आवरण कथाः आत्मनिर्भरता के सूरमा

आत्मनिर्भरता को लेकर हुंकार भरने वाले नरेंद्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं लेकिन इस मुहावरे को सही मायनों में उन्होंने नया अर्थ दे दिया है. पर क्या उनका आत्मनिर्भर भारत अभियान ऐसा एक विचार बन सकेगा जो देश को कोविड-19 महामारी से हुई आर्थिक तबाही से मुक्ति का कोई मार्ग दिखा दे?

आत्म निर्भरता के सूरमा
आत्म निर्भरता के सूरमा

आलेख स्वतंत्रता दिवस विशेष

आजादी के बाद से ही हरेक भारतीय प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर और स्वावलंबी भारत का सपना देखा है. ताजा तौर पर इस मंत्र का जाप करने वाले नरेंद्र मोदी हैं, जो इसे अंग्रेजी के थके और घिसे-पिटे समानार्थी शब्दों की जकड़ से निकालकर धीर-गंभीर हिंदी का इस्तेमाल करते हुए ‘आत्मनिर्भर भारत’ कहना ज्यादा पसंद करते हैं.

लेकिन भारत की आजादी के 73 साल पूरे होने के मौके पर मोदी जिस आत्मनिर्भरता की बात कर रहे हैं, वह उस आत्मनिर्भरता से कैसे अलग है जिसकी बात नेहरू ने भारत के पहले प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालते वक्त की थी? क्या यह लाइसेंस राज, विदेशी चीजों को हिंदुस्तानी चीजों से बदलने और बैंक राष्ट्रीयकरण के युग की तरफ पीछे ले जाती है?

क्या यह मोदी सरकार के आकार लेने का इंतजार कर रहे मेक इन इंडिया अभियान का कोई नया नामकरण भर है? या इस ताजातरीन अवतार में आत्मनिर्भर भारत रसातल में जाती देश की अर्थव्यवस्था सहित कोविड-19 की दुश्वारियों से आजाद करने की परवान चढ़ती खोज है?

मोदी और उनके प्रमुख सहयोगियों का कहना है कि आत्मनिर्भर भारत अभियान और आत्मनिर्भरता के नेहरू-गांधी मॉडल में काफी फर्क है. सबसे पहले तो वे यह साफ कर देना चाहते हैं कि यह क्या नहीं है. कानून और न्याय, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी और संचार सरीखे अहम मंत्रालय संभाल रहे रविशंकर प्रसाद इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘आत्मनिर्भर भारत अभियान साफ तौर पर अलग-थलग भारत नहीं है. यह महज भीतर की तरफ देखने वाला भारत भी नहीं है.

यह किसी देश के खिलाफ नहीं—यह बस भारत के प्रति सकारात्मक होना है.’’ आत्मनिर्भर अभियान के विचार को ब्योरों और बारीकियों से तफसील दे रहे नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत इतना और कहते हैं, ‘‘यह उदारीकरण-विरोधी तो बिल्कुल ही नहीं है’’ (देखें: विशेषज्ञ की राय).

तो फिर मोदी का आत्मनिर्भर अभियान आखिर है क्या? 12 मई को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में मोदी ने एक-एक कर बताया, ‘‘आत्मनिर्भर भारत की यह भव्य इमारत पांच खंभों पर खड़ी होगी. पहला खंभा है अर्थव्यवस्था जिसमें हम धीमे-धीमे बदलाव के बजाए बहुत बड़े परिवर्तन की लंबी छलांग लगाना पक्का करेंगे. दूसरा है आधुनिक भारत के अनुरूप बुनियादी ढांचे का निर्माण करना.

तीसरा होगा टेक्नोलॉजी से संचालित प्रणालियों पर जोर, जो 21वीं सदी के सपनों को साकार करे, न कि पिछली सदी के. चौथा है ऊर्जा से भरी हमारी आबादी, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते आत्मनिर्भर भारत के लिए हमारी ऊर्जा का स्रोत होगी. पांचवा खंभा हमारी बढ़ती आर्थिक मांग और उसे पूरा करने पर टिका होगा, हमें अपनी आपूर्ति शृंखला को ताकतवर बनाना होगा.’’

हम उनके बयानों की व्याख्या कहीं इस तरह न करने लगें कि वे 1991 से पहले के संरक्षणवादी युग की अलग-थलग और एकाकी परिपाटियों की तरफ लौटने की बात कर रहे हैं, लिहाजा प्रधानमंत्री ने आगे स्पष्ट किया कि भारत को ‘‘वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में बड़ी भूमिका निभानी चाहिए.’’ उन्होंने इशारा किया कि नई चुनौती से निबटने के लिए अंग्रेजी के एल अक्षर से शुरू होने वाले चार विषयों—लैंड, लेबर, लिक्विडिटी और लॉ—में बड़े बदलाव लाए जाएंगे.

उन्होंने 20 लाख करोड़ रुपए के वित्तीय पैकेज का भी ऐलान किया जो आत्मनिर्भर भारत अभियान को दिशा देगा. जल्द ही केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने रोज प्रेस वार्ताओं में रक्षा, अंतरिक्ष, एटमी ऊर्जा, विमानन, निर्माण, रेलवे, कृषि, खनन, बिजली, रियल एस्टेट और एमएसएमई सरीखे प्रमुख क्षेत्रों में बड़े सुधारों/रियायतों का ऐलान किया.

तभी से प्रधानमंत्री के दफ्तर और संबंधित मंत्रालयों ने एक के बात एक बैठकें करके पक्का किया कि घोषित तमाम सुधारों पर तेजी से अमल हो. उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग के सचिव डॉ. गुरुप्रसाद महापात्र कहते हैं, ‘‘एक बात साफ है कि हम एकाधिकारवादी तंत्र की तरफ नहीं बढ़ रहे, जहां हम अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया की तरफ से बंद कर लेंगे. हम दुनिया भर से जुड़े रहेंगे. विचार यह है कि भारत न केवल अपने लिए बल्कि दुनिया के लिए पर्याप्त उत्पादन और निर्माण करे. और कोविड ने दिखा दिया है कि हमें जरूरतें पूरी करने को एक खास भूगोल पर निर्भरता से बचने की जरूरत है.’’

आत्मनिर्भर अभियान की घोषणा का समय चुनने की मोदी की सूझबूझ असरदार और अचूक थी. एक तो इसलिए कि अर्थव्यवस्था जब अभी आइसीयू में ही थी, उनका अपना 1991 वाला लम्हा उनके सामने खड़ा था. लिहाजा, ठीक उसी तरह जैसे नरसिंह राव ने आर्थिक संकट का फायदा उठाकर बड़े सुधारों का रास्ता साफ किया था, मोदी जानते थे कि अर्थव्यवस्था को मौजूदा दलदल से निकालने के लिए वे जो बड़े बदलाव लाना चाहते हैं, इसमें हिस्सेदार लोग इस वक्त उनका प्रतिरोध नहीं करेंगे.

जब कोविड-19 ने टेस्टिंग किट और पीपीई सरीखी बुनियादी चीजों के लिए चीन पर भारत की निर्भरता को उजागर कर दिया, तो मोदी ने सरहद पर जारी तनातनी का इस्तेमाल चीनी आयातों के खिलाफ आर्थिक राष्ट्रवाद को हवा देने के लिए किया. लोकप्रिय चीनी ऐप्स पर पाबंदी और भाजपा के कुछ हलकों से चीनी सामान के बहिष्कार की अपील को अच्छा जन समर्थन मिला.

‘वोकल फॉर लोकल’ या स्थानीय के लिए मुखर होने के उनके उद्घोष में स्वदेशी की गूंज थी, जिसने उन्हें संघ परिवार के कुछ तबकों का लाड़ला बना दिया. वही संघ परिवार जिसने पहले सुधार के उनके कुछ कदमों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में सुधार का विरोध किया था. कृषि में मोदी अपने आलोचकों के खिलाफ जाकर बड़े सुधारों का रास्ता साफ कर पाए, जिनमें पैदावार की खरीद पर सरकार का एकाधिकार खत्म करना भी शामिल है.

भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) की एक सालाना बैठक में आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य पूरा करने के लिए मोदी ने अंग्रेजी के आइ अक्षर से शुरू होने वाली पांच चीजें गिनाईं—इंटेंट, इन्क्लूजन, इंफ्रास्ट्रक्चर, इनवेस्टमेंट और इनोवेशन. इंटेंट या मंशा तो साफ तौर पर है ही, इनक्लूजन या समावेशन की बात करें तो सुधार की प्रक्रिया का लाभ समाज के सभी तबकों को मिलना ही चाहिए. वहीं कामयाबी की चाबी इस बात में है कि मोदी सरकार बुनियादी ढांचे की योजनाओं को अमल में लाने, निवेश आकर्षित करने और टेक्नोलॉजी के नवाचारों को सक्षम बनाने के कामों को कितनी अच्छी तरह अंजाम देती है.

कांत मानते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रुजवेल्ट ने महा मंदी पर फतह हासिल करने के लिए अमेरिका में बुनियादी ढांचे के लिए जिस तरह जबरदस्त सरकारी धन झोंक दिया था, वैसा ही कुछ करने का वक्त आ गया है. कोविड-19 की चपेट में आने से पहले ही दिसंबर 2019 में वित्त मंत्री ने प्रतिबद्धता जाहिर की थी कि सरकार अगले पांच साल में बुनियादी ढांचे पर 102 लाख करोड़ रुपए खर्च करेगी. अकेले सड़क निर्माण पर केंद्र ने दो साल में 15 लाख करोड़ रुपए खर्चने का लक्ष्य रखा था.

मगर कोविड के चलते अचानक आए आर्थिक विघ्न की वजह से राजस्व में भारी गिरावट आई और सरकार निवेश और कर्ज में आए जबरदस्त गतिरोध को तोडऩे के लिए नवोन्मेषी तरीके खोजने का मंसूबा बना रही है. फीडबैक इंफ्रास्ट्रक्चर सर्विसेज के चेयरमैन विनायक चटर्जी मानते हैं कि डेवलपमेंट फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन फॉर इंफ्रास्ट्रक्चर (डीएफआइआइ) की स्थापना का सरकार का प्रस्ताव गेम-चेंजर साबित होगा.

डीएफआइआइ को वजूद में आने के लिए संसद के कानून की जरूरत होगी, लेकिन जब ऐसा हो जाएगा, यह व्यावसायिक बैंकों के मुकाबले काफी कम ब्याज पर धन उगाह पाएगा और काफी कम दरों पर उधार भी दे पाएगा. बैंकों के विपरीत, यह कर्ज 30 साल की अवधि में चुकाया जा सकेगा. डीएफआइआइ सरकार की नीति और मंजूरियों में गुणात्मक बदलाव लाने के लिए दबाव बिंदु का भी काम करेगा.

लेकिन रकम का मिलना पक्का करने के लिए विदेश मंत्रालय को मोदी सरकार के वैश्विक मेलजोल का फायदा उठाकर दोस्ताना सरकारों से उसी तरह निवेश करवाना होगा, जैसे जापान ने भारत की बुलेट ट्रेन परियोजना में किया है. जापानी सरकार ने इसके लिए 1.1 लाख करोड़ रुपए का कर्ज दिया है, जो 50 साल की अवधि में 0.1 फीसद ब्याज दर पर चुकाया जा सकेगा.

कोविड इसके अलावा आयातों पर भी निर्भरता कम करने की मांग करता है, खासकर चीन से, जिसके साथ व्यापार संतुलन भारत के खासा प्रतिकूल बना हुआ है. लार्सन ऐंड टुब्रो के सीईओ और एमडी एस.एन. सुब्रमण्यम बताते हैं, ‘‘भारत चीन सहित आयातित उत्पादों पर निर्भरता काफी घटा सकता है. इसके लिए उसे बड़े पैमाने पर दक्ष और लागत-प्रभावी घरेलू औद्योगिक परिवेश विकसित करने के वास्ते प्रक्रियाओं की स्थापना करनी होगी.

माहौल सही है और इसे हमें गति देना चाहिए.’’ दिल्ली स्थित रिसर्च ऐंड इंफॉर्मेशन सिस्टम्स फॉर डेवलपिंग कंट्रीज (आरआइएस) के एक हालिया अध्ययन से पता चला कि 2018 में भारत ने चीन से जिन 4,044 उत्पादों का आयात किया, उनमें से कम से कम 3,326 या 82 फीसद उत्पादों के कहीं ज्यादा प्रतिस्पर्धी दूसरे सप्लायर मौजूद थे. आरआइएस के इस अध्ययन से यह भी पता चला कि चीन से आयात किए गए 327 उत्पाद ऐसे थे, जिन पर भारत अत्यधिक निर्भर था. इन वस्तुओं के आयात का बिल 66.6 अरब डॉलर या चीन से भारत के कुल 90 अरब डॉलर के आयात का 73 फीसद था.

आरआइएस के महानिदेशक प्रोफेसर सचिन चतुर्वेदी मानते हैं कि भारत को बेहद अहम तौर पर संवेदनशील उत्पादों के आयात के लिए एक ही देश के भरोसे रहने के बजाए दूसरे अलग-अलग स्रोत तलाशने चाहिए और विदेशी चीजों को देशी चीजों से बदलने के जरिए घरेलू उत्पादन का देसीकरण शुरू करना चाहिए.

वे अमेरिकी सुपर 301 से मिलते-जुलते व्यापार कानून की वकालत करते हैं, जो सरकार को इतने अधिकार और शक्ति दे कि वह हमारे वाणिज्य को नुक्सान पहुंचाने वाले भेदभावपूर्ण और अनुचित तौर-तरीके अपना रहे देशों के खिलाफ शुल्क और गैर-शुल्क आधारित बदले की कार्रवाइयों सहित तमाम कदम उठा सके. चतुर्वेदी कहते हैं, ‘‘हमारे नतीजे बताते हैं कि भारत को ऐसी औद्योगिक नीति की जरूरत है जो वैश्विक तौर पर हमें प्रतिस्पर्धी बनाने में धन लगाने के अलावा उद्योग, व्यापार और टेक्नोलॉजी की जरूरतों को गले लगाए.’’

इस बीच नीति आयोग के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत निर्यात को प्रभावित किए बगैर चीन से आयातित 350 उपभोक्ता वस्तुओं पर कहीं ज्यादा शुल्क लगा सकता है. लेकिन कांत की दलील है कि ये शुल्क साल-दर-साल कम किए जाने चाहिए, ताकि हम 1960 और 1970 के दशक के संरक्षणवादी जाल में फंसने से बच सकें, जिसने भारतीय उद्योग को नाकारा और महंगा बना दिया था.सरकार ऐसे कदम भी उठा रही है जिनसे चीन की तरफ से की जा रही आयातों की राउंडट्रिपिंग (भारत के जिन दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते हैं, उनके रास्ते उत्पादों को भारत भेजना) को रोका जा सके.

सरकार ने कई प्रमुख क्षेत्रों में घरेलू उत्पादन और इसके जरिए आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए बहुत-सी योजनाओं और उपायों की शुरुआत कर दी है. रक्षा क्षेत्र, जहां भारत दुनिया में उपकरणों का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश है, में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने हाल ही 3.5 लाख करोड़ रुपए की 101 आयातित चीजों को अगले पांच साल में उनके देसी विकल्पों से बदलने का ऐलान किया.

एमएसएमई के लिए वित्त मंत्री सीतारमण ने ऐलान किया कि 200 करोड़ रुपए तक की निविदाओं में केवल भारतीय कंपनियां ही भाग ले सकेंगी. इलेक्ट्रॉनिक्स में, जहां आयात 4 लाख करोड़ रुपए से ऊपर है और उनमें से भी ज्यादातर चीन से किया जाता है, सरकार अगले पांच साल के लिए सामानों की बढ़ती बिक्री पर उत्पादन से जुड़ी 4-6 फीसद की प्रोत्साहन योजना लेकर आई है, ताकि विदेशी कंपनियां भारत में अपने कारखाने लगाने को प्रोत्साहित हों और घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिले.

टेलीकॉम क्षेत्र की दोनों बड़ी कंपनियों एपल और फॉक्सकॉन ने भारत में मैन्युफैक्चरिंग संयंत्र लगाने के मंसूबों का ऐलान किया है. फार्मास्युटिकल्स, जहां भारत एपीआइ (एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रेडिएंट) और चिकित्सा उपकरणों की अपनी 80 फीसद जरूरतों के लिए चीन पर निर्भर है, में सरकार विशेष मेडटेक औद्योगिक पार्कों की स्थापना के लिए राज्य सरकारों को प्रोत्साहित कर रही है. ऐसे हर पार्क के लिए 1,000 करोड़ रुपए की अनुदान दे रही है.

अगर आत्मनिर्भर भारत के दोहरे मकसद—आत्मनिर्भरता के साथ वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी बनाना—को पूरा करना है तो बहुत सारी समस्याओं को सुलझाना होगा. विश्व बैंक लॉजिस्टिक परफॉर्मेंस सूचकांक में भारत 167 देशों की सूची में 44वें स्थान पर है और यह बताता है कि हमें आगे कितना रास्ता तय करना है. टीमलीज सर्विसेज के चेयरमैन और सह-संस्थापक मनीष सभरवाल 'नियामक कानूनों’ में बड़े पैमाने पर कमी करने को कहते हैं.

जुलाई, 2020 के इंडिया टुडे के अपने स्तंभ में उन्होंने लिखा कि भारत में कारोबार करने वाले उद्यमियों सालाना करीब 1,536 केंद्रीय और राज्य अधिनियमों और 6,618 किस्म की फाइलिंग का पालन करना होता है. पीएमओ ने उनके विश्लेषण को विभिन्न मंत्रालयों को भेजा ताकि ऐसे कायदे-कानूनों को बड़े पैमाने पर कम किया जा सके.

चटर्जी स्वतंत्र नियामकों की नियुक्ति जैसे अधिक दुनियावी सुधारों की ओर इशारा करते हैं, जो इन्फ्रा सेक्टर्स में विवादों को निपटाने के लिए बातचीत के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण कर सकते हैं. 60 फीसद से अधिक सार्वजनिक-निजी परियोजनाएं पहले पांच वर्षों में मध्यस्थता के लिए आती हैं और उसके बाद वे वर्षों के लिए अटक जाती हैं. वह इस तरफ भी ध्यान दिलाते हैं कि निजी क्षेत्र सही समय पर भुगतान जारी करने के मुद्दे पर सरकारी सेक्टर पर जरा भी भरोसा नहीं करते और वे सार्वजनिक क्षेत्र की खरीद नीतियों की पूरी तरह समीक्षा की बात करते हैं.

शोध और विकास एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र है. सरकार अब प्रौद्योगिकी के उन प्रमुख क्षेत्रों में काम कर रही है, जिसमें भारत को कुछ वर्चस्व स्थापित करने की जरूरत है. सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार, के. विजयराघवन कहते हैं कि डिजाइन विनिर्माण के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गया है, और बौद्धिक संपदा के इसका प्रमुख कारक बनने से, भारतीय सॉफ्टवेयर फर्मों को बड़े पैमाने पर इसमें शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

अगले पन्नों में हम उन भारतीय उद्यमों की उक्वदा मिसालें पेश कर रहे हैं जो पहले से ही आत्मनिर्भर भारत के अगुआ हैं. मारुति सुजुकी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव एक निश्चित कारोबारी माहौल की जरूरत की बात करते हुए कहते हैं कि भारत अभी भी विदेशी निवेशकों के लिए पसंदीदा जगह नहीं है. हमें कारोबार में आसानी को और बेहतर बनाना होगा.

बायोकॉन की चेयरपर्सन किरण मजूमदार शॉ आयात शुल्क बढ़ाकर या आयात पर बंदिश से कृत्रिम आत्मनिर्भरता पैदा करने से चेताती हैं और वैश्विक प्रतिस्पर्धा की जरूरत की ओर इशारा करती हैं. बात अंतत: आदित्य बिरला ग्रुप के चेयरमैन कुमार मंगलम बिरला कहते हैं, ''आत्मनिर्भर में आत्मविश्वास निहित है.’’

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