क्या हुआ था जब जगजीवन राम ने कांग्रेस छोड़ी, और हाथी पार्टी का चुनाव चिह्न बनते-बनते रह गया!
बाबू जगजीवन राम ने 1977 में जब कांग्रेस से इस्तीफा दिया तो इंदिरा गांधी बेहद हैरान थीं क्योंकि इस दिग्गज नेता ने आपातकाल के दौरान उनका समर्थन किया था लेकिन बाद में इसका विरोध करते हुए पार्टी का साथ छोड़ दिया

साल 1977. करीब 21 महीनों तक आपातकाल लागू रहने के बाद 18 जनवरी को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर घोषणा की- मार्च महीने में देश में आम चुनाव आयोजित होंगे. इस दौरान आपातकाल की सख्ती में भी पर्याप्त ढील दी गई. चुनावी माहौल बनने लगा. लेकिन 2 फरवरी आते-आते कुछ ऐसा हुआ कि इंदिरा गांधी समेत कांग्रेस पार्टी सन्न रह गई.
दरअसल, 2 फरवरी को 68 साल के अनुभवी और तब सरकार में कृषि मंत्री रहे जगजीवन राम (बाबूजी) ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक, अपने त्यागपत्र में उन्होंने लिखा, "देश के नागरिकों को उनकी सभी स्वतंत्रताओं से वंचित कर दिया गया है. एक आतंक ने पूरे देश को घेर लिया है. लोग लगातार भय में जी रहे हैं और चुपचाप पीड़ा सह रहे हैं."
उनके इस कदम से इंदिरा गांधी को काफी हैरानी हुई. देश में जब आपातकाल लगा तो इंदिरा गांधी की आलोचना हुई. लेकिन उस समय जगजीवन राम उनके साथ खड़े रहे. कांग्रेस के इस सबसे वफादार नेता ने इससे पहले 1966 में भी इंदिरा गांधी की मदद की थी. पार्टी में उनका काफी रसूख भी था. आजादी से पहले अंतरिम सरकार में वे श्रम मंत्री के रूप में सबसे नौजवान मंत्री थे.
कांग्रेस सरकार में उन्होंने कई मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली. 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय वे रक्षा मंत्री थे. 1974 में जब देश में खाद्यान्न संकट गहराया तो उन्हें कृषि मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई. अब यहां सवाल उठता है कि अगर उन्हें आपातकाल से समस्या थी, तो उन्हें पहले ही इस्तीफा दे देना चाहिए था. जब आपातकाल हटाने की घोषणा हुई, तब उन्होंने पार्टी से इस्तीफा क्यों दिया?
इंदिरा गांधी की हैरानी के पीछे भी यही वजह थी. मीडिया में उस समय आईं खबरों के मुताबिक जब इंदिरा को जगजीवन राम का त्यागपत्र मिला तो उन्होंने कहा, "मैं यह नहीं समझ पा रही हूं कि जब चुनाव की घोषणा हो चुकी है, आपातकाल के तहत ज्यादातर प्रतिबंधों में ढील दे दी गई है. प्रेस सेंसरशिप हटा ली गई है और राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया गया है, तो आपने इस्तीफा क्यों दिया है."
न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक, इंदिरा ने यह भी कहा, "आपातकाल के दौरान वे (जगजीवन राम) राष्ट्रीय नीतियों से जुड़े हरेक फैसले में सीधे और सक्रिय रूप से शामिल रहे. उन्होंने उन नीतियों का पूरा समर्थन किया था और कभी कोई आपत्ति या संदेह व्यक्त नहीं किया था." बहरहाल, इस्तीफा देने के बाद जगजीवन राम की कहानी क्या रही?
दरअसल, जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर अपनी एक पार्टी बनाई. इसका नाम था- कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी. इस्तीफा देने से पहले उन्होंने जयप्रकाश नारायण (लोकनायक) से टेलीफोन पर बात की थी. जेपी ने उन्हें आशीर्वाद दिया था और कहा था कि जनता पार्टी दोनों बाहें फैलाकर उनका स्वागत करेगी. यह कांग्रेसी दिग्गज फिर जनता पार्टी के साथ जुड़ गया. 1977 का चुनाव हुआ. इंदिरा गांधी की हार हुई और पहली गैर-कांग्रेसी सरकार अस्तित्व में आई.
इधर, कांग्रेस में टूट के बाद इंदिरा गांधी ने जनवरी, 1978 में एक नई पार्टी बनाई. इसका नाम था- कांग्रेस (आई). इसके पहले 1969 में भी इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में टूट के बाद नई पार्टी बनाई थी, जिसका नाम था- इंदिरा (आर). चुनाव आयोग ने तब कांग्रेस (आर) को चुनाव चिह्न के रूप में 'गाय-बछड़ा' दिया था. 1977 में जब कांग्रेस में टूट हुई, तो एक बार फिर पार्टी के सामने चुनाव चिह्न की समस्या खड़ी हुई.
अबकी बार इंदिरा ने चुनाव आयोग से नए चुनाव चिह्न की मांग की. गाय-बछड़े का चुनाव चिह्न कांग्रेस के लिए नकारात्मक पहचान बन गया था. लोग गाय को इंदिरा और बछड़े को संजय गांधी से जोड़कर देख रहे थे. विपक्ष इस चुनाव चिह्न के जरिए मां-बेटे पर लगातार हमला कर रहा था. इंदिरा कांग्रेस के पुराने चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी मांग रही थीं. लेकिन चुनाव आयोग ने इस सिंबल को फ्रीज कर दिया था.
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई की किताब 'बैलट- टेन एपिसोड्स दैट हैव शेप्ड इंडियाज डेमोक्रेसी' में कांग्रेस के वर्तमान चुनाव चिह्न 'पंजा' मिलने की रोचक कहानी है. किताब के मुताबिक, इंदिरा तब पीवी नरसिम्हा राव के साथ आंध्र प्रदेश के दौरे पर गई थीं. इधर पार्टी के महासचिव बूटा सिंह दिल्ली में नए चुनाव चिह्न के बारे में बातचीत करने चुनाव आयोग के आफिस गए थे. आयोग ने उन्हें हाथी, साइकल और हाथ का पंजा में से एक चिह्न लेने को कहा.
बूटा सिंह असमंजस में थे कि क्या करें. चुनाव आयोग ने चिह्न तय करने के लिए 24 घंटे का समय दिया था यानी अगले दिन जाकर आयोग को ये बताना जरूरी था कि कांग्रेस (आई) कौन सा सिंबल चुन रही है. अगर वो ऐसा नहीं कर सकी तो उसे बगैर किसी तय सिंबल के चुनाव लड़ना होगा. पार्टी में इस पर मंथन होने लगा. अगले दिन सुबह जब बूटा सिंह को चुनाव आयोग के आफिस जाना था. उससे पहले उन्होंने इंदिरा गांधी को फोन किया.
फोन लाइन शायद क्लियर नहीं थी या बूटा सिंह का उच्चारण अस्पष्ट रहा होगा, लेकिन इंदिरा गांधी 'हाथ' के बजाय 'हाथी' शब्द सुनती रहीं. किताब के मुताबिक, "वे मना करती रहीं जबकि सिंह ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि वह हाथी नहीं हाथ चुनने की बात कर रहे हैं. नाराज इंदिरा ने टेलीफोन नरसिम्हा राव को सौंप दिया. राव एक दर्जन से अधिक भाषा के जानकार थें. कुछ ही सेकेंड में वे समझ गए कि सिंह क्या कहना चाह रहे थे."
किताब के मुताबिक, "राव ने कथित तौर पर चिल्लाकर सिंह से इसे 'पंजा' कहने के लिए कहा." राहत महसूस करते हुए इंदिरा ने रिसीवर लिया और पंजा के लिए सहमति दे दी. हाथ और हाथी के बीच चल रही दुविधा खत्म हो गई. कांग्रेस को वो हाथ का सिंबल मिल गया, जो पहले चुनावों में अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक (रुईकर ग्रुप) के पास था. लेकिन उसके बाद से इसका इस्तेमाल किसी पार्टी ने नहीं किया था.