षीय राकेश मेहरा (बदला हुआ नाम) की मिसाल देती हैं, जो 40 साल से जीवनसंगिनी रहीं स्मिता के मरने को स्वीकार नहीं पा रहे थे. वे इस बात से हताश थे कि उनके अंतिम क्षणों में उनके पास नहीं थे. दोनों अप्रैल में कोविड संक्रमित हुए थे, लेकिन मुंबई में बेड की कमी के कारण उन्हें अलग-अलग अस्पतालों में भर्ती होना पड़ा. जब स्मिता का निधन हुआ, तो उनके बच्चों ने राकेश से यह बात छुपाए रखी कि इससे उनकी हालत और खराब हो जाएगी. उन्हें उस सदमे से उबारने के लिए मेहरा परिवार डॉ. छाबडिय़ा से परामर्श कर रहा है.
बहुत-से लोग त्रासदी से एकदम पथरा-से जाते हैं. डॉ. शेट्टी याद करते हैं कि उनका एक मरीज उनसे कहता है कि जब वह किसी के कोविड से मरने की बात सुनता है तो ‘सुन्न’ हो जाता है, किसी से बात ही नहीं कर सकता. डॉ. शेट्टी कहते हैं, ‘‘कोविड से जब कोई मरता है तो हम उसकी मौत पर शोक जताने भी नहीं जा सकते. हम भावनात्मक चोट से खुद को बचाने के लिए चारों ओर एक आवरण बना लेते हैं.’’
दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम्स की प्रोफेसर और समाजशास्त्री सुजैन विश्वनाथन, कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई को लोगों के अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष के रूप में परिभाषित करती हैं. वे कहती हैं, ‘‘इस लड़ाई में प्रतिक्रिया या तो इसके साथ रहने की हो सकती है, या फिर इससे बचने की. लेकिन कब तक? लोग निरंतर नुक्सान और किसी अनिष्ट के भय के साथ जी रहे हैं.
रोजाना इतनी मौतों को देखते हुए उन्हें लगता है कि इससे मुकाबला मुश्किल है. इसलिए लोग बढ़ते डर के साथ एक ऐसी मानसिक अवस्था में पहुंच जाते हैं जहां अंधेरे का खौफ लगातार बढता जाता है, फिर वहां से बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखता.’’
अकेलेपन का डर
जो लोग अस्पतालों में होते हैं उन्हें डर सताता रहता है कि अगर उनकी हालत बिगड़ी तो उनके आसपास कोई मौजूद न होगा. घर पर आइसोलेशन वाले चारदीवारी के भीतर कैदी की तरह महसूस करते हैं. मेरठ की 22 वर्षीया आशा (बदला हुआ नाम) कहती हैं, ‘‘मुझे उम्मीद है कि मेरे साथ ऐसा नहीं होगा क्योंकि मैं तो इसका सामना ही नहीं कर पाऊंगी.’’ उनके जिन दोस्तों को आइसोलेशन में परेशानी हुई थी, उनके अनुभवों ने आशा को ज्यादा आशंकित कर दिया है कि उन्हें कोविड हो गया तो वे खुद को कैसे संभालेंगी. वे अकेले कमरे में रहने के विचार से ही घबरा जाती है.
इस तरह के अलगाव का प्रभाव भारत की युवा आबादी पर भी दिखाई दे रहा है, जिसके सपने और आकांक्षाओं को कोविड ने अधर में डाल दिया है. यूथ मीडिया, डेटा इनसाइट और सामुदायिक जुड़ाव संगठन युवा के सह-संस्थापक और सीईओ निखिल तनेजा ने 18 वर्ष और उससे अधिक आयु के छात्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर 10 अक्तूबर 2020 को एक थेरेपी प्रोजेक्ट शुरू किया. मार्च 2021 तक मानसिक स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती प्लेटफॉर्म इनरआवर के जरिए लगभग 150 घंटे की मुफ्त थेरेपी उन व्यक्तियों को दी गई जिन्होंने अपनी नौकरियां, विदेश में अध्ययन करने के अवसर गंवा दिए या जिनकी परीक्षा रद्द हो गई थी.
परीक्षा स्थगित/रद्द होने के बाद युवा ने अप्रैल में परियोजना को फिर से शुरू किया. तनेजा कहते हैं, ‘‘इस बात को लेकर बहुत निराशा और झल्लाहट है कि अपना जीवन फिर से शुरू करने का एक और अवसर उनसे छीन लिया गया है. उनमें इस बात का भी डर समाया है कि कहीं वे परिवार के बुजुर्गों तक वायरस न पहुंचा दें और यह संभवत: उनकी मृत्यु का कारण न बन जाए.’’
कोलकाता में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और अत्याचार के मामलों से निबटने वाले एक गैर सरकारी संगठन स्वयं से जुड़ी मनोविश्लेषक चंदना बख्शी ने पाया है कि माता-पिता और छात्रों तथा उन युवा पेशेवरों के बीच तकरार बढ़ी है जो किसी अलग शहर में रह रहे थे लेकिन लॉकडाउन के कारण घर लौटने को मजबूर हुए. बख्शी कहती हैं, ‘‘वे अपने लिए स्थान और आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. हमें ऐसे युवा लोगों के फोन आ रहे हैं जिन्हें नई नौकरी और नई आजादी मिली थी, लेकिन अब उन्हें आत्महत्या के विचार आ रहे हैं.’’
भविष्य की चिंता
दिल्ली में सीताराम भरतिया इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ऐंड रिसर्च के मनोचिकित्सक डॉ. आलोक सरीन मौजूदा स्थिति को न केवल एक वायरल महामारी बल्कि कई ‘‘आभासी महामारियों’’ से प्रभावित बताते हैं. इनका मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ ‘‘अर्थव्यवस्था, आजीविका, सामाजिक सामंजस्य पर असर पड़ा है, जो पहले से मौजूद समस्याओं को और गहरा करता है.’’
मसलन, 24 वर्षीया विनती (बदला हुआ नाम) को लगातार नौकरी गंवाने की चिंता सताती है. उनकी नौकरी से परिवार को बड़ा सहारा मिलता है. वे भोपाल में मां की कोविड से मृत्यु पर अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए केवल कुछ दिनों की छुट्टी ले सकी थीं. वे मां की मौत का लंबे समय तक शोक नहीं मना सकतीं क्योंकि इससे वे काम करने की स्थिति में नहीं होंगी और नौकरी चली जाएगी.
22 साल की नीति ने चार्टर्ड एकाउंटेंसी परीक्षाओं के इंतजार में पूरा एक साल बिताया पर परीक्षाएं लगातार टल रही हैं. नीति को विश्वास था कि वे दूसरे प्रयास में निकाल लेंगी. लेकिन उनके पास कोई विकल्प नहीं हैं और वे अपने भविष्य और नौकरियों की कमी को लेकर चिंतित हैं.
पेशे से नैदानिक मनोवैज्ञानिक और अप्रैल 2021 में प्रकाशित एज ऑफ एंग्जाइटी की सह-लेखिका, डॉ. कामना छिब्बर लिखती हैं, ‘‘भविष्य को लेकर अनिश्चितता से लोगों में तनाव का स्तर बढ़ा है और वे खुद को बहुत कमजोर अनुभव कर रहे हैं. इससे उनके भीतर सुरक्षा का भाव घटा है और उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उनके जीवन की परिस्थितियां अब उनके नियंत्रण से बाहर हो रही हैं.’’
फोर्टिस के हेल्पलाइन पर कॉल करने वाले जितने लोगों की उन्होंने काउंसलिंग की है, उसकी सूची उनकी बात की तस्दीक करती है. कोच्चि के एक 27 वर्षीय व्यक्ति दफ्तर लौटने के डर से दहशत का अनुभव कर रहे हैं. दिल्ली की एक 30 वर्षीया मां प्रसवोत्तर अवसाद से जूझ रही हैं क्योंकि उन्हें लॉकडाउन के दौरान बिना परिवार की मदद के घर और बच्चे को संभालना पड़ा.
अन्य कई लोग इस बात को लेकर चिंतित है कि क्या उनका जीवन कभी पहले जैसा हो पाएगा. क्या वे फिर से बाहर खाना खाएंगे, फिल्म देखेंगे, खरीदारी करेंगे? या बिना डर के यात्रा कर सकेंगे? 35 साल के आकाश (बदला हुआ नाम) कहते हैं, ‘‘मेरा सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है.’’ वैसे, इस दवा कारोबारी के पास शिकायत का कोई वास्तविक कारण नहीं है.
व्यापार फल-फूल रहा है, दांपत्य जीवन अच्छा चल रहा है. बच्चे भी ठीक हैं. फिर भी वे नकारात्मक विचारों, अनिद्रा और चिंता से ग्रस्त हैं. वे खुद को जिम में कसरत करने में या घर पर पत्नी के साथ शाम की गपशप में शामिल होने में असमर्थ पाते हैं, और उन्हें अपनी ऊर्जा को दिशा देने का कोई जरिया नहीं नजर आता. जिन गतिविधियों से वे ऊर्जावान अनुभव करते थे उनसे वंचित हैं और थका हुआ महसूस करते हैं.
कोविड के बाद का डर
द लैंसेट साइकिएट्री में अप्रैल में छपे एक अध्ययन के मुताबिक, अमेरिका में 2,30,000 से अधिक रोगियों में ‘‘कोविड-19 संक्रमण के बाद छह महीनों के भीतर तंत्रिका संबंधी और मनोरोग संबंधी रुग्णता’’ देखी गई. मानसिक स्वास्थ्य पर कोविड के प्रभाव का विश्लेषण करने वाला भारत में कोई व्यापक अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन एक अध्ययन जारी है.
तीन केंद्रीय वित्त पोषित संस्थानों के लगभग 600 मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर—निमहांस, असम में तेजपुर स्थित लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई क्षेत्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, और रांची में केंद्रीय मनश्चिकित्सा संस्थान (सीआइपी)—और 19 अन्य शैक्षणिक केंद्र कोविड से उबरे 100 से अधिक लोगों के एक समूह का अध्ययन कर रहे हैं और रोज उन्हें फोन पर परामर्श देते हैं.
दीक्षा (बदला हुआ नाम) 28 वर्षीया गृहिणी और दो बच्चों की मां हैं. उन्होंने अगस्त 2020 में विशाखापत्तनम के एक अस्पताल में आइसीयू में कोविड से जूझते हुए 10 दिन बिताए. घर लौटने के बाद भी उनका संघर्ष जारी रहा. उन्हें अस्पताल में महसूस किए गए झटकों की याद आती रहती. उन्होंने ठीक होने के महीनों बाद ऑक्सीजन के स्तर की जांच की.
साधारण कामों पर ध्यान केंद्रित करने में वे पूरी ताकत लगा रही थीं. तभी दीक्षा क्लीनिकल मनोचिकित्सक डॉ. एन.एन. राजू से नवंबर में मिलीं. इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी के अध्यक्ष भी चुने गए राजू ने बताया कि वे ‘कोविड के बाद के मनोरोग’ से पीड़ित थीं और उनके सामान्यीकृत चिंता विकार का निदान किया गया था.
मेट्रो ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल्स की निदेशक, न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. सोनिया लाल गुप्ता ने अपने कुछ रोगियों में तंत्रिका-मनोरोग संबंधी दिक्कतें देखी हैं, जिन्होंने कोविड के बाद ‘ब्रेन फॉग’ की शिकायत की है, जो कम संज्ञानात्मक कार्यप्रणाली की स्थिति है. वे बताती हैं कि ‘‘वे स्पष्ट रूप से सोचने में सक्षम न होने, सोने में दिक्कत, लगातार सिरदर्द, चिड़चिड़ापन और थकान की शिकायत करते हैं.’’
निमहांस की एक रिपोर्ट बताती है कि कोविड के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कुछ दवाओं, जैसे स्टेरॉयड में मनोरोग सिंड्रोम पैदा करने की क्षमता होती है. एमपावर-द सेंटर की बेंगलूरू इकाई के प्रमुख, मनोविज्ञानी और मनोचिकित्सक डॉ. विनोद कुमार ने स्टेरॉयड-प्रेरित मानसिक स्थितियों के कम से कम तीन मामलों का सामना किया है, जिसमें एक 62 वर्षीया महिला भी शामिल है. उसे अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद हाइपोमेनिया के लक्षण दिखे. यह ऐसी दशा है जो बढ़ी हुई ऊर्जा, आवेग, चिड़चिड़ापन और नींद की कम जरूरत की ओर ले जाती है
नैदानिक मनोवैज्ञानिक और टीआइएसएस में प्रोफेसर सुकन्या रे एक साल से ज्यादा समय से आघात के नजरिये से महामारी का अध्ययन कर रही हैं और ‘अनपैकिंग द कोविड-19 इफेक्ट’ शीर्षक से वे आगे भी अध्ययन जारी रखेंगी. उनका अनुमान है कि बीमारी के सदमे का तनाव 5-10 साल तक महसूस किया जाएगा, बल्कि ‘अगली पीढ़ी तक में’ इसके महसूस किए जाने का अंदेशा है. रे कहती हैं, ‘‘जान गंवाने के डर के साथ जीना, आजीविका और लंबे समय तक महामारी से हमारे परिचित होने की भावना बेहद परेशान करने वाली हो सकती है.’’
वे बताती हैं कि ऐसे समय में खतरा इस बात का है कि अपनी ही चिंता और दर्द से पार में ये लोग अलग-थलग पड़ जाएं—ध्यान केंद्रित न कर पाएं, सुन्न पड़ जाएं, ध्यान कहीं अटक जाए, खुद को वर्तमान से काट लें.
डॉ. राजू कहते हैं, डर जब आपके ऊपर हावी हो जाए और आपके दैनिक जीवन (व्यक्तिगत, पेशेवर और सामाजिक) में दखल करने लगे तो ऐसे व्यवहार की चिकित्सकीय जांच की जरूरत होती है. वे बताते हैं कि कोविड के बारे में लोगों को शुरू में ‘एहतियाती फिक्र’ होती है, जो बाद में जब-तब लगातार बनी रहती है.
चिंता के लक्षण कोविड-19 के साथ घुल-मिल जाते हैं, जिससे लोग अधिक असहज हो जाते हैं. चेन्नै के एक वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. एम. सुरेश कुमार कहते हैं, ‘‘कुछ लोगों में ऐसी चिंताएं गले में एक गांठ और सांस लेने में कठिनाई जैसे लक्षणों में प्रकट होती हैं, जिससे उन्हें लगता है कि उन्हें कोविड है.’’ महामारी ने तनावों से भरा वातावरण बना दिया है, इसलिए चिंतित होना स्वाभाविक है.
अब जब भारत और अधिक विकराल लहर की चपेट में है, उस डर को और अधिक करीब से महसूस किया जा रहा है. दिल्ली में माइंडस्केप सेंटर फॉर काउंसलिंग की डॉ. उपासना चड्ढा विज कहती हैं, ‘‘कई बार, जब हम मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करते हैं, तो हम बहुत-से ऐसे लोगों को देखते हैं जिनकी परेशानी विवेकहीनता में निहित होती है और उसमें चिंता की कोई बात नहीं होती.
लेकिन इस बार यह एक वास्तविक खतरा है.’’ रांची स्थित सीआइपी के निदेशक डॉ. बासुदेव दास कहते हैं कि संभावित तीसरी लहर की रिपोर्ट केवल ‘थकान और अनिश्चितता की भावना’ को बढ़ा रही है. वे इस स्थिति को ‘‘सीखी हुई असहायता’’ के रूप में वर्णित करते हैं, जहां कोई ‘‘जानता है कि क्या हो रहा है, लेकिन इसके बारे में कुछ भी कर पाने में असमर्थ है.’’
चिंता की महामारी
27 अप्रैल को केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने ऐलान किया कि भारत ‘मानसिक और शारीरिक रूप से’ दूसरी लहर का सामना करने के लिए तैयार है. फिर भी मानसिक स्वास्थ्य शायद ही प्राथमिकता रही हो. महामारी के वर्ष में 2021-22 में स्वास्थ्य के लिए 2.23 लाख करोड़ रुपए के बजट में से राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के लिए मात्र 40 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे. इस बीच भारत इस महामारी से निबटने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर प्रति 4,00,000 लोगों पर केवल दो मनोचिकित्सक और एक मनोवैज्ञानिक हैं.
यह तब है जब चिंता दुनिया में दूसरी सबसे आम मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारी है. भारत में आइसीएमआर-पीएचएफआइ की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 4.49 करोड़ भारतीय ऐसी स्थितियों से पीड़ित हैं.
कोविड के इस समय में, मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन कभी भी व्यस्त नहीं रही है. निमहांस संचालित चौबीसो घंटे की टोल-फ्री हेल्पलाइन पर काउंसलर ने पिछले साल 29 मार्च को लॉन्च होने के बाद से लगभग 54,000 लोगों को फॉलो-अप सहायता प्रदान करते हुए 4,48,400 से अधिक फोन किए हैं. हालांकि पिछली बार लॉकडाउन के दौरान आजीविका के नुक्सान से लेकर घर लौटने के संघर्ष तक पर ध्यान केंद्रित किया गया था, लेकिन निमहांस के सेंटर फॉर साइकोसोशल सपोर्ट इन डिजास्टर मैनेजमेंट के प्रमुख डॉ. के. सेकर कहते हैं, इस बार मनोवैज्ञानिक कल्याण पर ध्यान केंद्रित किया गया है.
एक अन्य हेल्पलाइन एमपावर 1ऑन1 ने अप्रैल में अपनी गतिविधि में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी, जिसमें 25 महिला मनोवैज्ञानिकों के कार्यबल ने एक दिन में 70-80 फोन का जवाब दिया.
हेल्पलाइन के मनोवैज्ञानिक और हेड काउंसलर दिलशाद खुराना कहते हैं, ‘‘जनवरी-फरवरी के आसपास टीकों के आने से कुछ उम्मीद थी. अब वह उम्मीद तीन गुना गिर गई है और हालात बदतर हो रहे हैं.’’ इस हेल्पलाइन की शुरुआत अप्रैल, 2020 में महाराष्ट्र में हुई थी, लेकिन जल्द ही यह पूरे भारत से आने वाले फोन का जवाब देने लगी. इस बीच भारत में कम से कम तीन हेल्पलाइन विशेष रूप से स्वास्थ्यकर्मियों के लिए स्थापित की गई हैं, जिनमें से एक इंस्टीट्यूट फॉर साइकोलॉजिकल हेल्थ है, जो उन्हें ‘‘मानसिक थकान से उबरने’’ में मदद करने के लिए है.
ऐसी हेल्पलाइन की आवश्यकता एक मई को स्पष्ट हो गई, जब दिल्ली के साकेत के मैक्स अस्पताल में फैमिली मेडिसिन के प्रथम वर्ष के डीएनबी (डिप्लोमैट ऑफ नेशनल बोर्ड) के छात्र डॉ. विवेक राय अपने आवास पर पंखे से लटके पाए गए. राय कोविड रोगियों का इलाज कर रहे थे. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व प्रमुख डॉ. रवि वानखेड़कर के मुताबिक, राय की मृत्यु आइसीयू वार्ड में काम करने वाले ‘जबरदस्त भावनात्मक तनाव’ की याद दिलाती थी. असफलता का डर, अपने प्रियजनों को संक्रमित करने का डर, अत्यधिक काम का बोझ और तनावग्रस्त और शोकग्रस्त रिश्तेदारों के साथ व्यवहार मनोबल को प्रभावित करता है और मानसिक तनाव को बढ़ाता है.
ग्रामीण क्षेत्रों का अंतर
शहरों के उलट ग्रामीण भारत में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सलाह के लिए बहुत कम सुविधा उपलब्ध है. डॉ. पठारे कहते हैं कि सबसे बड़ी चुनौती लोगों के लिए संकट व्यक्त करने में सक्षम होना है. ‘‘मुश्किल हालात में रहने से एक हद तक व्यवहार में रुढि़वाद आता है. लोग शिकायत कम करते हैं और उसे झेलते हैं.’’ यह शहरी परिदृश्य के बिल्कुल विपरीत है, जहां पठारे कहते हैं, ‘‘कुछ भी हो जाता है पर लोग कहते हैं कि ‘मैं बहुत उदास महसूस कर रहा हूं’.’’
सीएमएचएलपी की एक पहल ‘आत्मीयता’ गुजरात के मेहसाणा जिले के 550 गांवों को कवर करती है. उसमें संगठन ने 700 लोगों को परामर्श देने और शब्दावली सीखने के लिए प्रशिक्षित किया है, जो मनोवैज्ञानिक मुद्दों को प्रकट कर सकता है. पठारे के शब्दों में, ‘‘जब वे कहते हैं, ‘‘बहुत तनाव है’ या 'घबराहट होती है’ तो यह डर नहीं बल्कि चिंता है. यह शहरी गरीबों में भी आम है.’’ ञ़
ग्रामीण परिवेश में ‘अवसाद’ और ‘चिंता’ जैसे शब्द अटपटे लग सकते हैं पर इसका अर्थ यह नहीं कि वे महामारी से भावनात्मक रूप से अछूते हैं. टीआइएसएस की एक ग्रामीण और आदिवासी स्वास्थ्य पहल प्रगति की निदेशक आशाबानु सोलेट्टी कहती हैं, महाराष्ट्र में ठाणे के अघई गांव में कोविड से संबंधित चिंता नौकरी जाने से लेकर मास्क और हैंड सैनिटाइटर के अभाव में वायरस से खुद को बचाने तक हो सकती है.
ग्रामीण भारत में जो भी बुनियादी मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं ठप पड़ी हैं, कोविड ने उन्हें सामने ला दिया है. झारखंड और बिहार में काम कर रहे संगठन नव भारत जागृति केंद्र (एनबीजेके) ने मार्च 2020 से लगभग एक हजार रोगियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए हजारीबाग और सरायकेला-खरसावां जिलों में अपने मासिक शिविर आयोजित नहीं किए हैं. सैकड़ों गांवों से रोगी यहां सिजोफ्रेनिया, बायपोलर डिसऑर्डर या अवसाद जैसी बीमारियों के इलाज के लिए आते हैं.
एनबीजेके के सचिव सतीश गिरिजा कहते हैं, एक साल से अधिक समय से मनोरोग की दवा भी नहीं आई है. जिला अस्पताल और स्वास्थ्य सचिव को लिखी गई चिट्ठी का भी कोई जवाब नहीं मिला है. इसका सीधा अर्थ है कि एनबीजेके जनता के साथ जुड़ने और पारंपरिक मान्यताओं का खंडन करने में असमर्थ है कि काला जादू मानसिक बीमारी का कारण है और ‘ओझा-गुनी’ मारक इलाज है.
स्वास्थ्य लाभ का रास्ता
स्वास्थ्य लाभ का पहला कदम तो मानसिक स्वास्थ्य को मान्यता देना है. मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों के प्रति सामाजिक कलंक एक बड़ी बाधा बनी हुई है. अब भी बहुत-से लोग मदद लेने से हिचकिचाते हैं. सिरदर्द चिकित्सा और वैस्कुलर न्यूरोलॉजी में विशेषज्ञता रखने वाले न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. गुप्ता का कहना है कि कई लोग मनोवैज्ञानिक या नैदानिक मनोचिकित्सक के पास जाने की बजाए मानसिक समस्याओं के साथ उनके पास आते हैं.
यह पता लगाने के लिए कि क्या कोई कोविड की चिंता से पीडि़त है, लक्षणों की निगरानी करना आवश्यक है. जो लोग तीव्र चिंता का अनुभव करते हैं, उनमें सेरोटोनिन और नॉरएड्रेनालाइन सरीखे उत्तेजक न्यूरोट्रांसमीटर के स्तर में वृद्धि दिखती है और गामा एमिनोब्यूट्रिक एसिड (जीएबीए) सरीखे निरोधात्मक रसायन नीचे आ जाते हैं.
इस दूसरी ‘मौन’ महामारी को दूर करने के लिए हमें मानसिक स्वच्छता की आवश्यकता है, बहुत कुछ कोविड मामले में अपनाई जा रही स्वच्छता की तरह. इसके लिए सामाजिक संपर्क अहम है, दूरी नहीं.
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े प्रोफेशनल्स कई मनोसामाजिक पहल का सुझाव देते हैं, जिनके लिए व्यक्तियों, परिवारों और समुदायों को संकटग्रस्त लड़ाई कोविड-19 में मदद करने की आवश्यकता होती है. रोजमर्रा की दिनचर्या बनाए रखना, पर्याप्त नींद लेना, शारीरिक रूप से सक्रिय रहना, ध्यान करना और पेट में सांस लेने जैसी आराम देने वाली गतिविधियों का अभ्यास करना, महामारी के बारे में अपने डर को पहचानना और उन्हें किसी मित्र या प्रियजन के साथ साझा करना. ये कुछ ऐसी गतिविधियां हैं, जो मन को कोविड की उदासी दूर करने में मदद कर सकती हैं
दया और सहानुभूति दो अन्य उपचार शन्न्तियां हैं. दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल्स में सीनियर कंसल्टेंट, मेंटल हेल्थ ऐंड साइकिएट्री, डॉ. संदीप वोहरा कहते हैं, ‘‘इस समय दूसरों की मदद करना सबसे अच्छा उपाय है.’’ डॉ. शेट्टी कहते हैं, वैज्ञानिक तथ्यों के साथ आशंकाओं को दूर करने से लोगों को कोविड के कारण मृत्यु के भय से निबटने में भी मदद मिल सकती है. प्रभावित लोगों में से 80 प्रतिशत से ज्यादा घर पर ठीक हो जाते हैं.
आखिरकार कोविड हमारे शरीर से उतना ही खेलता है, जितना हमारे दिमाग से. आप एक को जीते बिना दूसरे को नहीं जीत सकते.
—साथ में अमरनाथ के मेनन, रोमिता दत्ता, अमिताभ श्रीवास्तव और रिद्धि काले
‘‘यह अकेली महामारी नहीं, इसमें कई आभासी महामारियां छिपी हैं और वे मानसिक स्वास्थ्य के अलावा अर्थव्यवस्था, आजीविका और सामाजिक रचना को प्रभावित करते हुए विभाजन को और गहरा कर रही हैं ’’
डॉ. आलोक सरीन
कंसल्टेंट साइकिएट्रिस्ट, सीताराम भरतिया इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ऐंड रिसर्च
‘‘अपनी जान जाने और आजीविका छिनने के अंदेशे में जीने के अलावा एक लंबे समय तक महामारी में जीने का हमारे भीतर पनपता एहसास अवसाद पैदा करने वाला हो सकता है. खतरा इस बात का है कि लोग वर्तमान से खुद को काटने लगें’’
सुकन्या रे
क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट और प्रोफेसर, टीआइएसएस, मुंबई
‘‘कोविड-19 के मामले को लोगों को अपने अस्तित्व को लेकर जो सबसे बड़ी बुनियादी चिंता होती है वह यही कि आखिर जान किसी तरह से बच पाएगी या नहीं’’
डॉ. समीर पारिख
डायरेक्टर, डिपार्टमेंट ऑफ मेंटल हेल्थ ऐंड बिहेवियरल साइंसेज, फोर्टिस हेल्थकेयर, दिल्ली
‘‘दिखने वाले दुश्मन के डर को आप पढ़ सकते हैं, दिमाग में उसकी कल्पना कर सकते हैं, उसकी एक तस्वीर बना सकते हैं लेकिन इस बार दुश्मन अदृश्य है. और उसके इसी पहलू की वजह से उसका खतरा लाखों गुना बढ़ जाता है’’
डॉ. हरीश शेट्टी
मनोचिकित्सक, मुंबई
‘‘आप इसे ‘सीखी-जानी हुई बेचारगी’ कह सकते हैं जहां आपको पता है कि भीतर चल क्या रहा है लेकिन आप इसके बारे में कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं होते’’.