आवरण कथाः मायावी शब्दों से परे
शहरी आपदाओं के साल के बाद अब ऐसी जबान बोलने का समय आ गया है जो 'स्मार्ट, स्वच्छ और डिजिटल' शहरों की भव्य शब्दावली के मुकाबले थोड़ी विनम्रता भरी हो

वर्ष के अंत में मुझे रेमंड कार्वर की बातें याद आती हैं. उनकी कहानियां, जिनमें 'व्हाट वी टॉक अबाउट, व्हेन वी टॉक अबाउट लव' प्रमुख है, पढ़ते हुए मुझे हमेशा ही अर्थ की फिसलन की याद दिलाती रही हैं. 2017 में भारत का शहर कार्वर की कहानी के एक पात्र की तरह लगा. बीते साल ने मुझे हैरान कर दियाः साल के अंत में ऐसा क्या है जिसके बारे में हमने शहर पर चर्चा के दौरान बात की. इस साल शहरी चर्चा का चरित्र तूफानी, साहसी और आपाधापी भरा था. हमारे इर्दगिर्द नवीनीकरण, विस्तार और स्मार्ट जैसे शब्दों की भरमार रही.
इसने हमारी उम्मीदों को लबालब भर दिया और हम इंतजार करने लगे कि इनमें से सारी उम्मीदें या कोई एक उम्मीद ही किसी बिंदु पर आकर फलीभूत हो जाए. स्मार्ट शहर, सबके लिए मकान. खुले में शौच से मुक्त शहर और कस्बे. सुधार या बेहतरी की नहीं, बल्कि कायापलट की बात हो रही थी. यह स्मार्ट, स्वच्छ और डिजिटल शहर का साल होने वाला था. लगता था, यह तो होकर रहेगाः यह वह साल था जिसकी शुरुआत नोटबंदी से हुई थी. उसके बाद क्या वृद्धि की संभावना की कल्पना भी जा सकती है? बारह महीने बाद उस महान कायापलट की शुरुआत का लेशमात्र सबूत भी मिलना कठिन हो गया है. बेंगलुरू की झीलें आज भी गाज या फेन से लबालब भरी हुई हैं, जबकि एक नए मास्टर प्लान के तहत लगातार विस्तार की कोशिशें जारी हैं. हर साल की तरह दिल्ली की सर्दियों की खतरनाक धुंध का आगमन हो चुका था, लेकिन शहर अब तक एक भी बस नहीं खरीद पाया है, कारों पर नियंत्रण नहीं कर पाया है, या प्रदूषण नियंत्रण के लिए कोई चरणबद्ध कदम नहीं उठा पाया है.
मुंबई में कायापलट की मंजिल से हम कितना दूर हैं, इसका सबूत उस वक्त मिला जब एलफिंस्टन रोड रेलवे स्टेशन के संकरे पुल पर हादसा हुआ, जिसमें कई लोगों की जान चली गई, और शहर अब भी उस कोस्टल रोड की कल्पना कर रहा है, जिसकी उसे सख्त जरूरत है. चेन्नै में एन्नोर क्रीक की आखिरी दलदली जमीन को अब भी आक्रामक ढंग से चलाई जा रही पुनर्विकास की नई योजनाओं से संघर्ष करना पड़ रहा है और शहर को सालाना बाढ़ की समस्या से जूझना पड़ रहा है, कुछ लोग तो यह मानने लगे हैं कि इन दोनों का कोई अटूट नाता है. रियल एस्टेट के बड़े समूहों में से एक—यूनिटेक—पहले लडख़ड़ाया और फिर धराशायी हो गया.
रोजगार की दरें थम गईं, होम लोन की ब्याज दरें गिर गईं, फिर भी सबसे गरीब तबका घरों से वंचित रहा. लखनऊ, कोच्चि और जयपुर में नई मेट्रो शुरू हुईं और उन पर राज्यों के बजट का भारी हिस्सा खर्च हुआ लेकिन 10 में से 9 लोग फिर भी पैदल सफर कर रहे हैं या बसों या अन्य साधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं. मनरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून) ग्रामीण बना रहा और उसी तरह राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन भी—इसका शहरी मिशन अब भी कल्पना में ही है और शहर के निवासी किसी सामाजिक सुरक्षा जैसी योजना का अनुभव तक नहीं कर सकते हैं.
स्मार्ट, कायापलट और नवीनीकरण—अगर नम्र भाषा में कहें—मायावी लगता है. एक तरह से यह योजनाकारों, नीति-निर्माताओं और कायापलट के ठेकेदारों की महान योजनाओं के विरुद्ध हमारे शहरों के लचीलेपन या सहनशक्ति की तारीफ करने का साल था. मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि इस मामले में कोई छोटी-सी भी राहत नहीं है. किसी भव्य विचार की विफलता—या कम से कम काम को विलंबित करना—किसी साधारण और सामान्य विचार की उत्तरजीविता भी होती है, शहरों पर नागरिकों की उत्तरजीविता, बड़ी और भव्य परियोजनाओं पर हर रोज की सामान्य सुविधाओं की उत्तरजीविता, तात्कालिक कायापलट पर छोटे परिवर्तनों की उत्तरजीविता, बड़े-बड़े मॉल पर साधारण बाजारों की उत्तरजीविता, एक्सप्रेस वे पर कई सवारियों वाले ऑटो की उत्तरजीविता. जब कोई सार्वजनिक नीति लडख़ड़ाती है तो किसी की जीत नहीं होती. तब इस घटना को कम से कम एक अवसर के तौर पर लेना चाहिए. इस पत्रिका को पढऩे वाले 'हम' लोग के पास एक फिर विनम्रता के लिए अवसर है.
अगर हम इसे ग्रहण करते हैं तो यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है. 2017 का अंत बोलने से ज्यादा सुनने का एक मौका है, ताकि हम नए शब्द खोज सकें और पूरी सचाई और धैर्य के साथ समझने की कोशिश कर सकें. कार्वर और प्रेम, इससे कम की मांग नहीं करते. स्मार्टनेस को लेकर हमारी इतनी सारी बातों पर कार्वर पूछ सकते थेरू वह क्या है, जिसके बारे में हम बात कर सकते थे. मिसाल के तौर पर हमने अवैध रूप से रहने के मूल्यों के बारे में बात नहीं की. हमारे शहरों में ज्यादातर भारतीय लोग कहीं जगह घेरकर और उस पर मकान बनाकर रहते हैं. अगर हमने रहने की इस जगह को 'झुग्गियां' न कहकर इन्हें गंभीरता के साथ मकान के रूप में लिया होता तो हमें एहसास होता कि मकानों की कमी की समस्या का यह एक अच्छा समाधान हो सकता था, न कि समस्या का विस्तार.
यह अचल संपत्ति के बारे में हमारी सोच को बदल देगा. यह हमें दिखाता कि यूनिटेक की असफलता कोई बहुत बड़ी घटना नहीं है बल्कि रियल एस्टेट के बाजार की सीमाओं की एक अपरिहार्य स्थिति है और बाजार की उस सीमा में 80 प्रतिशत शहरी लोग प्रवेश नहीं कर सकते. अगर हमने ऐसा किया होता तो हम हाउसिंग के बारे में एक नई परिभाषा पा सकते थे—पहले से बनाई गई लोगों की बस्तियों की सुरक्षा करना और उसे सहयोग देना, न कि इस बात पर सारा ध्यान देना कि यूनिटेक के मामले में क्या किया जाए. यह संभव हैः जब ओडिशा ने साल के आखिरी महीनों में 2,00,000 झुग्गीवासियों को उनकी जमीन का अधिकार दे दिया तो बड़ी खामोशी के साथ यह ऐसी योजना बन गई जो सचमुच बहुत शानदार है, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि बड़ी चतुराई के साथ इसे 'स्मार्ट' नाम नहीं दिया गया.
हम खुद को याद दिला सकते हैं कि मरम्मत और पुनर्संयोजन को महत्व देने से 'ढांचा' शब्द के साथ हमारा रिश्ता बदलने में मदद मिल सकती है जिसके बाद हमारी सोच केवल चमचमाती डिजिटल ड्राइंगों, वीरान जमीनों, बुलेट ट्रेनों, एक्सप्रेसवे और शीशे की इमारतों तक सीमित नहीं रह जाती. हम उससे आगे निकल कर सोच सकते थे. इसकी जगह हम उन लोकल ट्रेन स्टेशनों के धीमे विकास के बारे में बात कर सकते थे जिनके पुलों की समय रहते जांच करके उनकी मरम्मत की जा सकती थी, एक ऐसी हाउसिंग कॉलोनी की बात कर सकते थे जिनमें वे भूमिगत नाले होते, ऐसे बाजार होते जहां लाइसेंस देकर नए तंबू लगाए जा सकते थे और उनमें दुकानदारों की जगह दी जा सकती थी, कारों की पार्किग के लिए जगह बनाते हुए ऐसे फुटपाथ बनाए जा सकते थे जहां दुकानदार और पैदल चलने वाले, दोनों के लिए जगह होती.
हम अपनी मौजूदा सेवा व्यवस्थाओं—स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन हो, पानी या स्वच्छता—के बारे में सोच सकते थे कि उन्हें एक-दूसरे से कैसे जोड़ा जा सकता है. ऐसा करके हम उन सभी तरीकों पर विचार कर सकते थे जिनसे हमारे शहरों में सभी घरों को पानी—टैंकर, साझीदारे वाली पाइप, सामुदायिक स्टैंड-पोस्ट, निजी कनेक्शन, पानी की मुख्य लाइनें, जुगाड़ू कनेक्शन और 'रिसाव'-मिल सकता, न कि हमारी बड़ी-बड़ी कागजी योजनाओं के अनुरूप. ऐसा करने का अर्थ होता कि आज भी हमारी समस्याओं का समाधान स्मार्ट शहर नहीं बल्कि एएमआरयूटी (अटल मिशन फॉर रिजुवेनेशन ऐंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन) है. यह ज्यादा चमक-दमक वाली तो नहीं लेकिन समस्याओं की जड़ से जुड़ी योजना है.
रिहाइश का अवैध ठिकाना बनाओ, ठीकठाक करो और जमीन जमा लो. यह वह भाषा है जो स्पॉटलाइटें बुझाने और उद्घाटन के आखिरी अतिथि के चले जाने के बाद भी कायम रहती है. योजनाकार जो उस स्मार्टनेस की बात नहीं करते, जो सुधार की जगह कायापलट की तस्वीर पेश करते हैं. योजनाकार, जो 'हम कौन हैं' से शुरू होते हैं, जिनकी जड़ें हमारे शहरों के अब तक के निर्माण के तरीके में निहित हैं, जो हमारी अपनी सड़कों के अलावा कहीं भी मॉडलों की बात नहीं करते. ये वे योजनाकार हैं जो जानते हैं कि परिवर्तन में समय और धैर्य की जरूरत होती है. 2018 में हमें विनम्रता के साथ अपने शहरों को समझने की जरूरत है, न कि अहंकार के साथ यह सोचने की कि हम जब चाहें अपनी मर्जी से उनका कायापलट कर सकते हैं. कार्वर हमें बताते हैं कि प्रेम को केवल जानने की जगह उसे समझने का यही तरीका है. शहरों के बारे में भी उनकी यह बात लागू होती है.
गौतम भान इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट, बेंगलूरू में फैकल्टी सदस्य हैं

