"कलाकार को समाज से पहले ख़ुद के प्रति जवाबदेह होना चाहिए"

हाल में पंकज कपूर की पंजाबी फिल्म रावी दे कंडे रिलीज हुई. करीब साढ़े तीन दशक बाद वे पंजाबी फिल्मों की ओर लौटे. इस मौके पर पढ़िए अंजुम शर्मा से उनकी खास बातचीत

Pankaj Kapur
पंकज कपूर (फोटो : बंदीप सिंह)

तकरीबन 35 साल बाद पंजाबी भाषा में आपने कोई फिल्म की रावी दे कंडे.  कब लगा कि अपनी ज़बान की तरफ वापस लौटना चाहिए? 

लगा तो पूरे 35 साल लेकिन कोई ऐसी स्क्रिप्ट ही नहीं आई. मैं अपनी मेरी मादर-ए-ज़बान में काम करना चाहता था और उस जमीन से आज भी जुड़ा हुआ महसूस करता हूं. सालों बाद अच्छी स्क्रिप्ट आई तो लगा कि मैं इसका हिस्सा हो सकता हूं.

एक फिल्म होती है जो कलात्मक संतोष के लिए की जाती है और एक बस कर ली जाती है, कमर्शियली. कैसे यह रेखा विभाजित कर पाते हैं?

दोनों का कॉम्बिनेशन हमेशा रहता है. इक्का-दुक्का छोड़ दें तो ज्यादातर मैंने वही काम किया, जो मेरे लहजे का था. अब उसमें कितना काम आप कर पाते हैं, कितना निर्देशक कर पाता है, कितना लेखक उसे जुटा पाता है, एडिटर कितना उसे समेट पाता है. ऐसी बहुतेरी बातें हैं. काम करने का एक प्रोसेस होता है. खुद को उसमें झोंकना और एंजॉय करना, मैंने 40-50 साल यही किया.

एक बड़ा अभिनेता, जब मैं बड़ा कह रहा हूं तो उसके पीछे 40-50 सालों का श्रम है जो अपने आपको इवॉल्व करने में लगता है, जब ऐसा अभिनेता दूसरी भाषा की ओर खुद को मोड़ता है तो वह खुद समृद्ध हो रहा होता है या उस भाषा का फिल्म संसार समृद्ध होता है?

समृद्धि का इसमें सवाल ही नहीं है. सवाल इस बात का है कि आप किस चीज को अपना रहे हो. अपने अंदर कितना समा रहे हो. अपनी ऑडियंस के सामने उसे कितना ला रहे हो.  आप, आप ना रह कर वह किरदार हो जाओ जो आपके लिए लिखा गया है या जो डायरेक्टर चाह रहा है. यही समृद्धि है.

आपके बहुत सारे किरदार हैं. बहुत गहन. बहुत जटिल. मसलन, एक डॉक्टर की मौत  या मकबूल  या ब्लू अंब्रेला. वैसे लोग ब्लू अंब्रेला  का नाम नहीं लेते लेकिन मुझे बहुत पसंद है.

(एकटक देखते और हंसते हुए) जी...जी. 

इस तरह के किरदारों की कैसे तैयारी करते हैं?

देखिए अनुभव जो है न, बहुत बड़ी पूंजी है. सब सिखा देता है.

जवाब नहीं मिला. दूसरी तरह से पूछता हूं. किस एक्टिंग स्कूल की तरफ खुद को ज्यादा झुका हुआ पाते हैं. स्तानिस्लावस्की या ब्रेख्त या ...?

नहीं. ये या वो, मैं इसमें मानता ही नहीं. मुझे लगता है जिंदगी एक अनुभव है और जहां से भी सीखने को मिलता है आप उसे अपनाते हैं. किसी पर्टिकुलर स्कूल के तहत नहीं जाते. उन सब चीजों से सीखकर आप अपनी जिंदगी, अपनी तरह से गुजारते हैं. 

पंकज कपूर से बातचीत करते हुए इंडिया टुडे के डिप्टी एडिटर अंजुम शर्मा

नहीं, जब आप कोई देह भाषा अपनाते हैं और गहरे उतरते जाते हैं, तब लगता होगा कि अब आप पंकज कपूर नहीं रह गए. होता ही होगा या एलियनेट कर लेते हैं.

ऐसा है कि कुछ चीजें मशहूर हो जाती हैं. जैसे स्तानिस्लावस्की साहब ने जिंदगी के 40 साल काम किया. 40 साल के तजुर्बे के बाद उन्होंने तय किया कि मेरे ख्याल से अभिनेता को ऐसा-ऐसा करना चाहिए. एक थ्योरी उन्होंने सामने पेश कर दी. ब्रेख्त साहब ने दूसरी थ्योरी पेश की. और भी कई एक्टिंग स्कूल्स हुए. लेकिन कोई काम जब तीसरा आदमी करता है, उसका काम इंडिविजुअल होता है. उसको अगर हम डिवाइड करने की कोशिश करेंगे कि स्कूल स्टाइल में बांटेंगे तो गड़बड़ है. 

लेकिन पंकज जी…

सुनो, एक बड़ी दिलचस्प बात मैं आपको बताता हूं कि मैंने आज तक एन एक्टर प्रिपेयर्स  किताब नहीं पढ़ी.  

वजह?

क्योंकि मेरे एक डायरेक्टर साहब थे उन्होंने मुझे कहा कि नहीं पढ़ोगे. उस आदमी ने 40 साल काम करके वह किताब लिखी है. तुम अपने तरीके का काम करो और सोचो कि तुम्हें कैसे काम करना है. जब बतौर अभिनेता आप थोड़ी बहुत तालीम हासिल करते हैं, फिर तजुर्बा हासिल कर लेते हैं, फिर जिंदगी की परतों को समझने की कोशिश में जूझते हैं, तो एक एक्सपीरियंस आपके अंदर पैदा होता है. आपके अंदर का कंप्यूटर कुछ चीजें रिसीव करता है. फिर जब कोई भी कैरेक्टर आपको दिया जाता है तो सब चीजें वहां से मुहैया होती है. वो टोटल ऑफ एवरीथिंग होता है. 

फिर उन कैरेक्टर्स का क्या जो आपके अनुभव का हिस्सा ही नहीं रहे?

स्क्रिप्ट हैं न. आप स्क्रिप्ट पढ़ते हैं. वह बताती है आपको क्या जरूरत है. फिर जिंदगी का तजुर्बा है. कुछ किया, कुछ पढ़ा, कुछ देखा, कुछ इमेजिनेशन. कई लेयर्स हैं. समाज है, पॉलिटिक्स है, आपका माहौल है. और सबसे बढ़कर तो डायरेक्टर है, जो डायरेक्ट कर रहा है. आप इन सबको मिलाकर अपनी समझ से उस कैरेक्टर को अप्रोच करते हैं.

इस समय बहुतेरे ऐसे नए एक्टर्स माफ़ कीजिएगा एक्टर्स नहीं हीरो आ रहे हैं, जो कभी एक्टिंग स्कूल नहीं गए. अगर वे लगातार फिल्में करते जाएंगे तो अपने अनुभव से सीख ही जाएंगे. 

मैंने तो ये नहीं कहा नहीं.

मैैं पूछ रहा हूं.

देखो, थोड़ा सा फर्क है. जैसे एक नदी होती है. उसके अंदर पानी बहता है. पानी मान लीजिए टैलेंट है. दो किनारे उसे संभालते हैं. उसमें बाढ़ आती है तो एक लेवल तक संभलता है लेकिन उसके बाद उछलकर बाकी चीजें बर्बाद करता है. मौजूदा हालात में हम देख ही रहे हैं कि इस वक्त क्या हो रहा है. अगर उस पर डैम बांध दिया जाए तो बिजली पैदा हो सकती है. ऐसे में पानी को अपनी जगह भी मिल सकती है और वो चीज पैदा की जा सकती है जो सबका फायदा करे. तालीम वही चीज है जिससे आप उस टैलेंट को तराशते हो. एक रास्ता दिखाते हो. अब चलना उसे ही है, जगह उसे ही बनानी है. मेरे पिताजी प्रोफेसर थे. उनका मानना था कि जिस भी फील्ड में आप जाना चाहें, उसमें तालीम जरूर हासिल कीजिए. अब आप उस तालीम को किसी के यहां 10 साल थिएटर करके, किसी के अंडर काम करके, उसके यहां नाटक करके सीखना कहें या एक खास एक्टिंग संस्थान में जाकर. कोई फर्क नहीं.  

कैसे फर्क नहीं?

सब लोग एक सिचुएशन में होते हैं. सब बाहर निकलते हैं. आज नाटक है, कल नहीं है. काम मिला, नहीं मिला. अच्छा काम मिला, नहीं मिला. अच्छा कर पाए, नहीं कर पाए. उसमें उन्नीस-बीस का फर्क रहता है. आप एक्सपीरियंस से भी सीख सकते हैं. लेकिन कोई गाइड होना चाहिए. गाइड के बिना नहीं सीख पाएंगे. आपके अंदर टैलेंट है तो आप कुछ भी कर सकते हैं लेकिन उस टैलेंट को रास्ता नहीं मिलेगा. ऐसा मेरा मानना है बाकी सबको अपनी-अपनी सोच मुबारक. 

वापस किरदारों की ओर आ रहा हूं. आपने ऑफिस-ऑफिस  किया. व्यवस्था के प्रति व्यंग्य था. व्यंग्य करते समय एक कलाकार की जवाबदेही किसके प्रति अधिक होती है, अपनी कला के प्रति या समाज के प्रति? 

सबसे पहले अपने प्रति. आप किन मान्यताओं को मानते हैं, जिंदगी के किन पहलुओं को सही-गलत समझते हैं. उन्हें आप कैसे आगे लेकर चलते हैं, बहुत अहम है. भले आपकी जिंदगी आम हो, सामाजिक हो, राजनीतिक हो, पारिवारिक हो, कैसी भी हो. उसमें आप बतौर इंसान कैसे एक्सरसाइज करते हैं, उससे अहम कुछ नहीं है.

दोपहरी  लिखा गया साल 1992 में. छपा 27 साल बाद.  आज के समय अगर वह नाटक लिख रहे होते तो वैसे ही लिखा जाता? 

दोपहरी  तो वैसे ही लिखा जाता. क्योंकि जिस जगह, जिस इंसान, जिस मानसिकता और जिस माहौल की बात है, शायद वो आज भी वैसे ही हैं. 1990 या 92 में जब लड़की पढ़ाओ आंदोलन नहीं चला था. उस वक्त यह कहानी लिखी गई उस बुजुर्ग औरत के बारे में जो अपनी पहचान खो जाने के बाद इस कहानी के दौरान अपनी पहचान पहचानती है. डिस्कवरी ऑफ एन ओल्ड वुमन ऑफ हरसेल्फ, मेरे लिए वो सबसे अहम था. 

दोपहरी आपने लिखा भी और मंच पर उसे करते भी हैं. कभी मंचन के समय लेखक पर अभिनेता हावी हुआ?

नहीं ऐसा नहीं है. मैं अपना काम बतौर अभिनेता पढ़कर अपनी ऑडियंस को सुना रहा होता हूं. यह एक यूनिक कॉम्बिनेशन है. दोपहरी  के मैं 60 शोज कर चुका हूं, मेरा ही लिखा हुआ है तो मुझे जबानी याद होगा ही लेकिन फिर भी मैं स्क्रिप्ट हाथ में रखकर उसे पढ़ता हूं. 

पंकज जी आप रंगमंच की दुनिया से आए और फिल्में भी करते हैंं. अब रंगमंच करना आपके लिए आगे बढ़ना होता है या पीछे लौटना?

ऐसा कभी कुछ नहीं लगा. रंगमंच आपको एक ऐसी जमीन जरूर देता है जहां आप तैयारी कर सकते हैं. फिल्मों की अपनी कॉम्प्लेक्सिटी है जिन्हें आप अलग तरह से कन्फ्रंट करते हैं. थिएटर की अपनी मुश्किलें हैं. लाइव ऑडियंस के सामने आप जाते हैं. वो एक घर है जहां आप गलतियां भी कर सकते हैं. उनको सुधार भी सकते हैं और अपने आप को इंप्रूव भी कर सकते हैं. लोग कहेंगे रीटेक तो सिनेमा में भी है. लेकिन रीटेक में और प्रोसेस से गुजरने में फर्क है. आप हैरान होंगे कि दुनिया के बहुत से एक्टर्स वापस थिएटर में लौटे. जो कुछ उन्होंने थिएटर से सीखा, सिनेमा को दे दिया. अब वापस लौट रहे हैं कि फिर कुछ सीख सकें क्योंकि सेंस ऑफ़ क्रिएटिविटी थिएटर में आपको मिलती है. 

बहुत सुंदर बात कही. वैसे, आपके आने वाले क्रिएटिव प्रोजेक्ट्स कौन से हैं. कोई ऐसा कैरेक्टर करने की इच्छा जो लगता हो कि अब तक नहीं कर सके.

देखिए मेरा एक आउटलुक है. इस दुनिया में अनगिनत लोग हैं यानी अनगिनत कैरेक्टर्स हैं. मैं किसका जिक्र करूं कि मैं इसे करना चाहूंगा. मुझे जो भी कैरेक्टर दिया जाएगा मैं बतौर नया इंसान स्क्रीन पर या स्टेज पर उसे पेश करने की कोशिश करूंगा. तो कोई एक पर्टिकुलर विधा या पर्टिकुलर कैरेक्टर नहीं है. एक इंसान को जीवित कर ऑडियंस के सामने ला सकूं, बस यही है. 

बहुत धन्यवाद पंकज जी. ऐसा लग रहा था कि घर के बुजुर्ग के साथ बैठकर बात हो रही थी. 

(हंसते हुए…) धन्यवाद बेटा. बच्चे ही तो हो तुम.

Read more!