सूरज होगा मद्धम! ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने का यह तरीका कितना कारगर?

ग्लोबल वार्मिंग का हवाला देते हुए यूके की सरकार ने कुछ वैज्ञानिक प्रयोगों को मंजूरी दी है जिसमें सूरज की रोशनी को कम करने की बात की गई है

सूरज की रोशनी मद्धम करने के अपने जोखिम भी हैं/इलस्ट्रेशन - नीलिमा
सूरज की रोशनी मद्धम करने के अपने जोखिम भी हैं/इलस्ट्रेशन - नीलिमा

यूनाइटेड किंगडम की सरकार अगले कुछ हफ्तों में ऐसे प्रयोगों को मंजूरी देने जा रही है, जिनमें सूरज की रोशनी को कम करके ग्लोबल वॉर्मिंग पर लगाम लगाने की कोशिश होगी. डेली मेल की 17 जनवरी 2025 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इन प्रयोगों के लिए सरकार ने करीब 550 करोड़ रुपये का फंड रखा है.

सोलर जियोइंजीनियरिंग के इन प्रयोगों में सूरज की रोशनी को कम करने के साथ ही आसमान में एयरोसोल छिड़कने और समुद्री बादलों को चमकदार बनाने जैसे तरीके शामिल हैं. ये कदम पर्यावरण संकट से निपटने की नई दिशा दे सकते हैं, लेकिन इसके जोखिम भी कम नहीं.

क्या है सोलर जियोइंजीनियरिंग?

सोलर जियोइंजीनियरिंग एक ऐसी तकनीक है, जिसका मकसद सूरज की रोशनी का कुछ हिस्सा वापस अंतरिक्ष में भेजना है, ताकि धरती पर कम गर्मी पहुंचे. इसके दो मुख्य तरीके हैं:

1. स्ट्रैटोस्फेरिक एयरोसोल इंजेक्शन: इसमें हवाई जहाजों या गुब्बारों की मदद से सल्फर या कैल्शियम कार्बोनेट जैसे कण स्ट्रैटोस्फेयर (10-50 किमी ऊंचाई) में छिड़के जाते हैं. ये कण सूरज की रोशनी को रिफ्लेक्ट करते हैं, जिससे धरती ठंडी रहती है. द गार्जियन को दिए एक बयान में यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के प्रोफेसर जिम हेवुड बताते हैं, "प्रकृति हमें ये तरीका पहले ही दिखा चुकी है. ज्वालामुखी विस्फोटों से निकलने वाले सल्फर कण हवा को ठंडा करते हैं."

2. मरीन क्लाउड ब्राइटनिंग: इसमें सी-सॉल्ट के कण (समुद्र के पानी से निकला नमक जिसको प्रोसेस नहीं किया जाता) बादलों में छिड़के जाते हैं, जिससे बादल ज़्यादा चमकदार बनते हैं और सूरज की रोशनी को वापस अंतरिक्ष में भेजते हैं. टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट में यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के प्रोफेसर सारा डोहर्टी बताती हैं, "शिपिंग रूट्स पर प्रदूषण की वजह से बादल पहले से ही चमकदार हो रहे हैं. हम इसे कंट्रोल्ड तरीके से दोहराना चाहते हैं."

क्यों ज़रूरी है ये कदम?

ग्लोबल वॉर्मिंग या क्लाइमेट चेंज अब एक वैश्विक आपदा बन चुकी है. यूनाइटेड नेशंस की 2024 की क्लाइमेट रिपोर्ट के मुताबिक, अगर मौजूदा रफ्तार से कार्बन उत्सर्जन जारी रहा, तो साल 2100 तक धरती का तापमान 3.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है. इसका मतलब है बाढ़, सूखा, फसलों की बर्बादी, और समुद्र के बढ़ते जलस्तर से शहरों का डूबना आम मंजर बन जाएगा.

पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च के वैज्ञानिक जोहान रॉकस्ट्रॉम ने बीबीसी को 10 जनवरी 2025 को दिए एक इंटरव्यू में कहा, "पेरिस समझौते में तय किए 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य अब मुश्किल है. हमें उत्सर्जन कम करने के साथ-साथ वैकल्पिक तरीके भी आज़माने होंगे." पेरिस समझौते में वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य तय किया गया था.

सोलर जियोइंजीनियरिंग को वैज्ञानिक एक 'प्लान B' मान रहे हैं, क्योंकि कार्बन उत्सर्जन कम करने की रफ्तार धीमी है. डेली मेल की रिपोर्ट के अनुसार, यूके के ये प्रयोग छोटे पैमाने पर होंगे. इनमें हवाई जहाजों से सीमित मात्रा में एयरोसोल छिड़कना या सी-सॉल्ट के कण स्प्रे करना शामिल है. इनका मकसद डेटा जुटाना है, ताकि बड़े पैमाने पर लागू करने से पहले जोखिम समझे जा सकें. इन प्रयोगों को यूके की एडवांस्ड रिसर्च एंड इनोवेंशन एजेंसी (ARIA) लागू कर रही है. डेली मेल की रिपोर्ट में ARIA के प्रोग्राम डायरेक्टर प्रोफेसर मार्क सिम्स ने कहा, "हमें असल दुनिया में डेटा चाहिए. मॉडल्स से नहीं, बल्कि हकीकत में ये तरीके कितने कारगर हैं, ये जानना ज़रूरी है."

कहां से आया ये आइडिया?

सूरज को मद्धम या डिम करने का विचार प्रकृति से प्रेरित है. नेचर जर्नल में 2014 में छपी एक स्टडी में बताया गया कि आइसलैंड के ज्वालामुखी विस्फोट ने सल्फर डाइऑक्साइड के कण हवा में छोड़े, जिससे बादल चमकदार बने और धरती का तापमान थोड़ा कम हुआ. इंपीरियल कॉलेज लंदन के डॉ. सेबेस्टियन ईस्थम ने 2025 में टेलीग्राफ को दिए बयान में कहा, "जेट फ्यूल में सल्फर पहले से ही कूलिंग इफेक्ट देता है. हम इसे सही तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं."

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने 2017 में सोलर जियोइंजीनियरिंग रिसर्च प्रोग्राम शुरू किया. द गार्जियन की 2018 की एक रिपोर्ट में हार्वर्ड के प्रोफेसर डेविड कीथ ने बताया था, "हमने स्ट्रैटोस्फेयर में 1 किलो मटेरियल छिड़ककर टेस्टिंग की, ताकि जोखिम कम रहे." यूके अब इस दिशा में आगे बढ़ रहा है.

क्या हैं जोखिम?

सोलर जियोइंजीनियरिंग के फायदे जितने आकर्षक हैं, जोखिम भी उतने ही गंभीर हैं. ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइल्स एलन ने बीबीसी को 12 जनवरी 2025 को दिए एक बयान में चेतावनी दी थी, "इसे शुरू करना आसान है, लेकिन सुरक्षित बनाना दशकों ले सकता है. अगर प्रयोग अचानक बंद हुए, तो तापमान में अचानक उछाल आएगा, जो मौजूदा ग्लोबल वॉर्मिंग से ज़्यादा खतरनाक होगा."

नेचर जर्नल में 2018 में छपी एक स्टडी में भारत, बांग्लादेश, और ब्राज़ील के वैज्ञानिकों ने कहा कि सूरज को डिम करने से मॉनसून जैसे मौसमी पैटर्न बिगड़ सकते हैं. द हिंदू को 2023 में दिए एक बयान में आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर कृष्णा आचार्य ने बताया, "मॉनसून पर असर पड़ा, तो भारत जैसे देशों में खेती और खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है."

डेली मेल की 17 जनवरी 2025 की रिपोर्ट के मुताबिक, मेक्सिको ने 2023 में मेक सनसेट्स नाम की एक कंपनी पर बैन लगाया, क्योंकि उन्होंने बिना इजाज़त के ऐसे प्रयोग किए. इन प्रयोगों से सूखा, फसल खराब होना, और तूफानों का रास्ता बदलने जैसे खतरे हो सकते हैं.

तो आगे क्या होगा?

यूके के ये प्रयोग छोटे पैमाने पर होंगे, लेकिन अगर सफल रहे, तो इन्हें बड़े स्तर पर भी लागू किया जा सकता है. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगले दस साल में सोलर जियोइंजीनियरिंग पूरी तरह लागू हो सकती है.

सूरज की रोशनी कम करने का यूके का ये कदम ग्लोबल वॉर्मिंग से जंग में एक नया अध्याय हो सकता है. लेकिन वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं को इसके जोखिमों का सावधानी से आकलन करना होगा. द गार्जियन को 2025 में दिए एक बयान में हार्वर्ड के प्रोफेसर डेविड कीथ ने कहा, "ये कोई जादू की छड़ी नहीं, हमें इसे सावधानी से आज़माना होगा."

भारत के सूरत में हुए एमिशन ट्रेडिंग सिस्टम (ETS) के प्रयोग ने दिखाया कि सही नीतियां और तकनीक से बड़े बदलाव संभव हैं. इंडिया टुडे की पत्रकार जुमाना शाह की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सूरत में ETS ने प्रदूषण 20-30 प्रतिशत तक कम किया. सोलर जियोइंजीनियरिंग भी ऐसी ही उम्मीद जगाता है, लेकिन इसके जोखिमों पर गंभीर चर्चा ज़रूरी है.

ग्लोबल वॉर्मिंग एक ऐसी चुनौती है, जिसके लिए बड़े और बोल्ड कदम उठाने होंगे. सवाल ये है- क्या हम प्रकृति के साथ इतना बड़ा प्रयोग करने को तैयार हैं? इस सवाल का जवाब आने वाले सालों में मिलेगा.

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