'फुले' पर ब्राह्मण संगठनों की क्या है आपत्ति और सेंसर बोर्ड को क्यों अखरा 'मनु' का जिक्र?
'फुले' की रिलीज पर ब्रेक: ब्राह्मण समुदाय के विरोध और सेंसर के कैंची के बाद क्या होगा अगला ट्विस्ट?

भारतीय सिनेमा में ऐतिहासिक और सामाजिक विषयों पर आधारित फिल्में हमेशा से दर्शकों के बीच चर्चा का विषय रही हैं. लेकिन जब ये फिल्में संवेदनशील मुद्दों को छूती हैं, तो कई बार विवादों का सामना करना पड़ता है.
ऐसा ही कुछ हुआ है अनंत महादेवन के निर्देशन में बनी फिल्म 'फुले' के साथ, जो समाज सुधारक ज्योतिराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के जीवन और संघर्ष पर आधारित है.
यह फिल्म 11 अप्रैल 2025 को सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली थी, लेकिन इससे ठीक एक दिन पहले इसे टाल दिया गया और अब यह 25 अप्रैल 2025 को सिनेमाघरों में आएगी. इस देरी के पीछे ब्राह्मण समुदाय की आपत्तियों और सेंसर बोर्ड के हस्तक्षेप को प्रमुख कारण माना जा रहा है.
क्यों है 'फुले' फिल्म की कहानी पर विवाद?
'फुले' एक बायोपिक ड्रामा है, जिसमें प्रतीक गांधी ने ज्योतिराव फुले और पत्रलेखा ने सावित्रीबाई फुले की भूमिका निभाई है. यह फिल्म 19वीं सदी के भारत में जाति और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ फुले दंपति के संघर्ष को दिखाती है. बीते 24 मार्च को इस फिल्म का ट्रेलर रिलीज हुआ था, जिसे दर्शकों और समीक्षकों ने खूब सराहा और वे इसकी रिलीज का इंतजार कर रहे थे. फिल्म को ज्योतिराव फुले की जयंती पर रिलीज करने की योजना थी, ताकि उनके योगदान को एक प्रतीकात्मक सम्मान दिया जा सके, लेकिन विवादों ने इस योजना पर पानी फेर दिया.
रिलीज में देरी का कारण ब्राह्मण समुदाय के कुछ संगठनों द्वारा उठाई गई आपत्तियां हैं. इंडिया टुडे की 10 अप्रैल 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र में ब्राह्मण संगठनों ने फिल्म में अपने समुदाय के चित्रण को लेकर नाराजगी जताई है. उनका दावा है कि फिल्म ब्राह्मणों को नकारात्मक रूप में दिखाती है और जातिवाद को बढ़ावा देती है. विशेष रूप से ट्रेलर में एक दृश्य ने विवाद को हवा दी, जिसमें ब्राह्मण लड़के सावित्रीबाई फुले पर कीचड़ या पत्थर फेंकते दिखाई देते हैं.
अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज और परशुराम आर्थिक विकास महामंडल जैसे संगठनों ने इस पर कड़ा ऐतराज जताया. ब्राह्मण फेडरेशन के अध्यक्ष आनंद दवे ने फिल्म को "एकतरफा" करार देते हुए कहा कि यह उन ब्राह्मणों के योगदान को नजरअंदाज करती है, जिन्होंने फुले के सुधार कार्यों का समर्थन किया था. उन्होंने मांग की कि फिल्म में ऐतिहासिक संतुलन बनाया जाए और उन प्रगतिशील ब्राह्मणों का उल्लेख किया जाए, जिन्होंने ज्योतिराव फुले के स्कूलों और सत्यशोधक समाज की स्थापना में मदद की.
सेंसर बोर्ड ने भी चलाई कैंची
विवाद के बाद केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) ने फिल्म पर कड़ा रुख अपनाया. सीबीएफसी ने फिल्म को 'U' सर्टिफिकेट तो दिया, लेकिन कई संशोधनों की शर्त रखी. बोर्ड ने फिल्म से जाति व्यवस्था से जुड़े एक वॉयसओवर को हटाने, साथ ही 'महार', 'मांग', 'पेशवाई', और 'मनु की जाति व्यवस्था' जैसे शब्दों को हटाने का निर्देश दिया, क्योंकि इन्हें संवेदनशील माना गया. इसके अलावा, कुछ दृश्यों और संवादों में बदलाव की मांग की गई ताकि फिल्म सभी दर्शकों के लिए उपयुक्त हो सके. इन बदलावों के बिना बोर्ड ने रिलीज की अनुमति देने से इनकार कर दिया, जिसके चलते निर्माताओं को रिलीज टालनी पड़ी.
निर्देशक अनंत महादेवन ने विवाद पर अपनी बात रखते हुए कहा, "ट्रेलर लॉन्च के बाद कुछ गलतफहमियां पैदा हुई हैं. हम इन शंकाओं को दूर करना चाहते हैं ताकि दर्शकों को परेशानी न हो." उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि फिल्म किसी समुदाय को निशाना बनाने के लिए नहीं बनी, बल्कि फुले दंपति के संघर्ष को सामने लाने के लिए है. महादेवन ने ब्राह्मण समुदाय के प्रतिनिधियों से मुलाकात की और बताया कि कुछ ब्राह्मणों ने ज्योतिराव फुले के 20 स्कूलों और सत्यशोधक समाज की स्थापना में सहयोग किया था. उन्होंने जोर देकर कहा कि फिल्म तथ्यों पर आधारित है और इसमें कोई छिपा एजेंडा नहीं है.
इस बीच, फिल्म के निर्माताओं ने सीबीएफसी को ऐतिहासिक दस्तावेज सौंपे हैं ताकि फिल्म में दिखाए गए तथ्यों को सत्यापित किया जा सके. हालांकि, रिलीज से पहले फिल्म को विरोधी संगठनों को दिखाने से महादेवन ने इनकार कर दिया. उन्होंने कहा, "यह ऐसा होगा जैसे हम फिल्म को जायज ठहरा रहे हों. अगर आपने गलती नहीं की, तो जायज ठहराने की जरूरत नहीं. वे रिलीज के बाद फिल्म देख सकते हैं."
विवाद के बीच राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एसपी) के विधायक और पूर्व मंत्री जितेंद्र आव्हाड ने फिल्म का समर्थन किया. उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, "इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता, उससे केवल सीखा जा सकता है. फिल्म में जो दिखाया गया है, वह ऐतिहासिक सत्य है—सत्य को नकारा या बदला नहीं जा सकता." उन्होंने यह भी कहा कि फुले के समर्थकों का उल्लेख होना चाहिए, लेकिन महत्वपूर्ण तथ्यों को हटाना फिल्म के उद्देश्य को कमजोर करेगा. दूसरी ओर, कुछ संगठनों ने इसे जातिगत तनाव बढ़ाने वाला कदम बताया.
'फुले' की नई तारीख 25 अप्रैल पर अन्य फिल्मों से टक्कर हो सकती है, जिससे इसकी कमाई प्रभावित हो सकती है.
'फुले' की रिलीज में देरी सिनेमाई स्वतंत्रता और सामाजिक संवेदनशीलता के बीच की जटिल बहस को फिर से उजागर करती है. ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले की कहानी को पर्दे पर लाना एक हिम्मत भरी कोशिश है, लेकिन इसके साथ आने वाली चुनौतियां भी कम नहीं हैं. अब यह देखना बाकी है कि निर्माता और निर्देशक इस विवाद को कैसे सुलझाते हैं और क्या फिल्म अपने मूल संदेश के साथ दर्शकों तक पहुंच पाती है.