सेक्स सर्वे 2017: मर्दानगी का कमाल
भारतीय पुरुष तमाम आग्रहों-पूर्वाग्रहों के बावजूद अपने स्वाभाविक रंग में बदस्तूर कायम, वाकई वह अपने इर्द-गिर्द बह रही बदलाव की हवाओं से अनछुआ पत्थर की किसी मूरत-सा अडिग खड़ा.

सेक्स सर्वे: भारतीय पुरुष तमाम आग्रहों-पूर्वाग्रहों के बावजूद अपने स्वाभाविक रंग में बदस्तूर का
सर्वेक्षण कितना ही खास क्यों न हो, वक्त के साथ बेहद सामान्य हो जाता है, उसमें चौंकाने चाले तत्व कम हो जाते हैं, बल्कि वह गप-शप का अच्छा मसाला बनकर रह जाता है. इंडिया टुडे सेक्स सर्वेक्षण भी 15 साल से जारी है और मीडिया में कहकहों का हिस्सा भी बन गया है. वर्षों के सर्वेक्षणों की बारीकियों की याद मामूली ही रह जाती है और अमूमन उसे समाज विज्ञान की किसी पहेली की तरह एक साथ जोड़कर देखें तो ये अलग-अलग जुगनुओं सरीखे चमकते दिखते हैं लेकिन उनमें बदलाव का कोई रुझान तलाशने की कोशिश में निराशा ही हाथ लगती है.
असल में सर्वेक्षण के बीच में वह भारतीय पुरुष खड़ा मिलता है, जो किसी भी तरह से ढीला पड़ता नहीं दिखता. बदलती फिजाओं से एकदम बेपरवाह पुरुष प्रधान समाज का वह प्रतीक खाप पंचायत वाली मानसिकता के साथ सेक्स सर्वेक्षण के नतीजों को अबूझ विज्ञान की तरह बेमानी बना रहा है. बदलाव की हलचल, उत्तेजना सिर्फ परोक्ष तौर पर दिखती है, जहां औरतें किसी दूसरी दुनिया की संभावना तलाशती नजर आती हैं.
कई साल में पुरुषों में आए बदलावों के आंकड़ों पर गौर करने पर उसके बारे में एक खास बात लगभग अपरिवर्तनीय जैसी लगती है. जहां तक सेक्स का मामला है, वह संतुष्ट दिखता है, अपने लक्ष्य और पसंद के बारे में उसे कोई दुविधा नहीं है. सर्वेक्षण के मुताबिक, 18-55 वर्ष आयु वर्ग के 55 प्रतिशत पुरुष सेक्स को लेकर खुश दिखते हैं. उनके लिए सेक्स वैसा ही होता है जैसा वे चाहते हैं. वह ऐसा रोजमर्रा का कर्मकांड है जो बिना कंडोम के पूरा किया जाता है, क्योंकि कंडोम से उसे आनंद की अनुभूति उतनी नहीं होती. पुरुष की शुचिता, खासकर कौमार्य को लेकर स्पष्ट आकांक्षाएं हैं.
56 प्रतिशत पुरुषों की राय स्पष्ट है कि वे उस लड़की या औरत से शादी नहीं करेंगे जिसने विवाह पूर्व सेक्स किया हो. कम से कम 76 प्रतिशत पुरुषों की राय एकदम साफ है कि विवाह से सेक्स करने का अधिकार मिल जाता है. महिला लगभग उसकी संपत्ति बन जाती है और जबरन सेक्स सामान्य बात हो जाती है. जाने-अनजाने भारतीय पुरुष के लिए सेक्स अकेले का मामला है, बाद में वह तय नहीं कर पाता कि वह महज पंप बना था या क्या. अनचाहे गर्भ का सवाल उसे शायद ही परेशान करता है.
हाल के दौर में वह कुछ सतर्क रहने लगा है. व्यक्तित्व बचाए रखने के लिए सुरक्षित सेक्स चाहता है. पुरुष को पोर्नोग्राफी पसंद है, वह उसे आनंद की अनुभूति बढ़ाने वाले ज्ञान की तरह देखता है और कुछेक पोर्न फिल्मों में दिखे दृश्यों जैसे अभ्यास की कोशिश करता है. मौज-मजे को प्राथमिकता देने की वजह से कभी-कभार वह रात भर का आयोजन करता है और 37 प्रतिशत किसी न किसी तरह के समलैंगिक सेक्स का भी अनुभव लेने की बात करते हैं. अनुभवों के नए मौके खुलने से पुरुषों को कार्यस्थल नए मैदान दिखते हैं. 16 प्रतिशत ने माना कि उन्होंने नौकरी में प्रमोशन के बदले यौन संबंध बनाने की मांग की है.
इससे कुल मिलाकर जो सामाजिक तस्वीर उभरती है, वह चर्चा लायक नहीं है. पुरुष बदलाव के कतई पक्ष में नहीं होते, जबकि औरतें बदलाव के हर झरोखे से झांकना चाहती हैं. आजादी, अंतरंगता और मान-सम्मान हासिल करने के हर मौके की ताड़ में रहती हैं. उनके लिए महज एक दिन के लिए भी मौज-मस्ती और अंतरंगता की अहमियत होती है, इसलिए ऐसी स्थिति में प्यार खास मायने नहीं रखता. दरअसल 33 प्रतिशत महिलाएं आनंद और मौज-मस्ती से अधिक सुरक्षा को, सेक्स और अंतरंग संबंधों के बदले वित्तीय सुरक्षा को अधिक महत्व देती हैं. एक मायने में यह अजीब विरोधाभास लगता है कि नैतिकतावादी, पाखंडी पुरुष आजादी की चाहत वाली महिलाओं को कम नैतिकता वाली बना देता है.
हालात बदलने की संभावना कम ही दिखती है क्योंकि मां-बाप सेक्स शिक्षा से उसी तरह बिदकते हैं, जैसे पुरुष कंडोम के नाम पर. छोटे शहरों और कस्बों में आजादी और बदलाव की संभावना उत्सुकता पैदा करती है, लेकिन देश के कस्बों में जब तक परिवर्तन की बयार खुलकर नहीं बहने लगती तब तक इंतजार करना चाहिए. सर्वेक्षण से लगता है कि सेक्स कोई रिश्ता, कोई साहचर्य नहीं बल्कि उत्तेजना की एक दैहिक क्रिया अधिक है जो औरतों के व्यवहार के बारे में एक शुद्धतावादी नजरिए से घिरा होता है.
महिला भले दूसरी संभावना के बारे में सोचे मगर पुरुष, खासकर पारिवारिक वैवाहिक बंधनों के बाद महिला को सिर्फ अपनी सेक्स संबंधी जरूरतों को पूरा करने वाली दासी की तरह देखता है. देह को लेकर बनी धारणा में हाल के दौर में आए बदलाव, छोटे शहरों-कस्बों में आए परोक्ष बदलाव, कंडोम की उपलब्धता वगैरह से पुरुष की मानसिकता या समय बोध में कोई फर्क नहीं आया है. पुरुष की आंखों में ऐसा भाव होता है मानो गर्भ के ठहरने में उसकी कोई भूमिका नहीं है. पुरुष की इस स्थिर मानसिकता को डिगाने में सेक्स और सूचना क्रांति खास मायने नहीं रखती.
ऐसी ठस्स पृष्ठभूमि में कोई 2017 के सर्वेक्षण को बदलाव की अफवाह सुनकर खंगालता है. तकनीकी अर्थों में कंडोम या हर सुबह गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन अभी भी असामान्य है. कभी-कभार सेक्स के मौके तलाशने में हल्की बढ़ोतरी दिख रही है. ट्विटर और कैमरा एक सुखद एहसास भर रहा है क्योंकि कम से कम 10 प्रतिशत लोग अर्धनग्न अवस्था में वीडियो और फोटो साझा करते हैं. कंडोम कुछ झंझट लगता है पर वीडियो से वासना और उत्तेजना या कम से कम वैसे गपशप बढ़ती है. वीडियो स्वैप और पोर्नोग्राफी की बदौलत धीरे-धीरे सोशल मीडिया पर एक नई दुनिया आकार ले रही है. नए प्रयोगों के लिए लोग खुल रहे हैं क्योंकि इंटरनेट सेक्स और फोन सेक्स 20 प्रतिशत को आनंदित कर रहा है. कस्बों में खुशहाल सेक्स जीवन की आस काफी ऊंची है. करीब 80 से 90 प्रतिशत के बीच लोगों की यही आकांक्षा है.
फिर भी यह पूछने पर कि संगिनी की देह का कौन-सा अंग आपमें ''उत्तेजना" जगा देता है, लोगों के जवाब किराना दुकान की किसी फेहरिस्त जैसे लगते हैं. 70 प्रतिशत लोगों की जरूरत अभी कौमार्य है और विषमलिंगी सेक्स ही मानक है. इससे यही उम्मीद की जा सकती है कि इससे अलहदा विचार रखने वाले बाकी 30 प्रतिशत लोग ही कुछ अलग करने से लेकर आजादी का एक नया भाव पैदा कर सकते हैं.
यह भी उम्मीद की जा सकती है कि सेक्स को लेकर शुद्धतावादी रवैया ढीला पडऩे से विवाह से इतर भी दुनिया की संभावना बनने लगी है. विवाह एक कर्तव्य है लेकिन सेक्स कुछ सुखद एहसास देता है, जैसा कि सर्वेक्षण में एक रात के संबंध और विवाह-पूर्व सेक्स के बारे में उभरी राय से पता चलता है. सेक्स अब एक आदत, एक अधिकार का दावा ज्यादा दिखने लगता है, बनिस्बत मौज-मस्ती या वासना की तलाश के. इस तरह भारतीय पुरुष बदलाव की बयारों से अनछुआ स्थिरता की मूर्ति बना हुआ है.
(शिव विश्वनाथन जाने-माने समाज विज्ञानी हैं)
असल में सर्वेक्षण के बीच में वह भारतीय पुरुष खड़ा मिलता है, जो किसी भी तरह से ढीला पड़ता नहीं दिखता. बदलती फिजाओं से एकदम बेपरवाह पुरुष प्रधान समाज का वह प्रतीक खाप पंचायत वाली मानसिकता के साथ सेक्स सर्वेक्षण के नतीजों को अबूझ विज्ञान की तरह बेमानी बना रहा है. बदलाव की हलचल, उत्तेजना सिर्फ परोक्ष तौर पर दिखती है, जहां औरतें किसी दूसरी दुनिया की संभावना तलाशती नजर आती हैं.
कई साल में पुरुषों में आए बदलावों के आंकड़ों पर गौर करने पर उसके बारे में एक खास बात लगभग अपरिवर्तनीय जैसी लगती है. जहां तक सेक्स का मामला है, वह संतुष्ट दिखता है, अपने लक्ष्य और पसंद के बारे में उसे कोई दुविधा नहीं है. सर्वेक्षण के मुताबिक, 18-55 वर्ष आयु वर्ग के 55 प्रतिशत पुरुष सेक्स को लेकर खुश दिखते हैं. उनके लिए सेक्स वैसा ही होता है जैसा वे चाहते हैं. वह ऐसा रोजमर्रा का कर्मकांड है जो बिना कंडोम के पूरा किया जाता है, क्योंकि कंडोम से उसे आनंद की अनुभूति उतनी नहीं होती. पुरुष की शुचिता, खासकर कौमार्य को लेकर स्पष्ट आकांक्षाएं हैं.
56 प्रतिशत पुरुषों की राय स्पष्ट है कि वे उस लड़की या औरत से शादी नहीं करेंगे जिसने विवाह पूर्व सेक्स किया हो. कम से कम 76 प्रतिशत पुरुषों की राय एकदम साफ है कि विवाह से सेक्स करने का अधिकार मिल जाता है. महिला लगभग उसकी संपत्ति बन जाती है और जबरन सेक्स सामान्य बात हो जाती है. जाने-अनजाने भारतीय पुरुष के लिए सेक्स अकेले का मामला है, बाद में वह तय नहीं कर पाता कि वह महज पंप बना था या क्या. अनचाहे गर्भ का सवाल उसे शायद ही परेशान करता है.
हाल के दौर में वह कुछ सतर्क रहने लगा है. व्यक्तित्व बचाए रखने के लिए सुरक्षित सेक्स चाहता है. पुरुष को पोर्नोग्राफी पसंद है, वह उसे आनंद की अनुभूति बढ़ाने वाले ज्ञान की तरह देखता है और कुछेक पोर्न फिल्मों में दिखे दृश्यों जैसे अभ्यास की कोशिश करता है. मौज-मजे को प्राथमिकता देने की वजह से कभी-कभार वह रात भर का आयोजन करता है और 37 प्रतिशत किसी न किसी तरह के समलैंगिक सेक्स का भी अनुभव लेने की बात करते हैं. अनुभवों के नए मौके खुलने से पुरुषों को कार्यस्थल नए मैदान दिखते हैं. 16 प्रतिशत ने माना कि उन्होंने नौकरी में प्रमोशन के बदले यौन संबंध बनाने की मांग की है.
इससे कुल मिलाकर जो सामाजिक तस्वीर उभरती है, वह चर्चा लायक नहीं है. पुरुष बदलाव के कतई पक्ष में नहीं होते, जबकि औरतें बदलाव के हर झरोखे से झांकना चाहती हैं. आजादी, अंतरंगता और मान-सम्मान हासिल करने के हर मौके की ताड़ में रहती हैं. उनके लिए महज एक दिन के लिए भी मौज-मस्ती और अंतरंगता की अहमियत होती है, इसलिए ऐसी स्थिति में प्यार खास मायने नहीं रखता. दरअसल 33 प्रतिशत महिलाएं आनंद और मौज-मस्ती से अधिक सुरक्षा को, सेक्स और अंतरंग संबंधों के बदले वित्तीय सुरक्षा को अधिक महत्व देती हैं. एक मायने में यह अजीब विरोधाभास लगता है कि नैतिकतावादी, पाखंडी पुरुष आजादी की चाहत वाली महिलाओं को कम नैतिकता वाली बना देता है.
हालात बदलने की संभावना कम ही दिखती है क्योंकि मां-बाप सेक्स शिक्षा से उसी तरह बिदकते हैं, जैसे पुरुष कंडोम के नाम पर. छोटे शहरों और कस्बों में आजादी और बदलाव की संभावना उत्सुकता पैदा करती है, लेकिन देश के कस्बों में जब तक परिवर्तन की बयार खुलकर नहीं बहने लगती तब तक इंतजार करना चाहिए. सर्वेक्षण से लगता है कि सेक्स कोई रिश्ता, कोई साहचर्य नहीं बल्कि उत्तेजना की एक दैहिक क्रिया अधिक है जो औरतों के व्यवहार के बारे में एक शुद्धतावादी नजरिए से घिरा होता है.
महिला भले दूसरी संभावना के बारे में सोचे मगर पुरुष, खासकर पारिवारिक वैवाहिक बंधनों के बाद महिला को सिर्फ अपनी सेक्स संबंधी जरूरतों को पूरा करने वाली दासी की तरह देखता है. देह को लेकर बनी धारणा में हाल के दौर में आए बदलाव, छोटे शहरों-कस्बों में आए परोक्ष बदलाव, कंडोम की उपलब्धता वगैरह से पुरुष की मानसिकता या समय बोध में कोई फर्क नहीं आया है. पुरुष की आंखों में ऐसा भाव होता है मानो गर्भ के ठहरने में उसकी कोई भूमिका नहीं है. पुरुष की इस स्थिर मानसिकता को डिगाने में सेक्स और सूचना क्रांति खास मायने नहीं रखती.
ऐसी ठस्स पृष्ठभूमि में कोई 2017 के सर्वेक्षण को बदलाव की अफवाह सुनकर खंगालता है. तकनीकी अर्थों में कंडोम या हर सुबह गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन अभी भी असामान्य है. कभी-कभार सेक्स के मौके तलाशने में हल्की बढ़ोतरी दिख रही है. ट्विटर और कैमरा एक सुखद एहसास भर रहा है क्योंकि कम से कम 10 प्रतिशत लोग अर्धनग्न अवस्था में वीडियो और फोटो साझा करते हैं. कंडोम कुछ झंझट लगता है पर वीडियो से वासना और उत्तेजना या कम से कम वैसे गपशप बढ़ती है. वीडियो स्वैप और पोर्नोग्राफी की बदौलत धीरे-धीरे सोशल मीडिया पर एक नई दुनिया आकार ले रही है. नए प्रयोगों के लिए लोग खुल रहे हैं क्योंकि इंटरनेट सेक्स और फोन सेक्स 20 प्रतिशत को आनंदित कर रहा है. कस्बों में खुशहाल सेक्स जीवन की आस काफी ऊंची है. करीब 80 से 90 प्रतिशत के बीच लोगों की यही आकांक्षा है.
फिर भी यह पूछने पर कि संगिनी की देह का कौन-सा अंग आपमें ''उत्तेजना" जगा देता है, लोगों के जवाब किराना दुकान की किसी फेहरिस्त जैसे लगते हैं. 70 प्रतिशत लोगों की जरूरत अभी कौमार्य है और विषमलिंगी सेक्स ही मानक है. इससे यही उम्मीद की जा सकती है कि इससे अलहदा विचार रखने वाले बाकी 30 प्रतिशत लोग ही कुछ अलग करने से लेकर आजादी का एक नया भाव पैदा कर सकते हैं.
यह भी उम्मीद की जा सकती है कि सेक्स को लेकर शुद्धतावादी रवैया ढीला पडऩे से विवाह से इतर भी दुनिया की संभावना बनने लगी है. विवाह एक कर्तव्य है लेकिन सेक्स कुछ सुखद एहसास देता है, जैसा कि सर्वेक्षण में एक रात के संबंध और विवाह-पूर्व सेक्स के बारे में उभरी राय से पता चलता है. सेक्स अब एक आदत, एक अधिकार का दावा ज्यादा दिखने लगता है, बनिस्बत मौज-मस्ती या वासना की तलाश के. इस तरह भारतीय पुरुष बदलाव की बयारों से अनछुआ स्थिरता की मूर्ति बना हुआ है.
(शिव विश्वनाथन जाने-माने समाज विज्ञानी हैं)