हिंदू बनाम हिंदुत्वः उदार हिंदू धर्म के ये अनुदार पहरेदार !

मेरी पहचान को किसी भी सामूहिकता में विलीन करके और न ही पूजा का कोई निश्चित दिन या वक्त या बारंबारता बताकर अपनी आस्था का प्रदर्शन करने के लिए बाध्य नहीं करता.

हिंदुत्व
हिंदुत्व

मैं एक हिंदू परिवार में बड़ा हुआ. हमारे घर में हमेशा एक पूजाघर हुआ करता था, जहां अलमारी और दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्र और पेंटिंग दिवंगत पूर्वजों की फीकी पड़ती तस्वीरों के साथ चस्पां रहते थे और उन पर मेरे श्रद्धालु माता-पिता की रोज जलाई अगरबत्तियों की बिखरी हुई राख के निशान पड़े होते थे. मैं पहले भी लिख चुका हूं कि धर्मपरायणता के मेरे शुरुआती तजुर्बे किस तरह मुझे अपने पिता को प्रार्थना करते देखकर मिले.

मेरे पिता हर सुबह स्नान के बाद तौलिया लपेटकर पूजा घर के सामने खड़े हो जाते, उनके गीले बाल अब भी अनकढ़े होते, और संस्कृत के मंत्रों का उच्चार करते. लेकिन उन्होंने कभी मुझे अपने साथ शामिल होने देने की मेहरबानी नहीं की, वे इस हिंदू विचार की जीती-जागती मिसाल थे कि धर्म अत्यंत निजी मामला है कि प्रार्थना आपके और आप अपने जनक की जिस भी छवि की पूजा करना चुनते हैं, उसके बीच होती है. हिंदू पद्धति के मुताबिक मुझे अपना सत्य खुद खोजना था.

मुझे लगता है कि मैंने खोज लिया है. मैं आस्तिक हूं, स्कूली दिनों की नास्तिकता के एक छोटे-से दौर के बावजूद (उस किस्म की नास्तिकता जो तर्क और विवेक की खोज के साथ आती है और उसकी सीमाओं की स्वीकारोक्ति के साथ चली जाती है).

और मैं खुद को आस्तिक हिंदू बताकर खुश हूं: केवल इसलिए नहीं कि यह वह आस्था है जिसमें मैं पैदा हुआ, बल्कि कई दूसरी वजहों से भी, हालांकि आस्था को किसी तर्क की जरूरत नहीं है.

एक वजह तो सांस्कृतिक हैः बतौर हिंदू मेरा नाता उस धर्म से हैं जो मेरे अपने लोगों की प्राचीन मेधा और कुशाग्रता को व्यक्त करता है. मुझे अपनी सरजमीं पर, अपने धर्म के इतिहास पर गर्व हैः आदि शंकराचार्य के देशाटनों पर, जिन्होंने देश के धुर दक्षिणी छोर से उत्तर में कश्मीर, पश्चिम में गुजरात और पूरब में ओडिशा तक की यात्राएं कीं, हर जगह आध्यात्मिक अध्येताओं के साथ शास्त्रार्थ किया, अपनी मान्यताओं के उपदेश दिए और मठ स्थापित किए.

पूर्वजों के प्रति मेरी इस निष्ठा की तस्दीक हार्वर्ड की अध्येता डायना एक ने 'अनगिनत तीर्थयात्राओं की पगडंडियों से एक साथ गुंथा' भारत का 'पवित्र भूगोल' लिखते हुए की है. भारत के महान दार्शनिक-राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने हिंदुओं को 'साझा इतिहास, साझा साहित्य और साझा सभ्यता से जुड़ी एक विशिष्ट सांस्कृतिक इकाई' बताया.

हिंदू धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को दोहराते हुए मैं इस भूगोल और इतिहास, इसके साहित्य और सभ्यता पर अपना दावा पेश कर रहा हूं, उस श्रद्धेय परंपरा के (अरबों वारिसों में से एक) वारिस के तौर पर अपनी शिनाख्त कर रहा हूं, जो अतीत में पीछे अति प्राचीन काल तक जाती है.

मैं पूरी तरह स्वीकार करता हूं कि मेरे कई दोस्त, हमवतन और साथी-हिंदू ऐसी कोई जरूरत महसूस नहीं करते और ऐसे हिंदू भी हैं जो हिंदुस्तानी नहीं हैं (या नहीं रह गए हैं), लेकिन मैं इस 'सांस्कृति' और 'भौगोलिक' हिंदू धर्म से साथ सहज हूं, जो मुझे अपने पूर्वजों के अतीत के साथ बांधता है.

लेकिन हिंदू धर्म में मेरे विश्वास की दूसरी वजह, किसी बेहतर शब्द के अभाव में, इसकी बौद्धिक रूप से 'फिट' हैः अपनी वाकफियत के किसी भी दूसरे धर्म के मत-सिद्धांतों के प्रति मैं जितना सहज होता, उसकी बनिस्बतन मैं हिंदू धर्म के मत-सिद्धांतों के साथ कहीं ज्यादा सहज हूं. मैं लंबे वक्त से खुद को उदार या आजाद ख्याल मानता आ रहा हूं, इस लफ्ज के महज सियासी मायने में ही नहीं, या अर्थशास्त्रों के उसूलों के मुताल्लिक भी नहीं, बल्कि जिंदगी के प्रति रवैए के तौर पर.

लोग जैसे मिलते हैं उन्हें वैसा ही स्वीकार करना, वे जो चाहें उन्हें वही होने और बनने देना, और वे जो चाहें उन्हें वह करने के लिए बढ़ावा देना (जब तक कि यह दूसरों को नुक्सान नहीं पहुंचाता) मेरी सहज प्रवृत्ति या स्वाभाविक फितरत है.

सख्त और मीन-मेख निकालने वाली मान्यताएं मेरे मिजाज को रास नहीं आतीं. धर्म के मामले में भी मैंने पाया कि मेरी आजाद क्चयाल फितरत उस धर्म से मजबूत हुई जिसमें मेरी परवरिश हुई थी. हिंदू धर्म कई मायनों में इस विचार की धुरी पर टिका है कि युगों-युगों की और देवत्व की चिरकालिक बुद्धिमता किसी एक पवित्र ग्रंन्थ तक सीमित नहीं हो सकती, हमारे पास कई पवित्र ग्रंन्थ हैं, और खुद अपना सत्य (या कई सत्य) हासिल करने के लिए हम उनमें से हरेक में गहरा गोता लगा सकते हैं.

हिंदू होने के नाते मैं गिरजाघर या पोप की पुरोहिताई के बगैर भी एक धर्म का अनुयायी होने का दावा कर सकता हूं, उस धर्म का जिसके अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों को खारिज कर देने के लिए मैं स्वतंत्र हूं, उस धर्म का जो मुझे किसी भी दृश्य संकेत के जरिए, मेरी पहचान को किसी भी सामूहिकता में विलीन करके और न ही पूजा का कोई निश्चित दिन या वक्त या बारंबारता बताकर अपनी आस्था का प्रदर्शन करने के लिए बाध्य नहीं करता. (यहां न कोई हिंदू पोप है, न कोई हिंदू वेटिकन, न कोई हिंदू प्रश्नोत्तरी, यहां तक कि कोई हिंदू रविवार भी नहीं).

बतौर हिंदू मैं एक ऐसे धर्म का अनुसरण करता हूं जो देवत्व के उपासकों को पूजा और आराधना करने के लिए विकल्पों का, मानने (या नहीं मानने) के लिए रीति-रिवाजों का, सम्मान करने (या नहीं करने) के लिए दस्तूरों और प्रथाओं का, रखने (या नहीं रखने) के लिए उपवासों के लिए एक गुलदस्ता पेश करता है.

बतौर हिंदू मैं उस पंथ में विश्वास करता हूं जो धर्मग्रंथ की प्रतिबंधकारी रूढिय़ों से मुक्त है, ऐसा पंथ जो पवित्र इलहाम के एक ही ग्रंथ की बेडिय़ों में बंधने से इनकार करता है.

और जहां मैं विरोधाभासी ढंग से समझ से परे एक धर्म में अपनी आस्था की 'वजहें' दर्ज कर रहा हूं, मुझे पक्की दलील का जिक्र करने दीजिएः हिंदू होने के नाते, सबसे बढ़कर, मेरा नाता दुनिया के उस अकेले बड़े धर्म से है जो एकमात्र सच्चा धर्म होने का दावा नहीं करता.

मुझे यह बात बेहद अनुकूल और सुखद लगती है कि मैं दूसरे धर्मों के अपने साथी इनसानों का सामना इस भीतरी विश्वास के बोझ से दबे बगैर कर सकता हूं कि मैं एक 'सच्चे मार्ग' पर हूं जिससे वे चूक गए हैं.

यह रूढ़िवादी सिद्धांत 'सेमिटिक (या सामी) धर्मों'—ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी धर्म—के मूल में ही निहित है. बाइबल कहता है, ''मैं ही मार्ग, सत्य और जीवन हूं, कोई भी मनुष्य पिता (ईश्वर) के नजदीक नहीं आता, लेकिन केवल मेरे मार्फत (जॉन 14:6)'', कुरान ऐलान करता है, ''कोई भगवान नहीं, केवल अल्लाह है और मुहम्मद उसका पैगंबर है'', और नहीं मानने वालों को मुक्ति की किसी भी संभावना से इनकार कर देता है, मोक्ष और स्वर्ग की तो बात ही छोड़ दें.

हिंदू धर्म जोर देकर कहता है कि आस्था के सभी मार्ग बराबरी से जायज हैं, और हिंदू दूसरे धर्मों के संतों की और पवित्र वस्तुओं की खुशी-खुशी पूजा-सम्मान करते हैं. मुझे गर्व है कि मैं अपने धर्म को धोखा दिए बगैर दूसरे धर्मों की पवित्रता का सम्मान कर सकता हूं.

हिंदू धर्म यात्रा

'संघ परिवार' का 'अब्राहमी हिंदू धर्म' किन चीजों से मिलकर बना है? सावरकर, गोलवलकर और उपाध्याय ने जिस विचारधारा की बुनियाद रखी, उसने आरएसएस के सदस्यों को एक खासा सरल सिद्धांत दिया. यह पूर्वजों से जुड़ी इस मान्यता पर टिका है कि हिंदुस्तान प्राचीन काल से ही हिंदुओं की सरजमीं है और उनकी पहचान इससे अभिन्न है.

हिंदुत्व के हिमायती दलील देते हैं कि अति प्राचीन काल से ही हिंदू संस्कृति और सभ्यता हिंदुस्तानी जिंदगी का सार है, भारतीय राष्ट्रवाद इसीलिए हिंदू राष्ट्रवाद है.

हिंदुस्तान का इतिहास हिंदुओं के उस संघर्ष की कहानी है जो उन्होंने विदेशी आक्रांताओं  के हमलों से अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा और हिफाजत के लिए किया था. यह सच है कि हिंदुस्तान के भूभाग पर गैर-हिंदू भी आबाद हैं, पर ये आक्रांता (मुसलमान, ईसाई) हैं या अतिथि (यहूदी, पारसी), उन्हें बर्दाश्त किया जा सकता है, जो इस सरजमीं के प्रति उनकी वफादारी पर निर्भर करता है, पर उन्हें हिंदुओं के बराबर नहीं माना जा सकता, जब तक कि वे हिंदुस्तान में हिंदुओं की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं कर लेते और हिंदू परंपराओं और संस्कृति को नहीं अपना लेते. गैर-हिंदुओं को स्वीकार करना ही होगा कि उनके पूर्वज हिंदू थे, या और बेहतर होगा कि वे अपनी असली सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटते हुए धर्म बदलकर हिंदू धर्म अपना लें.

यह सिद्धांत आगे कहता है कि संघ की विचारधारा का विरोध करने वाली हिंदुस्तान की सियासी ताकतें गलत हैं, क्योंकि वे 'राष्ट्रीय एकता' को उन तमाम लोगों की एकता मानने और बताने की गलती करती हैं जो इत्तफाकन हिंदुस्तान की सरजमीं पर रह रहे हैं, फिर भले ही उनका मजहब या मूल राष्ट्र चाहे जो हो. ऐसे लोग असल में राष्ट्रीयता-विरोधी हैं, क्योंकि उनकी असल प्रेरणा राष्ट्र के बहुसंख्यकों के हितों की परवाह करने की बजाए चुनावों में अल्पसंख्यकों के वोट हासिल करने की खुदगर्ज इच्छा है. लिहाजा हिंदुओं की एकता और लामबंदी बेहद जरूरी है.

हिंदू लोग दुश्मनों से घिरे हुए हैं, इसलिए ऐसा ध्रुवीकरण होना ही चाहिए जो हिंदुओं को तमाम दूसरे लोगों के खिलाफ  खड़ा कर दे. अलबत्ता हिंदुओं को एकजुट करना ही होगा, एकता का न होना ही उन सब बुराइयों की जड़ है जो हिंदुओं को परेशान कर रही हैं. संघ परिवार का मुख्य मिशन यही एकजुटता लाना और इसे हिंदू राष्ट्र की ज्यादा महान कीर्ति तक ले जाना है.

यह सिद्धांत वैसे तो सरल और साफ  है, पर इसके साथ दिक्कत यह है कि यह हिंदू धर्म के कुल लब्बोलुबाब की असलियत को मानने से इनकार करता है. आरएसएस के वैचारिक प्रवक्ता ठीक उन्हीं चीजों को इसकी कमजोरी के तौर पर देखते हैं: इसका तमाम दर्शनों और विविधता को गैर-मामूली ढंग से ग्रहण करना, तमाम किस्म की मान्यताओं और प्रथाओं को इसका स्वीकार करना, किसी एक पवित्र ग्रंथ के रूढ़ सिद्धांतों तक खुद को सीमित रखने से इसका इनकार करना, इसका लगातार प्रवाहित होते रहना, इसे एकरूप 'सेमिटिक' या सामी पंथ के तौर पर परिभाषित करना नामुमकिन होना—जिसे स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म की ताकत के तौर पर देखा.

ध्रुवीकरण और एकता की संघीवादी खोज के पीछे हिंदू धर्म को वह सब बनाने की ललक भी है जो वह नहीं हैरू उसे 'सेमिटाइज' करने की ललक, ताकि वह 'आक्रमणकारियों' के धर्मों की तरह दिखाई दे—संहिता और रूढ़ सिद्धांतों से बंधा धर्म, जिसका एक पहचानने लायक भगवान (संभवतः राम) हो, एक प्रधान पवित्र ग्रंथ (गीता) हो.

यह हिंदुओं की विशाल बहुसंख्या का जीता-जागता हिंदू धर्म नहीं है. इससे जाहिर सवाल खड़ा होता हैः क्या हरेक आस्तिक हिंदू को हिंदुत्व परियोजना में विश्वास करने वाला मान लिया जाना चाहिए?

अपना हिंदू धर्म

आस्तिक हिंदू होने के नाते मैं हिंदुत्ववादियों के साथ सहमत नहीं हो सकता. मैं उस सबसे वाकई शर्मिंदा हूं जो वे मेरे धर्म के नाम पर करने का दावा करते हुए कर रहे हैं. वह हिंसा खास तौर पर वीभत्स हैः इसकी वजह से हिंदुस्तान भर में सैकड़ों हजारों हिंदुओं को हाथों में प्लेकार्ड लेकर विरोध प्रदर्शन करने पड़े और कहना पड़ा कि 'नॉट इन माइ नेम' (मेरे नाम पर नहीं).

मैंने इस किताब में शुरू से आखिर तक बताया है कि मैंने हमेशा अपने एक ऐसे धर्म से जुड़े होने पर गर्व किया है, जो विश्वासों की आश्चर्यजनक विविधता और विस्तार से वाबस्ता है, एक ऐसा धर्म जो ईश्वर की उपासना के सभी तरीकों को जायज मानता है—असल में यह दुनिया का अकेला बड़ा धर्म है जो एकमात्र सच्चा धर्म होने का दावा नहीं करता.

मुझसे अक्सर पूछा जाता हैः गुंडों का एक झुंड वेदों और उपनिषदों की ऊंची चढ़ती महिमा और भव्यता को अपने किस्म की पहचान की सियासत की टुच्ची कट्टरता में घटाने की जुर्रत कैसे कर पाता है? किसी भी हिंदू को उन्हें हिंदू धर्म को फुटबॉल के उपद्रवियों के कर्कश आत्म-महिमामंडन में घटाने की, एक धर्म की श्रद्धा उपजाने वाली सहिष्णुता को अंधराष्ट्रवादी हिंसक उन्माद में बदलने की इजाजत क्यों देनी चाहिए?

अपने खुलेपन, विविधता के प्रति अपने सम्मान, तमाम दूसरे धर्मों के प्रति अपनी स्वीकृति के साथ हिंदू धर्म एक ऐसा धर्म है जो दूसरों को डराए-धमकाए बगैर अपनी बात हमेशा कहता आया है. लेकिन यह वह हिंदुत्व नहीं है जिसने बाबरी मस्जिद को नेस्तनाबूद किया, न ही यह वह हिंदुत्व है जो सांप्रदायिक सियासतदानों के नफरत भरे जुबानी हमलों की शक्ल में उलीचा गया है. इसकी बजाए यह स्वामी विवेकानंद का हिंदू धर्म है.

स्वामी विवेकानंद की कुछ सबसे अहम बातों की व्याख्या करना जरूरी और समीचीन होगा. उन्होंने पहली बात यह कही थी कि हिंदू धर्म का अर्थ है ''सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकृति, दोनों. हम न केवल सार्वभौम सहिष्णुता में यकीन करते हैं, बल्कि हम सभी धर्मों को सच्चे धर्म के तौर पर स्वीकार करते हैं.''

उन्होंने एक भजन का हवाला दिया था, जिसका जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूं, जो कहता है कि जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकलने वाली धाराएं एक ही सागर में जाकर मिल जाती हैं, उसी तरह सभी रास्ते एक ही ईश्वर तक ले जाते हैं.

उन्होंने बार-बार अद्वैत के सिद्धांत की बुद्धिमता पर जोर दिया, जो कहता है कि सत्य एक ही है, फिर भले ही ज्ञानी उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हों. विवेकानंद की दृष्टि का सार श्सर्व धर्म समभाव्य के सिद्धांत में हैः जो असल में उस किस्म का हिंदू धर्म है जिसे हिंदुओं की विशाल बहुसंख्या मानती है, जिसकी फितरत में ही दूसरे धर्मों और पूजा पद्धतियों का स्वीकार है और जो लंबे समय से हमारी संस्कृति की बेशकीमती कसौटी रहा है.

मैं इस धारणा को खारिज करता हूं कि नफरत के हरकारे तमाम लोगों की या यहां तक कि ज्यादातर हिंदुओं की जुबान बोलते हैं. हिंदुत्व की विचारधारा असल में हिंदू धर्म की नुक्सानदायक विकृति है. यह चौंकाने वाली बात है कि लिबरल पार्टी और स्वतंत्र उद्यम समर्थक स्वतंत्र पार्टी सरीखी बीसवीं सदी की अब विलुप्त हो चुकी सियासी पार्टियों के नेता अपने हिंदू धर्म की घोषणाओं में नितांत अडिग थे, लिबरल पार्टी के नेता श्रीनिवास शास्त्री ने रामायण पर प्रकांड शोधपत्र लिखे हैं और स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक सी. राजगोपालाचारी (राजाजी) संस्कृत के विद्वान थे, जिनके इतिहासों के तर्जुमे और हिंदू धर्म के पहलुओं पर व्याख्यान उनकी मृत्यु के दशकों बाद अब भी व्यापक तौर पर पढ़े जाते हैं.

दोनों में से कोई भी हिंदुत्व की असहिष्णुता और कट्टरता को किसी भी तरह अपने प्रिय धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं पहचान पाते. इसी तरह कांग्रेस पार्टी के कई नेता अपने हिंदू विश्वासों में सहजता से रचे-बसे हैं, जबकि वे हिंदुत्व के सियासी विचार को खारिज करते हैं.

हिंदुत्व के हरकारों के लिए यही बताना मुआफिक पड़ता है कि हिंदू धर्म की उनकी लड़ाकू व्याख्या और 'छद्म-सेकुलरों' के ईश्वरविहीन पश्चिमीकरण के बीच में से ही किसी एक को चुनना होगा. राजाजी और शास्त्री ने साबित किया था कि आप अपने हिंदू धर्म का गाजे-बाजे से प्रदर्शन करके भी सियासी तौर पर उदार शख्स हो सकते हैं. लेकिन हिंदुत्व को राजनैतिक हिंदू धर्म के साथ एकमेक करके उस विकल्प को खत्म कर दिया गया है, कुछ इस तरह मानो ऐसा घालमेल ही श्रद्धालु हिंदू के सामने मौजूद अकेला संभव विकल्प है.

मैं इस विचार को खारिज करता हूं. मैं न केवल खुद को हिंदू और उदारवादी, दोनों एक साथ मानता हूं, बल्कि पाता हूं कि उदारवाद ही वह सियासी विचारधारा है जो मेरे धर्म के अत्यंत व्यापक और खुली मानसिकता वाले स्वरूप से मेल खाती है.

असुरक्षा का अक्स

विडंबना यह है कि हिंदुत्व का नए सिरे से बढ़-चढ़कर दावा आत्मविश्वास के बजाए असुरक्षा की झलक देता है. यह अपमान और पराजय की बार-बार याद दिलाने की बुनियाद पर खड़ा किया जाता है, मुस्लिम फतह और हुकूमत की गाथाओं से इसे मजबूत किया जाता है, तोड़े गए मंदिरों और लूटे गए खजानों के किस्से-कहानियों से इसे हवा दी जाती है.

इस सबने बेहद संवेदनशील हिंदुओं को नाकामी और पराजय के अफसाने में कैद कर दिया है, जबकि उन्हें आत्मविश्वास से भरे उस धर्म की उदार कहानी का हिस्सा होना चाहिए था जो दुनिया में अपनी जगह की तलाश कर रहा है. अतीत की नाकामियों की तरफ देखने से भविष्य की कामयाबियों के लिए कोई उम्मीद नहीं जागती.

यह बात समकालीन हिंदुत्व की सबसे अव्वल आवाजों में से एक अमेरिकी डॉ. डेविड फ्राउले ने भी स्वीकार की है. वे अपने बुनियादी लंबे उबाऊ लेख एराइज अर्जुन! (1995) में लिखते हैं कि हिंदू ''आम तौर पर आत्म-सम्मान की कमी और एक हीनता ग्रंथि से पीड़ित हैं, जिसकी वजह से वे खुद को और अपने धर्म को अभिव्यक्त करने से वाकई भयभीत हैं.

सदियों की विदेशी हुकूमत और उनके धर्मांतरण की अब भी जारी कोशिशों ने उन्हें बुरी तरह तोड़ दिया है.'' फ्राउले का जवाब हिंदुस्तानियों के लिए यह है कि वे अपने हिंदू गौरव का फिर से दावा करें, मगर मर्ज की वजहों की खुद उन्हीं की खोज उनके नुस्खे पर सवाल खड़े कर देती है.

हिंदू और हिंदुस्तानी होने के नाते मैं दलील दूंगा कि हिंदुस्तान के होने का कुल मतलब ही इस विचार को खारिज कर देने में है कि राष्ट्रीयता को धर्म से तय होना चाहिए. हमारे राष्ट्रवादी नेता इस बात से सहमत होने के धोखादेह जाल में कभी नहीं फंसे कि चूंकि विभाजन ने मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र की स्थापना की थी, इसलिए जो राष्ट्र बचा वह हिंदुओं के लिए था. हिंदुस्तान के विचार को स्वीकार करने के लिए आपको उस दलील को ठुकराना होगा जिसने 1947 में देश का बंटवारा किया था.

असल दिक्कत यहां यही है. मैंने ऊपर भी जिक्र किया है, नेहरू ने आगाह किया था कि बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता खास तौर पर खतरनाक है क्योंकि यह खुद को राष्ट्रवाद की शक्ल में पेश कर सकती है. मुझे हिंदू धर्म पर गर्व हैरू मैं इसकी हकीकतों को कट्टरपंथियों पर कुर्बान नहीं करना चाहता.

मैं खुद को हिंदू और राष्ट्रवादी मानता हूं, पर मैं हिंदू राष्ट्रवादी नहीं हूं. किसी के धर्म के आधार पर दूसरे के खिलाफ  भेदभाव करना, दूसरे को मारना, दूसरे के पूजा स्थल को नष्ट करना हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं है, जैसाकि यह स्वामी विवेकानंद के धर्म का हिस्सा भी नहीं था. हिंदू धर्म की इन बुनियादी बातों की तरफ वापस जाने का यही वक्त है. हिंदू धर्म को कट्टरपंथियों के चंगुल से वापस लाने का यही वक्त है.

हिंदू धर्म एकरूपी नहीं

वक्त-वक्त पर, हिंदुत्ववादी, मुझे उस धर्म की याद दिलाते हुए जो पैदाइश से ही मेरा है, मुझसे इस अच्छे-भले नारे को जाहिरा तौर पर गौर से सुनने की मांग करने लगता हैः ''गर्व से कहो हम हिंदू हैं.''

तो ठीक है, चलिए इसी पर बात करते हैं. मुझे सचमुच गर्व है कि मैं हिंदू हूं. लेकिन वह क्या है जिस पर मुझे गर्व है और किस पर नहीं?

मुझे इस बात पर कोई गर्व नहीं है कि मेरे अपने ही सह-धर्मावलंबी मुस्लिम घरों और दुकानों पर हमले करें और उन्हें तोड़-फोड़ दें. मुझे उन हिंदुओं पर गर्व नहीं है जो मुस्लिम लड़कियों के साथ बलात्कार करते हैं या मुस्लिम मांओं की कोख उजाड़ते हैं.

मुझे उन हिंदू शाकाहारियों पर गर्व नहीं है जिन्होंने इनसानों को जिंदा भून दिया और उनकी लाशों पर खुशियां मनाईं. मुझे उन लोगों पर गर्व नहीं है जो उपनिषदों की उदात्त आधिभौतिक परिकल्पनाओं को पहचान के खुद अपने बोध की टुच्ची कट्टरता में घटा देते हैं और इस पहचान का दावा भी वे दूसरों के बहिष्कार के लिए करते हैं.

मुझे उन हिंदुओं पर गर्व है, मसलन कांची के शंकराचार्य पर, जो कहते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों को हिंदुस्तान में राम और लक्ष्मण की तरह रहना चाहिए. मुझे उन हिंदुओं पर गर्व नहीं है, मसलन 'साध्वी' ऋतंभरा पर, जो कहती हैं कि मुसलमान हिंदू भारत के दूध को दही में बदल देने वाले खट्टे नींबू की तरह हैं.

मुझे उन हिंदुओं पर गर्व है जो हिंदू सांप्रदायिकता को सिरे से खारिज कर देते हैं. मुझे उन हिंदुओं पर गर्व है जो हिंदू राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच के फर्क को समझते और उसका सम्मान करते हैं. जाहिरा तौर पर बहुसंख्यकों को 'अलगावादियों' के तौर पर कभी नहीं देखा जाता, क्योंकि पृथकतावाद परिभाषा से ही अल्पसंख्यकों के हाथों पोसा जाता है. लेकिन बहुसंख्यक सांप्रदायिकता असल में पृथकतावाद का ही चरम रूप हैं. मुझे उन हिंदुओं पर गर्व है जो मानते हैं कि केसरिया और हरा दोनों का ही हिंदुस्तानी झंडे से बराबर का नाता है.

गैर-हिंदुओं को उनके ही स्वदेश में दोयम दर्जे की हैसियत में धकेल देने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. मेरे सरीखे हिंदुओं के लिए हिंदुस्तान का अकेला मुमकिन विचार उस राष्ट्र का विचार है जो अपने हिस्सों के कुल जोड़ से कहीं ज्यादा बड़ा है. यही वह अकेला हिंदुस्तान है जो हमें खुद को न ब्राह्मण, न बंगाली, न हिंदू, न ही हिंदीभाषी, बल्कि ठेठ हिंदुस्तानी कहने की इजाजत देगा.

मेरे सरीखे हिंदुओं के लिए एक दूसरा नारा कैसा रहेगा? गर्व से कहो हम हिंदुस्तानी हैं.

बतौर हिंदू, मेरा नाता दुनिया में उस एकमात्र बड़े धर्म से है जो यह दावा नहीं करता कि वही अकेला सच्चा धर्म है. हिंदू दूसरे धर्मों के संतों और ग्रंथों का स्वागत करते हैं

ध्रुवीकरण और एकरूपता की संघीवादी तलाश दरअसल हिंदू धर्म को वह बनाने की ललक है जो वह है ही नहीं. उसे वह स्वरूप देने की ललक, जिससे वह कथित 'आक्रांताओं' के धर्मों की तरह दिखाई दे, संहिता और रूढ़ सिद्धांतों से बंधा धर्म

व्हाइ आइ एम अ हिंदू

शशि थरूर

अलेफ बुक कंपनी

मूल्यः 699 रु., पृष्ठः 320

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