ब्रह्मपुरी से इलाहाबाद, गया और अब गयाजी; नामकरण इस तीर्थ की कहानी का एक छोटा-सा अध्याय भर है!
यह कहानी एक ऐसे शहर की है जहां देश-दुनिया से पहुंचते हैं मोक्ष-कामी. जहां दैत्य भी संत हैं और सीता का शाप भी फलफूल रहा है. जहां की विलंबित ठुमरी में टपकता है श्रृंगार. जहां के तिलकुट और अनरसा देते हैं, दुनिया भर की नर्म-नाजुक मिठाईयों को चुनौती. फिर भी, न साफ पानी, न खुली सड़कें, न बेहतर आबोहवा. गया के नाम में जी लगाने से कितने बदलेंगे हालात?

लड़कपन की उम्र में एक मजेदार तुकबंदी हमारी जुबान पर चढ़ी रहती थी. ‘गया, गया, गया तो गया ही रह गया.’ लोग मतलब पूछते तो हम बताते, “गया नाम का लड़का, गया शहर गया तो गया ही रह गया.” मगर जब हम इस तुकबंदी को अपने घर ले आते तो नानी टोक देतीं. कहतीं, “गया नहीं, गयाजी कहते हैं बेटा, गयाजी.” अब जब बिहार सरकार ने गया का नाम गयाजी कर दिया तो सहज ही नानी की याद आनी थी.
गया उनकी निगाह में एक सम्मानित शहर था, जहां हिंदू अपने पुरखों को मोक्ष दिलाने जाया करते थे. उनका पिंड दान करते थे. मगर जब हम कहते कि नानी एक दिन हम भी गया जायेंगे, तो वे फिर रोकते हुए कहतीं, “अभी तुम्हारी कोई उमर हुई है गयाजी जाने की. जिनके मां-बाप जिंदा होते हैं, वे गया नहीं जाते.”
नानी जब बुजुर्ग हो गईं, तो एक दिन एक खबर के सिलसिले में हम गया गये. जब उन्हें खबर मिली कि हम गया आये हुए हैं, तो उन्होंने फोन करके कहा, “बौवा गयाजी तो चले गये लेकिन फल्गू नदी और विष्णुपद मंदिर की तरफ नहीं जाना.” मतलब यह कि गया हिंदुओं का एक पावन शहर तो है, इतना पावन शहर है कि इसे गयाजी भी कहते हैं. मगर वहां हर कोई मुंह उठाकर चला नहीं जा सकता. माता या पिता में से कोई एक गुजर गये तभी आप गया जाने के अधिकारी हैं.
वैसे भी सनातनी हिंदू गया तो दूर मगध जाना भी ठीक नहीं समझते थे. मगध उनके लिए एक वर्जित प्रदेश था, जहां व्रात्य रहते थे. इतना वर्जित कि मनु ने यह स्थापना दे रखी थी कि सनातनियों को नारायणी नदी(गंडक) को पार नहीं करना चाहिए, इसी तरह कर्मनाशा नदी को पार करना भी वर्जित माना जाता था. हालांकि मनु की बात कई लोगों ने मानी नहीं. पहले पार्श्वनाथ बनारस से मगध आये और जैनियों की श्वेतांबर परंपरा की शुरुआत की, फिर खुद गौतम बुद्ध मगध आये, इसी गयाजी के बगल में, नीलांजना नदी के किनारे, उरुवेला गांव के पास एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई. आज उस जगह को बोधगया कहते हैं, जहां पूरे एशिया से बौद्ध धर्मावलंबी आते हैं और बुद्ध की अराधना करते हैं.
गयाजी और बोधगया दोनों जुड़वा शहर हैं. एक शहर में हिंदू अपने परिजनों को मोक्ष दिलाने आते हैं, तो दूसरे शहर को लोग बुद्ध के ज्ञान की भूमि मानते हैं. गया के लोग कहते हैं, “एक मोक्षभूमि है तो दूसरी ज्ञानभूमि.” ज्ञान और मोक्ष का मुहावरा गया शहर में साथ-साथ चलता है.
हालांकि गया के साथ धार्मिक परंपरा से हटकर एक नया मुहावरा भी चलता है- "गया ऐसा शहर है, जहां बिना पानी की नदी है, बिना पेड़ के पहाड़ हैं और बिना बुद्धि का आदमी.” बिना पानी की नदी तो वही फल्गु थी, जो बोधगया में नीलांजना थी. मगर वह ऐसी नदी हुआ करती थी, जिसके पास जाकर बालू हटायें तो नीचे से पानी निकल आता था. वह उस देवी सीता के शाप से अंतःसलीला हो गई थी, जो अपने पति और देवर के साथ अपने ससुर दशरथ के पिंडदान के लिए गया आई थीं.
बिना पेड़ के पहाड़ तो खुद गयासुर हैं. एक दैत्य, जिसे वरदान मिला था कि वह जिसको देख लेगा वह मोक्ष प्राप्त कर लेगा. मगर उसके इस वरदान से स्वर्ग और नरक में भीड़ कम होने लगी तो ऊपरी दुनिया के लोगों ने विष्णु से शिकायत की. फिर जैसा कि भगवान विष्णु किया करते हैं, उन्होंने गयासुर को लिटाया इस बहाने से कि उनके पावन शरीर पर ऋषि यज्ञ करना चाहते हैं. फिर उनके शरीर को स्थिर किया. अब उन्हीं दैत्य, गयासुर का शरीर शिला बनकर गया शहर के तीन तरफ पसरा हुआ है. एक तरफ फल्गु बहती है. उसी दैत्य के शरीर रूपी शिलाओं पर धर्मशिला, प्रेतशिला और रामशिला जैसे कई के पर्वत शिखर हैं, जहां जाकर हिंदू आज पिंडदान करते हैं.
मगर यह क्यों कहते हैं कि यहां बिना बुद्धि का मनुष्य रहता है. गया तो ज्ञान की भूमि रही है! यहां-वहां भटकते गौतम को यहीं ज्ञान मिला था. फिर गया वालों के माथे यह दोष क्यों कि उनके माथे में कोई माथा नहीं. यह बात कभी समझ न आई. उसी तरह यह राज आज भी मेरे लिये राज है कि जब मेरी नानी खुद गया को गयाजी कहती थी. देश भर के श्रद्धालु गया को गयाजी ही कहते हैं, तो आखिरकार बिहार सरकार ने इसके लिए कैबिनेट बुलाने की जहमत क्यों उठा ली.
सुबह-सवेरे दामुल फिल्म के लेखक शैवाल से भी पूछा. वे खुद गयावासी हैं. कहने लगे, “नब्बे के दशक में मुंबई में मेरी मुलाकात नाना पाटेकर से हुई थी, नाना ने मुझसे कहा था, जब मुझे अपने माता-पिता का पिंडदान करना होगा मैं आपके शहर गयाजी आऊंगा शैवाल जी. गुजरात के लोग भी मुझे मिले, वे भी गया को गयाजी ही कहते थे.” एक मित्र ने हंसते हुए जरूर कहा, “अब एक बड़ा नुकसान जरूर हो गया है. नये बच्चे अब गया, गया, गया... नहीं कर पाएंगे.”
पुराणों से लेकर इतिहास तक कैसे बदला शहर का नाम
गया अजब सा नाम है. मगर क्या गया का नाम हमेशा से गया ही रहा है? यह बड़ा सवाल था मन में. फिर गया शहर के ही एक जानकार बुजुर्ग शिल्पी महेंद्र प्रसाद से बात हुई, जो गया के नाम के संधान में वेद-पुराण से लेकर बुकानन हेमिल्टन तक का साहित्य पलटते रहे हैं. उन्होंने कहा, “गया तो ब्रह्मा की नगरी थी. इसलिए पहले इसका नाम ब्रह्मापुरी था. मगर यहां राज करते थे, ब्रह्मा के पौत्र राजा गय. वे अलग थे, गयासुर अलग. तो खैर एक दिन जब ब्रह्माजी गया से विदा लेने लगे तो उनके पौत्र ने उनसे पूछा, आप जब यहां नहीं रहेंगे तो इस शहर का नाम क्या होगा? तो ब्रह्माजी ने कहा, अब यह तुम्हारे नाम से पुकारा जायेगा. इसे गयपुरी कहा जायेगा. तो फिर इस नगर का नाम गयपुरी हो गया, जो कालांतर में गयापुरी कहलाने लगा. इस तरह इसका असली नाम गयापुरी है, जो एक लंबे अरसे तक रहा.”
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, “फिर जब यहां बुद्ध को बोध (ज्ञान) प्राप्त हुआ तो उस जगह का नाम बोधगया हो गया, तो बौद्ध उस बोधगया को इस गयापुरी से अलग करने के लिए इसे ब्रह्मगया कहने लगे. फिर मुगल राज देश में कायम हुआ, इस जगह का नाम उन लोगों ने ‘इलाहाबाद’ रख दिया (बुकानन की रिपोर्ट में अल्लाहबाद लिखा है). शायद इसलिए कि यह ईश्वर या अल्लाह की नगरी थी. औरंगजेब के जमाने में इसका नाम फिर बदला गया और इसे आलमगीरपुरी कहा जाने लगा. मगर ये सब नाम चले नहीं, लोक मानस में गया नाम ही बरकरार रहा. अंग्रेज आये तो उन्होंने गया-तीर्थ को गया ही रहने दिया और बाहरी शहर को साहिबगंज कहने लगे. क्योंकि वहां साहब लोग रहते थे.”
इस तरह वैदिक काल से लेकर आज तक इस गयातीर्थ का नाम बदलता रहा, यह बदलाव कोई नया नहीं है. यह तो इसके नाम की कहानी है, अब काम की बात.
गया शहर जो अब गयाजी हो गया है, इसकी मुख्य पहचान पिंडदान करने-कराने वालों से है. पितृपक्ष में देश और परदेस से पिंडदानियों का जत्था यहां पहुंचता है. वैसे, आजकल कुछ लोग तो ऑनलाइन पिंडदान भी करने-कराने लगे हैं. वे आते हैं तो यहां के पंडे उन्हें अपनी वह खास बही भी दिखाते हैं, जिनमें उनके पुरखों के नाम दर्ज हैं. लोग अपनी वंशावली भी बनाकर जाते हैं. हिंदुओं में यह दिलचस्प चलन है कि किसी व्यक्ति को मोक्ष मिलेगा या नहीं, इसकी जिम्मेदारी उसके वंशजों पर होती है. वे अगर अपने पूर्वजों के प्रति सहृदय हैं तो गयातीर्थ आते हैं और यहां अपने पितरों का पिंडदान करते हैं. हालांकि कई लोग अपना पिंडदान खुद भी करते हैं.
शैवाल दा ने ही एक अनूठा किस्सा सुनाया, उस किस्से में एक नक्सली था, जो बाद में आध्यात्मिक होने लगा था. उसने जीते जी गया आकर अपना पिंडदान करा लिया था. उन्होंने इस सच्ची घटना पर एक कहानी भी लिखी. इसके अलावा पिछले कुछ सालों में यहां के पंडे भी युद्ध और किसी दूसरी आपदा में असमय मरने वालों का सामूहिक पिंडदान खुद कर दिया करते हैं, ताकि उन्हें भी मोक्ष मिल जाये.
आज भी विष्णुपद मंदिर के पीछे फल्गु के किनारे एक पेड़ पर असामयिक मरने वालों की तसवीर टंगी नजर आती हैं. माना जाता है कि यह वही विष्णुपद मंदिर है, जहां भगवान विष्णु ने गयासुर पर अपने पांव रखकर उन्हें स्थिर कर दिया था. इस मंदिर का जीर्णोद्धार मालवा की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था, वे अपने साथ पंडों को भी लेकर आई थीं, जो यहां बस गये. इन्हें गयावाल पंडा कहा जाता है.
किस्सा कुछ यूं है कि पहले गया पर धामी पंडों का राज था, आज भी ज्यादातर वेदियां इन्हीं पंडों के कब्जे में है. मगर गयावाल पंडे धीरे-धीरे शहर में पसरते गये, वेदियों पर उनका कब्जा बढ़ता गया. स्थानीय लोग कहते हैं कि धामी पंडे तीर्थ को कारोबार में बदलने का हुनर नहीं जानते थे, गयावाल इस काम में प्रवीण थे. इसलिए भले उनके पास आज भी कम वेदियां हैं, मगर उनकी वेदियां इतनी प्रचारित हो गई हैं कि लोग वहीं पहुंचते. लोग गयावालों के विष्णुपद पहुंचते हैं, धामियों के गदाधर मंदिर नहीं. जबकि स्थानीय लोग अभी भी मानते हैं कि गदाधर मंदिर ही प्रमुख है.
किस्सा यह भी है कि इन दोनों पंडा समुदायों में समय-समय पर विवाद होते रहे और फिर यह तय हुआ कि पितृपक्ष के आखिर में चढ़ावों का हिसाब होगा और चार आना गयावाल, बारह आना धामी पंडों का. यह हिसाब होता है, मगर सिर्फ रस्म अदायगी की तरह.
खैर यह तो हर तीर्थ की कहानी है. मगर इस कहानी के बीच गयासुर आज भी निर्लिप्त भाव से इस शहर पर पसरे हैं. शहर को हर तरह से जीवन प्रदान कर रहे हैं. वे असुर हैं, लेकिन उनके स्वभाव की तारीफें खूब होती हैं. वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक विकास कुमार झा ने गया शहर, पंडों का जीवन और गयासुर पर एक उपन्यास लिखा है, गयासुर संधान.
वे कहते हैं, “गयासुर अद्भुत दैत्य थे. जब विष्णु जी वे उसे स्थिर कर दिया तो गयासुर ने कहा, “नारायण आपने मुझे निश्चल कर दिया, मगर मुझे रोज एक मुंड और एक पिंड चाहिए. जिस रोज फांका होगा. मैं उठकर खड़ा हो जाऊंगा... मगर इतिहास गवाह है कि आज तक एक दिन फांका नहीं हुआ. इसलिए गयासुर का विशेष सम्मान है, इसके वे अधिकारी हैं.”
हालांकि गया में लोग सिर्फ पिंडदान के लिए नहीं आते, प्रायश्चित करने भी यहीं आते हैं. धर्म के लिहाज से कोई अपराध हुआ तो कहा जाता है कि गयाजी जाकर प्रायश्चित कर आईये. इसलिए इस शहर में पुण्यार्थी सैलानियों की भीड़ लगी रहती है. इन दिनों वैसे भी देश में धार्मिक पर्यटन का सेक्टर तेजी से उभरा है, संभवतः बिहार सरकार ने इसे भुनाने के लिए ही इसका नाम गयाजी रखा है.
सिर्फ तीर्थ नहीं है यह शहर
मगर गया पूरी पहचान इसका तीर्थ होना ही नहीं है. यहां संगीत और मूर्तिकला का भी काफी विकास हुआ. तिलकुट और अनरसा जैसी यहां की अलग किस्म की मिठाईयां भी काफी मशहूर हैं, जो देश के दूसरे इलाकों की नर्म नाजुक मिठाईयों से बिल्कुल अलग और देसी मिजाज की हैं.
यहां विलंबित लय में श्रृंगार रस की ठुमरी का घराना विकसित हुआ. यहां ढेला बाई जैसी गायिका अस्तित्व में आई, बहुत शुरुआती दौर में रिकार्डिंग के लिए जिन चंद आवाजों को मुफीद समझा गया, उनमें ढेला बाई थीं. संगीत के जानकार लेखक गजेंद्र नारायण सिंह ने अपनी किताब महफिल में लिखा है, “ठाकुर जयदेव सिंह ने एक बातचीत में कहा था, ‘मैंने अपने समय के अमूमन सभी गायकों-वादकों को सुना है, मगर उनमें मेरे पसंदीदा चार ही हैं. विष्णु दिगंबर पर्लुस्कर, अब्दुल करीम खां, ओंकारनाथ ठाकुर और ढेला बाई.’ उस जमाने में फल्गु नदी के उस पार प्रह्लाद खंडेलवाल के अमराइयों में सजने वाली संगीत की महफिलों की शान ढेला बाई हुआ करती थीं.”
हालांकि गया में संगीत परंपरा की शुरुआत और विकसित होने के पीछे भी इसके तीर्थ होने का हाथ रहा. पुराने जमाने में तीर्थ यात्री यहां हफ्तों ठहरते, संगीत उनके मन बहलाव का साधन होता. इसे विकसित करने में पंडा समाज के लोगों की बड़ी भूमिका रही.
मौजूदा वक्त के गया घराने के प्रसिद्ध गायक राजन सिजुआर कहते हैं, “तकरीबन सवा सौ साल पहले मेरी परदादी के पिताजी कन्हैयालाल भेड़ी जो खुद एक अनूठे संगीत वाद्य ‘इसराज’ को बजाते थे, राजस्थान से मशहूर इसराज वादक हनुमान दास को लेकर यहां आये. उनके पुत्र सोनी सिंह यहां की ठुमरी के मुख्य प्रवर्तक रहे. यहां के पंडे माधवलाल कटरवार संगीत प्रेमी और हारमोनियम वादक थे. उनके यहां जद्दन बाई यहां आकर रहा करती थीं. जिन्हें हम आज अभिनेत्री नर्गिस की मां के बतौर जानते हैं. यहां पन्नालाल बारीक जैसे मशहूर गायक हुए. गया के पास के गांव इश्वरीपुर में पाठक परिवार ने संगीत की अलग परंपरा विकसित की, उनका पखावज वादन आज भी मशहूर है. यहां संगीत की बैठकों में बेगम अख्तर, रसूल बीबी, इलाहाबाद वाली छप्पन छुरी, काशी बाई जैसे कलाकार आते. उनका कई-कई दिनों का कार्यक्रम होता है.”
सिजुआर बताते हैं कि गया की ठुमरी बहुत खास होती है. यह एक चैन की ठुमरी है जो विलंबित लय में गायी जाती हैं. इसमें श्रृंगार की प्रधानता होती है. ठुमरी के साथ-साथ यहां दादरा, चैती, कजरी, होरी जैसी उप शास्त्रीय विधाओं का भी अधिक प्रचलन रहा. वे यहां के हारमोनियम वादन की भी तारीफ करते हैं. कहते हैं, “यहां हारमोनियम की विशेष शैली विकसित हुई. जो काम सारंगी से किया जाता था, संगीतकारों ने उसे हारमोनियम से किया जाना संभव किया. बहुत दुर्लभ और कठिन लयकारियां और बंदिशें तैयार की.”
इसी गया के विष्णुपद मंदिर का जीर्णोद्धार कराने आईं अहिल्याबाई होल्कर अपने साथ तीन गौड़ ब्राह्मण परिवारों को लेकर यहां आई थीं, जो पत्थर को तराश कर मूर्तियां बनाने के हुनरमंद थे. इनके परिवार गया के पड़ोस में बस गये और आज उस गांव को पथरकट्टी के नाम से जाना जाता है. अब उन गांव में उन गौड़ ब्राह्मणों से सीख कर पांच सौ से अधिक परिवार संगतराश हो गये हैं.
हालांकि गया शहर में सबकुछ अच्छा-अच्छा ही नहीं है. इस शहर में जब hहली दफा गया तो एक परिचित ने साफ चेतावनी दे दी थी, “भूल से भी यहां का पानी नहीं पीइयेगा. अपना पानी साथ रखिये. हमलोग भी अपना पानी लेकर चलते हैं. यहां के पानी में फ्लोराइड इतना है कि आपकी हड्डियों को कमजोर और पेट को परेशान कर सकता है.” ज्यादा पुरानी बात नहीं है, आठ-दस साल पहले तक गर्मियों में आधा गया शहर पानी की तलाश में परेशान रहता खा. उसकी एक पॉश कॉलोनी लगभग खाली हो जाती थी.
दरअसल यह शहर तालाबों की परंपरा भूल गया था. वे तालाब जहां गयासुर के नाम वाली पहाड़ियों से बारिश के दिनों में पानी रिसता और तालाबों में जमा होता फिर वह पूरे शहर को सालो भर पानी पिलाता. मगर शहरीकरण की होड़ में लोगों ने तालाब भरने शुरू कर दिये तो वह उपाय ही नाकाम हो गया.
गया शहर के वासी और मुंगेर विश्विद्यालय के संस्थापक कुलपति रंजीत कुमार वर्मा कहते हैं, “एक जमाने में गया शहर में सैकड़ों तालाब हुआ करते थे. सौ साल पहले तक यह झीलों का शहर हुआ करता था. हमारे देखते-देखते इस शहर में पचास से अधिक तालाब भर दिये गये. अब तो मोहल्लों के नाम के पीछे ही तालाब और पोखर जुड़ा दिखता है. असल तालाब नहीं दिखते.”
तालाब खत्म हुए, जलसंकट बढ़ा तो फल्गु के किनारे सबमर्सिबल पंप लगाये गये और उस अंतःसलीला नदी के भीतर की पानी की एक-एक बूंद सोखकर इस्तेमाल की जाने लगी. फिर फल्गु अंतःसलीला भी नहीं रही. रेत हटाने पर भी पानी नहीं निकलता था. फिर सरकार ने वहां रबड़ डैम बनवाया और गंगा का पानी लिफ्ट कर उस गयातीर्थ में पहुंचाया गया, जहां गंगा वाले भी पुरखों को मोक्ष दिलाने कभी पहुंचा करते थे. मगर वह उपाय उल्टा पड़ गया. ठहरे हुए पानी में जब मोक्षकामी श्रद्धालु पिंड गिराने लगे तो वे सड़कर बदबू देने लगे. पूरा इलाका इतना बदबूदार हो गया कि वहां ठहरना मुश्किल हो गया है. फिर पंडों ने फल्गू के किनारे गायों को खड़ा करना शुरू किया, ताकि पानी में लोग पिंड न डालें. मगर हजारों किमी का सफर कर पूर्वजों को मोक्ष दिलाने पहुंचे श्रद्धालु मानते कहां थे.
गया की संस्कृति को समझने और वहां के जल संसाधनों पर काम करने वाली संस्था 'मगध जम जमात' से जुड़े रवींद्र पाठक कहते हैं, “एक जमाने में हमने भी तालाबों और नदी के किनारे ऐसी जगहें बनवाई थीं, जहां पिंड अर्पित किया जाता और फिर उसे लोग अपनी गायों को खिलाते. कुछ दिन चला, फिर सब पुराने ढर्रे पर आ गया. आखिर जब शास्त्रों में कहा गया है कि पिंड गायों और कौवों को भी खिला सकते हैं, तो फिर इन्हें जल स्रोतों में गिराने की कैसी जिद, यह तो नासमझी है.”
आज भी विष्णुपद मंदिर तक पहुंचने का रास्ता इतना संकरा है कि कार घुस जाये तो जाम लग जाता है. वहां पहुंचते ही पंडे सबसे पहले इस रास्ते को चौड़ा कराने की मांग करते हैं. पता नहीं गया के नाम में जी लगने के सम्मान से वे कितना संतुष्ट हुए होंगे!
सवाल सिर्फ गयाजी का नहीं है. बोधगया का भी है. जहां इस साल फरवरी महीने से बौद्ध धरने पर बैठे हैं. वे महाबोधि मंदिर पर सिर्फ बौद्धों का अधिकार चाहते हैं. अभी मंदिर कमिटी में आधे हिंदू और आधे बौद्ध सदस्य होते हैं. बोधगया में दुकानदार शॉपिंग काम्पलेक्स की मांग करते हैं, वे अब तक फूस और प्लास्टिक के शेड लगाकर कारोबार करते रहे हैं. वहां होटल वाले अलग परेशान हैं, उन्हें उन विदेशी धर्मशालाओं के स्पर्धा करनी होती है, जो अपने यहां होटल जैसी सुविधा देकर ज्यादातर सैलानियों को अपने पास बुला लेते हैं.
गया के सवाल कई हैं. नाम में जी लगाने से जी जुड़ा सकता है, सवाल नहीं सुलझेंगे. साहित्यकार संजय सहाय इसी गया शहर के रहने वाले हैं. वे कहते हैं, “गया का नाम बदलने से गया की तकलीफें कम थोड़ी हो जाएंगी. यहां की गंदगी, यहां की अव्यवस्था थोड़े कम हो जायेगी. पहले तो इसको दूर करने की जरूरत है. नाम बदलना तो बाद की चीज है.”
मगर फिर भी गया वालों का गया से प्रेम घटता कहां है. रंजीत कुमार वर्मा कहते हैं, “गया रहने के लिए पृथ्वी पर सर्वोत्तम स्थलों में से एक है. यहां न बाढ़ आती है, न भूकंप का खतरा है. साल भर में यहां रहने के लिए जरूरत से अधिक बारिश होती, भले हम इस पानी को सहेज नहीं पाते. इसलिए गया दुनिया के सबसे पुराने इलाकों में से एक है, जहां मानवों का निरंतर प्रवास होता रहा है. यह असल में ज्ञान की भूमि है और ज्ञानियों की भी.”