महाराष्ट्र : सावरकर के करीब एक सदी पुराने नाटक पर अब क्यों खिंची तलवारें?

विनायक दामोदर सावरकर के मराठी संगीत नाटक 'संगीत संन्यस्त खड्ग' को बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित बौद्ध धर्म और महात्मा गांधी की दिखाई अहिंसा की राह की एक आलोचना के तौर पर देखा जाता है

Savarkar's 'Anadi Me, Anant Me' was written during his imprisonment when he attempted to escape from the British custody in Marseilles.
सावरकर ने अपनी नजरबंदी के दौरान यह नाटक लिखा था

फरवरी 1929 में अभिनेता चिंतामनराव कोल्हटकर और जाने-माने गायक-अभिनेता पंडित दीनानाथ मंगेशकर (लता मंगेशकर और आशा भोसले के पिता) की नाट्य मंडली बलवंत नाटक कंपनी महाराष्ट्र के रत्नागिरी के दौरे पर थी. इसी दौरान दोनों की मुलाकात क्रांतिकारी (और अब हिंदुत्व विचारक) विनायक दामोदर सावरकर से हुई, जिन्हें अंडमान की सेलुलर जेल से सशर्त रिहा किए जाने के बाद इस तटीय शहर में नजरबंद करके रखा गया था.

सावरकर को उनकी गतिविधियों के लिए आजीवन कारावास की दो सजाएं सुनाए जाने के बाद सेलुलर जेल में कैद करके रखा गया था. ये सजाएं कुल 50 साल चलने वाली थीं. कोल्हटकर और मंगेशकर ने सावरकर से उनके लिए एक संगीत नाटक लिखने का अनुरोध किया और उन्हें 1,000 रुपये पेशगी दी.

लेखक और इतिहासकार वाई.डी. फड़के अपनी कृति ‘शोध सावरकरंच्या' में लिखते हैं कि यह उस समय के नाटककारों के लिए एक शानदार और अभूतपूर्व अग्रिम राशि थी. जाहिर है, ये नाटककार सावरकर से ज्यादा क्रांतिकारी सावरकर के लिए थी.

सावरकर ने थिएटर कंपनी के लिए मराठी संगीत नाटक ‘संगीत संन्यस्त खड्ग' या 'त्यागी हुई तलवार' लिखा. इसका पहला मंचन 12 सितंबर, 1931 को मुंबई के ग्रांट रोड स्थित एलफिंस्टन थिएटर में हुआ. सावरकर के लिखे तीन संगीत नाटकों में यह एकमात्र नाटक था जिसे दर्शकों की सबसे अच्छा प्रतिक्रिया मिली. उनके अन्य दो नाटक 'उषाप' (1927) और 'उत्तरक्रिया' (1933) थे.

जैसा, फड़के सांकेतिक तौर पर लिखते हैं, विशेष तौर पर कोल्हटकर के जानदार अभिनय और मंगेशकर के गायन की वजह से सावरकर रचित ये नाटक अपनी एक खास जगह बनाने में सफल रहा. 'संन्यस्तस खड्ग’ के 'मर्मबंधतलि थेव हि' और 'शतजन्म शोधन' जैसे गीत संगीत प्रेमियों की कई पीढ़ियों को मंत्रमुग्ध करते आ रहे हैं.

ये नाटक बौद्ध काल में शाक्यों के शासनकाल पर केंद्रित है. शाक्यों का सेनापति बौद्ध धर्म अपना लेता है और अपनी तलवार त्याग देता है. लेकिन जब राज्य पर शत्रुओं का आक्रमण होता है तो सेनापति तर्क देता है कि अपनी भूमि और अपने लोगों की रक्षा के लिए फिर से तलवार उठाना उसका कर्तव्य है. नाटक में गौतम बुद्ध और सेनापति के बीच हिंसा और बल प्रयोग पर दार्शनिक विमर्श को संवादों के तौर पर शामिल किया गया है.

ये नाटक बौद्ध धर्म और बुद्ध के पंथ की एक स्पष्ट आलोचना है. सावरकर का तर्क था कि बौद्ध धर्म और उसकी अहिंसा की शिक्षाओं के कारण ही भारत विदेशी आक्रमणकारियों, विशेषकर मुसलमानों, के अधीन रहा.

अब, करीब एक सदी बाद नाटक का संक्षिप्त संस्करण तैयार कर इसका पुनः मंचन किया गया है, जिसे दलित-बहुजन समूहों, जैसे पूर्व लोकसभा सदस्य और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर के नेतृत्व वाले वंचित बहुजन अघाड़ी (VBA) की तरफ से चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. VBA कार्यकर्ताओं ने पुणे, नासिक, कल्याण और मुंबई में नाटक का मंचन करने वाले थिएटरों में विरोध प्रदर्शन किया जिससे कुछ शो रद्द भी करने पड़े. VBA के मुख्य प्रवक्ता और उपाध्यक्ष सिद्धार्थ मोकले का कहना है, “नाटक जानबूझकर गौतम बुद्ध के विचारों की गलत व्याख्या करता है और बुद्ध के संदेश को दुनियाभर में पहुंचाने वाले भिक्षु संघ का उपहास करता है. यह बुद्ध, संघ और धम्म को बदनाम करता है.”

मोकले ने नाटक में बौद्ध धर्म के प्रति अपमानजनक संदर्भों की ओर इशारा करते हुए सावरकर के इस तर्क को खारिज कर दिया कि बौद्ध धर्म के उत्थान और प्रसार ने ही भारत को उसकी सैन्य परंपराओं से वंचित किया और वह आक्रमणकारियों का गुलाम बना. मोकले कहते हैं, “बुद्ध ने कभी सेना को भंग करने के लिए नहीं कहा. उस युग में कई बौद्ध शासक थे. तपस्वी शिक्षुओं के लिए बने नियम-कायदे सैनिक और सामान्य गृहस्थों के लिए बाध्यकारी नहीं थे.” उन्होंने आगे कहा कि हालांकि VBA कार्यकर्ता बौद्ध धर्म के विश्लेषण के विरोधी नहीं हैं, लेकिन वे इसको किसी अपमानजनक संदर्भ में पेश किया जाना बर्दाश्त नहीं करेंगे.

लेकिन सावरकर जहां बुद्ध और बौद्ध धर्म की आलोचना कर रहे थे, वहीं इस नाटक के जरिये उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधी महात्मा गांधी और उनकी अहिंसा की विचारधारा को भी परोक्ष रूप से निशाना बनाया. जैसा, सावरकर के सचिव और लंबे समय तक सहयोगी आचार्य बालाराव सावरकर ने लिखा है, सावरकर ने “संन्यास्त खड्ग को गांधीवादी अहिंसा के कारण भारत को विनाशकारी नुकसान होने को दर्शाने” के लिए ही लिखा था. इतिहासकार जानकी बखले ने अपनी कृति 'सावरकर और हिंदुत्व का निर्माण' में लिखा है, यह नाटक “गांधीवादी अहिंसा पर सावरकर का प्रत्युत्तर” था और इसके तीन पात्र- विक्रम, वल्लभ और वल्लभ की पत्नी सुलोचना- "सावरकर के राजनीतिक और सुधारवादी विचारों का मुखर प्रतिध्वनि करते हैं.”

अपनी किताब ‘हिंदुत्व के मूल तत्व’ में सावरकर ने लिखा है कि “बौद्ध धर्म के विस्तार के राजनीतिक नतीजे राष्ट्रीय पौरुष ही नहीं हमारी जाति के राष्ट्रीय अस्तित्व तक के लिए अत्यंत विनाशकारी रहे हैं.” उन्होंने लिखा, “बौद्ध धर्म ने सत्य की खोज के एक सार्वभौमिक धर्म के प्रचार का पहला और निश्चित तौर पर सबसे बड़ा प्रयास किया. इसका कोई गोपनीय उद्देश्य नहीं था, न ही भूमि या धन की लालसा इसके कदम तेजी से बढ़ा रही थी. हालांकि, इसकी उपलब्धियां महान थीं, लेकिन ये सभी मनुष्यों के मन से पशुवत वासना, राजनीतिक महत्वाकांक्षा या व्यक्तिगत लालसा के बीज को इस हद तक नहीं मिटा सका कि भारत के लिए अपनी तलवार को माला में बदलना सुरक्षित हो जाए.”


यह किताब 1921 में रत्नागिरी जेल में लिखी गई थी, जहां सावरकर को अंडमान से स्थानांतरित करके लाया गया था, जब उन्होंने यह वचन दिया था कि वे राजनीति में भाग नहीं लेंगे और रत्नागिरी जिले में ही नजरबंद रहेंगे. लेकिन तब तक सावरकर के लिए अंग्रेजों के बजाय मुसलमान ही मुख्य शत्रु बन चुके थे.  बेशक, मुस्लिमों के अलावा सावरकर के एक और कट्टर विरोधी थे- गांधी और यह बैर कांग्रेस तक विस्तारित था. 1948 में नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी और सावरकर को सह-अभियुक्त के तौर पर गिरफ्तार कर लिया गया. सावरकर को आखिरकार एक विशेष अदालत ने बरी कर दिया और केंद्र सरकार ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती नहीं दी.

सावरकर की पुस्तक को हिंदुत्व का आधारभूत ग्रंथ माना जाता है. इसने एक विचारधारा के तौर पर हिंदुत्व की नींव रखी और क्षेत्रीय राष्ट्रवाद के बजाय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर जोर दिया. सावरकर ने दावा किया कि भारत हिंदुओं के लिए है, मुस्लिमों या ईसाइयों के लिए नहीं. उन्होंने कहा कि हिंदू एक राष्ट्र हैं और उनके लिए भारत एक साथ पितृभूमि और पवित्र भूमि है. ये स्थिति मुसलमानों या ईसाइयों के विपरीत थी, जिनके लिए भारत पितृभूमि तो थी लेकिन पवित्र भूमि नहीं, क्योंकि वो तो सुदूर अरब या फिलिस्तीन में थी.

अपने लेखन ‘भारतीय इतिहास के छह गौरवशाली युग’- जो मूलत: 1963 में मराठी में प्रकाशित हुआ था- में सावरकर ने एक और पहलू को लेकर बौद्ध धर्म की आलोचना शुरू की और दावा किया कि “बौद्ध धर्म अपनाने के बाद सम्राट अशोक ने अहिंसा जैसे कुछ बौद्ध सिद्धांतों के पक्ष में अत्यधिक प्रचार किया, जिससे भारतीय राजनीतिक दृष्टिकोण, उसकी राजनीतिक स्वतंत्रता और उसके साम्राज्य को बहुत नुकसान पहुंचा.”

सावरकर “राष्ट्र-विरोधी बौद्ध उपदेशों और प्रथाओं और उनके प्रभावों” का भी उल्लेख करते हैं. हालांकि, उन्होंने “भगवान बुद्ध और उनके धर्म के प्रति अत्यधिक सम्मान” भी व्यक्त किया. उनके मुताबिक, “भारतीय इतिहास में विश्व-प्रसिद्ध हस्तियों ने हिमालयी शिखर छुए हैं और उन उदात्त शिखरों में से एक का नाम भगवान बुद्ध है.”

एक बात सावरकर को उनके समकालीनों और समकक्षों से अलग बनाती थी, और वो थी उनका आत्ममुग्धता की हद तक प्रबल नायक-बोध, और उनके व्यक्तित्व के चरम और अक्सर विरोधाभासी तत्व. जैसा, फड़के ने अपने लेखन में उल्लेख किया है, महात्मा गांधी और बी.आर. आंबेडकर जैसे उनके समकालीनों के विचार जहां समय के साथ बदले और परिपक्व हुए, वहीं सावरकर कभी भी उग्र राष्ट्रवाद और सैन्यीकरण की अपनी बचपन की कल्पनाओं से आगे नहीं बढ़ पाए. उनकी राजनीति और अन्य व्यापक कार्यकलापों में उनकी व्यवहार का यही आवेग हावी रहा.

जब आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाने की घोषणा की तो सावरकर ने उनके इस तर्क पर आपत्ति जताई कि इसमें अस्पृश्यता नहीं है. अगस्त 1956 में उन्होंने एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था-“बौद्ध धर्म अपनाने से आपकी स्थिति और भी बदतर हो जाएगी.” 1956 में आंबेडकर के हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध बनने के बाद सावरकर ने इसे धर्म परिवर्तन के बजाय संप्रदाय परिवर्तन कहा.

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