नन्हे-मुन्ने जानवर पालने का शौक शहरी भारत से निकल इन्स्टाग्राम तक कैसे छाया!
संग-साथ का सुख देने के अलावा नन्हे-मुन्ने जानवर पालने का चलन सोशल मीडिया के तमाशे में भी खूब फल-फूल रहा है, ‘क्यूट’ कंटेंट पैदा कर रहा है, और युवा भारतीयों की जीवनशैली पर खासा फब भी रहा है

बेंगलुरू की आठ बरस की माही (बदला हुआ नाम) को अनोखा-सा बेहतरीन दोस्त मिल गया है. यह है चार इंच लंबा पालतू शुगर ग्लाइडर तोफू. रोज शाम वह उसे सेव की छोटी-छोटी फांकें खिलाती है और परदों व किताबों की आलमारियों के बीच उछल-कूद करते देखती है. यह नन्हा-सा ऑस्ट्रेलियाई धानीदार जानवर होमवर्क करते वक्त उसके कंधों से चिपका रहता है और उसकी हुडी में सिली गुदगुदी थैली में सो भी जाता है.
माही कहती है, “वह पालतू जानवर भर नहीं है, वह मेरा गुपचुप जिगरी भी है, मेरा जेबी दोस्त जो उड़ सकता है और मेरी बेवकूफी भरी कहानियां बड़े गौर से सुनता है.” उसके मम्मी-पापा का कहना है कि चुपचाप और नन्ही-नन्ही उछलकूद में बने उनके रिश्ते की बदौलत माही ज्यादा सहनशील और खुश रहती है.
पालतू जानवरों से भारत का प्यार-दुलार कुत्तों और बिल्लियों तक सिमटा नहीं रहा. अब यह माइक्रोपेट यानी नन्हे-मुन्ने पालतू जानवरों की दुनिया में कुलांचे भर रहा, कूदफांद कर रहा और चहचहा रहा है. बौने खरगोशों और चूहों सरीखे हैम्स्टर से लेकर विदेशी पक्षियों के बहुत छोटे रूपों, हेजहॉग, गरबिल, चिनचिला, पिग्मी चूहों, गेको, एनोल, अफ्रीकी बौने मेढ़कों, एक्जोलोटल, हर्मिट क्रैब, डेगू और ऑस्ट्रेलियाई शुगर ग्लाइडर तक नन्हे-नन्हे पालतू जानवर नया जुनून बन गए हैं.
ये बहुत छोटे संगी-साथी तो बन ही गए हैं, सोशल मीडिया के तमाशे में भी खूब फल-फूल रहे हैं. माइक्रोपेट अपार्टमेंट में अटने के लिहाज से ज्यादा माकूल होते हैं, ‘क्यूट’ कंटेट पैदा करते हैं, और युवा पेशेवरों की आकांक्षी जीवनशैली में खासे फबते भी हैं. माइक्रोइंफ्लुएंसर फैशन स्टोरी, कैफे विजिट और थीम पर बनी रीलों में पालतू जानवरों को टैग करते हैं, ताकि जरा-सी हुडी में हैम्स्टर, झालरों से सजी झूलती कुर्सियों पर तोते, बो-टाई पहने कछुए और टक्सीडो पहने बौने खरगोशों का बढ़-चढ़कर दिखावा कर सकें. स्पेशलिटी ब्रांड छोटे-छोटे जानवरों के लिए मिनिएचर कैरियर, कस्टम फूड मिक्स, पैडिक्योर किट, और यहां तक कि एलइडी लाइट से जगमगाते पिंजरों और रील-रेडी एनिमल सेल्फी के लिए कैमियो बैकग्राउंड से पूरी सजी-धजी ‘पेट इंफ्लुएंसर किट’ तक की पेशकश करते हैं.
मगर फैशन का काम से भी गहरा नाता है, इसीलिए हेजहॉग के लिए कूलिंग वेस्ट या ठंडा रखने वाली बनियान और शुगर ग्लाइडर के लिए हार्नेस या जीन जानवर पालने वाले संजीदा लोगों के बीच खूब लोकप्रिय हो रही हैं. आलोचक जानवरों के चैन-आराम को लेकर फिक्र जता रहे हैं, तो मुरीदों का कहना है कि नन्हे-मुन्ने जानवर पालने के चलन का मतलब आनंद, जुड़ाव और शेयर करने लायक दुलारापन है.
यह दुलारापन अलबत्ता सस्ता नहीं है. दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरू सरीखे महानगरों में ग्राहक एक मिनिएचर खरगोश के लिए 3,000 रुपए से 15,000 रुपए के बीच, हैम्स्टर या शुगर ग्लाइडर के लिए 1,500 रुपए से 15,000 रुपए के बीच, विदेशी पक्षियों या सरीसृपों के लिए 10,000 रुपए से 25,000 रुपए के बीच तक चुका रहे हैं. मिनी पिटबुल पिल्लों से लेकर दाढ़ीजार ड्रैगन, तोतों और मिनिएचर कछुओं तक वैराइटी भी बहुत ज्यादा है.
कुछ अनुमानों के मुताबिक भारत का लंबा-चौड़ा पेट-केयर बाजार 72 करोड़ डॉलर (6,300 करोड़ रुपए) का आंका जाता है. जानवर पालने की शहरी संस्कृति और इसकी खूबियों व खासियतों के बढ़ने के साथ 2032 तक इसके छलांग लगाकर 25 अरब डॉलर (2.18 लाख करोड़ रुपए) पर पहुंच जाने का अनुमान है. विदेशी/ छोटे पालतू जानवरों के सेग्मेंट के 2030 तक बढ़कर करीब 7.6 लाख डॉलर (665 करोड़ रुपए) पर पहुंच जाने की उम्मीद है, जो 2024 में 4.24 लाख करोड़ डॉलर (करीब 375 करोड़ रुपए) का था.
ऐसा नहीं है कि खरीदने के बाद चुनौतियां न आती हों. विशेषज्ञ आगाह करते हैं कि विदेशी पालतू जानवरों के रहने के लिए खास स्थान, गर्म रखने की व्यवस्था, खानपान की दिनचर्या और पशु चिकित्सकीय देखभाल की जरूरत होती है. मुंबई की 20 वर्षीय छात्रा भावना भंडाकर कहती हैं, “वे इतने भोले-भाले दिखते हैं, लेकिन मशीन की तरह हगते हैं. मैं दिन में पांच बार झाड़ू लगाती हूं और तब भी लगता है मानो मल का सीवेज टैंक फट गया हो.”
भावना की दोस्त और उन्हीं की तरह 20 वर्षीय अनन्या दास भी ऐसा ही अनुभव बताती हैं. वे कहती हैं, “कोई आपको यह नहीं बताता कि कछुए के मल से उल्टी में भीगे गीले मोजों सरीखी बदबू आती है. और टैंक साफ करने के लिए आपको कभी-कभी चिमटियों की जरूरत पड़ती है.”
पशुओं से पैदा होने वाले जोखिम, खासकर सरीसृपों या रेंगने वाले जानवरों से होने वाले जोखिम, बहुत ज्यादा सावधानी की मांग करते हैं. पुणे और दूसरे शहरों के कार्यकर्ताओं ने बताया है कि बीमारियां, इलाज के खर्च या पालतू जानवरों के अनुकूल रखने की जगह न होने की वजह से मॉनसून के महीनों के दौरान पालतू जानवरों को छोड़ने की घटनाओं में उछाल आ जाता है.
तिस पर भी भारत में नन्हे-मुन्ने जानवरों को पालने का चलन कुछ वक्त की सनक से कहीं ज्यादा है. इससे शहरी युवाओं की कम रखरखाव वाले संगी-साथी और इंस्टाग्राम पर डाले जा सकने वाले नए-नवेलेपन की चाहत झलकती है. मगर उमंग में आकर खरीद लेने से लेकर जिम्मेदारी के साथ उन्हें रखने और पालने का सफर आसान नहीं. उनके इलाज की खामियों, सलामती की चिंताओं और नियम-कायदों की कमियों की वजह से प्यारे पालतू जानवरों के लावारिस बोझ में बदल जाने का खतरा होता है.
विदेशी पालतू जानवरों का बाजार खूब फल-फूल रहा है, वहीं विशेषज्ञ खरीदारों से गुजारिश करते हैं कि प्यारे-प्यारे जीवों को सामाजिक शोहरत की खातिर खिलौनों की तरह नहीं बल्कि लंबे वक्त के वायदे की तरह रखें.