निठारी हत्याकांड : वो ‘बदनाम कोठी’ अब किस हाल में है और क्या सोचते हैं यहां के लोग?

ग्रेटर नोएडा के निठारी गांव के लोगों की जिंदगी पर करीब दो दशक पहले के उस हत्याकांड का असर आज भी दिखता है

ग्रेटर नोएडा का निठारी गांव
ग्रेटर नोएडा का निठारी गांव

"तभी यहां से निकल जाना चाहते थे...लेकिन गरीब आदमी जाएगा कहां? जो है जैसा है यही निठारी है. यहां के लोगों ने मीडिया इतना झेला है कि अब कोई किसी बाहरी से बात ही नहीं करता...डरते हैं हम लोग...कहां की बात कहां पहुंचा दें मीडिया वाले..." उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में निठारी गांव के रहवासी महेंदर यादव का मीडिया से डर ग़ैर-वाजिब नहीं है.

ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर 13 सितंबर से स्ट्रीम हुई फिल्म सेक्टर 36 के बाद 'निठारी कांड' फिर से चर्चा में है. यहां के लोगों को अंदेशा है कि इस फिल्म के बाद मीडिया के लोग फिर से यहां के चक्कर लगाने लगेंगे. महेंदर की दुकान उसी सड़क पर है जिस सड़क पर ‘बदनाम कोठी D5’ मौजूद है. 

यहां एक छोटी-सी किराने की दुकान चलाने वाले महेंदर याद करते हैं, "2006 में जब कोठी से इंसानी कंकाल बरामद हुए तब हमें कहां मालूम था कि अब निठारी पूरी दुनिया में अपने इस कांड की वजह से जाना जाएगा." इसके बाद उनकी दुकान महीनों बंद रही. हालांकि अब तक उनके साथ निठारी का पता-ठिकाना नत्थी हो चुका था. वे बताते हैं, " जैसे ही लोगों को पता चलता है, वे पूछते हैं कि कोठी पर भी तो आपके यहां से सामान जाता रहा होगा..." 

साल 2006 में निठारी के सेक्टर 31 में मौजूद कोठी नंबर D5 के गिर्द हुई बच्चों की सिलसिलेवार हत्याओं का मामला सामने आया था. इसमें कोठी के मालिक मोनिंदर सिंह पंढेर और उसके नौकर सुरेंद्र कोली को आरोपी मानकर पुलिस की शुरूआती जांच हुई. बाद में मामला सीबीआई को दे दिया गया और धीरे-धीरे करीबन सारी हत्याओं के आरोप सुरेंद्र कोली पर आ गए.

कई बरसों तक अदालतों की डांट फटकार और जांच में बरते गए ढीले रवैये और दोनों आरोपियों को दी गई फांसी की सजा के बाद पिछले साल पंढेर और कोली को इन मामलों से बरी कर दिया गया. जिस सुरेंद्र कोली के ख़िलाफ़ फांसी के लिए डेथ वारंट तक जारी हो गया था उसकी फांसी हैरतनाक तरीके से फांसी के ‘पर्याप्त इंतजाम ना होने की वजह से’ सजा टाल दी गई. और पिछले साल तो पर्याप्त सबूत ना होने की वजह से आरोपी बरी ही हो गए.

बाईं तरफ फिल्म 'सेक्टर 36' में कोठी के नौकर प्रेम के किरदार में विक्रांत मैसी, दाईं तरफ सुरेंद्र कोली

भारत के तमाम शहरों-कस्बों की तरह ग़ैर-ज़रूरी से लगने वाले और जबरन लगवाए दिखते ‘I Love Noida’ के बोर्ड को निहारती प्रभा देवी खड़ी हैं. मारे गए बच्चों में से एक इनकी बेटी भी थी. सड़क पर एक ऑटो रुकता है और फोन को कंधे से कान पर दबाकर बात करते हुए अधेड़ ऑटो ड्राइवर बोर्ड से लगी दीवार पर पेशाब करने लगता है. प्रभा देवी का अचकचा कर नज़र ना फेरना इस बात को साबित करता है कि बोर्ड और पेशाब करता आदमी उनके दृश्य में तो है मगर ध्यान में नहीं. ध्यान में है 18 साल पहले पानी की टंकी पर खेलने गई और फिर कभी वापस नहीं लौटने वाली बिटिया.

"गरीब की कोई सुनवाई नहीं" बुदबुदाती हैं प्रभा. इस बुदबुदाहट में उनकी वो लाचारी है जो इतने बरसों से उनसे पलटकर पूछ रही है कि "क्यों सिर्फ ग़रीबों के बच्चे ही इन हत्यारों के शिकार बने? तुम्हारी बेटी बच सकती थी, अगर तुम गरीब ना होतीं." प्रभा के मुंह से निकला अगला वाक्य उनकी इस टीस के सिरे खोलता है. वो कहती हैं, "तब तो कोई थाने में बात सुनने को भी तैयार नहीं था...बच्चा संभालते नहीं बनता तो पैदा काहे को करते हो कहकर भगा देते थे." सेक्टर 36 में सब इन्स्पेक्टर राम चरण पांडे के किरदार में दीपक डोबरियाल शिकायत करने आए पिता से कहते भी दिखते हैं, "तुमने बच्चे का ध्यान नहीं रखा तो बच्चा गायब हो गया इसमें तुम्हारी गलती है." 

इसी फिल्म में इन सारी हत्याओं की ज़िम्मेदारी लेते हुए एक सीन में कोठी का नौकर प्रेम, जिसका किरदार विक्रांत मैसी ने निभाया है और जो इन हत्याओं के असली आरोपी सुरेंद्र कोली पर आधारित है, कहता है, "कौन इन बच्चों को खोजता है, ये तो मरने के लिए ही पैदा होते हैं. मरते मरते ये कम से कम किसी के तो काम आ जाएं." कम-ओ-बेश ऐसी ही सोच उन हत्यारों की रही होगी जिनके हत्थे झुग्गी के ये बच्चे महज़ एक बिस्किट के पैकेट या टॉफी की कीमत में चढ़ जाते थे. 

फांसी की सजा मिलने के बाद सबसे बाएं सुरेंद्र कोली और सबसे दाएं मोनिंदर पंढेर

प्रभा देवी उस कोठी से कुछ सौ कदम ही दूर खड़ी हैं जो दर्जनों बच्चों का आख़िरी ठिकाना साबित हुई थी. बहुत देर बाद आंख में आए आंसू को साड़ी के आंचल से पोंछते हुए "क्या पता था कि ये सब हो जाएगा" कहकर लंबी सांस लेती हैं और खुद से ही खुद को हिम्मत बंधाते हुए अपनी गर्दन थपथपाती हैं. 

इसी सड़क पर एक कोठी के बाहर दोनों हथेलियों के नाखून रगड़ रहे बुजुर्ग मालिक धनमीत (बदला हुआ नाम) योग के महत्त्व पर बात करने को तैयार होते हैं. धीरे-धीरे ये भरोसा होने पर कि सामने वाला 'निठारी कांड' पर बात करने नहीं आया है, वो खुद ही कह उठते हैं "सेहत चाहे जितनी बढ़िया हो लेकिन मन का चैन तो बरसों पहले चला ही गया." वजह पूछने पर 2006 के मामले का जिक्र करते हुए धनमीत कहते हैं, "जब यहां हम कोठीवाले शुरू-शुरू में आए थे तब यहां की बात और थी, कोठियों की वजह से यहां की झुग्गी गांव के लोगों को काम मिला. अब देखिए सब कुछ बदल गया. एक दुर्घटना से सब पर असर आया न."

दुर्घटना! पहली बार ये शब्द सुनकर अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ. 2006 में हुई हौलनाक हत्याएं, उन बच्चों के साथ हुए बलात्कार और नालों में उनकी लाशों के टुकड़े बहा दिया जाना सिर्फ 'दुर्घटना' थी? इस बातचीत से एक और हैरान करने वाली बात का सिरा खुलता है. कोठी मालिक की ढेरों शिकायते हैं, झुग्गी के लोगों के खिलाफ. 'दर दर भटकते हुए गांव देहात से यहां आ लगे', 'एक को खिलाने का ठिकाना नहीं पैदा दर्जन भर करते हैं', 'इनके लिए एक बच्चा मतलब काम करने को दो हाथ, लेकिन उसका एक मुंह और पेट भी तो है'...ऐसे वाक्य धनबीर की बातों में धारा प्रवाह आते गए. इससे एक बात और खुली कि इस सेक्टर के कोठी मालिक 18 साल पहले हुई 'दुर्घटना' को नुक्सान तो मानते हैं लेकिन किसी दूसरे तरीके से.

धनबीर बताते हैं कि जिनके पास दूसरी जगह कोठियां या फ़ार्म हाउस थे वो लोग तो औने-पौने दामों में अपनी प्रॉपर्टी बेच कर 2006 के बाद निकल गए. बच गए इनकी तरह 'एक कोठी वाले'. खुद को 'अमीरों में गरीब' मानने वाले इस आदमी का अजीब दुःख है, और दुःख का अजीब सिरा है. बकौल धनबीर, पिछले 18 सालों में यहां की प्रॉपर्टी के दाम नहीं बढ़े. अगर कोई बेचना भी चाहता है तो इस सेक्टर की बदनामी और इस बदनाम कोठी की वजह से कोई ख़रीदार नहीं मिलता. उनकी ये चिंता जायज़ सुनाई पड़ती है.

'बदनाम कोठी' जिसे फिल्म 'सेक्टर 36' में B5 पता दिया गया है, बुरी हालत में है. अगर कोई इस कोठी को ढूंढ़ने जाए तो ये आसान काम नहीं होगा. सड़क पर क्रम से D3 और D4 के बाद सीधे D6 कोठी दिखाई देती है. तो फिर D5 कोठी कहां गई! थोड़ा ध्यान से देखने पर वो 'बदनाम कोठी' आपको दिखाई दे जाएगी. पूरी तरह घास और झाड़-झंखाड़ से लदीफदी. इमारत का एक भी हिस्सा दिखाई नहीं देता. 
2006 में जब यहां से इसका मालिक पंढेर और नौकर सुरेंद्र कोली जेल चले गए तो इंसाफ का इंतजार करते माताओं-पिताओं के पास बदला लेने को ये कोठी ही रह गई. कई बार कोठी में घुसकर स्थानीय लोगों ने तोड़-फोड़ की. पिछले पांच-सात बरसों में ही कोठी में तीन बार आग लगी, जिसके कारण कागज़ों पर अज्ञात लेकिन लोगों के चेहरों पर अच्छी तरह ज्ञात हैं.

कोठी का भारी भरकम गेट जब तोड़ दिया गया और वो किसी के काम आ गया, तो कोठी में लोगों की आवक-जावक बहुत आम हो गई. इससे बचने को ज़िला प्रशासन ने गेट की जगह एक पक्की दीवार ही बनवा दी. वैसे भी अब कोठी में ऐसी कोई चीज़ बाकी नहीं है जो चोरी हो सके या जिसका और किसी माने में कोई मोल हो. स्थानीय लोग बताते हैं कि दरवाज़े तो दरवाज़े, उनके गायब होने के बाद चौखटें भी गायब हो चुकी हैं.

निठारी गांव के सेक्टर 31 में झाड़ियों से लदी कोठी D5

सरकारी दस्तावेज़ों में ये कोठी देवेंदर कौर के नाम पर है जो पंढेर की पत्नी हैं. साल 2006 में प्रशासन ने कोठी नंबर D5 सील कर दी थी, कागज़ों में कोठी अब भी सील ही है. हालांकि लोग बताते हैं कि पंढेर के बेटे ने कई बार कोशिशें कीं ताकि कोठी का मालिकाना हक वापस उसके पास आ जाए, लेकिन बात बनी नहीं.

"कोठी गिरा कर इसका नाम निशान मिटा देना चाहिए, इतना गलत हुआ इस कोठी में...काहे को नहीं गिराता सरकार इसको.." ये बात कोठी नंबर D5 के ठीक सामने खुले में सिलाई मशीन लेकर बैठे भुवन देब गुस्से में कहते हैं. दो साल पहले हावड़ा से नोएडा आए देब इस कोठी के सामने बैठकर सिलाई का काम करते हैं. शाम को सिलाई मशीन बगल की दुकान में रखकर जगह ख़ाली करके घर चले जाते हैं. इस सवाल पर कि कोठी ढह गई या मालिक बदल गया तो आपको इसके गेट पर दुकान कौन लगाने देगा? देब बिना कोई देर किए जवाब देते हैं, "तब की तब देखा जाएगा...हमको हफ़्ता दस दिन बैठने के बाद मालूम पड़ा इस कोठी का मामला, नहीं तो हम कहीं और बैठ जाते." देब दबी आवाज़ में ये भी कहते हैं कि जब से देस में (हावड़ा का इनका गांव) पत्नी को कोठी का पता चला तबसे कहती है कि यहां आत्माएं होंगी बच्चों की इसलिए यहां से हट जाओ. "अब देखते हैं कोई जगह कहीं मिल जाए तो..." कहकर अपने काम में वापस लग जाते हैं.

अठारह साल बाद भी कोठी के सामने से गुजरते हुए सकुचाते हैं लोग

सड़क पार कोठी के सामने से गुजरती हुईं प्रभा देवी सब कुछ अनदेखा करते हुए कोठी को कनखियों से निहारती जा रही हैं. उनकी निगाह में उलाहना है. किसके लिए? शायद कोठी के मालिक के लिए, शायद हत्याएं स्वीकार कर चुके नौकर सुरेंद्र कोली के लिए, शायद थाने से भगा देने वाली पुलिस के लिए, शायद मौत का तमाशा दिखाने वाले मीडिया के लिए, शायद आती जाती सरकारों के लिए, शायद इस पूरे सिस्टम के लिए...या शायद अपने लिए ही...कि आख़िरकार उन्होंने बिटिया पैदा ही क्यों की.

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