शहरी महिलाओं में तेजी से क्यों बढ़ रहा शराब का चलन?

शहरी महिलाएं अब वाइन या जिन पर नहीं थम जातीं, वे नए-नए प्रयोग कर रही हैं, लेकिन इस सबने डॉक्टरों को भी चिंता में डाल दिया है

सांकेतिक तस्वीर

दिल्ली की शहरी रातों में एक नई किस्म की गूंज है. ठहाके, गिलासों की खनक और एक गहरा बदलाव जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. शहर में अंग्रेजी की शिक्षिका 28 वर्षीय रिद्धि शर्मा साकेत के अपने पसंदीदा बार में मखमली बूथ पर बैठी हैं. उनके हाथ में गुलाबी रंग की शराब है. वे कहती हैं, “यह विद्रोह नहीं है. यह बस मेरा है- एक और अंतहीन दिन के बाद, मेरा सुकून, मेरा आराम.”

शर्मा सरीखी महिलाएं पूरे भारत, उसके राज्यों और जायकों में आ रहे खामोश बदलाव का हिस्सा हैं. कुल मिलाकर पुरुष अब भी ज्यादा पीते हैं, लेकिन अलग-अलग राज्यों में ये आंकड़े बढ़ रहे हैं. हाल के राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़ों से पता चलता है कि अरुणाचल प्रदेश (24.2 फीसद), सिक्किम (16.2 फीसद), असम (7.3 फीसद), तेलंगाना (6.7 फीसद), झारखंड (6.1 फीसद) और छत्तीसगढ़ (4.9 फीसद) सरीखे राज्यों में पीने वाली महिलाओं का हिस्सा पहले किसी भी वक्त के मुकाबले बढ़ गया है. आदिवासी इलाकों में तो यह रोजमर्रा के दस्तूरों में गहराई से गुंथा है. शहरों में यह स्वायत्तता और तनाव से राहत की गूंज है.

महिलाओं की नई पीढ़ी अब महज वाइन या जिन जैसी शराबों पर नहीं थमती, वह नए-नए प्रयोग कर रही है. नएपन और नैरेटिव से आकर्षित होकर वे माल्ट और टकिला का जायका ले रही हैं, नफीस कॉकटेल और कभी-कभार व्हिस्की को भी गले उतार रही हैं. एक भारतीय व्हिस्की फर्म के मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव, जो अपना नाम उजागर नहीं करना चाहते, कहते हैं, “महिलाएं अब मीठे और रंगीन पेय भर नहीं चाहतीं. वे संजीदगी चाहती हैं. वे अपनी व्हिस्की के साथ इतिहास चाहती हैं.”

इस बदलाव के पीछे एक रणनीति है, जिसे अक्सर भारत में मद्यपान के परिदृश्य का ‘गुलाबी होना’ कहा जाता है. यानी बाजार की गतिशक्ति जो इरादे, जज्बे और ताकतवर बनाने पर जोर देती है. इश्तिहार लंबे हफ्ते के बाद कॉर्क खोलकर उछालती गर्लफ्रेंड, गुलाब और हल्के रंगों से सजी शराब की बोतलें, और अपनी हंसी से रातें गुंजार करती महिलाओं का जश्न मनाते हैं. संदेश सयाना है : पियो क्योंकि तुम इसकी हकदार हो.

मुंबई की 32 वर्षीय मार्केटिंग मैनेजर सिमरन कौर का मामला ही लीजिए. काम, परिवार, उम्मीदों का अंबार कभी-कभी इतना भारी हो जाता है कि सुकून रात की पहली चुस्की से ही मिलता है. वे कहती हैं, “जिस पल आप मार्गरीटा का ऑर्डर देती हैं, यही वह पल होता है जब दुनिया सारे सवाल पूछना बंद कर देती है.”

यह सिर्फ शहरी दिखावे की बात नहीं है. कोविड महामारी ने भी भूमिका अदा की. नई आदतों, शराब की ऑनलाइन डिलिवरी, और तनाव से पैदा प्रगाढ़ सहिष्णुता की शुरुआत हुई.  2022 आते-आते सर्वेक्षणों से पता चला कि दिल्ली की करीब 38 फीसद महिलाओं में शराब का सेवन बढ़ गया था. प्रमोशनल ऑफर और सहज सुलभता ने इस उछाल को और उकसाया.

पुणे में 29 वर्षीय अनन्या पाटील कभी घर पर वाइन के छोटे-छोटे गिलास लेकर खुश थीं. लॉकडाउन में यह रोज की बात हो गई. अनन्या कहती हैं, “यह सुकून था- सीधी और सरल बात. अब शुक्रवार की शामें और मेरलोट का एक गिलास मुझे अपनी तरह जीने की इजाजत देता लगता है.”

उधर दक्षिण में चेन्नै की 35 वर्षीय मीरा अय्यर को काम के बाद जिन और टॉनिक में आजादी मिली. वे कहती हैं, “रात के खाने पर देर से आने के लिए कोई आपको जज नहीं करता. यह खामोश बगावत है- अप्रत्याशित, शांत और जरूरी.”

मगर बदलाव के साथ सावधानी भी जरूरी है. महिलाओं में मादक पदार्थों का सेवन बढ़ रहा है. विशेषज्ञ शराब की लत को लेकर आगाह करते हैं. इस परिघटना को ‘टेलीस्कोपिंग इफेक्ट’ कहा जाता है, जिसमें लत पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में ज्यादा तेजी से बढ़ती है. सेहत की परेशानियां- लीवर के मसले, डिपेंडेंसी, यहां तक कि कैंसर- भी जल्द उभर आता है.

पुणे की जनरल फिजीशियन डॉ आरती देशपांडे कहती हैं, “डॉक्टर होने के नाते मैं इसलिए चिंतित हूं क्योंकि महिलाओं में शराब पुरुषों के मुकाबले अलग ढंग से मेटाबोलाइज होती है. महिलाओं में कम मात्रा में सेवन करने पर भी लीवर की परेशानियों, हार्मोन के व्यवधानों और मानसिक सेहत के मसलों का ज्यादा जोखिम होता है. जो चीज भले सामान्य सोशल ड्रिंकिंग की तरह लगती हो, वह समय के साथ सेहत के गंभीर नतीजों की वजह बन सकती है.”

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने आगाह किया है कि शराब से जुड़ी नीतियां अक्सर लैंगिक फर्क को नजरअंदाज करती हैं, बावजूद इसके कि महिलाओं को कम मात्रा में सेवन करने पर भी कहीं ज्यादा स्वास्थ्य जोखिमों का सामना करना पड़ता है. उद्योग की लैंगिकता के हिसाब से तय की गई मार्केटिंग जोखिम की धारणाओं को बिगाड़ सकती है, जिसमें मीठे, ‘आरामदेह’ और ‘ताकतवर’ पेय महिलाओं को ध्यान में रखकर बेचे जाते हैं.

दिल्ली की थैरेपिस्ट डॉ मीनल सुरेश कहती हैं, “कई महिलाएं खासकर शहरी इलाकों में तनाव, थकान या अकेलेपन से निपटने के तंत्र के तौर पर शराब का सहारा ले रही हैं. कभी-कभार पीना भले हानिरहित लगता हो, पर यह भावनात्मक मुद्दों को छिपा सकता है और दूसरों पर निर्भरता की तरफ ले जा सकता है. हमें मानसिक सेहत के बारे में ज्यादा खुलकर बात करने की जरूरत है, न कि महज इसे सुन्न करने के लिए ज्यादा शराब पीने की.”

तिस पर भी जिम्मेदारी से चुस्कियां लेना अपनी जगह पाने की तरह लगता है- आराम के लिए, अपने लिए, कुछ पलों के विराम के लिए. बात सिर्फ बंधी-बधाई रूढ़ियां तोड़ने की नहीं है, बात चुनने का अपना अधिकार पाने की भी है. लेकिन इस चुनाव का जश्न मनाते हुए उद्योग और समाज को याद रखना चाहिए कि सशक्तिकरण केवल गुलाबी पैकेजिंग में ही नहीं आता. यह जागरूकता, संतुलन और सम्मान की बुनियादी पर किया जाता है.

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