आवरण कथाः वापसी नीति का माकूल मौका
लॉकडाउन का सबसे बुरा प्रभाव प्रवासी श्रमिकों और अनौपचारिक क्षेत्र के विशाल श्रमिक समूह पर पड़ा है. सरकारों को मनरेगा जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं में निवेश करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रवासन बाध्यकारी स्थितियों के परिणामस्वरूप न हो.

लॉकडाउन के दौरान प्रवासी कामगारों के अपने गृहक्षेत्रों में लौटने के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे तर्क-वितर्क से एक दोहरे संकट को हवा मिल रही है. कुछ राज्य सरकारें चाहती हैं कि प्रवासियों को अपने मूलस्थान पर लौटने की अनुमति मिले तो कुछ दूसरे राज्य इन संभावित ‘वायरस वाहकों’ से दूर ही रहना चाहते हैं. एक ओर मानवीय मुद्दा है कि लॉकडाउन के कठोर वित्तीय वातावरण में इन कामगारों को अपना बचाव खुद करने के लिए छोड़ दिया गया है तो दूसरी ओर आर्थिक मुद्दा है कि आवाजाही पर प्रतिबंध और इस मुद्दे पर केंद्र तथा राज्य सरकारों की असंगत प्रतिक्रियाओं से देश भर के शहरों और कस्बों में श्रमिकों की कमी का संकट पैदा हो गया है.
विशेषज्ञों का कहना है कि यह मानवीय संकट परिस्थितियों को समझने और कामगारों की परवाह करने की जिम्मेदारी लेने में अधिकारियों की हद दर्जे की लापरवाही और संपूर्ण असफलता का परिणाम है. इस दौरान, व्यावहारिक रूप से निस्सहाय प्रवासी श्रमिक राज्य सरकारों की मनमानी नीतियों के मुताबिक जहां थे वहीं रोके जाने या बाहर धकियाए जाने की स्थिति में पहुंच गए.
केरल में दो दशकों से भी अधिक समय से प्रवासन पर सर्वेक्षणों का आयोजन करने वाले और सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, तिरुवनंतपुरम में कार्यरत प्रोफेसर एस. इरुदय राजन कहते हैं, ‘‘महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कोई रास्ता न बचने पर प्रवासी श्रमिकों के झुंड के झुंड राज्य छोडऩे को बाध्य हुए. दूसरी ओर, कर्नाटक जैसे राज्यों में, वे जहां थे, वहीं फंस गए. राज्यों के बीच की सीमाओं पर भी कठोरता बरतते हुए प्रवासियों की गतिशीलता, प्रवाह और गरिमा भी छिन गई.’’
उदाहरण के लिए, मई की शुरुआत में स्थानीय नियोक्ता संघों के दबाव पर कर्नाटक सरकार ने आर्थिक गतिविधियों को फिर से शुरू करने के लिए श्रमिकों की तत्काल आवश्यकता का हवाला देकर फंसे हुए प्रवासियों को उनके गृह राज्य ले जाने के लिए आवंटित गाडिय़ों को रोकने की कोशिश की थी. इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ आने पर 24 घंटे के भीतर ही इस निर्णय को रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा था. इतना ही नहीं, घर लौट जाने पर भी इन प्रवासियों की स्थिति चिंताजनक है. राजन इसका कारण बताते हैं कि ‘‘एक तो ये प्रवासी खाली हाथ घर लौट रहे हैं, दूसरे इन पर वायरस-वाहक होने का कलंक भी लग रहा है.’’
केंद्र सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपए के आर्थिक पुनरुद्धार पैकेज की घोषणा करते हुए अल्पकालिक उपाय के रूप में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के दायरे में न आने वालों को भी खाद्य सामग्री (पांच किलो चावल और एक किलो दाल) प्रदान करने के लिए 3,500 करोड़ रुपए की व्यवस्था की है. साथ ही मनरेगा के बजट में भी 40,000 करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की है. दीर्घकालिक योजनाओं में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत प्रवासी श्रमिकों को किफायती किराए पर आवास प्रदान करना और ‘एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड’ योजना के अंतर्गत राशन कार्डों को पूरे देश में कहीं उपयोग के योग्य बनाया जाना शामिल है.
रियायत देने वाले समझौतों के माध्यम से सार्वजनिक-निजी भागीदारी विकल्प के अंतर्गत किफायती किराए पर आवास उपलब्ध करवाने का विचार आकर्षक हो सकता है पर महंगी संपत्तियों वाले शहरों में ऐसे आवासीय स्थान पाना चुनौती है. इसके अलावा, ये उपाय कहीं अगले साल तक लागू होंगे और उनकी सफलता भी राज्यों के बीच प्रभावी समन्वय पर निर्भर करती है.
इनमें से कोई भी उपाय प्रवासी कामगारों की तुरंत बहुत मदद नहीं करता क्योंकि सबसे बड़ा मुद्दा हाथ में नगदी न होने का है. प्रवासी मजदूरों के बीच काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन आजीविका ब्यूरो के सह-संस्थापक तथा कार्यक्रम नियोजन निदेशक कृष्णावतार शर्मा कहते हैं कि हमें ग्रामीण क्षेत्रों में कर्ज में बहुत तेजी दिखाई दे रही है क्योंकि प्रवासी श्रमिकों ने लॉकडाउन के दौरान जीवित रह पाने के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज लिए हैं और जमीनें गिरवी रखी हैं. लॉकडाउन के बाद काम की कमी के कारण श्रमिकों की स्वीकार्य कार्यदशाओं पर नकारात्मक असर पडऩे की चिंता जताते हुए वे कहते हैं कि इनके लिए मजबूत वैधानिक सुरक्षा उपाय लागू करना आज पहले से ज्यादा जरूरी है.
विशेषज्ञों का कहना है कि बेहतर होता कि सरकार प्रवासी श्रमिकों को अनुदान देने की घोषणा करती. अगर सभी अनुमानित 13.9 करोड़ अंतर-राज्य और अंतर-जिला प्रवासी श्रमिकों को 25,000 रुपए की राशि भी दी गई होती तो इस मद में मात्र रु. 3.47 लाख करोड़ की आवश्यकता होती जो कि घोषित पैकेज का लगभग छठा हिस्सा भर है. इसके अलावा अगर भुगतान केवल अपने गृहराज्य से बाहर फंसे प्रवासियों तक ही सीमित रहता तो जरूरी रकम और कम होती.
राजन का कहना है कि ऐसा होने पर फंसे हुए मजदूरों को वित्तीय सुरक्षा मुहैया कराई जा सकती थी, जबकि आबादी के बड़े हिस्से को कुछ क्रय शक्ति देकर स्थानीय अर्थव्यवस्था को सक्रिय किया जा सकता है. अगर सरकार ने प्रवास पर गठित वॄकग ग्रुप की जनवरी 2017 की रिपोर्ट की ज्यादा सिफारिशों को लागू किया होता तो प्रवासियों के सामने आ रही कई समस्याओं से बचा जा सकता था.
प्रवासियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारक भोजन, आवास और रोजगार की दीर्घकालिक गारंटी हैं. इसके लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और नियोक्ताओं को मिलकर काम करना होगा. श्रमिकों के कल्याण का ध्यान रखने की नियोक्ताओं की जिम्मेदारी के बारे में भी बहुत कम बातचीत होती है. शर्मा का कहना है कि ''सम्मानजनक आवासन सुविधाएं, खाद्य पदार्थों की सार्वजनिक वितरण प्रणाली तक निर्बाध पहुंच और स्वास्थ्य सेवाएं इन प्रवासियों को शहरों में वापस लाने के लिए लिए महत्वपूर्ण होंगी.’’
राज्य सरकारें और नगर निकाय जो कर सकते हैं वह यह है कि वे ऐसे नियोक्ताओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करें जिन्होंने श्रमिकों को उनके हाल पर छोड़ दिया था. उदाहरण के लिए, इन नियोक्ताओं को बाध्य किया जा सकता है कि वे श्रमिकों को लॉकडाउन के दो महीनों के वेतन का भुगतान करने के साथ ही अगले महीने के लिए वेतन अग्रिम दें. राजन कहते हैं, ''इससे प्रवासी श्रमिकों को कुछ हद तक वेतन और रोजगार सुरक्षा मिलेगी. केरल के नियोक्ताओं की तरह से जिन नियोक्ताओं ने लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों को ऐसी सुरक्षा प्रदान की थी, उन्हें श्रमिकों के पलायन का सामना भी नहीं करना पड़ा. प्रवासी श्रमिकों को कार्यस्थल पर वापस लाने के मुद्दे में नियोक्ताओं की भूमिका केंद्रीय है.’’
दिल्ली और तेलंगाना जैसे कुछ राज्यों की ओर से नगद अंतरण की घोषणा भी उपयोगी कदम है. ऐसे ही, केरल और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में भोजन और आवास सुरक्षा की आवश्यकताओं का ठीक से ध्यान रखा गया है. लॉकडाउन में फंसे प्रवासियों के लिए देश भर में राज्य सरकारों की ओर से चलाए जा रहे कुल आश्रय शिविरों के आधे से ज्यादा शिविर अकेले केरल में हैं जहां लगभग तीन लाख लोगों को राज्य की ओर से संचालित सामुदायिक रसोइयों से खाना उपलब्ध करवाया जा रहा है.
कुछ राज्य सरकारों का नजरिया अलग है. महाराष्ट्र में, प्रवासी श्रमिकों को वापस बुलाने की कोई योजना नहीं है. मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने राज्य छोड़ कर जा रहे प्रवासी श्रमिकों से राज्य में बने रहने की अपील करने के साथ स्थानीय लोगों का भी आह्वान किया कि वे खाली हुई नौकरियां हासिल कर लें. राज्य ने बेरोजगार स्थानीय लोगों को सूचीबद्ध करने और उनका कौशल बढ़ाने के लिए श्रम ब्यूरो बनाने का भी निर्णय लिया है. महाराष्ट्र के श्रम मंत्री दिलीप वाल्से-पाटिल कहते हैं, ‘‘हमने उद्योगों को एक पारी में काम के घंटे आठ से बढ़ाकर 12 करने की अनुमति दी है. स्थिति सामान्य होने तक यह व्यवस्था जारी रहेगी.’’
गुजरात सरकार का कहना है कि अभी श्रमिकों की वापसी की योजना बनाना बहुत जल्दबाजी होगी और उसका ध्यान उद्योगों को पटरी पर लाने पर केंद्रित है. राज्य के मुक्चय सचिव अनिल मुकीम कहते हैं, ‘‘पहले हमें मांग और आपूर्ति शृंखला की स्थापना करनी चाहिए. (प्रवासी) श्रमिकों ने घर जाने का मन बना लिया था और वे रुकने के लिए तैयार नहीं थे. चीजें स्थिर होने पर उनकी वापसी में बहुत कठिनाई नहीं दिखती है.’’
प्रवासियों के आवागमन को प्रभावित करने वाले दूसरे मुद्दे भी हैं. इसका एक उदाहरण है महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे की मांग कि राज्य सरकार सभी प्रवासियों के राज्य में प्रवेश और निकास का नियमन करे (जो पूरे भारत में आवागमन की स्वतंत्रता की गारंटी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 19 का उल्लंघन होगा). शर्मा कहते हैं कि दीर्घ काल में ऐसे बदलाव प्रवासन के तौर-तरीकों को प्रभावित करेंगे. उनका कहना है कि ''प्रवासन पैटर्न में बदलाव न केवल काम की उपलब्धता और प्रकृति से प्रभावित होगा, बल्कि इससे भी होगा कि विभिन्न नगर किस तरह से प्रवासियों के प्रवाह और उनके विरुद्ध स्थानीय आक्रामकताओं को नियंत्रित करते हैं.’’
भूला हुआ अध्याय केंद्रीय आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय के प्रवास पर अध्ययन के लिए गठित वर्किंग ग्रुप की प्रमुख संस्तुतियों में से केवल खाद्य सुरक्षा पहल को लागू किया गया है • सामाजिक सुरक्षा असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा बोर्ड गठित किए जाएं जिनमें पंजीकरण की प्रक्रिया मोबाइल एसएमएस भेज कर स्वत: पंजीकरण जितनी आसान हो. सुनिश्चित हो कि संरक्षण और लाभों को किसी भी स्थान पर दे सकने की सुविधा के लिए विवरणों के डिजिटल स्वरूप में होने का फायदा लिया जाए • खाद्य सुरक्षा व्यक्तियों को किसी परिवार से अलग कर सकने के लिए लाभार्थियों की सूची के डिजिटाइजेशन और/अथवा उसे आधार कार्ड से जोड़े जाने के बाद सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभों को किसी भी स्थान पर दिए जा सकने की अनुमति दी जाए • स्वास्थ्य सेवा असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम के तहत लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से अनुबंधित श्रमिकों तथा असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित करते हुए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना तथा कर्मचारी राज्य बीमा सुविधाओं के माध्यम से किसी भी स्थान पर प्राप्य स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाएं. एकीकृत बाल विकास सेवा केंद्र्रों को भी अपनी पहुंच बढ़ाते हुए प्रवासी महिलाओं और बच्चों को अपने दायरे में लाना चाहिए • कौशल प्रशिक्षण प्रवासियों को शहरी क्षेत्रों में कौशल कार्यक्रमों में शामिल किया जाए. इस संबंध में डोमिसाइल पाबंदियां हटाई जाएं और सुनिश्चित किया जाए कि केंद्र्रीय बजट से समर्थित कौशल कार्यक्रमों के संचालन में ऐसा कोई प्रतिबंध न हो • वित्तीय सेवाएं डाक विभाग की इलेक्ट्रॉनिक धनादेश सेवा का निजी सेवा प्रदाताओं के मुकाबले मानकीकरण किया जाए. प्रवासी श्रमिकों के सामने बड़ा मुद्दा हाथ में नगदी न होने का है. इसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में कर्ज लेने की रफ्तार काफी तेजी से बढ़ रही है सभी 13.9 करोड़ प्रवासी श्रमिकों को रु. 25,000 का भुगतान करने पर कुल रु. 3.47 लाख करोड़ रु. का खर्च आता जो केंद्र सरकार के पैकेज का लगभग छठा हिस्सा है |
प्रवासन संबंधी शोध, नीति और पक्षनिर्माण संगठन इंडिया माइग्रेशन नाउ के संस्थापक, वरुण अग्रवाल कहते हैं, ‘‘प्रवासी श्रमिकों और उनके गंतव्य स्थलों के बीच भरोसे पर असर पड़ा है. ठेकेदारों और प्रवासी सामाजिक नेटवर्क के अन्य सदस्यों पर भी गंभीर कुप्रभाव पड़ा है. प्रवासन पुन: आरंभ करने के लिए उन्हें इससे उबरना होगा.’’ उनका तर्क है कि गंतव्य राज्यों में सरकारी कार्यक्रमों से संबंधित सभी स्थानीय निवासी संबंधी प्रतिबंधों को हटा देना चाहिए, ताकि प्रवासियों को प्रवासस्थल न छोडऩे के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. और, जो लोग वापस आएं उन्हें काम दिया जाना चाहिए.
लॉकडाउन का सबसे बुरा प्रभाव प्रवासी श्रमिकों और अनौपचारिक क्षेत्र के विशाल श्रमिक समूह पर पड़ा है. सरकारों को मनरेगा जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं में निवेश करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रवासन बाध्यकारी स्थितियों के परिणामस्वरूप न हो. स्पष्टत: प्रवासी कामगारों के संबंध में पूरे नियामक ढांचे के पुनरीक्षण की जरूरत है. उनकी कार्यदशाओं के नियमन के लिए केवल अंतरराज्य प्रवासी कामगार अधिनियम, 1979 है जिसका उल्लेख अक्सर ‘बिना दांत के शेर’ के रूप में किया जाता है.
चूंकि प्रवासी श्रमिक प्राय: अपने नियोक्ताओं की दया पर निर्भर होते हैं, ऐसे में कम से कम न्यूनतम कानूनों के व्यापक क्रियान्वयन की गंभीर आवश्यकता है. साथ ही ऐसे किसी भी नीतिगत ढांचे में 'नई वापसी नीति’ भी होनी चाहिए. संभावना यह है कि सामान्य स्थिति में वापस आते-आते 2020 बीत जाएगा. आने वाले वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था सिकुड़ेगी. अल्पावधि में, प्रवासी श्रमिकों और नियोक्ताओं, दोनों को नुक्सान होगा और मौजूदा संकट से उबरने में कुछ समय लगेगा.
—साथ में उदय माहूरकर और किरण डी. तारे
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