'एरोहेड' के एक आम बाघिन से रणथंभौर की रानी बनने की कहानी

एरोहेड में भी अपनी दादी मछली की तरह मगरमच्छों के शिकार की असामान्य क्षमता थी, 19 जून को रणथंभौर की इस प्रसिद्ध बाघिन की मौत हो गई

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एरोहेड (फोटो : रणथंभौर नेशनल पार्क)

मगरमच्छों का शिकार करने वाली 'लेडी' के रुप में प्रसिद्धि पाने वाली रणथंभौर की बाघिन ऐरोहेड साहस, शक्ति और मातृत्व की अनूठी गाथा रही है. यह अजब सा संयोग था कि अपनी बेटी कनकटी (टी 2507 ) के जुदा होने के कुछ पलों बाद ही एरोहेड जंगल की दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गई. 

14 फरवरी 2014 को ‘लेडी ऑफ द लेक’ कही जाने वाली ‘मछली’ की बेटी कृष्णा की कोख से जन्मी लेने वाली एरोहेड ने 19 जून 2025 को पदम तालाब के किनारे अंतिम सांस ली. एरोहेड को आखिरी बार पदम तालाब के किनारे ही देखा गया था. 

वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर सचिन राय ने 17 जून को पदम तालाब के किनारे कदम ताल करते हुए एरोहेड की आखिरी तस्वीर ली थी. हालांकि, तस्वीर और वीडियो में वह बहुत ही कमजोर नजर आ रही थी मगर चाल में रौब और रुआब अब भी कायम था.  

एरोहेड में भी अपनी दादी मछली की तरह मगरमच्छों के शिकार की असामान्य क्षमता थी. जिंदगी के अंतिम दिनों में जब वह बोन ट्यूमर से लड़ाई लड़ रही थी तब भी उसने पदम तालाब में मगरमच्छ का शिकार कर सभी को हैरान कर दिया था. जिस जंगल पर मछली ने कई साल तक राज किया, मछली की मौत के बाद एरोहेड रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान की रानी बन गई थी. 

एरोहेड का आखिरी दिन (फोटो साभार : सचिन राय)

एरोहेड का जीवन आसान नहीं था. उसे अपनी मां कृष्णा के क्षेत्र की विरासत को हासिल करने के लिए कई प्रतिद्वंद्वी नर बाघों और अपनी बेटी रिद्धि के साथ संघर्ष करना पड़ा. पिछले डेढ़ साल से वह हड्डी के कैंसर (बोन ट्यूमर) से जूझ रही थी. असाध्य बीमारी ने उसे शारीरिक रूप से कमजोर कर दिया था इसके बावजूद उसने न केवल अपने शावकों का पालन-पोषण किया बल्कि जंगल में अपनी शान बनाए रखी. 

एरोहेड की सबसे छोटी बेटी कांकती को उसकी मौत से चंद घंटे पहले ही मुकंदरा हिल्स टाइगर रिजर्व में शिफ्ट किया गया था. एरोहेड ने जब अंतिम सांस ली तो इस बाघिन से लगाव रखने वाले लोगों ने कहा कि शायद वह बेटी का बिछोह सहन नहीं कर पाई! रणथंभौर में दो लोगों पर हमला करने की वजह से कनकटी को अन्य जगह शिफ्ट किया गया. 

वन्यजीव विशेषज्ञों के मुताबिक कनकटी के आक्रामक होने की भी एक वजह थी. एरोहेड को बोन कैंसर था और इस दौरान शायद वो अपनी शावक कनकटी को स्वस्थ बाघिनों की तरह शिकार करना नहीं सिखा पाई. यही वजह है कि कनकटी आक्रामक होती चली गई. 

एरोहेड के बाएं गाल पर तीर का निशान होने के कारण पर्यटक और वन्य जीव विशेषज्ञ उसकी आसानी से पहचान कर पाते थे. इसी निशान की वजह से उसका नाम एरोहेड पड़ा. पर्यटकों के सामने एरोहेड हमेशा शांत रही. वह महज 11 साल ही जीवित रही मगर जंगल में एरोहेड ने अपना खूब प्रभाव छोड़ा. 

एरोहेड ने अपनी दादी मछली और मां कृष्णा की शिकारी प्रवृत्ति और राजसी अंदाज बखूबी आगे बढ़ाया. भारत सरकार ने मछली को लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा था. एरोहेड ने रणथंभौर के जोन 2,3,4 व 5, नाल घाटी, राजबाग झील और पदम तालाबा के आस पास अपना वर्चस्व कायम किया. उसे राजबाग झील इतनी पसंद थी कि मरने के बाद भी इसी झील के किनारे उसका अंतिम संस्कार किया गया. पूरे सम्मान के साथ रणथंभौर टाइगर अभयारण्य के अधिकारियों और वन्यजीव प्रेमियों ने उसे अंतिम विदाई दी. 

एरोहेड को अंतिम विदाई

एरोहेड ने रणथंभौर में बाघों के कुनबे को बढ़ाने में भी अहम योगदान दिया. उसने चार बार में 10 शावकों को जन्म दिया था. 2018 में उसके पहले दो शावक जीवित नहीं रहे, लेकिन 2019 में उसने दो मादा शावक रिद्धि (T-124) और सिद्धि (T-125) को जन्म दिया जो अभी रणथंभौर में रहती हैं. उसके अन्य शावकों को कैलादेवी, रामगढ़ विषधारी अभयारण्य और मुकंदरा हिल्स टाइगर रिजर्व में शिफ्ट किया गया है. रणथंभौर नेशनल पार्क अभी बाघों से आबाद है.  यहां अभी कुल 82 बाघ बताए जाते  हैं जिनमें इनमें 50 वयस्क बाघ-बाघिन और 32 शावक शामिल हैं. 

भारतीय वन सेवा के अधिकारी प्रवीण कस्वां ने एरोहेड की मृत्यु पर लिखा, ‘‘फिर किसी ने यूं जिंदगी की मिसाल दी, हाथ में मिट्टी ली और हवा में उछाल दी. एरोहेड की मौत का मतलब सिर्फ़ एक बाघिन का जाना नहीं है, ऐसा लग रहा है कि रणथंभौर में एक युग का अंत हो गया. वह जंगल की ऐसी रानी थी जिसकी ताकत और सुंदरता का हर कोई कायल था. उसकी शांत और शक्तिशाली उपस्थिति हमेशा उस जंगल में महसूस की जाएगी.’’ 

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